हिन्दी कथा-साहित्य

इस इकाई में हिन्दी कथा-साहित्य की चर्चा की गई है तथा विभिन्न आंदोलनों से संबंधित कहानी एवं उपन्यास साहित्य का परिचय दिया गया है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • हिन्दी कहानी और उपन्यास के विकास को बता सकेंगे,
  • बदलते हुए सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो में हिन्दी कहानी और उपन्यास की वस्तु,
  • संरचना और दृष्टि में उपस्थित परिवर्तनों का उल्लेख कर सकेंगे,
  • समय-समय पर हिन्दी कहानी में जो आन्दोलन हुए हैं, उनके महत्व और वैशिष्ट्य को रेखांकित कर सकेंगे,
  • समकालीन हिन्दी कहानी और उपन्यास की दशा और दिशा को समझ सकेंगे,
  • हिन्दी कहानी और उपन्यास में चित्रित दलित चेतना पर प्रकाश डाल सकेंगे, और
  • हिन्दी कहानी और उपन्यास की शिल्पगत विशेषताओं को बता सकेंगे।

प्रस्तुत इकाई में आधुनिक हिन्दी गद्य की दो प्रमुख विधाओं – कहानी और उपन्यास – के विकास पर समालोचनात्मक प्रकाश डाला जा रहा है इससे आप हिन्दी कहानी और उपन्यास के विकास को समझ सकेंगे। सबसे पहले आपको यह समझ लेना चाहिए कि कहानी और उपन्यास से संबंधित साहित्य को सम्मिलित रूप में कथा-साहित्य कहा जाता है। ये दोनों गद्य की दो महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय विधाएँ हैं और इनका विकास आधुनिक काल में हुआ है। ये विधाएँ संवेदना, कथ्य, शिल्प और संचेतना की दृष्टि से प्राचीन भारतीय कथा और आख्यायिका की परम्परा से भिन्न तथा आधुनिकता की चेतना से सम्पन्न हैं। इनके विकास और प्रवृत्ति को निरूपित करते समय यथास्थान इन तथ्यों पर चर्चा की जाएगी। इस संबंध में आपके लिए यह जानना जरूरी है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजी सभ्यता, शिक्षा एवं साहित्य के प्रसार, भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष और विभिन्न सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हिन्दी साहित्य-जगत में व्यापक परिवर्तन हुआ।

भारतेन्तु युग में हिन्दी नयी चाल में ढली, ब्रजभाषा का स्थान खड़ी बोली ने ले लिया, पद्य के साथ-साथ गद्य रचना की प्रवृत्ति विकसित ही नहीं हुई अपितु वह इतनी प्रबल एवं प्रमुख हुई कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल को ‘गद्य-काल’ की संज्ञा भी देनी पड़ी। आधुनिक काल में गद्य के आविर्भाव को शुक्ल जी ने एक साहित्यिक घटना कहा है और रेखांकित किया है कि इस काल में साहित्य के भीतर जितनी अनेकरूपता का विकास हुआ है उतनी अनेकरूपता का विधान कभी नहीं हुआ था।’ उल्लेखनीय है कि इसके पहले पद्य की प्रधानता थी। आदिकाल से लेकर रीतिकाल तक का समूचा हिन्दी साहित्य-पद्य साहित्य ही है। आधुनिक काल में सशक्त विचाराभिव्यक्ति के लिए गद्य का सहारा तो लिया ही गया, उसके अनेक रूपों को भी विकसित किया गया जिनमें निबंध, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र आदि उल्लेखनीय हैं ।

यद्यपि हिन्दी कहानी और उपन्यास का विकास आधुनिक काल में ही हुआ, किन्तु दोनों के विकास की गति और रीति थोड़ी-बहुत भिन्नता लिए हुए है, इसलिए इनके विकास को पृथक रूप से समझना ही उचित एवं लाभप्रद है। अत: आगे हम आपको पहले हिन्दी कहानी और उसके बाद हिन्दी उपन्यास के विकास से अवगत कराएँगे।

हिन्दी कहानी

हिन्दी कहानी की अब तक की विकास-यात्रा लगभग सौ वर्षों की ऐसी यात्रा है जिसमें जल्दी-जल्दी नये परिवर्तन होते रहे हैं। उसकी विकास-गति तीव्र और अपने समय-संदर्भो से घनिष्ठ रूप से जुड़ी रही है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि हिन्दी कहानी ने बहुत कम समय में एक श्रेष्ठ साहित्यिक विधा का रूप प्राप्त कर लिया। इसका प्रमुख कारण यह है कि आरंभ में ही कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपनी प्रतिभा से उसे (हिन्दी कहानी) प्रारंभिक दौर की लड़खड़ाहट और अनगढ़पन से मुक्त कर दिया। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की उसने कहा था कहानी की गणना हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में होती है। यह कहानी सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी। मधुरेश ने लिखा है – ‘उसने कहा था’ वस्तुत: हिन्दी की पहली कहानी है, जो शिल्प विधान की दृष्टि से हिन्दी कहानी को एक झटके में प्रौढ़ बना देती है।’ प्रेम, बलिदान और कर्तव्य की भावना से अनुप्राणित तमाम कहानियाँ लिखी गई हैं किन्तु यह कहानी अपनी मार्मिकता और सघन गठन के कारण आज भी अद्वितीय बनी हुई है। हिन्दी कहानी के उदयकाल में ही ऐसी श्रेष्ठ रचना का प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण घटना है। इसने आगे के कहानीकारों के लिए उत्कृष्ट कहानी की रचना के लिए एक चुनौती प्रस्तुत कर दी। कहना न होगा कि परवर्ती कथाकारों ने उस चुनौती को स्वीकार किया जिसके फलस्वरूप हिन्दी कहानी का विकास बड़ी ही तेजी से हुआ।

हिन्दी कहानी के समूचे विकास-क्रम को हम निम्नलिखित उपशीर्षकों के अन्तर्गत समझने का प्रयत्न करेंगे :

  1. आरंभिक हिन्दी कहानी
  2. प्रेमचंदयुगीन हिन्दी कहानी
  3. प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी
  4. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी
  5. समकालीन हिन्दी कहानी।

आरंभिक हिन्दी कहानी

आरंभिक हिन्दी कहानी पर प्रकाश डालने से पूर्व इस पर विचार कर लेना अपेक्षित है कि हिन्दी कहानी का आरंभ कब से हुआ? सामान्यतया सभी इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि ‘सरस्वती’ पत्रिका (सन् 1900) के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी कहानी का भी उदय हुआ। आरंभ में ‘सरस्वती’ में जो कहानियाँ प्रकाशित हुईं उनमें किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ जैसी वर्णनात्मक, केशवप्रसाद सिंह की ‘आपत्तियों का पहाड़’ जैसी स्वप्न-कल्पनाओं से भरपूर रोमांचक, कार्तिकप्रसाद खत्री की दामोदर राव की आत्म-कहानी’ जैसी आत्मकथात्मक और पार्वतीनंदन की प्रेम की फुआरा’ जैसी घटना-प्रधान सामाजिक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। लेकिन डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल ने इन कहानियों को हिन्दी की मौलिक कहानी मानने से इनकार किया है, किन्तु वे यह तो स्वीकार करते हैं कि इन कहानियों की प्रेरणा और भावशक्ति के फलस्वरूप ‘सरस्वती’ के तीसरे वर्ष में मौलिक हिन्दी कहानी का आरंभ हुआ। वे शिल्पविधि की दृष्टि से रामचन्द्र शुक्ल की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (सन् 1903) को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मानते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘इन्दुमती’ (किशोरीलाल गोस्वामी), ‘गुलबहार’ (किशोरीलाल गोस्वामी), प्लेग की । चुडैल’ (मास्टर भगवानदास), ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (रामचंद्र शुक्ल), पंडित और पंडितानी’ (गिरिजादत्त वाजपेयी) और ‘दुलाई वाली’ (बंग महिला) को सामने रखकर हिन्दी की पहली मौलिक कहानी का निर्णय किया है। ये कहानियाँ क्रमश: 1900 ई०, 1902 ई०, 1903 ई०, 1903 ई० और 1907 ई० में लिखी गई । इन पर विचार करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है – ‘इनमें यदि मार्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुनें तो तीन मिलती हैं – ‘इन्दुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाई वाली’ । ‘इन्दुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरान्त ‘ग्यारह वर्ष का समय’, फिर ‘दुलाई वाली’ का नम्बर आता है।’

आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी की पहली मौलिक कहानी को ढूँढने के क्रम में काफी अनुसंधान हुआ। ‘इन्दुमती’ को शेक्सपीयर के ‘टेम्पेस्ट’ की छाया कहकर विद्वानों ने उसे मौलिक कहानी के दायरे से बाहर कर दिया। देवीप्रसाद वर्मा ने सन् 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में छपी माधव सप्रे की कहानी एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी सिद्ध किया। उसके बाद डॉ० बच्चन सिंह ने सन् 1976 में ‘सारिका’ पत्रिका में हिन्दी की पहली मौलिक कहानी के रूप में किशोरीलाल गोस्वामी की ही एक दूसरी कहानी ‘प्रणयिनी परिणय’ को अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित कराया। यह कहानी सन् 1887 में लिखी गई थी। अभी तक आलोचकों ने डॉ० बच्चन सिंह की इस स्थापना का खण्डन नहीं किया है। ऐसी स्थिति में यह माना जा सकता है कि हिन्दी कहानी की विकास-यात्रा सन् 1887 से शुरू हुई। वैसे ‘प्रणयिनी परिणय’ में वह आधुनिक चेतना और संवेदना नहीं है जिसकी वजह से हिन्दी कहानी आधुनिक विधा के रूप में जानी-पहचानी जाती है।

यदि हम कहानी की जीवनावधि को अधिक लम्बी सिद्ध करने के लिए थोथी माथापच्ची न करें तो यह स्वीकार करने में कोई विशेष हानि नहीं है कि हिन्दी कहानी की विकास-यात्रा ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही शुरू हुई और वह उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर चलती गई। इसी पत्रिका के माध्यम से किशोरीलाल गोस्वामी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बंग महिला, वृन्दावन लाल वर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा -कौशिक, प्रेमचंद प्रभृति महत्वपूर्ण कहानीकार प्रकाश में आये । गुलेरी जी की अमर कहानी ‘उसने कहा था’ सन् 1915 में और मुंशी प्रेमचंद की पंच परमेश्वर’ कहानी सन् 1916 में इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित कुछ कहानियों और उसके पूर्व लिखी गई कहानियों को ‘आरंभिक हिन्दी कहानी,’ ‘प्राचीन हिन्दी कहानी’ या प्रमचंद पूर्व हिन्दी कहानी’ की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसी कहानियों में भारतेन्दु के पूर्व लिखी गई प्रमसागर’ (लल्लू लाल), ‘नासिकेतोपाख्यान’ (सदल मिश्र), ‘रानी केतकी की कहानी’ (सैयद इंशा अल्ला खाँ) तथा ‘सरस्वती’ पत्रिका के आरंभिक दो वर्षों में प्रकाशित कहानियों को। परिगणित किया जा सकता है। प्रारंभिक काल के कहानी-साहित्य की अपरिपक्वता, शिथिलता, स्फीति आदि को लक्ष्य करके कुछ विद्वानों ने इन्हें हिन्दी कहानी के ‘बाल्यकाल का साहित्य’ या शैशवकाल का साहित्य’ कहा है।

प्रारंभिक हिन्दी कहानी के कथानक स्थूल, विवरणात्मक और घटनाओं के कुतूहलपूर्ण चमत्कार पर ही आधारित हैं। यह विशेषता ‘प्रेमसागर’, ‘नासिकेतोपाख्यान’ और ‘रानी केतकी की कहानी’ में ही नहीं, किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’, रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ में भी मौजूद है।

भगवानदास की प्लेग की चुडैल’, केशवप्रसाद सिंह की ‘चन्द्रलोक की यात्रा’, गिरिजादत्त वाजपेयी की पति का पवित्र प्रेम’ जैसी कहानियों में वर्णनात्मकता, स्थूलता, घटनात्मकता, आकस्मिकता और कुतूहलपूर्णता चरम रूप में विद्यमान है। भारतेन्दु युग के कुछ कहानीकारों की कहानियों में निबन्धात्मकता, उपदेशात्मकता और अद्भुत रस की प्रधानता है। तात्पर्य यह कि भाषा, शिल्प, संवदेना, उद्देश्य, शैली आदि सभी दृष्टियों से विचार करने पर प्रारंभिक हिन्दी कहानियों में पर्याप्त कच्चापन दिखाई पड़ता है। उन कहानियों पर भारत के प्राचीन कथा-साहित्य और लोककथा-साहित्य का गहरा प्रभाव है।

लाला पार्वतीनंदन की प्रेम की फुआरा’, ‘भूतों वाली हवेली’, ‘जीवनाग्नि’, ‘नरक’, ‘गुलजार’ आदि कहानियों पर यह प्रभाव काफी स्पष्ट है। रहस्य, रोमांच, कौतुक, जिज्ञासा, अतिरंजना और उपदेश से भरी प्रारंभिक हिन्दी कहानी परवर्ती कहानी की आधुनिकता और शिल्प-सौष्ठव के समक्ष बहुत पुरानी और बचकानी लगती है।

प्रेमचंदयुगीन हिन्दी कहानी

यदि हम ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि 1900 ई० तक हिन्दी कहानी का निजी रूप बहुत नहीं उभर सका था। इससे पूर्व की कहानियाँ साधारण, अनगढ़, संस्कृत के कथा और पुराण-साहित्य से अनुप्राणित तथा रहस्य-रोमांच से भरी थीं। उनमें आकस्मिकता और संयोग तत्व की प्रधानता थी। जीवन-यथार्थ के कठोरं साक्षात्कार से रहित उन कहानियों में आदर्श और कल्पना का ऐसा लोक था जो विस्मय-विमुग्ध करके आनंदित तो करता था किन्तु पाठक में संघर्ष-चेतना को उद्दीप्त करने में असमर्थ था। प्रेमचंद के । आगमन से हिन्दी कहानी को एक नई दिशा एवं दृष्टि मिली। यद्यपि वे सन् 1907 से ही उर्दू में कहानियाँ लिखने लगे थे, किन्तु सन् 1916 में जब उनकी पंच परमेश्वर’ कहानी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई, तब से वे हिन्दी कथा-क्षेत्र के महत्वपूर्ण लेखक के रूप में न केवल जाने-पहचाने गये, बल्कि उनसे हिन्दी कहानी को एक नई दिशा मिली। उन्होंने हिन्दी के प्राचीन कथा-शिल्प को तोड़कर युगानुरूप उसे नया रूप-रंग प्रदान किया। अब तक कहानी में कुतूहल, रोमांचकता और मनोरंजकता की प्रधानता थी, अब हिन्दी कहानी मनुष्य के यथार्थ से जुड़ गई।

प्रेमचंद ने पहली बार कहानी को ‘मनोवैज्ञानिक विश्लेषण’, ‘जीवन के यथार्थ चित्रण’ और ‘स्वाभाविक वर्णन’ से जोड़ने और कल्पना की मात्रा कम करने’ का आग्रह किया। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर मानवीय संवेदना और हिन्दी कथा-संसार से देवता, राजा और ईश्वर को अपदस्थ करके दीन, दलित, शोषित प्रताड़ित मनुष्य को नायक के पद पर प्रतिष्ठित किया। यह उनका युगान्तरकारी कार्य था, इसलिए उनके समय को हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है। इसे हम हिन्दी कथा साहित्य का वास्तविक विकास-युग’ भी कह सकते हैं। इसी युग में कहानी को स्वतंत्र व्यक्तित्व मिला और अनेक ऐसी कहानियों का सृजन हुआ जो अन्य भाषाओं की कहानियों की तुलना में खड़ी होने की सामर्थ्य भी रखती हैं।

प्रेमचंद एक सजग कहानीकार थे। उन्होंने अपने युग को अपने संस्कारों में ढालकर प्रस्तुत किया।। प्रेमचंद-युग का साहित्य प्रथम विश्व-युद्ध के बाद का साहित्य है। यह युग भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष का भी स्वर्ण-काल है। इसी समय स्वाधीनता-संघर्ष का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आया, जिनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विचारों और कार्यकलापों का गहरा प्रभाव उस समय के लेखकों पर पड़ा। आरंभ में प्रेमचंद ने गांधी के प्रभावस्वरूप आदर्शवादी और सुधारवादी कहानियाँ लिखीं जिनमें देश-भक्ति के साथ-साथ आदर्श, नैतिकता, मर्यादा, कर्तव्यपरायणता आदि का स्वर काफी ऊँचा है। ‘सौत’, ‘पंचपरमेश्वर’, ‘विचित्र होली’, ‘आहुति’, ‘जुलूस’, ‘सत्याग्रह’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, नमक का दारोगा’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘अलग्योझा’, आदि अनेक कहानियाँ प्रेमचंद की उपर्युक्त कथा-प्रवृत्ति को समझने में सहायक है।

प्रेमचंद का कहानी-लेखन सन् 1916 से सन् 1936 तक के बीच सम्पन्न हुआ ऐसा लेखन है जिसमें युग के समानान्तर चलने और युग की गति को समझने और बदलने की तीव्र आकांक्षा दिखाई पड़ती है। उनके इस लेखन में बराबर परिवर्तन और विकास होता रहा है। उन्होंने अपनी कथा-संचेतना और कहानी-कला को बराबर विकसित किया है। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं। ये कहानियाँ अपने रूप-रंग में प्रेमचंद के कथा-शिल्प के क्रमिक विकास को संजोए हुए हैं। इनमें हम आसानी से देख सकते हैं कि जो प्रेमचंद आरंभ में देश के सुधारवादी आंदोलनों के प्रभाव में हल्के-फुल्के आदर्शवाद और सुधारवाद को ध्यान में रखकर सरल और हृदय परिवर्तनवादी कहानियाँ लिख रहे थे, उन्होंने ही आगे चलकर जटिल और क्रूर यथार्थ वाली कहानियाँ लिखीं। उनकी ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘मुक्तिमार्ग’, ‘पूस की रात’, ‘सद्गति’, ‘बाबा जी का भोग’, ‘कफन’ जैसी अनेक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं।

प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ और समस्याओं का चित्रण करके केवल कहानी के कथानक में परिवर्तन नहीं किया बल्कि उसे यथार्थ शिल्प भी प्रदान किया। उनकी कहानियों में कथानक की जो सघन अन्विति, सहज प्रवाह, चरमसीमा में मार्मिकता, चित्रण की यथार्थता, भाषा की सादगी और अभिव्यक्ति में पैनापन है, वह बहुत कम कहानीकारों में दिखाई पड़ता है। उनकी कहानियों में शिल्प के स्तर पर साधारण और असाधारण का सुखद संयोग हुआ है।

प्रेमचंद की तरह सामाजिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर कहानी लिखने वालों में सुदर्शन, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, भगवती प्रसाद वाजपेयी, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कौशिक की ‘ताई’, ‘रक्षाबंधन’, ‘विधवा’, ‘इक्केवाला’, सुदर्शन की हार की जीत’, ‘सूरदास’, ‘हरफेर’, भगवती प्रसाद वाजपेयी की निंदिया लागी’, ‘मिठाई वाला’ आदि कहानियाँ उल्लेखनीय हैं किन्तु इन कहानीकारों ने सामाजिक यथार्थ के चित्रण में न तो प्रेमचंद जैसी सिद्धता हासिल की है और न ही उनकी जैसी व्यापक मानवीय संवेदना उभारने में सफलता प्राप्त की है, फिर भी इनकी कलात्मक उपलब्धि उल्लेखनीय है। सुदर्शन की ‘हार की जीत’, कौशिक की ‘ताई’, भगवती प्रसाद वाजपेयी की निंदिया लागी’ जैसी कहानियों ने अपने मार्मिक संवेदना, मानव-हृदय की सच्ची अभिव्यक्ति और मनोवैज्ञानिक चित्रण के कारण पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी है।

‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के लगभग 9 वर्ष बाद जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा से एक दूसरी पत्रिका प्रकाशित हुई – ‘इन्दु’ । ‘प्रसाद’ जी की पहली कहानी ‘ग्राम’ इसी पत्रिका में छपी। इस पत्रिका के माध्यम से भी अनेक श्रेष्ठ कहानीकार प्रकाश में आये, जिनमें जी० पी० श्रीवास्तव और राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं। ‘सरस्वती’ और ‘इन्द’ पत्रिकाओं ने हिन्दी कहानी के विकास में पर्याप्त योग दिया बल्कि कहना चाहिए कि यदि इनका सहयोग न मिला होता तो आज शायद हिन्दी कहानी की स्थिति कुछ और ही होती।

हिन्दी कहानी के विकास में प्रेमचंद की ही तरह जयशंकर प्रसाद का योगदान भी उल्लेखनीय है। प्रसाद जी कवि पहले हैं, कहानीकार बाद में। परिणामत: उन्होंने ऐसी कहानियों की रचना की जिनमें भावुकता, कल्पनाप्रवणता और काव्यात्मकता की प्रधानता है। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और इतिहास के उन स्वर्णिम अध्यायों को भी फिर से प्रकाशित किया जिनमें देशप्रेम, आत्मगौरव, आदर्श, प्रेम और कर्तव्य की मार्मिक झाँकी अंकित है। अतीत के गौरव-गान के द्वारा प्रसाद जी ने प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष को काफी बल प्रदान किया। इस दृष्टि से उनकी दवरथ’, ‘सालवती’, ‘पुरस्कार’, ‘सिकन्दर की शपथ’, ‘चित्तौड़ का उद्धार’ जैसी कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। प्रसाद जी की ऐतिहासिक इतिवृत्त पर लिखी गई ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जो प्रेमभावना के विभिन्न रूपों को उद्घाटित करती हैं जैसे ‘तानसेन’, ‘रसिया बालम’, ‘गुलाम’, ‘जहाँआरा’, ‘मदन-मृणालिनी’ आदि।

प्रसाद जी मूलत: प्रेम और सौन्दर्य के रचनाकार हैं। यह उनकी विशिष्टता भी और एक हद तक सीमा भी। उनकी यह विशिष्टता उनकी कहानियों में भी मौजूद है। प्रसाद जी की प्रकृति अन्तर्मुखी थी, जिसके कारण उनकी अधिकांश कहानियों में व्यक्तिवादी रचना-दृष्टि दिखाई पड़ती है, किन्तु उनकी अनेक कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनमें सामाजिक-राजनीतिक चिन्ताओं और समस्याओं की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से हुई है। ‘बिसाती’, ‘मधुआ’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रसाद जी ने सामान्य जन के प्रति भी अपना गहरा राग प्रदर्शित किया है। ‘मधुआ’ कहानी उनकी अनुपम रचना है। यह प्रेमचंद की सामाजिक कहानियों के बीच स्थान पाने के योग्य है।

प्रसाद और प्रेमचंद एक ही युग के रचनाकार होते हुए भी अपनी प्रेरणा, भावना और रचना-दृष्टि के धरातल पर एक-दूसरे से काफी भिन्न थे। एक तरह से दोनों ने हिन्दी कहानी में दो समामान्तर धाराओं को विकसित किया – एक थी प्रेमचंद की समाजपरक यथार्थवादी धारा, दूसरी थी प्रसाद की भाववादी व्यक्तिवादी धारा; किन्तु इन दोनों धाराओं को विरोधी धाराएँ न मानकर परस्पर पूरक और सहयोगी धाराएँ मानना चाहिए। दोनों ने अपने समय के समाज को अपने-अपने ढंग से जगाने और आगे ले चलने का कार्य किया।

जिस तरह प्रेमचंद की समाजपरक यथार्थवादी धारा में अनेक कहानीकारों ने रचनात्मक योगदान किया, उसी तरह प्रसाद की भाववादी धारा को भी चंडीप्रसाद हृदयेश’, रामकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक, मोहनलाल महतो, विनोदशंकर व्यास, चतुरसेन शास्त्री ने अपनी कहानियों से गति प्रदान की। इन कहानीकारों ने ‘प्रसाद’ जैसी भावप्रधान कहानियों की रचना की, आदर्श और रोमांस की आवेगमयी अभिव्यक्ति की, किन्तु ये प्रसाद की काव्यात्मक ऊँचाई, दार्शनिक गूढ़ता और भाषा की प्रांजलता का पूरा-पूरा निर्वाह न कर सके।

प्रेमचंद-युग में ही पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ एक ऐसे कहानीकार थे जो उपर्युक्त धाराओं में से किसी से भी जुड़े हुए नहीं थे। उन्होंने स्वतंत्र रूप से साहित्य-साधना की और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। ‘उग्र’ ने अपने को हिन्दी के प्रथम राजनीतिक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने उसकी माँ’, ‘दोजख की आग’, ‘चिन्गारी’, ‘बलात्कार’, ‘भुनगा’ आदि कहानियों की रचना करके राजनीतिक एवं सामाजिक यथार्थ का प्रकृत रूप प्रस्तुत किया जिसके लिए उनकी कटु आलोचना भी हुई। लोगों ने उनके साहित्य को ‘अश्लील’ और उन्हें ‘घासलेटी साहित्यकार’ भी कहा किन्तु ‘उग्र’ ने इस सब की परवाह न करते हुए सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर करारा व्यंग्य किया, उसकी कुरीतियों-त्रुटियों को बड़े साहस के साथ प्रकाशित किया। उन्होंने अपने सहज व्यंग्य से हिन्दी कहानी की भाषा को धार और सजीवता प्रदान की।

हिन्दु-मुस्लिम एकता, विधवा की स्थिति, अवैध संतान, वेश्या-वृत्ति और व्यभिचार आदि पर ‘उग्र’ ने बेबाकी के साथ लिखा है। इसी से उन्हें प्रकृतवादी कथाकार कहा गया लेकिन कुछ आलोचकों का मानना है कि ‘उग्र’ प्रकृतवादी लेखक नहीं हैं बल्कि वे आलोचनात्मक यथार्थवाद का मार्ग प्रशस्त करने वाले क्रांतिकारी एवं साहसी लेखक हैं।

प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी

प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी में यथार्थ चित्रण की जो नींव डाली थी, आगे चलकर उसका अनेकायामी प्रसार हुआ जिसके फलस्वरूप हिन्दी कहानी को यशपाल जैसे मार्क्सवादी और प्रगतिशील, इलाचंद्र जोशी, जैनेन्द्र और अज्ञेय जैसे मनोविश्लेषक कहानीकार प्राप्त हुए। इस तरह प्रेमचंद के समय से ही चली आ रही समाजवादी और व्यक्तिवादी धारा का यहाँ मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद के आलोक में नया विकास हुआ। इन धाराओं से जुड़े रचनाकारों की प्रतिबद्धताएँ और मान्यताएँ इतनी स्पष्ट और दृढ़ रही हैं कि उन्हें केवल ‘यथार्थवाद’ की सीमा में लाकर एक नहीं कहा जा सकता है। कुछ लोगों को इन धाराओं की पृथकता भले ही एक तरह का सरलीकरण प्रतीत हो किन्तु वास्तविकता यह है कि यशपाल और जैनेन्द्र को एक साथ रखकर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।

यशपाल प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाले उल्लेखनीय कहानीकार हैं। उन्होंने सामाजिक शोषण, दरिद्रता, नग्नता, अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न आदि को अपनी कहानियों का विषय बनाया और हमारे सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के संघर्षों, मूल्यों, मर्यादाओं एवं नैतिकता के खोखलेपन को उद्घाटित किया। उन्होंने कर्मफल’, ‘फूल की चोरी’, ‘चार आने’, ‘पुनियाँ की होली’, ‘आदमी का बच्चा’, ‘परदा’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘धर्मरक्षा’, ‘करवा का व्रत’, ‘पतिव्रता’ आदि कहानियों में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता के दोषों, तज्जनित परिणामों और कुरीतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति की। यशपाल ने मर्यादा, धर्म और नैतिकता के थोथेपन पर तीव्र आघात किया और उसके विरुद्ध अपने पात्रों में संघर्ष-चेतना जाग्रत की। उनकी कहानियों में व्यंग्य का स्वर मुखरित हुआ, कहानी-कला में स्थूल समाज-चित्रण के स्थान पर उसके मार्मिक एवं सांकेतिक उद्घाटन की कला का विकास हुआ, कहानी की स्थूलता समाप्त हुई और उसे सूक्ष्म संगठित व्यक्तिवाद प्राप्त हुआ।

यशपाल की इस मार्क्सवादी यथार्थवादी कलादृष्टि को प्रश्रय देने वाले कहानीकारों में रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त, नागार्जुन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने शोषण, अन्याय और पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष-भाव को प्रेरित करने वाली कहानियाँ लिखीं। रांगेय राघव ने राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष, बंगाल का अकाल, देश-विभाजन, साम्प्रदायिक विद्वेष, मजदूरों की देशव्यापी हड़तालों, गोलीकांड, बेरोजगारी और भुखमरी आदि को विषय बनाकर जो कहानियाँ लिखीं, वे उनकी सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता का पता देती हैं। उनकी उल्लेखनीय कहानियों में ‘गदल’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘मृगतृष्णा’, ‘कुत्ते की दुम शैतान’ का नाम लिया जा सकता है।

भैरव प्रसाद गुप्त ने भी यथार्थवादी सोच एवं मार्क्सवादी चेतना के तहत ग्रामीण एवं शहरी परिवेश वाली कहानियाँ लिखी हैं । ‘सपने का अंत’, ‘सिविल लाइन का कमरा’, ‘फंदा’, ‘इंसान और मक्खियाँ’, ‘एसी आजादी रोज-रोज’ उनकी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं । गुप्त जी का रचनाकाल आजादी के बाद तक फैला हुआ है। उनकी अधिकांश कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर भारत का जीवन चित्रित हुआ है।

इसी समय जैनेन्द्र और इलाचन्द्र जोशी ने मनोवैज्ञानिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर अपनी कहानियों में मानव-मन को चित्रित किया और उसकी अतल गहराइयों में डूबकर उसके अन्त:सत्य को उद्घाटित किया । इन कहानीकारों पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का गहरा प्रभाव है। इलाचंद्र जोशी की कहानियाँ तो फ्रायड के सिद्धान्त का साहित्यिक रूपान्तरण प्रतीत होती हैं। उनकी कहानियों में मनुष्य की दमित वासनाओं, इच्छाओं, रुग्ण मनोवृत्तियों, अहंकार, आत्मरति, ईर्ष्या, अंधविश्वास आदि का सूक्ष्म, प्रतीकात्मक और सांकेतिक अंकन हुआ है। जोशी जी का विचार है कि मनुष्य का असली रूप उसके भीतर – मन में – विद्यमान है अत: उसके अन्तर्मन की परतों को उधेड़कर ही उसे जाना जा सकता है।

अपनी इस धारणा के तहत उन्होंने रोगी’, ‘परित्यक्ता’, ‘खण्डहर की आत्माएँ’, ‘दुष्कर्मी’, ‘बदला’ जैसी कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों से जोशी जी ने जिस मनुष्य को रूपायित किया वह काफी रुग्ण, आत्मसीमित, कुंठित और अपराधी है। जोशी की कहानियों में आन्तरिक यथार्थ के चित्रण पर बल देने के कारण भाषा-शैली में व्यापक परिवर्तन परिलक्षित हुआ। उनकी भाषा जटिल मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति के लिए, जटिल और दुर्बोध हुई, उसकी लयात्मकता और मिठास गायब हो गई और शैली में प्रतीकात्मकता और व्यंजकता का समावेश हुआ।

जैनेन्द्र भी मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित करने वाले कहानीकार हैं किन्तु उनकी दृष्टि सिद्धान्तबद्ध और संकुचित नहीं है। उन्होंने व्यावहारिक मनोविज्ञान का सहारा लिया है, मनोवैज्ञानिक युक्तियों का । नहीं। ‘पत्नी’, ‘पाजेब’, ‘जाह्नवी’, ‘ग्रामोफोन का रिकार्ड’, ‘एक गो’ जैसी कहानियों में केवल – मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ नहीं हैं बल्कि उनमें गहरी मानवीय संवदेना और वास्तविकता भी है। जैनेन्द्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण स्वस्थ एवं स्वच्छ है, उसमें विश्वसनीयता और आत्मीयता है। वे हिन्दी के पहले ऐसे कहानीकार हैं जिसने हिन्दी कहानी को घटना-वर्णन के घेरे से निकालकर पूरी तरह चरित्र- प्रधान बनाया। जैनेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए समाज की कुरीतियों और कुसंस्कारों से लड़ने के लिए विद्रोह-भाव भी पैदा किया। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि व्यंग्य, विद्रोह का स्वर जैनेन्द्र आदि मनोविश्लेषणवादी कहानीकारों में भी है और यशपाल जैसे मार्क्सवादी लेखक में भी, किन्तु दोनों में पर्याप्त भिन्नता है। यशपाल में संघर्ष चेतना खुली हुई, प्रखर और मार्क्सवादी आधार लिए हुए है और जैनेन्द्र आदि की विद्रोह भावना अन्तर्ग्रथित और मनोविश्लेषणपरक है जिसमें कहीं न कहीं संघर्ष से पलायन या अत्याचार सहते रहने की मूकपीड़ा भी विद्यमान है।

अज्ञेय इस परम्परा के तीसरे महत्वपूर्ण कहानीकार हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक पकड़ के साथ चिन्तन की गहराई और सूक्ष्मता है जो कभी-कभी दार्शनिक ऊँचाई भी प्राप्त कर लेती है। उन पर सार्च आदि । अस्तित्ववादी चिन्तकों का भी गहरा प्रभाव है। अज्ञेय की कहानियाँ पाठक को झकझोरती, उबुद्ध करती और उसकी अपनी पहचान बनाने के लिए तैयार करती हैं। ‘जयदोल’, ‘कोठरी की बात’, ‘रोज’, परम्परा’, ‘द्रोही’, ‘शरणदाता’, ‘विपथगा’ आदि कहानियाँ उनके गूढ़ चिन्तन, मनोवैज्ञानिक चित्रण और वेद्रोही स्वभाव का परिचय देने में सक्षम हैं।

मार्क्सवादी एवं मनोविश्लेषणवादी कहानीकारों के बीच कुछ ऐसे भी कहानीकार थे जिनकी अपनी स्वतंत्र यह थी जैसे भगवती चरण वर्मा और उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ । भगवती चरण वर्मा ने ‘दो बाँके’, ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’, ‘प्रायश्चित’, ‘इन्सटालमेंट’, ‘दो पहलू’ जैसी व्यंग्यप्रधान कहानियों की रचना करके अपने समय के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन की भूलों-त्रुटियों की जमकर खिल्ली उड़ाई। ‘अश्क’ ने ‘वह मेरी मंगेतर थी’, ‘काले साहब’, ‘कांकड़ा का तेली’, ‘बैगन का पौधा’, ‘पिंजरा’ जैसी कहानियों के माध्यम से सामाजिक यथार्थ की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की, साथ ही आदर्श और यथार्थ की एक साथ व्यंजना करके प्रगतिशील जीवन-दृष्टि को प्रस्तुत करने का कार्य किया लेकिन उनके पास न तो यशपाल की तरह समृद्ध राजनीतिक चेतना थी, न ही अज्ञेय या जैनेन्द्र की तरह मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के प्रति वैसा आग्रह। वे इन दोनों धाराओं के बीच झूलते रहे। इन्हीं कहानीकारों के साथ छायावाद के महत्वपूर्ण कवियों – महादेवी वर्मा, निराला, पंत – ने भी कहानियाँ लिखीं जिनमें निराला की ही कहानियाँ अपनी प्रगतिशील चेतना के कारण चर्चा के योग्य बन सकीं। महादेवी वर्मा की कहानियों ने संस्मरण और रेखाचित्र का रूप ग्रहण कर लिया।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी

प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी के कई रचनाकार स्वातंत्र्योत्तर काल में भी रचनारत रहे और उन्होंने हिन्दी कहानी को नई गति और दिशा देने में अपना रचनात्मक सहयोग भी दिया किन्तु सन् 1947 में आजाद । हुए भारत में कहानीकारों की जो नई पीढ़ी तैयार हुई उसने हिन्दी कहानी के वस्तु, शिल्प और संचेतना में व्यापक परिवर्तन उपस्थित कर दिया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से अब तक हिन्दी कहानी का त्वरित एवं अनेकायामी विकास हुआ है; कई छोटे-बड़े कहानी-आंदोलनों के बीच से गुजरती हुई हिन्दी कहानी आज जिस मुकाम पर पहुँची है, उसे देखते हुए कहना पड़ता है कि स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी अपने समय और समाज के साथ चलती हुई निरन्तर अपने को नये रूप-रंग में ढालती रही है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी में कई आंदोलन चले।

‘नयी कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘अकहानी’, ‘सहज कहानी’, ‘सक्रिय कहानी’, ‘समान्तर कहानी’ और ‘जनवादी कहानी’ के नाम से समय-समय पर उठने वाले कहानी-आंदोलनों ने हिन्दी कहानी को नई समृद्धि, दृष्टि और कलात्मक ऊँचाई भी दी है और संकीर्णताओं, अविचारित आग्रहों और स्वार्थों के कारण उसे क्षति भी पहुँचाई है। इन सब बातों का लेखा-जोखा इन कहानी-आंदोलनों के स्वतंत्र विवेचन के आधार पर ही किया जा सकता है।

नयी कहानी : आन्दोलन की शुरुआत

स्वतंत्रता-प्राप्ति तक हिन्दी में कोई कहानी-आंदोलन नहीं चला था । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘नयी कहानी के रूप में एक ऐसा कहानी-आंदोलन चला जिसने कहानी के पारंपरिक प्रतिमानों को नकार दिया और अपने मूल्यांकन के लिए नई कसौटियाँ निर्धारित की।

जाहिर है कि स्वतंत्रता मिल जाने पर भारतीय मानस में एक नयी चेतना, नये विश्वास और नयी आशा-आकांक्षा का जन्म हुआ। उसे एक बदला हुआ यथार्थ मिला जिसने सामाजिक संबंधों, मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को नया संदर्भ प्रदान किया। ‘नयी कहानी’ के आन्दोलनकारियों ने, जिसमें राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के नाम प्रमुख हैं – इस बदले हुए यथार्थ और नये अनुभव-संबंधों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति पर बल दिया। नये कहानीकारों ने परिवेश की विश्वसनीयता’, ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘अभिव्यक्ति की ईमानदारी’ का प्रश्न उठाया और आग्रह किया कि ‘नयी कहानी’ अपने युग-सत्य से सीधे जुड़ी हुई है जिसका मूल उद्देश्य है पाठक को उसके समकालीन यथार्थ से यथार्थ रूप में परिचित कराना।

फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, अमरकान्त, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, मन्नू भण्डारी, शानी, ऊषा प्रियंवदा, हरिशंकर परसाई, शैलेश मटियानी जैसे कहानीकारों ने अपने युगीन यथार्थ की मार्मिक एवं प्रामाणिक अभिव्यक्ति करके ‘नयी कहानी’ के आन्दोलन को तीव्र किया। राजेन्द्र यादव ने ‘एक दुनिया : समानान्तर’ नामक पुस्तक का संपादन करके ‘नयी कहानी’ का एक प्रामाणिक संग्रह प्रस्तुत किया। इस संग्रह में जो कहानियाँ संकलित की गई हैं उनके नाम हैं – ‘जिन्दगी और जोंक’ (अमरकान्त), ‘मछलियाँ’ (ऊषा प्रियंवदा), ‘मेरा दुश्मन’ (कृष्ण बलदेव वैद), ‘बादलों के घेरे’ (कृष्णा सोबती), ‘खोयी हुई दिशाएँ, (कमलेश्वर), ‘गुलकी बन्नो’ (धर्मवीर भारती), परिन्दे’ (निर्मल वर्मा), ‘सामान’ (प्रयाग शुक्ल), तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुल्फाम’ (फणीश्वरनाथ रेणु), ‘चीफ की दावत’ (भीष्म साहनी), ‘सही सच है’ (मन्नू भण्डारी), ‘दूध और दवा’ (मार्कण्डेय), एक और जिन्दगी’ (मोहन राकेश), ‘विजेता’ (रघुवीर सहाय), ‘शबरी’ (रमेश बक्षी), ‘टूटना’ (राजेन्द्र यादव), सेलर’ (राम कुमार). ‘एक नाव के यात्री’ (शानी), ‘नन्हों’ (शिव प्रसाद सिंह), ‘बदबू’ (शेखर जोशी), प्रेतमुक्ति’ (शैलेशा मटियानी), ‘भोलाराम का जीव’ (हरिशंकर परसाई)। इस सूची से यह सहज रूप से जाना जा सकता है कि ‘नयी कहानी’ के आन्दोलन के साथ कई बड़े हस्ताक्षर प्रकाश में आये।

आगे चलकर उनमें से अनेक ने अपने विशिष्ट रचना-शिल्प के आधार पर अपनी अलग पहचान बनाई. जैसे रेणु’ को आंचलिक कथाकार के रूप में ख्याति मिली तो अमरकान्त मध्यवर्ग के दुःख-सुख, शोषण-अन्याय के मार्मिक कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हए, और निर्मल वर्मा शहरी जीवन के अकेलेपन, ऊब, संत्रास और कुंठा को विशिष्ट गद्य में रचने वाले अनूठे कहानीकार प्रमाणित हुए।

‘नयी कहानी’ के साथ जुड़ा ‘नयी’ शब्द पहले की कहानी से मात्र पार्थक्य स्पष्ट करने के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ, बल्कि उसके पीछे कहानी की नयी संवेदना, नयी दृष्टि और नये रूपबंध को रेखांकित करने की भावना थी । सन् 1950 के बाद देश विकास की ओर अग्रसर होता प्रतीत हुआ। अनेक नये विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना हुई, सड़कों, पुलों और परिवहन की नई सुविधाओं का विकास हुआ, अनेक नये विभागों का निर्माण हुआ, देश के त्वरित एवं सर्वांगीण विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं, औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण की गति तीव्र हुई, समाज में स्त्री-पुरुष को शिक्षा और नौकरी के लिए समान अवसर उपलब्ध हुए, घर की चहारदीवारी में बन्द स्त्री कार्यालयों में काम करने के लिए उन्मुक्त हुई। इन सब स्थितियों से भारतीय जीवनधारा में एक नयी हलचल और गति का समावेश हुआ। यह प्रभाव और परिवर्तन वैसे तो हर क्षेत्र और हर वर्ग पर पड़ा लेकिन भारतीय समाज का मध्यवर्ग इससे सीधे और गहराई तक प्रभावित हुआ। स्वतंत्रता के मिल जाने से सामाजिक जिन्दगी में काफी उथल-पुथल हुई, पुराने रिश्ते-नाते टूटे-बिखरे, परिवार का परम्परागत ढाँचा जो प्रेमचंद के समय से ही चरमरा रहा था, बुरी तरह बिखर गया।

स्त्री-पुरुष की स्थिति और संबंधों में परिवर्तन आया, स्वतंत्रता ने युगों से दलित स्त्री को पुरुष की ही भाँति खाने-कमाने की आजादी दी, समाज के विभिन्न वर्गों में नयी चेतना विकसित हुई, अब तक जो दलित-शोषित था उसे सिर उठाकर चलने का वातावरण मिला और सरकार बनाने में उसे भी बराबर का मताधिकार मिला । ‘नयी कहानी’ ने इन सारे परिवर्तित-विघटित होते हुए संबंधों एवं मूल्यों को बड़ी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाया। महानगरीय, कस्बाई एवं ग्रामीण जीवन-बोध, यथार्थ-चित्रण, ऐतिहासिक मोहभंग, मध्यवर्गीय जीवन का मार्मिक अंकन, सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों के बिखराव और निर्मिति की सही पहचान, नवीन भाषा-शिल्प आदि नयी कहानी की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। मोहन राकेश ने ‘मलबे का मालिक’, ‘मिसपाल’, ‘आर्द्रा’, राजेन्द्र यादव ने ‘खेल खिलौने’, ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, कमलेश्वर ने ‘राजा निरबंसिया’, ‘दिल्ली में एक मौत’, ऊषा प्रियंवदा ने ‘वापसी’, भीष्म साहनी ने चीफ की दावत’ जैसी कहानियों को लिखकर स्वातंत्र्योत्तर भारत के नगरीय जीवनबोध को ईमानदारी के साथ चित्रित किया। रेणु’ जैसे रचनाकारों ने ‘तीसरी कसम’, ‘लालपान की बेगम’, ‘रसप्रिया’ जैसी कहानियों के माध्यम से अंचल विशेष की आशा-आकांक्षा और व्यथा-कथा को नये भाषा-शिल्प में प्रस्तुत करके आंचलिक कथा-लेखन का मार्ग प्रशस्त किया।

‘नयी कहानी’ में स्थूल कथानकों के स्थान पर सूक्ष्म कथा-तन्तुओं को प्रधानता मिली, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और बिम्बात्मकता का प्राधान्य हुआ। नये कहानीकारों ने कहानी का नया आलोचना-शास्त्र तैयार करने की पहल की, और नामवर सिंह ने ‘कहानी : नयी कहानी’ पुस्तक के माध्यम से ‘नयी कहानी’ के मूल्यांकन की कसौटियों को रेखांकित किया। हिन्दी की समूची कहानी-यात्रा में ‘नयी कहानी’ का आन्दोलन सशक्त और प्रभावशाली आन्दोलन रहा है।

सचेतन कहानी, अकहानी और सहज कहानी

सन् 1950 के आस-पास ‘नयी कहानी’ नये मूल्यों, नये जीवन-बोध, नये शिल्प और नये अनुभव-संसार की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करने का जो संकल्प लेकर चली, वह सन् 1960 तक आते-आते पुराना पड़ गया और यह कहानी भी अपनी रूढ़ियों में फंसकर एक प्रकार से निस्तेज हो गयी। इसका एक कारण यह भी था कि ‘नयी कहानी’ स्वतंत्रता-प्राप्ति के जिस नये वातावरण में नयी चुनौतियों के बीच पनपी थी, वे । समाप्त हो गयीं और देश तथा समाज आपनी असफलताओं, कमियों और असमर्थताओं का बुरी तरह शिकार हो गया। स्वतंत्रता-प्राप्ति को लेकर उसके मन में जो सपने थे, वे सातवें दशक के आरंभिक वर्षों में ही चकनाचूर हो गये, पंचवर्षीय योजनाओं और पंचशील सिद्धान्तों का अपेक्षित फल नहीं मिला। एक प्रकार से जनता को ऐतिहासिक मोहभंग की पीड़ा झेलनी पड़ी। राजनीतिक उठा-पटक, दलबन्दी, नये-नये दलों का ! निर्माण, दलों का टूटना-बिखरना, राजनीतिक आदर्शों-मर्यादाओं का छिन्न-भिन्न होना आदि जो राजनीतिक परिदृश्य सामने आया, उसने साहित्य-जगत् को भी प्रभावित किया।

साहित्यकारों में भी आनन-फानन में चर्चित-प्रतिष्ठित हो जाने और उसके लिए अपना एक नया शिविर बना लेने या तोड़फोड़ करके नया साहित्यिक दल गठित कर लेने की प्रवृत्ति बलवती हो उठी। इस सबके चलते सातवें दशक में हिन्दी कहानी में दो-तीन वर्षों के अंतराल पर और कभी-कभी समानान्तर छोटे-मोटे कहानी-आन्दोलन शुरू हुए। इतना अवश्य है कि इन आन्दोलनों के बीच से हिन्दी को कुछ अच्छे कहानीकार भी प्राप्त हुए।

सचेतन कहानी

‘नयी कहानी’ की आत्मपरकता और रूपवादी प्रवृत्ति के विरोध में सचेतन कहानी’ का आन्दोलन चलाया डॉ० महीप सिंह ने। सन् 1964 में उन्होंने ‘आधार’ पत्रिका का ‘सचेतन कहानी विशेषांक’ निकाला जिसमें उन्होंने लिखा – ‘सचेतनता एक दृष्टि है जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है।  सचेतनता जीवन की उस सक्रियता की बोधक है जिसमें मनुष्य को सर्वांग और संपूर्ण रूप में देखने की भावना को दरसाने की भरसक कोशिश होती है।’ इस प्रकार ‘सचेतन कहानी’ सक्रिय भाव-बोध । की कहानी है। इसका संबंध जर्मनी के ‘एक्टिविस्ट मूवमेण्ट’ से भी है। डॉ० महीप सिंह के अनुसार – सचेतन दृष्टि आधुनिक दृष्टि है और आधुनिकता एक गतिशील स्थिति है जो हमारे सक्रिय जीवन-बोध पर .. निर्भर है। आधनिकता नवीन परिस्थितियों के संदर्भ में अपना संस्कार करती रहती है और संस्कारित परिस्थितियों को अनुभूति की संपृक्ति से चित्रित करना सचेतन कहानी की विशेषता है।’

सचेतन कहानी को गति देने वाले कथाकारों में महीप सिंह के अलावा मनहर चौहान, कुलदीप बग्गा, नरेन्द्र कोहली, वेदराही, श्रवण कुमार, योगेश गुप्त, हेतु भारद्वाज, राम दरश मिश्र, जगदीश चतुर्वेदी के नाम उल्लेखनीय हैं। महीप सिंह की ‘उजाले के उल्लू’, ‘स्वराघात’, जगदीश चतुर्वेदी की ‘अधखिले गुलाब’, मनहर चौहान की ‘बीस सुबहों के बाद’ और सुरेन्द्र अरोड़ा की ‘बर्फ’ जैसी कहानियाँ ‘सचेतन कहानी’ का स्वरूप स्पष्ट करती हैं। ‘सचेतन कहानी’ की मुख्य विशेषता यह है कि इसने सचेत रूप से जीवन में सक्रियता, आशा, आस्था और संघर्ष का भाव संचारित करने पर बल दिया और प्रतिगामी मनोदशाओं का निषेध किया। उल्लेखनीय यह है कि सचेतन कहानी’ का आन्दोलन ‘आधार’ और ‘संचेतना’ पत्रिका के माध्यम से चर्चित हुआ और इन्हीं में प्रकाशित कुछ लेखकों की कहानियों तक ही सीमित रह गया।

अकहानी

सन् 1960 के बाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जीवन के बदले हुए घटनाक्रमों ने जो मोहभंग का दृश्य प्रस्तुत किया उसे ‘नयी कहानी’ की चेतना संभाल न सकी। ‘नयी कहानी’ खुद अपनी ही रूढ़ियों में फंस गयी. फलत: ‘अ-कहानी’ का स्वर तीव्र हुआ जिसकी मूल संकल्पना थी – ” ‘नयी कहानी’ के भोगे हुए यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता और प्रतिबद्धता जैसे खोखले नारों के खिलाफ एक सशक्त कार्यवाही।” इस कहानी पर फ्रांस की ‘एण्टी स्टोरी’ और अस्तित्ववादी चिन्तक सार्च और काम के विचार-दर्शन का प्रभाव था। ‘अकहानी’ के लेखकों ने नकार या अस्वीकार का दर्शन स्वीकार किया। यह कथा के स्वीकृत आधारों का निषेध तथा किसी भी तरह की मूल्य-स्थापना के अस्वीकार का संकल्प लेकर आगे बढ़ी और इसमें बड़ी तन्मयता के साथ उस समय के मनुष्य की पीड़ा, संत्रास, कुण्ठा, व्यर्थताबोध, अजनबीपन, नगण्यताबोध आदि का चित्रण करके अपनी यथार्थ चेतना को नये परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया।

वास्तव में यह वह कालखण्ड था जब हर क्षेत्र में पुराने जीवन-मूल्य बुरी तरह टूटने-बिखरने लगे थे, लोगों की हताशा-निराशा बढ़ने लगी थी और वे रोजी-रोटी की तलाश में हर तरह से हार-थक कर कंठित और क्षुब्ध होने लगे थे। इसी समय हिन्दी कविता में भी ‘अकविता’ का स्वर तीव्र हुआ था। ‘अकहानी’ और ‘अकविता’ को सगोत्रीय मानना चाहिए।

जगदीश चतुर्वेदी, श्रीकांत वर्मा, राजकमल, चौधरी, प्रबोध कुमार, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल, महेन्द्र भल्ला, मुद्राराक्षस, गंगाप्रसाद विमल जैसे अनेक कहानीकारों ने तत्कालीन यथार्थ का चित्रण करते हुए ऐसी कहानियाँ लिखीं जो उस समय के मनुष्य की पीड़ा, हताशा, निराशा, ऊब, घटन, परेशानी और व्यर्थताबोध के साथ-साथ मूल्य-विघटन की त्रासदी का मार्मिक साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। श्रीकांत वर्मा की ‘झाड़ी’, ‘शवयात्रा’, दूधनाथ सिंह की ‘रक्तपात’, ‘आइसबर्ग’, रवीन्द्र कालिया की ‘सिर्फ एक दिन’ जैसी कहानियाँ उपर्युक्त तथ्यों की पड़ताल के लिए पढ़ी जा सकती हैं। अकहानीकारों ने कुंठित, हताश और संत्रस्त मनुष्य के यथार्थ का चित्रण करते हुए अपनी दृष्टि काम-सम्बन्धों पर इस तरह टिकायी कि अकहानी अस्वस्थ मनोविज्ञान का पलिंदा बन गई। इन कहानीकारों ने काम-कुंठाओं और काम-विकृतियों का चित्रण करते हुए उन्मुक्त यौन-संबंधों की वकालत की जिससे तिलमिलाकर कमलेश्वर ने एयाशों का प्रेत-विद्रोह’ नामक लेख लिखा (धर्मयुग) और हिन्दी कहानी को ‘जाँघों के जंगल में’ भटकी हुई कहकर भर्त्सना की।

राजकमल चौधरी की कहानियों की आधी से अधिक दुनिया आवारा, पेशेवर, बाजारू औरतों की दुनिया है और उनके पुरुष भी उसी धंधे की जरूरतों को पूरा करने वाले लोग हैं। उनकी ‘अग्नि स्थान’, ‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’, ‘व्याकरण का तृतीय पुरुष’ और ‘एक अजनबी के लिए एक शाम’ कहानियों की स्त्रियाँ इसी प्रकार की हैं। उनकी इस चेतना में अकहानी आन्दोलन की सीमाओं का संकेत स्पष्ट रूप से विद्यमान है। जगदीश चतुर्वेदी की कहानियों में भी असामान्य यौनेच्छा और यौनावेग को प्रमुखता मिली है।

अकहानी ने कहानी के शिल्प में कुछ नये प्रयोग किये जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में कथा-तत्व नहीं के बराबर है, घटनाएँ और ब्यौरे भी असत्य हैं। कहानी में सूक्ष्मता को बल मिला है। इन सबका प्रभाव यह पड़ा है कि हिन्दी कहानी उत्तरोत्तर जटिल और दुर्बोध होती गई है और उससे कथारस गायब हो गया है।

सहज कहानी

अमृतराय ने कहानी में कोई आन्दोलन खड़ा करने या किसी प्रकार का नाम उछालने की गरज से नहीं, अपितु कहानी को सहज बनाने या कहानी की खोयी हुए ‘सहजता’ को फिर से सहेजने के उद्देश्य से ‘सहज कहानी’ का विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने सहजता की व्याख्या करते हुए लिखा – “मोटे रूप में इतना ही कह सकते हैं कि सहज वह है जिसमें आडम्बर नहीं है, बनावट नहीं है, ओढ़ा हुआ मैनरिज्म या मुद्रा-दोष नहीं है, आइने के सामने खड़े होकर आत्मरति के भाव से अपने ही अंग-प्रत्यंग को अलग-अलग कोणों से निहारते रहने का प्रबल मोह नहीं है, किसी का अंधानुकरण नहीं है।’ सादगी के सौन्दर्यशास्त्र को अपनी कहानियों से प्रत्यक्ष करने वाले महान कथाकार प्रेमचंद के सुपुत्र अमृतराय का सहज कहानी की आवश्यकता पर बल देना सहज एवं स्वाभाविक है। उनकी इस धारणा से आन्दोलन भले ही न खड़ा हुआ हो लेकिन कहानी में सहजता की वकालत को कम करके नहीं आँका जा सकता है।

समान्तर कहानी

‘सचेतन कहानी’ और ‘अकहानी’ के बाद 1947 ई० में समान्तर कहानी’ का आन्दोलन चला जिसके अगुआ थे ‘नयी कहानी’ के सशक्त हस्ताक्षर और सारिका’ पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर। यह वह समय था जब देश में चारों तरफ जनान्दोलनों का बोलबाला था, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति’ का नारा बुलंद था, आम आदमी पूँजीवादी शक्तियों के चंगुल में फँसा कराह रहा था और जनवादी ताकतों को कुचलने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी पूरी तरह कटिबद्ध थीं। ‘सारिका’ के ‘समान्तर कहानी – विशेषांक-1′ में कमलेश्वर ने मेरा पन्ना’ स्तम्भ के अन्तर्गत इतिहास के नंगे हो जाने’, ‘आम आदमी के द्विविधा रहित होकर संघर्ष के लिए सन्नद्ध हो जाने, ‘जीने के तमाम साधनों और स्रोतों पर’ पूँजी का । प्रभुत्व हो जाने, और ‘नंगे इतिहास’ के द्वारा हमारी निष्क्रियता’ और ‘अन्यमनस्कता’ का फायदा उठाकर हमें छलते जाने का एहसास कराकर कहानीकारों को ‘आम आदमी’ की पीड़ा और उसके संघर्ष को मुखरित करने का आह्वान किया। उन्होंने ‘समान्तर कहानी ‘ विशेषांक-1’ में भीष्म साहनी की ‘वाड्.चू’, से० रा० यात्री की ‘अँधेरे का सैलाब’, हृदयेश की ‘गुंजलक’, मणि मधुकर की ‘विस्फोटक’, श्रवणकुमार की ‘नहीं, यह कोई कहानी नहीं’, जैसी कहानियों को प्रकाशित करके समान्तर कहानी-आन्दोलन की शुरुआत की।

इसके बाद उन्होंने ‘सारिका’ के समान्तर कहानी-विशेषांक के रूप में विभिन्न भाषाओं की समान्तर कहानियों के विशेषांक निकाले, देश भर में ‘समान्तर कहानी’ पर गोष्ठियाँ आयोजित की और एक लम्बे विचार-विमर्श का दौर चलाकर समान्तर कहानी को अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप देने का प्रयत्न किया। हिन्दी में गोविन्द मिश्र, कामतानाथ, जितेन्द्र भाटिया, सुधा अरोड़ा, मधुकर सिंह, इब्राहीम शरीफ, हिमांशु जोशी, मिथिलेश्वर, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक आदि कहानीकारों ने इस आन्दोलन को तीव्र करने में अपना रचनात्मक सहयोग प्रदान किया। ‘जाने किस बन्दरगाह पर’ (सतीश जायसवाल), ‘छुट्टी का एक दिन’ (अकुलेश परिहार), ‘सौदा’ (पाल भसीन), ‘जोखिम’, ‘बयान’ (कमलेश्वर), ‘शहादतनामा’ (जितेन्द्र भाटिया) आदि कहानियाँ आम आदमी के संघर्ष को जीवन की समग्रता में देखती हैं और यह भी प्रमाणित करती हैं कि नया युग नये प्रश्नों का सामना कर रहा है।

इन कहानियों में संघर्षरत मनुष्य बराबर नये मूल्यों की स्थापना की दिशा में भी सक्रिय है। समान्तर कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने भावुक रुचि में कैद लोगों के सामने आम आदमी की तकलीफों को उजागर करने वाली कहानियाँ बदले हुए तेवर के साथ प्रस्तुत की।

समान्तर कहानी आन्दोलन ने इतना तो किया ही कि भारतीय कथा-साहित्य में पुन: आम आदमी को प्रतिष्ठित किया, उसके प्रति जागरूकता पैदा की और कहानी को आम आदमी के संघर्ष से जोड़कर नयी हलचल पैदा की।

सक्रिय कहानी

राकेश वत्स ने अपनी पत्रिका ‘मंच-79’ के माध्यम से ‘सक्रिय कहानी’ का आन्दोलन खड़ा किया जिसमें चित्रा मुद्गल, रमेश बत्तरा, वीरेन्द्र मेंहदीरत्ता, स्वदेश दीपक आदि ने योग दिया। राकेश वत्स ने सक्रिय कहानी’ की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए लिखा – ‘सक्रिय कहानी का सीधा और स्पष्ट मतलब है – आम आदमी की चेतनात्मक ऊर्जा और जीवन्तता की कहानी। उस समझ, एहसास और बोध की कहानी जो आम आदमी की बेबसी, वैचारिक निहत्थेपन और नपुंसकता से निजात दिलाकर पहले स्वयं अपने अन्दर की कमजोरियों के खिलाफ खड़ा होने के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी अपने सिर लेती है।’ इस तरह सक्रिय कहानी के केन्द्र में समान्तर कहानी’ का ही ‘आम आदमी’ है किन्तु वह यहाँ अपने संघर्ष में सक्रिय और संगठित है। उसका फैसला’ (सुरेन्द्र सुकुमार), ‘जंगली जुगराफिया’ (रमेश बत्तरा), ‘आखिरी मोड़’ (कुमार संभव), ‘काले पेड़’ (राकेश वत्स), ‘एक न एक दिन’ (नवेन्द्र), लोग हाशिए पर’ (धीरेन्द्र अस्थाना) आदि कहानियों में यह संघर्ष काफी उभर कर सामने आया है। सक्रिय कहानी के संघर्षरत पात्र जनसमर्थन मूल्यों के पक्षधर हैं। शोषण से मुक्ति पाना उनके संघर्ष का चरम फल है। यह कहानी-आन्दोलन भी अल्पकाल में समाप्त हो गया क्योंकि इसमें वैचारिकता का दंभ अधिक था, रचनात्मकता का आग्रह एकदम नहीं था।

जनवादी कहानी

सन् 1982 में दिल्ली में ‘जनवादी लेखक संघ’ की स्थापना और उसके राष्ट्रीय अधिवेशन के साथ ही हिन्दी में जनवादी लेखन को तीव्रता प्राप्त हई। इसके बाद जनवादी कहानी पर ‘कलम’ (कलकत्ता), ‘कथन (दिल्ली), ‘उत्तरगाथा’ (दिल्ली), उत्तरार्ध’ (मथुरा), ‘कंक’ (रतलाम) जैसी पत्रिकाओं में व्यापक रूप से चर्चा शुरू हो गई। जब हम हिन्दी कहानी में जनवादी कहानी आन्दोलन की बात करते हैं तो हमें 1982 के ‘जनवादी लेखक संघ’ के स्थापना काल को ही इसका उदय काल मानना पड़ता है। इस तथ्य के बावजूद यह स्वीकार करना चाहिए कि जनवादी कहानी आन्दोलन अन्य आन्दोलनों की तरह सहसा नहीं उठ खड़ा हुआ था। एक लम्बे अर्से से उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। इस पृष्ठभूमि के निर्माण में प्रेमचंद की जनपक्षधरता, यशपाल (परदा), रांगेय राघव (गदल), भैरव प्रसाद गुप्त (हड़ताल), मार्कण्डेय (हंसा जाई अकेला), भीष्म साहनी (चीफ की दावत), अमरकान्त (दोपहर का भोजन), शेखर जोशी (कोसी का घटवार) की प्रगतिशीत रचनात्मकता, समान्तर कहानी’ के आम आदमी की स्थापना और उसका संघर्ष तथा तत्युगीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का बहुत बड़ा योगदान है।

जनवादी कहानी अपनी मूल प्रकृति में सामान्य जन के संघर्ष की पक्षधर है तथा उसका वैचारिक आधार मार्क्सवाद है। वह प्रेमचंद की जनपक्षधर कथा-परम्परा का विकास है। मध्यवर्ग और सर्वहारा के बीच निकटता अनुभव करना प्रेमचंद की ऐतिहासिक समझ का परिणाम था। जनवादी कहानी का सर्वाधिक बल सर्वहारा तथा मध्यवर्ग द्वारा किये जा रहे शोषण-विरोधी संघर्ष पर है। यह संघर्ष बहुआयामी है। जनवादी कहानी में संघर्षरत पात्र निर्णय लेने की स्थिति में हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति पूर्ण सजग और संघर्षरत हैं।

जनवादी कहानी की.मूल प्रवृत्ति श्रमजीवी के प्रति सहानुभूति है। वह श्रमजीवी जनता के हक की लड़ाई की पक्षधर है। पूँजीवादी ताकतों को बेनकाब करना, उनके मंसूबों को विफल करना, शोषण-तंत्र को लुज-पुंज करना और मेहनतकश जनता को एकजुट करके निर्णायक संघर्ष की ओर ले जाना आदि कुछ मूलभूत वे बातें हैं जो किसी कहानी को जनवादी कहानी का रूप प्रदान करती हैं। जनसमस्याओं और जनजीवन के संघर्ष से जुड़ी होने के कारण जनवादी कहानी जनता की सीधी-सादी भाषा और सहज शिल्प को अधिक महत्व देती है। जनवादी कथाकार असगर वजाहत लिखते हैं – ‘चारों ओर जो जीवन बिखरा है वही कहानी का मसाला है। पात्रों की कमी नहीं है। शिल्प के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। कथ्य का अपना शिल्प होता है, उसी को रखते चले जाओ। किसी प्रकार का चमत्कार दिखाना कहानी का कार्य नहीं है।’ तात्पर्य यह कि जनवादी कहानी आम आदमी या सामान्य जन की संघर्ष-गाथा को उसी की भाषा और शैली में चित्रित करने को महत्वपूर्ण मानती है।

जनवादी कहानी को अपनी रचनात्मकता से गति देने वाले रचनाकारों में रमेश उपाध्याय (देवी सिंह कौन, कल्पवृक्ष), रमेश बतरा (कत्ल की रात, जिंदा होने के खिलाफ), स्वयं प्रकाश (आस्मां कैसे-कैसे, सूरज कब निकलेगा), हेतु भारद्वाज (सुबह-सुबह, अब यही होगा), नमिता सिंह (राजा का चौक, काले अंधेरे की मौत). असगर वजाहत (हिन्दी पहुँचना है, मछलियाँ), उदय प्रकाश (मौसा जी, टेपचू), राजेश जोशी (सोमवार, आलू की आँख), धीरेन्द्र अस्थाना (लोग हाशिये पर, सूरज लापता है), विजयकांत (ब्रह्मफांस, बलैत माखुन भगत, बान्ह, जाग), मदन मोहन (बच्चे बड़े हो रहे हैं, दारू) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

समकालीन हिन्दी कहानी : दशा एवं दिशा

समकालीन हिन्दी कहानी से तात्पर्य उस कहानी से है जो आज की परिस्थितियों का साक्षात्कार करती है और बिना किसी पूर्वाग्रह के समय के सच को पूरी ईमानदारी के साथ चित्रित करती है। इस संदर्भ में मधुरेश का यह वक्तव्य विचारणीय है – ‘समकालीन होने का अर्थ सिर्फ समय के बीच होने से नहीं है। समकालीन होने का अर्थ है समय के वैचारिक और रचनात्मक दबावों को झेलते हुए, उनसे उत्पन्न तनावों और टकराहटों के बीच अपनी सर्जनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना।’ कुछ लोगों ने समकालीन हिन्दी कहानी के रूप में एक कहानी-आन्दोलन को भी रेखांकित करने की कोशिश की है किन्तु वास्तविकता यह है कि समकालीन कहानी, आन्दोलन की संकीर्णताओं से उबर चुकी है।

अभी तक हिन्दी कहानी के विविध आन्दोलनों की जो चर्चा की गई है, उससे यह साफ तौर पर स्पष्ट होता है कि उनमें से अधिकांश आन्दोलन कुछ यशोलिप्सु लेखकों की आत्मविज्ञप्ति और आत्मस्थापन की संकीर्ण मानसिकता से उपजे थे और उनकी तुष्टि के बाद वे समाप्त हो गये । समकालीन लेखक आन्दोलन के उन खतरों और सीमाओं से वाकिफ है, इसलिए वह स्वतंत्र रीति से साहिर-साधना को प्रश्रय दे रहा है किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि कथा-लेखन की दुनिया से वैचारिक प्रतिबद्धता को विदाई मिल गई है या लेखक आत्मसीमित हो गया है। दरअसल इस समय हिन्दी कहानी में कई पीढ़ियों और कई कहानी – आन्दोलनों से जुड़े ऐसे कहानीकारों की पीढ़ी मौजूद है जिसमें वैचारिक कठमुल्लापन नहीं रह गया है।

समकालीन कथा-परिदृश्य में पिछले कहानी-आन्दोलनों से जुड़े रचनाकारों के अलावा अनके नये कहानीकार सृजनरत हैं जैसे – संजय (कामरेड का कोट, भगदत्त का हाथी), उदय प्रकाश (दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अन्त में प्रार्थना), ज्ञान प्रकाश विवेक (जोसफ चला गया, मुंडेर, कमीज), अब्दुल बिस्मिल्लाह (रैन बसेरा, अतिथि देवो भव), रमेश उपाध्याय (नदी के साथ जमी हुई झील), स्वयं प्रकाश (मात्रा और भार, सूरज कब निकलेगा), शिवमूर्ति (कसाईबाड़ा, तिरिया रित्तर), मदन मोहन (दलदल, हारू, फिर भी सूखा), बादशाह हुसैन रिजवी (भय टूटता हुआ) आदि। इनके अतरिक्त नयी कहानी के दौर की प्रमुख लेखिकाओं – मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा तथा समान्तर कहानी से जुड़ी लेखिकाओं – दाप्ति खण्डेलवाल, निरुपमा सेवती – के साथ-साथ आठवें-नवें दशक से अपनी रचनात्मकता को प्रकाशित करने वाली मृणाल पाण्डेय, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, मंजुल भगत, सुधा अरोड़ा, प्रभा गोतान के भी . नाम उल्लेखनीय हैं जिनसे समकालीन हिन्दी कहानी का एक ऐसा परिदृश्य प्रत्यक्ष होता है जिसमें न तो वैचारिक जकड़बन्दी है, न सीमित जीवनानुभव पर आधारित कलाबाजी। आज का कहानीकार अपने समय के बृहत्तर सच को उसकी पूरी विविधता में चित्रित करने में लगा हुआ है। समकालीन जीवन पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संदर्भो – वैश्वीकरण, उदारीकरण, इलेक्ट्रानिक मीडिया से कई तरह के दबाव पड़ रहे हैं। उन दबावों को पहचानना और उनके बीच से जीवन का मार्ग तलाशना आज के कहानीकार की जिम्मेदारी है। कहना न होगा कि समकालीन कहानीकार अपने दायित्व के प्रति काफी सजग है।

हिन्दी कहानी में दलित चेतना

हाल के कुछ वर्षों से हिन्दी में भी दलित साहित्य का स्वर ऊँचा हुआ है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ० श्योराज सिंह बेचैन’, डॉ० ए. एन. सिंह, कँवल भारती, डॉ० धर्मवीर प्रभृति अनेक दलित साहित्यकारों ने हिन्दी में दलित साहित्य की विशेष स्थिति और आवश्यकता को रेखांकित करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि दलितों के द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा गया साहित्य दलित साहित्य है। किसी गैर दलित या सवर्ण द्वारा लिखे गये दलित संबंधी साहित्य को वे दलित साहित्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में ऐसा साहित्य सहानुभूति या दया का साहित्य है, वह चाहे प्रेमचंद या निराला का ही दलित चेतना से जुड़ा हुआ साहित्य क्यों न हो। मोहनदास नैमिशराय का मानना है कि दलित साहित्य दलितों का ही हो सकता है क्योंकि उन्होंने जो नारकीय उपेक्षापूर्ण जीवन भोगा है, वह कल्पना की चीज नहीं है। वह उनका भोगा हुआ यथार्थ और जख्मी लोगों का दस्तावेज़ है। वह उनकी मुक्ति का संदेश है, वह चेतना का उगता हुआ सूरज है। उसमें गुस्सा और नफरत अनुभूति-प्रेरित है। उसे कला के छल की जरूरत नहीं है।

श्योराज सिंह बेचैन मानते हैं कि दलित साहित्य का संबंध कबीर, रैदास जैसे दलितों के साहित्य से भी नहीं है और न व्यास और वाल्मीकि के साहित्य से। कबीर और रैदास उन्हें ईश्वर के सहारे छोड़ देते हैं और वाल्मीकि और व्यास तो ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करते है। आज का दलित साहित्यकार अपने अनुभव से अपना रास्ता निकालने का हिमायती है, उसमें क्रोध नफरत, नकार और आत्मपहचान का तत्व प्रमुख है। वइ इतिहास धारा में बहने के लिए नहीं, उसकी ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्ष करने और उसे पलटने के लिए कटिबद्ध है। वह बाबा साहब अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले का अनुयायी है।

यदि हिन्दी में केवल दलित कहानी की बात करें तो कहना पड़ता है कि इसका स्वरूप अभी पूरी तरह उभर नहीं पाया है बावजूद इसके कि जगह-जगह दलित लेखकों के संगठन बन गये हैं, उनके अनेक अधिवेशन हो चुके हैं और पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। नाम परिगणन के लिए मोहनदास नैमिशराय, कँवल भारती, ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजय खाती, दयानन्द वटरोटी, जयप्रकाश कर्दम के नाम उल्लेखनीय हैं। दयानन्द वटरोटी का कहानी संग्रह ‘सुरंग’, संजय खाती की कहानी रोजगार’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘गोहत्या’, ‘अंधड़’ आदि को पढ़ने के बाद यह कहना पड़ता है कि एक तो हिन्दी में दलित कहानी अभी शैशवावस्था में है, दूसरे सवर्ण लेखकों ने दलित चेतना की जो कहानियाँ लिखी हैं, वे भले ही उनका भोगा हुआ यथार्थ न हो, लेकिन दलित लेखक की कहानियों से ज्यादा मार्मिक और प्रभावशाली हैं। अत: दलित चेतना की पड़ताल अधिक सार्थक एवं समीचीन है। हिन्दी में दलित चेतना से जुड़ी हुई मार्मिक कहानियों की एक सुदीर्घ परम्परा है। इस परम्परा के अग्रणी लेखक हैं – प्रेमचंद। उनकी ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुँआ’, ‘दूध का दाम’, ‘बाबा जी का भोग’, ‘सवा सेर गेहूँ’ और ‘कफन’ जैसी कहानियाँ आज भी सामाजिक विषमता, उत्पीड़न, शोषण और अमानवीय आचरण का जो रूप प्रस्तुत करती हैं, वह भोगे हुए यथार्थ के दलित लेखकों की कहानियों पर भारी पड़ता है। उन्होंने वर्ण-विभक्त समाज में दीन-हीन दलितों का पक्ष लेकर अपनी जनचेतना और जनपक्षधरता का जो सहज स्वाभाविक परिचय दिया है, वह हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य निधि और उनकी बेमिसाल साहित्य साधना का ठोस उदाहरण है।

प्रेमचंदोत्तर कहानीकारों ने भी दलित जीवन से संबंधित स्मरणीय कहानियाँ लिखी हैं जैसे ‘हलयोग’ (मार्कण्डेय), ‘अकालदण्ड’ (शिवमूर्ति), ‘बराबरी का खेल’ (रमेश उपाध्याय), ‘बच्चे बड़े हो रहे हैं’ (मदन मोहन), प्रतिहिंसा’ (मुद्राराक्षस), ‘बगल में बहता सच’ (महेश कटारे), ‘धनीराम’ (पुन्नीसिंह) आदि। इन कहानियों में न केवल दलित जीवन की त्रासदी और संघर्ष-कथा चित्रित है बल्कि अन्याय, शोषण उत्पीड़न और संहार के प्रति सक्रिय विरोध और विद्रोह भी अंकित है। इन लेखकों ने प्रेमचंद के आगे की यात्रा तय की है। उल्लेखनीय यह है कि यह सहानुभूति या दया का साहित्य नहीं है, यथार्थ का स्वीकार है और मानवता की दिशा में उठाया गया सही कदम है। इसे गैर दलित का लेखन कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता।

दलित साहित्यकारों के इस तर्क में दम है कि भोगे हुए यथार्थ की ही अभिव्यक्ति प्रामाणिक एवं विश्वसनीय होती है, किन्तु इसके साथ यह भी सच है कि कोई वाल्मीकि ही क्रौंच की मर्मान्तक पीड़ा को अपने हृदय में महसूस करके उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति कर सकता है। यदि दलित लेखक भोगे हुए यथार्थ के साथ कलात्मक अभिव्यक्ति और बृहत्तर एवं वैविध्यपूर्ण जीवनानुभव के चित्रण की बात नहीं सोचेंगे तो सारा दलित लेखन परिपाटीबद्ध होकर एकांगी, एकरस और निष्प्राण हो जाएगा।

हिन्दी कहानी – शिल्प का विकास

हिन्दी कहानी के समूचे विकास-क्रम का अध्ययन करने के बाद यह रेखांकित करना भी आवश्यक है कि हिन्दी कहानी अपने समय के दबावों और जरूरतों के अनुसार अपने कथ्य और शिल्प में बराबर परिवर्तन और विकास करती रही है। प्रारंभिक हिन्दी कहानी के रचना-विधान में कलात्मक चेतना का उपयोग नहीं के बराबर है। उसका शिल्प लोक-कथा शिल्प के अधिक निकट, धार्मिक पौराणिक कथाशैली से अनुप्राणित और फारसी की मसनवी शैली की आख्यानक परम्परा से प्रभावित है। कथानक स्थूल, घटना-प्रधान, कुतूहलपूर्ण, कथा-शिल्प में आकस्मिकता या संयोगतत्व की प्रधानता और उद्देश्य में सपाट उपदेशात्मकता, नीतिपरकता तथा मनोरंजन की प्रमुखता है। ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ हिन्दी कहानी के आधनिक रूप का विकास होता है और इसमें तथा ‘इंदु’ में प्रकाशित कहानियों के शिल्प में कसाव आता है। उसने कहा था’, ‘पंचपरमेश्वर’, ‘ग्राम’ जैसी कहानियों में हिन्दी कहानी का बदला हुआ शिल्प प्रत्यक्ष हुआ है। प्रेमचंद ने कहानी के प्रति सचेत दृष्टि का परिचय देते हुए उसे कल्पना-विलास और मनोरंजन के दायरे से निकाल कर चरित्र चित्रण’, ‘स्वाभाविक वर्णन’, ‘मनोवैज्ञानिक चित्रण’ और ‘संवेदनात्मकता’ से जोड़ दिया। प्राचीन कहानीकार घटनाओं में कहानी का कुतूहलपूर्ण आरंभ और घटनाओं की निष्कर्षात्मक परिणति में कहानी की समाप्ति करता था।

प्रेमचंद और प्रसाद की कहानियों ने घटनाओं के बीच से फूटती हुई अर्थपूर्ण संवेदना को चित्रित करने का प्रयत्न किया। प्रारंभ में प्रेमचंदयुगीन कहानी पर आदर्शवाद का गहरा प्रभाव रहा लेकिन स्वयं प्रेमचंद की ‘पूस की रात’, ‘कफन’ जैसी कहानियों में यह पूरी तरह समाप्त हो गया और कहानी यथार्थवादी शिल्प में ढल गयी। फिर भी प्रेमचंदयुगीन कहानी में इतिवृत्तात्मकता, घटनात्मकता, आदर्शवादिता, चरित्र की प्रधानता, उद्देश्यपरकता का प्रभुत्व बना रहा और कहानी के मूल्यांकन के लिए कथानक, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल एवं वातावरण, उद्देश्य जैसे तत्व आधार और प्रतिमान बने रहे। बाद में जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी की कहानियों के रचना-विधान में सूक्ष्मता, प्रतीकात्मकता, मनोवैज्ञानिकता, संश्लिष्टता का प्राधान्य हो गया और कहानी एक सरल रचना की अपेक्षा जटिल एवं संश्लिष्ट रचना हो गई। इस दौर की कहानी में वस्तु, चरित्र, वातावरण, संवेदना आदि तत्वों ने परस्पर मिलकर कहानी के रचना-विधान को काफी सघन कर दिया। इस समय की कहानी- मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर विकसित हुई। मनोवैज्ञानिक कहानियों के रचना-विधान में जहाँ सूक्ष्मता, जटिलता और सांकेतिकता की प्रधानता रही, वहीं, यथार्थवादी कहानियों का शिल्प यथार्थपरक, सहज और संप्रेषणीयता से भरपूर रहा।

हिन्दी कहानी के वस्तु और शिल्प में व्यापक परिवर्तन ‘नयी कहानी’ वाले दौर में हुआ। इस कालखण्ड में हिन्दी कहानी पूरी तरह नयी हो गयी। पुरानी कहानी के लेखक (प्रमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि) के समक्ष कथा-रचना के समय कोई विचार, दर्शन, सामाजिक समस्या प्रधान रूप से रहती थी और वह तदनुकूल कहानी की रचना कर लेता था किन्तु ‘नयी कहानी’ के लेखक ने अनुभूत यथार्थ की प्रामाणिक और ईमानदार अभिव्यक्ति के साथ-साथ परिवेशगत वास्तविकता पर बल दिया जिससे उसकी कहानी के गठन, स्वर और दृष्टि में व्यापक परिवर्तन हो गया।

‘नयी कहानी’ में प्रयोगशीलता को प्रमुखता प्राप्त हुई। यह प्रयोगशीलता कथ्य एवं शिल्प दोनों स्तरों पर दिखाई पड़ती है। ‘नयी कहानी’ में कहानी के परम्परागत तत्व – कथानक, चरित्र-चित्रण, चरमबिन्दु, वातावरण आदि – नगण्य हो गये और इनका स्थान ले लिया सूक्ष्म कथात्मकता, जीवन-यथार्थ और उसे प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने वाली नयी भाषा-शैली ने । प्रत्येक कहानीकार ने वस्तु के अनुरूप नयी भाषा और शैली के प्रयोग और आविष्कार पर बल दिया। यथार्थता के आग्रह ने भाषा को भी यथार्थ रूप प्रदान किया। जैसा और जहाँ का जीवन – वैसी ही उसकी भाषा। आंचलिक कथ्य के लिए आंचलिक भाषा का प्रयोग हुआ। कहानी के शिल्प में संस्मरण, रेखाचित्र, डायरी आदि अनेक विधाएँ घुल-मिल गई।

नये जीवन-संदर्भो और स्थितियों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति के लिए ‘नयी कहानी’ के लेखकों ने नवीन कथा-शिल्प का आविष्कार किया। सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और बिम्बात्मकता को विशेष महत्व दिया गया। प्रो० नामवर सिंह के अनुसार ‘नयी कहानी’ में सांकेतिकता दह में रक्त या प्राण’ जैसी है। उनके अनुसार ‘नयी कहानी’ संकेत ही नहीं करती, वह स्वयं एक संकेत है। इसी तरह प्रतीकात्मकता का भी. सहारा कथ्य को स्पष्ट और संप्रेष्य बनाने के लिए लिया गया है। बिम्बात्मकता से नयी कहानी की भाषा में सूक्ष्म ऐन्द्रियता का विस्तार हुआ और साथ ही छिपे हुए आलोक के यथार्थ का उपस्थापन भी।

‘अकहानी’ आन्दोलन ने ‘नयी कहानी’ के ‘अनुभववाद’ का विरोध करके वस्तुनिष्ठता को प्रतिष्ठित किया जिसमें गलदश्रु, भावुकता, संवेदना और विचारोत्तेजना के लिए कोई स्थान नहीं रह गया, उसकी जगह ले ली, तल्खी भरी तटस्थता, निरपेक्षता और सत्वहीनता ने। ‘अकहानी’ के लेखक ने भावुकता का परित्याग करके ‘जिन्दगी जैसी है, उसको वैसी ही चित्रित करने का संकल्प लिया, फलस्वरूप उसे कहानी के परम्परागत शिल्प और भाषा का निषेध करके नये शिल्प को अपनाना पड़ा। शिल्प की दृष्टि से ‘अकहानी’ मोनोलॉग, फैंटेसी, डायरी, मुक्तासंगपूर्ण निबंध, संस्मरण तथा असंबद्ध प्रलाप के अधिक निकट है या वह इन तत्वों का भरपूर उपयोग करती है।

‘सचेतन कहानी’ वाले दौर में एक बार फिर कहानी का शिल्प सरल, सीधा और आकार में लघु हुआ, अकहानी के कथा के हृास के स्थान पर कथातत्व को महत्व दिया गया और अतिशय शिल्प-सजगता की जगह विचार को प्रधानता मिली। महीप सिंह ने घोषणा की कि सचेतन कहानी विचारप्रधान आन्दोलन है, शिल्प प्रधान नहीं; क्योंकि शिल्प विचार के पीछे चलता है, विचार के आगे नहीं। उनकी दृष्टि में कथ्य और शिल्प की अद्वैत स्थिति ही श्रेयस्कर है। कथा-तत्व और कथ्य के सहज संप्रेषण को महत्व देकर इन कहानीकारों ने कहानी को पुन: जीवन की ओर मोड़ा।

‘सचेतन कहानी’ में विचार-प्रधानता का जो उद्घोष हुआ, उसने ‘समान्तर कहानी’ और ‘जनवादी कहानी’ वाले दौर में इतना जोर पकड़ा कि कहानी विचारधारात्मक लेखन का पर्याय बन गई और ‘आम आदमी’, ‘सामान्य जन’, ‘सर्वहारा’ आदि के जीवन और संघर्ष को चित्रित करने में ही कहानी की सफलता और सार्थकता देखी जाने लगी।

समकालीन हिन्दी कहानी में विचारधारात्मक लेखन का उत्साह थोड़ा ठंडा पड़ा है और कहानीकार जीवन के सच को उसकी विविधता और बहरूपता में चित्रित करने की दिशा में अग्रसर हुआ है। उदय प्रकाश जैसे कहानीकारों ने कहानी के कथ्य और शिल्प में नवीनता और प्रयोगशीलता को प्रश्रय देकर कहानी को फार्मूलाबद्ध होने से बचाने की सार्थक कोशिश की है। वैसे समकालीन कहानीकारों में आज भी ऐसे कहानीकार हैं जो किसी दल या संगठन के प्रवक्ता अधिक हैं और कहानीकार कम।।

कहानी-आन्दोलनों ने हिन्दी कहानी को बराबर एक नयी दिशा दी है, इतना अवश्य है कि इन आन्दोलनों ने यदि कहानी के कथ्य और शिल्प में व्यापक परिवर्तन उपस्थित किया है तो उसकी कुछ सीमाएँ भी निर्धारित की हैं। वस्तुत: जब ये आन्दोलन व्यापक उद्देश्य को लेकर चले, तब तो उन्होंने साहित्य और विधा का हित किया लेकिन जब वे व्यक्तिगत स्वार्थों और हितों के साधन बन गये तो दोनों का अहित भी किया। साहित्य में विचारधारा के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है लेकिन विचारधारा की कलात्मक अभिव्यक्ति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

हिन्दी उपन्यास

भारतेन्दु युग में ही हिन्दी उपन्यास-लेखन की परम्परा का श्रीगणेश हुआ। तब से बराबर उन्नति करती हुई उपन्यास विधा समकालीन हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण गद्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठित है। भारतेन्दु से लेकर आज तक के हिन्दी उपन्यास के समूचे विकास को विवेचन की सुविधा के लिए निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जाता है :

  1. आरंभिक हिन्दी उपन्यास या प्रेमचंदपूर्व हिन्दी उपन्यास 
  2. प्रेमचंदयुगीन हिन्दी उपन्यास,
  3. प्रेमचंदोत्तर हिन्दी उपन्यास,
  4. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास,
  5. समकालीन हिन्दी उपन्यास

आरंभिक हिन्दी उपन्यास

आरंभिक हिन्दी उपन्यास या प्रेमचंदपूर्व हिन्दी उपन्यास का समय सन् 1877 से 1918 ई० तक माना जा . सकता है। सन् 1877 में श्रद्धाराम फुल्लौरी ने ‘भाग्यवती’ नामक सामाजिक उपन्यास लिखा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस उपन्यास की काफी प्रशंसा की है। यह भले ही अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास न हो किन्तु विषयवस्तु की नवीनता के आधार पर इसे हिन्दी का प्रथम आधुनिक उपन्यास कहा जाता है। इसमें तत्कालीन हिन्दू समाज की अनेक कुरीतियों का आलोचनात्मक एवं यथार्थवादी रीति से चित्रण हुआ है और स्त्रियों के लिए अनेक सदुपदेश दिए गए हैं। 1918 ई० में प्रेमचंद का सेवासदन’ प्रकाशित हुआ। यहीं से हिन्दी उपन्यास की दिशा और गति में ऐसा परिवर्तन आ जाता है कि प्रेमचंद और उनके समय के उपन्यासों को प्रेमचंद-पूर्व उपन्यासों से अलग करके समझना आवश्यक हो जाता है।

उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में लिखी गई शिक्षाप्रद पुस्तकों को कथात्मकता के बावजूद उपन्यास की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। पं० गौरीदत्त की रचना देवरानी-जेठानी’ भी एक शिक्षा-प्रधान उपदेशात्मक रचना है। दरअसल लाला श्रीनिवास दास का अंग्रेजी ढंग का नावेल परीक्षा गुरु’ और श्रद्धाराम फुल्लौरी का ‘भाग्यवती’ ही हिन्दी के अभिन्न उपन्यासों के रूप में रेखांकित किये जा सकते हैं। ‘भाग्यवती’ की रचना सन् 1877 में और परीक्षा गुरु’ का प्रकाशन सन् 1882 में हुआ था। ‘भाग्यवती’ उपन्यास का प्रकाशन उसके रचना-काल के दस वर्ष बाद सन् 1887 में हुआ।

प्रेमचंद के पूर्व लिखे गये मौलिक उपन्यासों को हम पाँच श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं – 

  1. सामाजिक उपन्यास,
  2. ऐयारी-तिलिस्मी उपन्यास,
  3. जासूसी उपन्यास,
  4. ऐतिहासिक उपन्यास,
  5. भावप्रधान उपन्यास।

सामाजिक उपन्यास

विवेच्य काल राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना की दृष्टि से जागृति एवं सुधार का काल रहा है। सामाजिक समस्याओं और परिस्थितियों को केन्द्र में रखकर साहित्य रचना करने वाले दो प्रकार के साहित्यकार थे – एक वर्ग तो नवीन शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, सुधार-आन्दोलन के प्रकाश में धार्मिक बाह्याडम्बरों एवं सामाजिक विकृतियों को समाप्त करके अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता था, दूसरे वर्ग का लेखक सनातनी परम्परा से जुड़ा हुआ था। वह आर्य समाज आदि के द्वारा किये जाने वाले सुधारों का विरोधी था। पहले वर्ग के लेखकों में श्रद्धाराम फल्लौरी, लाला श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्ट तथा लज्जाराम मेहता और दूसरे वर्ग के लेखकों में गोपालराम गहमरी और किशोरी लाल गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय हैं।

इन दोनों वर्गों के लेखकों ने अधिकतर नीति-उपदेश-प्रधान उपन्यासों की ही रचना की। इनके उपन्यासों के विषय हैं – आदर्श विद्यार्थी, आदर्श हिन्द, आदर्श गृहिणी, चरित्र-बल, सत्य-निष्ठा आदि का महत्व तथा जुआ, मद्यपान, कुसंगति आदि से होने वाली हानियाँ और उनका निवारण । लाला श्रीनिवास दास (परीक्षा गुरु), बालकृष्ण भट्ट (नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान एक सुजान), लोचनप्रसाद पाण्डेय (दो मित्र), लज्जाराम शर्मा (आदर्श दम्पत्ति, बिगड़े का सुधार), गोपालराम गहमरी (नये बाबू, डबल बीबी, सास-पतोहू) आदि के उपन्यास उपर्युक्त प्रवृत्तियों की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं।

इन सामाजिक उपन्यासों के बीच प्रेम-रोमांस वाले ऐसे उपन्यासों की भी रचना हुई है जिनमें रीतिकालीन नायिका-भेद वाले विलासात्मक प्रेम को प्रधानता दी गई है, कुछ उपन्यासों में उर्दू-उपन्यासों की शोखी, शरारत और चुहल भी दिखाई पड़ती है। ‘अँगूठी का नगीना’ (किशोरी लाल गोस्वामी), प्रणयी माधव’ (मोटेश्वर पोतदार), ‘शीला’ (हरिप्रसाद जिंजल), ‘श्यामा स्वप्न’ (ठाकुर जगमोहन सिंह) आदि प्रेम-प्रधान उपन्यास हैं।

इस युग के सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार हैं किशोरीलाल गोस्वामी, जिन्होंने लगभग 65 उपन्यासों की रचना की है। इनके विचार सनातन हिन्दू धर्म के अनुकूल हैं। इनके सामाजिक उपन्यासों में ‘त्रिवेणी व सौभाग्य श्रेणी’, ‘लीलावती व आदर्श सती’, ‘राजकुमारी’, ‘चपला व नव्य समाज’ आदि उल्लेखनीय हैं । गोस्वामी,जी के प्राय: सभी उपन्यास स्त्रीपात्र-प्रधान हैं और उनमें प्रेम के विविध रूपों का चित्रण हुआ है। उन्होंने यदि एक ओर सती-साध्वी देवियों के आदर्श प्रेम का चित्रण किया है तो दूसरी ओर साली-बहनोई के अवैध-प्रेम, विधवाओं के व्यभिचार, वेश्यायों के कुत्सित जीवन आदि का भी सजीव वर्णन किया है। बनते हुए नये समाज को इन्होंने संदेह की नजर से देखा है।

तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास

हिन्दी उपन्यास युग-जीवन के चित्रण की जिस प्रवृत्ति को लेकर आरम्भ हुआ था यदि परवर्ती लेखकों ने उस परम्परा का अनुगमन किया होता तो यथार्थपरक समाज-चित्रण की कला प्रेमचंद के पहले ही प्रौढ़ता प्राप्त कर लेती, किन्तु देवकीनन्दन खत्री के ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास के प्रकाश में आते ही चमत्कारपूर्ण । घटना-प्रधान उपन्यासों की ऐसी धूम मची कि कुछ काल के लिए सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाली प्रवृत्ति की गति मन्द पड़ गयी।

देवकीनन्दन खत्री पर उर्दू की दास्तान-परम्परा का प्रभाव है। उन्होंने ‘तिलस्में होशरूबा’ से लेकर ‘चन्द्रकान्ता’, ‘चन्द्रकान्ता संतति’, ‘भूतनाथ’, ‘नरेन्द्र मोहिनी’, ‘वीरेन्द्र वीर’, ‘कुसुम कुमारी’ जैसे रहस्य-रोमांच से परिपूर्ण उपन्यासों की रचना की और हिन्दी में एक नया पाठक-समाज तैयार किया – ऐसा पाठक-समाज भी बनाया जो हिन्दी नहीं जानता था। उनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए असंख्य लोगों ने हिन्दी सीखी और देवनागरी लिपि का ज्ञान प्राप्त किया। खत्री जी के उपन्यासों का संसार तिलस्मी एवं ऐयारी से भरपूर उर्दू दास्तानों और प्राचीन भारतीय कथाओं के राजकुमार-राजकुमारियों की प्रेम-कथाओं से निर्मित ऐसा संसार है जिसमें सब कुछ अतार्किक, जादुई और चमत्कारपूर्ण है।

ऐयार अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है तीव्रगामी या चपल व्यक्ति। देवकीनन्दन खत्री के अनुसार एयार उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो। शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य कार्य है।’ खत्री जी के उपन्यासों में इन्हीं ऐयारों की करामात का रहस्य-रोमांच भरा ऐसा आख्यान है जिसको पढ़ने वाला व्यक्ति आत्म-विस्मृति की हद पर पहुँचकर इतने मनोरंजनपूर्ण संसार में लीन हो जाता है कि वहाँ से निकलना उसे प्रीतिकर नहीं लगता। माताप्रसाद गुप्त के अनुसार अतिप्राकृत भावना के आधार पर लिखे गये इन उपन्यासों की लोकप्रियता के लिए मध्ययुगीन विकृत रुचि ही उत्तरदायी है। जो भी हो, इतना अवश्य है कि हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में इन रचनाओं का बहुत बड़ा योगदान है।

खत्री के अतिरिक्त हरेकृष्ण जौहर ने ‘कुसुमलता’, ‘भयानक भ्रम’, ‘नारी पिशाच’, ‘मयंक मोहिनी या माया महल’, ‘भयानक खून’ आदि ऐयारी उपन्यासों की रचना की। किशोरी लाल गोस्वामी ने भी ‘शीशमहल’ नामक उपन्यास लिखा। इन लेखकों को खत्री जैसी लोकप्रियता नहीं मिली।

जासूसी उपन्यास

तिलस्मी ऐयारी उपन्यासों की लोकप्रियता ने गोपाल राम गहमरी को भिन्न ढंग से प्रसिद्ध होने के लिए जासूसी उपन्यासों की रचना में प्रवृत्त होने का अवसर प्रदान किया। जासूसी उपन्यास पूर्णत: योरोप-विशेषत: इंगलैंड की देन है। उन्नीसवीं शती में सर आर्थर कानन डायल के जासूसी उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुए थे। उनके प्रभावस्वरूप बंगला में और बाद में हिन्दी में जासूसी उपन्यास लिखे गये। गोपाल राम गहमरी ने सन् 1900 ई० में ‘जासूस’ नामक मासिक पत्र निकाला। इसी में इनके जासूसी उपन्यास प्रकाशित हुए जिनकी संख्या लगभग 200 है। अद्भुत लाश’, ‘गुप्तचर’, बेकसूर को फाँसी’, ‘खूनी कौन’, ‘बेगुनाह का खून’, ‘जासूस की चोरी’, ‘अद्भुत खून’, ‘डाके पर डाका’, ‘जादूगरनी मनोला’, ‘खूनी का . भेद’, ‘खूनी की खोज’, ‘किले में खून’ आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं जिनमें चोरी, डकैती, हत्या, ठगी आदि से संबंधित कोई भयंकर काण्ड हो जाता है और जासूस उसके सुराग में लग जाता है। फिर क्रमश: कथानक एक रहस्य से दूसरे रहस्य में उलझता हुआ घटनाओं के वातचक्र में तब तक फँसा रहता है जब तक जासूस अपने धैर्य, साहस, बल, बुद्धि और कौशल से उसका रहस्य-भेदन नहीं कर लेता। जासूसी उपन्यास की घटनाएँ जीवन की यथार्थ स्थिति के निकट होती हैं।

कल्पना से उनमें रहस्य की सष्टि होती है और इस तरह कथानक जटिल और पेचीदा हो जाता है। इस तरह के उपन्यासों में भी मनोरंजन, .. कुतूहल, कौतुक का समावेश रहता है किन्तु सत्य का उद्घाटन नैतिकता का स्थापन और आदर्शवादी दृष्टि का पोषण भी इनका उद्देश्य रहा है।

गोपालराम गहमरी के अतिरिक्त रामलाल वर्मा (चालाक चोर), किशोरीलाल गोस्वामी (जिन्दे की लाश), जयराम दास गुप्त (लंगड़ा खूनी) ने भी जासूसी उपन्यासों की रचना की किन्तु गहमरी के अतिरिक्त किसी को विशेष ख्याति नहीं मिली।

ऐतिहासिक उपन्यास

इस युग में मध्यकालीन भारत के मुगल शासन से संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर अनेक उपन्यास लिखे गये। किशोरीलाल गोस्वामी ने ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना में विशेष रुचि दिखाई है। ‘तारा वा क्षात्रकुल कमलिनी’, कनक कुसुम वा मस्तानी’, ‘सुल्ताना रजिया बेगम वा रंगमहल में हलाहल’, ‘लखनऊ की कब्र या शाही महलसरा’, ‘सोना, सुगन्ध वा पन्नाबाई’, आदि उनके प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास हैं। इनके अतिरिक्त गंगा प्रसाद (नूरजहाँ, वीर पत्नी, कुमार सिंह सेनापति, हम्मीर) जयरामदास गुप्त (काश्मीर पतन, रंग में भंग, मायारानी, नवाबी परिस्तान व वाजिद अली शाह, मल्का चाँद बीबी). मथुरा प्रसाद शर्मा (नूरजहाँ बेगम), ब्रजनन्दन सहाय (लाल चीन) आदि ने भी ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की। इन उपन्यासों में यद्यपि ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं का चित्रण हुआ है, किन्तु इन्हें सच्चे अर्थों में ऐतिहासिक उपन्यास नहीं कहा जा सकता हैं क्योंकि एक तो इनमें ऐतिहासिक वातावरण का अभाव है, दूसरे ऐतिहासिक घटनाओं और तत्कालीन रीति-नीति, आचार-विचार वेश-भूषा आदि के वर्णन में कालदोष विद्यमान है।

दरअसल लेखकों की प्रवृत्ति इतिहास की ओर से हटकर प्रणय-कथाओं, विलास-लीलाओं, रहस्यमय प्रसंगों और कुतुहलपूर्ण घटनाओं की कल्पना में अधिक लीन रही है। उन्होंने ऐतिहासिक छानबीन कम की, कल्पना से अधिक काम लिया है ऐसा प्रतीत होता है कि तिलिस्मी-ऐयारी और जासूसी उपन्यासों के अतिशय रहस्य-रोमांच के समानान्तर अपनी प्रेमकथाओं को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए इन रचनाकारों ने इतिहास का सहारा ले लिया। इन्हें ऐतिहासिक रोमांस की कथाएँ कहना अधिक समीचीन है।

भावप्रधान उपन्सास

इस युग में कुछ ऐसे भी उपन्यास लिखे गए जिनमें न घटना की प्रधानता है, न चरित्र की। इनमें भावतत्व की प्रधानता है जैसे ठाकुर जगमोहन सिंह का ‘श्यामा-स्वप्न’, ब्रजनन्दन सहाय के ‘सौन्दर्योपासक’, ‘राधाकांत’, ‘राजेन्द्र मालती’, आदि उपन्यास। इन उपन्यासों में कथा-तत्व सर्वथा क्षीण है। आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘काव्यकोटि में आने वाले भावप्रधान उपन्यास’ कहा है। घटना-परिस्थिति की क्षीणता के कारण इन उपन्यासों में कोई गति भी प्राय: नहीं है।

प्रेमचंदयुगीन हिन्दी उपन्यास

प्रेमचंद का ‘सेवासदन’ उपन्यास सन् 1918 में प्रकाशित हुआ। इसी उपन्यास के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास के नये युग का आरंभ होता है जिसे प्रेमचंद युग’ और हिन्दी उपन्यास के ‘विकास युग’ के नाम से जाना जाता है। इस युग की समय-सीमा सन् 1918 से 1936 ई० तक मानी जा सकती है क्योंकि इसी अवधि में प्रेमचंद का उपन्यास-लेखन सम्पन्न हुआ है। और इसी समय सीमा में प्रेमचंद से प्रेरित-प्रभावित अनेक उपन्यासकारों ने अपनी रचनात्मक प्रतिभा प्रदर्शित की है।

सन् 1918 से 1936 ई० तक का समय भारतीय स्वाधीनता संघर्ष और समाज सुधार संबंधी आन्दोलनों की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। अंग्रेजी शासन, शिक्षा एवं सभ्यता के प्रभाव से तथा हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों, मत-मतान्तरों एवं धार्मिक आडम्बरों के प्रति बौद्धिक विद्रोह से, हमारे भीतर अपने धर्म, शिक्षा, संस्कृति एवं आचार-विचार विषयक जो हीनता आ गई थी उसके उन्मूलन के लिए चले आ रहे प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दू समाज में एक नवीन चेतना और गौरव की भावना का उदय हो रहा था। महात्मा गांधी भारतीय राजनीतिक मंच पर सूर्य की तरह उदित हो गए थे। उनके सत्य, आहिंसा, सदाचार, सत्याग्रह, अस्पृश्यता विरोध, स्त्रियों की उन्नति ग्राम सुधार, अछूतोद्धार, स्वदेशी आदि से संबंधित विचारधारा का जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ने लगा था।

अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ विरोध की नई शक्ति का उदय, उत्पीड़क समाज, सामन्त वर्ग, सरकारी अधिकारी, पूँजीपति आदि से टक्कर लेने का साहस, रूस की नवजागृति, विज्ञान के अभूतपूर्व आविष्कार आदि का हमारे जन-जागरण पर जो प्रभाव पड़ा उससे समाज यथार्थोन्मुख और वर्गीय समझ से भी सम्पन्न हुआ। अत: कल्पना, रोमांस एवं । चमत्कार-प्रदर्शन के इन्द्रजाल से मुक्ति लेकर हिन्दी उपन्यासकार यथार्थ की कठोरभूमि पर खड़े होकर समाजोपयोगी साहित्य की रचना में प्रवृत्त हुआ। इस नयी रचना-दृष्टि के संवाहक थे मुंशी प्रेमचन्द, जिन्होंने पहले के उपन्यासकारों पर यह मार्मिक टिप्पणी की थी – ‘जिन्हें जगत् गति नहीं व्यापती, वे जासूसी, तिलस्मी चीजें, लिखा करते हैं। यह कहकर प्रेमचंद ने अपना प्रस्थान-भेद और रचना संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था।

प्रेमचंद ने अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को अपने अनेक उपन्यासों में बड़ी गम्भीरता एवं मार्मिकता के साथ चित्रित किया है। सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’,’निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’, और ‘मंगलसूत्र’ जैसे उपन्यासों से प्रेमचंद ने हिंदी भाषी जनता का मानसिक संस्कार किया है और युगीन सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि का पूर्ण चित्र भी अंकित किया है। उनके उपन्यासों में मानवीय आदर्श, कर्तव्य, प्रेम, करुणा, समाज-सुधार, देश-भक्ति, सत्याग्रह, अहिंसा, स्त्री-व्यथा, मध्यवर्गीय मनुष्य की त्रासदी, कृषक जीवन की समस्याएँ मेहनतकश जनता का संघर्ष आदि अनेक जीवन-संदर्भो का व्यापक एवं प्रभावोत्पादक चित्रण हुआ है। प्रेमचंद के उपन्यासों में आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत मेल है। उनके आरंभिक उपन्यासों में जहाँ आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अभिव्यक्ति हुई है, वहीं ‘गोदान’ में उनका आदर्शवाद पूरी तरह बिखर गया है और उसका स्थान ले लिया है क्रूर यथार्थ ने। यहाँ तक आते-आते गांधी के प्रभाव से हृदय परिवर्तन का भी सिद्धान्त पूरी तरह निष्फल हो गया है।

प्रेमचंद ने जहाँ गांधीवादी विचारों और आदर्शों से प्रभावित होकर उपन्यास-रचना की, वहीं अपने चिन्तन, जीवनानुभव और ज्ञानार्जन से यथार्थवादी चेतना का भी विकास किया। प्रेमचंद के उपन्यास साहित्य की एक प्रमुख विशेषता है, दलितों के प्रति सहानुभूति और करुणा तथा उनके जीवन संघर्ष की प्रामाणिक एवं मार्मिक अभिव्यक्ति । हिन्दी साहित्य में जनचेतना और जनपक्षधरता का इतना बड़ा कोई दूसरा उपन्यासकार नहीं दिखाई पड़ता ।

प्रेमचंद से प्रभावित होकर विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, शिवपूजन सहाय, भगवती प्रसाद वाजपेयी, चण्डी प्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंह, सियाराम शरण गुप्त आदि ने सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ वाले उपन्यासों की रचना की। इन लेखकों के उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन, गांधीवादी जीवन-दर्शन, सुधारवादी प्रवृत्ति, सद्वृत्तियों की संपुष्टि, सच्चरित्रता, शोषण-अन्याय के खिलाफ संघर्ष आदि की प्रधानता है।

प्रेमचंद युग में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’, जैसे उपन्यासों से अपनी उपन्यास-कला का भी परिचय दिया। उन्होंने कंकाल’, में सामाजिक यथार्थ का चित्रण करके यह प्रमाणित कर दिया कि वे अतीत में ही रमे रहने वाले रचनाकार नहीं थे, वरन् उन्हें अपने समय के सामाजिक यथार्थ की भी गहरी जानकारी थी। इसी समय निराला ने ‘अप्सरा’, ‘प्रभावती’, ‘निरुपमा’, ‘चोटी की पकड़’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुल्लीभाट’ जैसे उपन्यासों से प्रेमचंदयुगीन सामाजिक चेतना को एक नया आयाम दिया। कुल्लीभाट’ और बिल्लेसुर बकरिहा’ में निराला ने अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ ही संस्मरणात्मक उपन्यास की एक नई शैली का विकास किया किन्तु यह शैली उन्हीं के उपन्यासों तक ही सीमित होकर रह गई। कुल्लीभाट’ और बिल्लेसुर बकरिहा’ हास्य-व्यंग्य की सरसता और तीक्ष्णता से युक्त ऐसे उपन्यास हैं जिनसे निराला की प्रगतिशील चेतना अधिक सघनता एवं प्रामाणिकता के साथ परिपुष्ट होती है। भगवती चरण वर्मा, जैनेन्द्र, चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावन लाल वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ आदि ने भी प्रेमचंदयुग में ही लिखना आरंभ किया। इनकी प्रवृत्ति, दृष्टि और शैली उस युग से भिन्नता लिए हुए है, और इनकी कला का निखार भी प्रेमचंदोत्तर काल में ही दिखाई पड़ा अत: इनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रेमचंदोत्तर काल में ही करना अधिक समीचीन है।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यास

प्रेमचंदोत्तर उपन्यास को ऐतिहासिक दृष्टि से दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम वर्ग में प्रेमचंद के निधन (सन् 1936 ई०) के बाद से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति (सन् 1947) तक के उपन्यासों और दुसरे वर्ग में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद आज तक के उपन्यासों का अध्ययन-मूल्यांकन किया जा सकता है। यहाँ आप पहले स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व के उपन्यासों का अध्ययन करेंगे।

प्रेमचंद के निधन के बाद हिन्दी उपन्यास में अनेक प्रवृत्तियों का विकास हुआ जैसे सामाजिक एवं मानवतावादी, स्वच्छंदतावादी, प्रकृतवादी, मनोविश्लेषणवादी, सामाजिक यथार्थवादी और ऐतिहासिक-पौराणिक । सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यास परम्परा मूलत: प्रेमचंद की ही परम्परा है। जिसमें सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चतुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल दिया गया है। इस परम्परा को समृद्ध करने वाले उपन्यासकार हैं- ‘विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, सियाराम शरण गुप्त, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, उदयशंकर भट्ट । प्रेमचंद-युग में गांधीवादी विचारधारा की प्रमुखता रही है। जिसमें मानवतावाद की व्यापक प्रतिष्ठा भी हुई है। सियाराम शरण गुप्त, प्रतापनारायण श्रीवास्तव जैसे लेखकों पर गांधीवाद का गहरा प्रभाव रहा है।

सियाराम शरण गुप्त के गोद’, ‘अंतिम इच्छा’ और ‘नारी’ में, प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’, और ‘विसर्जन जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवाद, हृदय-परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं। स्वच्छंदतावादी उपन्यासों की रचना में वृन्दावन लाल वर्मा (गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी), जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा) और उषादेवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है। हालाँकि प्रेमचंदोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती। विद्वानों का तो यह भी मानना है कि यह प्रवृत्ति मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों में भी मौजूद है। वैसे किसी रचना में किसी प्रवृत्ति का होना एक बात है और उसका प्रधान होना दूसरी बात।

प्रेमचंद-युग में ही प्रकृतवादी उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात हो गया था। प्रकृतवाद अपने में एक विशिष्ट जीवन-दर्शन है जो मानव-जीवन को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृत रूप में (नेचुरल) देखने और चित्रित करने में विश्वास रखता है। इस दृष्टि के अनुसार जीवन में जिसे विद्रूप और कुत्सित कहा जाता है, वह सहज और वैज्ञानिक भी है। चतुरसेन शास्त्री (हृदय की परख, व्यभिचार, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, आत्मदाह), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (दिल्ली का दलाल, चाकलेट, चन्द हसीनों के खतूत, बुधुआ की बेटी, शराबी, सरकार तुम्हारी आँखों में, जीजा जी) और ऋषभचरण जैन (वैश्यापुत्र, मास्टर साहब, सत्याग्रह, बुर्केवाली, चाँदनी रात, दिल्ली का व्यभिचार, हर हाईनेस, दुराचार के अड्डे, मयखाना) ने हिन्दी में प्रकृतवादी उपन्यासों की रचना की और यथार्थ के नाम पर मानव-जीवन की विकृतियों का खुलकर वर्णन-चित्रण किया। प्रकृतवादी उपन्यासों के जनक जोला (ZOLA) की मान्यता है कि लेखकों का धर्म है कि वे जीवन के गंदे और कुरूप से कुरूप चित्र खींचे। मनुष्य की दुर्बलताओं, रोगों और विकृतियों का वर्णन करते समय उन्हें कोई अंश छोड़ना नहीं चाहिए। हिन्दी के प्रकृतवादी उपन्यासकारों ने इस धारणा के तहत जीवन का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर वितृष्णा पैदा होती है और यह महसूस होता है कि जीवन में सब कुछ विद्रूप, कुत्सित और वीभत्स है। इस प्रवृत्ति को अधिक प्रश्रय नहीं मिला।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में व्यक्तिवादी चेतना का भी प्राधान्य रहा। व्यक्तिवादी. व्यक्ति की सत्ता और अस्तित्व को समाज से पहले स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि में समाज-व्यवस्था महज एक माध्यम होती है, लक्ष्य व्यक्ति होता है। अपने योग-क्षेम का निर्णायक व्यक्ति होता है। वह अपने प्रति स्वयं उत्तरदायी होता है। इसमें व्यक्ति का अहं प्रबल होता है। भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, तीन वर्ष, टेढ़े-मेढे रास्ते), उपेन्द्रनाथ अश्क’ (एक रात का नरक, सितारों के खेल, गिरती दीवारें), भगवती प्रसाद वाजपेयी (पतिता की साधना, चलते-चलते, टूटते बंधन) और उषा देवी मित्रा (वचन का मोल, जीवन का मुस्कान, पथचारी) ने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से उपन्यासों की रचना की है। इन उपन्यासकारों ने सामाजिक शक्तियों के स्थान पर व्यक्ति की चेतना और उसके व्यक्तित्व को अधिक महत्वपूर्ण माना है। यहाँ व्यक्ति । का विद्रोह भी सामाजिक संदर्भ से रहित व्यक्तिगत ही है।

प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों से समृद्ध किया है। जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय इस परम्परा के अग्रणी रचनाकार हैं । फ्रायड, एडलर और युग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इन लेखकों पर गहरा प्रभाव है। मनुष्य के अन्तर्जगत की सूक्ष्म एवं गहन पड़ताल करके उसके अन्त:सत्य को उद्घाटित करना इन लेखकों का उद्देश्य है। इन उपन्यासकारों पर फ्रायड के सिद्धान्तों का अधिक प्रभाव है। उसके कुंठावाद के आधार पर लेखकों ने मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृत्तियों, अहं, दंभ और हीनभावना आदि ग्रंथियों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया जिसमें वह अपनी आन्तरिक छवि देख सकता है। मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों ने यह माना कि बाह्य सत्य की अपेक्षा अन्त:सत्य ही प्रामाणिक एवं विश्वसनीय है। अत: उसे ही मानना महत्वपूर्ण है।

जैनेन्द्र के ‘परख’, ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘कल्याणी’, इलाचन्द्र जोशी के संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’, प्रेत . और छाया’, और अज्ञेय के ‘शेखर : एक जीवनी’ ‘नदी के द्वीप’,जैसे उपन्यासों से यह कथा-परम्परा समृद्ध हुई है। जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में सामाजिक मर्यादाओं के बीच अपनी पहचान बनाने वाले पात्रों की सृष्टि की है जो सामाजिक दबावों और व्यक्तिगत आग्रहों के चलते द्वन्द्वग्रस्त होकर आत्मयातना के शिकार हो गए हैं। वे समाज को न तोड़कर, स्वयं टूटते हैं। जैनेन्द्र के दृष्टिकोण पर गांधीवाद का भी प्रभाव है। जैनेन्द्र का विश्वास है कि पीड़ा और व्यथा ही अहं को विगलित करने में समर्थ है। व्यथा का तीव्रतम रूप कामगत यातना में प्राप्त होता है। इसीलिए जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में कामपीड़ा और समर्पण का चित्रण करके अहं का विसर्जन किया है। इलाचंद्र जोशी के उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद का इतना प्रभाव है कि उनके उपन्यास फ्रायड की मान्यताओं के साहित्यिक संस्करण प्रतीत होते हैं। उनके उपन्यासों के पात्र अनेक मनोग्रंथियों से पीड़ित रुग्ण और दुर्बल हैं।

अज्ञेय मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में अपनी विद्रोह-भावना. वरण की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व की अद्वितीयता की विशिष्ट धारणा और उपन्यासों में उनके कलात्मक रचाव के कारण विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके तीनों उपन्यास – ‘शेखर : एक जीवनी’ ‘नदी के द्वीप’ और ‘अपने-अपने अजनबी’ हिन्दी उपन्यास-साहित्य की विशिष्ट कृतियाँ हैं। ‘शेखर : एक जीवनी’ में मूलत: व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समस्या उठाई गई है। इसका प्रधान पात्र शेखर जीवन की जटिल गहराइयों में डूबता-उतराता, अनेक प्रकार के प्रयोग करता, पारंपरिक मूल्यों को ढहाता एक ऐसे विद्रोही का रूप धारण कर लेता है जो बाद में अपने भी खिलाफ हो जाता है। ‘नदी के द्वीप’ में अज्ञेय का व्यक्तिवादी जीवनदर्शन व्यक्त हुआ है। उन्होंने मध्यवर्गीय कुंठित जीवन के प्रतीक के रूप में नदी के द्वीप की कल्पना की है। नदी का द्वीप धारा से कटा हुआ है। मध्यवर्गीय जीवन भी शेष जन-प्रवाह से विछिन्न है। इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र भुवन एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति है।

इन मनोविश्लेणवादी उपन्यासकारों के साथ स्वातंत्र्योतर काल के लेखक डॉ० देवराज का नाम भी उल्लेखनीय है जिन्होंने -पथ की खोज’, ‘रोड़े-पत्थर’, ‘अजय की डायरी’ और ‘मैं, वे और आप’ उपन्यासों की रचना की है मनोविलेषणवादी उपन्यासकारों को प्रयोगवादी उपन्यासकार कहा गया है क्योंकि इन्होंने उपन्यास के कथ्य और शिल्प में प्रयोगशीलता को प्रश्रय दिया है।

सन् 1941 में हिन्दी के दो बड़े उपन्यास – अज्ञेय का ‘शेखर : एक जीवनी’ और यशपाल का ‘दादा कामरेड’ एक साथ प्रकाशित हुए। इनमें प्रयोग और प्रगति की दो भिन्न जीवन-दृष्टियाँ स्पष्ट रूप में उभरकर सामने आई। अज्ञेय के उपन्यास में मनोविश्लेषण, विद्रोहमूलक वैयक्तिक आग्रह, व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अभिनव रूप-विन्यास की प्रधानता थी तो यशपाल के उपन्यास पर मार्क्सवादी विचारधारा और यथार्थवादी शिल्प का गहरा प्रभाव था। वैसे तो प्रेमचंद के परवर्ती लेखन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा था किन्तु उसको व्यापक प्रतिष्ठा मिली यशपाल आदि समाजवादी-प्रगतिवादी लेखकों के साहित्य में। ‘प्रगतिशील लेखक मंच’ के प्रथम अधिवेशन के अपने भाषण में प्रेमचंद ने अपने वस्तवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील सौन्दर्य-दृष्टि को भलीभाँति स्पष्ट कर दिया था। आगे चलकर प्रेमचंद की यथार्थवादी परम्परा का ही अनेकायामी विकास हुआ। प्रेमचंद के बाद यशपाल, नागार्जुन, मन्मथनाथ गुप्त, रांगेय राघव आदि उपन्यासकारों ने उस यथार्थवादी परम्परा का समुचित विकास किया।

‘दादा कामरेड’ के बाद यशपाल के तीन उपन्यास – ‘देशद्रोही’, ‘दिव्या’, और ‘पार्टी कामरेड’ – स्वतंत्रता के पहले प्रकाशित हुए और स्वतंत्रता के बाद मनुष्य के रूप’ और ‘झूठा सच’ जैसे वृहदकाय उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यशपाल के उपन्यासों में साम्यवादी विचार-दर्शन की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने लेखक और लेखन को सामाजिक उपयोगिता के दर्शन से जोड़ा है। उनका कहना है कि लेखक यदि कलाकार है तो उसके प्रयत्न की सार्थकता समाज के दूसरे श्रमियों की भाँति कुछ उपयोगिता की सृष्टि करने में है। यशपाल के उपन्यासों में प्रमुख रूप से भारतीय स्वाधीनता संघर्ष, समाज-संबद्धता, क्रांति और विद्रोह, प्रगतिशील जीवनमूल्य और चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। रांगेय राघव के ‘घरौंदे’, ‘विषाद मठ’ और मन्मथनाथ गुप्त के ‘शोले’, ‘मशाल’ में भी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि की अभिव्यक्ति हुई है। स्वतंत्रता के बाद इस प्रगतिवादी धारा या समाजवादी धारा का ही विकास हुआ। स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों का विवेचन करते समय इस विषय पर चर्चा करेंगे।

ऐतिहासिक-पौराणिक उपन्यास लेखकों में वृन्दावन लाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों में भारतीय इतिहास के उन अध्यायों और घटनाओं को चित्रित किया गया है, जिनसे वर्तमान को नयी दिशा और प्रेरणा मिलती है। ऐसे उपन्यासों का उद्देश्य केवल इतिहास के आलोक में सुधारने और सँवारने की चेतना प्रदान करना है, साथ ही वर्तमान को इतिहास में संगुम्फित करने और नये जीवन-मूल्यों को विश्वसनीय और प्रेरणास्पद बनाकर प्रस्तुत करने की दृष्टि भी क्रियाशील है। ऐतिहासिक उपन्यासकारों में वृन्दावन लाल वर्मा को विशेष ख्याति मिली है। उनके गढ़ कुंडार’, ‘विराटा की पद्मिनी’, ‘झांसी की रानी’ जैसे उपन्यास स्वतंत्रता से पहले और ‘कचनार’, ‘मृगनयनी’, ‘अहिल्याबाई’, ‘भुवन विक्रम’, ‘माधव जी सिंधिया’, ‘रामगढ़ की रानी’, ‘महारानी दुर्गावती’ आदि उपन्यास स्वतंत्रता के बाद लिखे गए हैं। वर्मा जी को अपनी धरती से विशेष स्नेह है। उन्होंने अपने इतिहासप्रधान उपन्यासों में मध्यकालीन भारत के दबे-बिखरे शौर्य और साहस को बड़ी ममता से संजोया है। उनका मानना है कि इतिहास मनुष्य के विकास में सहायक होता है। इस धारणा के तहत उन्होंने अपने उपन्यासों में इतिहास के तथ्यों की रक्षा की है और ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का प्रसार किया है।

भारतीय संस्कृति के संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत वाले चतुरसेन शास्त्री ने ‘वैशाली की नगरवधू’ को स्वतंत्रता से पहले और सोमनाथ’ तथा ‘वयं रक्षाम:’ को स्वतंत्रता के बाद लिखा। इन उपन्यासों को लिखते समय । उनकी यह धारणा क्रियाशील रही है कि इतिहास के काले पर्दे के पीछे आर्यों के धर्म, साहित्य, राज्यसत्ता और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय सहस्त्राब्दियों से छिपी हुई है जिसे संभवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर नहीं देखा है। वर्माजी ने अपने उपन्यासों से यह कार्य किया। उनके उपन्यासों में इतिहास-रस भी है और वर्तमान जीवन का स्पन्दन भी।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पहले हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ लिखकर एक अभिनव प्रयोग किया। बाणभट्ट के ऐतिहासिक जीवनवृत से जुड़ी कुछ घटनाओं के उपयोग के बावजूद यह न तो आत्मकथा है, न जीवनी। इसमें हर्षवर्धन कालीन इतिहास, समाज और संस्कृति के साथ-साथ युगबोध को भी अभिव्यक्ति मिली है। यह कथ्य, शिल्प, भाषा, शैली, संचेतना आदि सभी दृष्टियों से एक अनूठा उपन्यास है। प्रयोगशीलता इसकी प्रमुख विशेषता है। भारत के सांस्कृतिक यथार्थ को चित्रित करने वाला यह अनूठा ऐतिहासिक उपन्यास है।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास-परम्परा में तीन पीढ़यों की सर्जनात्मकता का योगदान है। एक पीढ़ी प्रेमचंदोत्तर रचनाकारों की है जिनमें जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त, भगवती चरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, अमृतलाल नागर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, दूसरी पीढ़ी उन रचनाकारों की है जिनका कृतित्व स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद वाले दशक से प्रकाश में आया। उदयशंकर भट्ट, प्रभाकर माचवे, भैरवप्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, नरेश मेहता, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मार्कण्डेय, निर्मल वर्मा, दुष्यंत कुमार, ठाकुर प्रसाद सिंह आदि इसी पीढ़ी के रचनाकार हैं। लेखकों की यह पीढ़ी आजादी के समय युवा थी। तीसरी पीढ़ी उन रचनाकारों की है जो आजादी के बाद या उसके शारा TT टा दर्द और नियमी रचनात्मकता शिलले राजीस-तीस ताओं के दौरान पतराय दर्द । यही समकालीन पीढ़ी है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास के इस शीर्षक के अंतर्गत हम पहली दोनों पीढ़ियों के उपन्यास-साहित्य पर प्रकाश डाल रहे हैं। ये दोनों पीढ़ियाँ समानान्तर रूप से सजन-रत रही हैं। तीसरी पीढ़ी के उपन्यासों की चर्चा ‘समकालीन हिन्दी उपन्यास’ के अंतर्गत की जाएगी।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश के राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक परिर्वन उपस्थित हुआ। स्वाधीनता-संघर्ष के दौरान जिस व्यापक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का अभ्युदय हुआ था, वह धीरेधीरे हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की गिरफ्त में आती गई और अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति सफल होती गई। इसी के परिणामस्वरूप सन् 1947 ई० में अखण्ड भारत के दो खण्ड हो गये – हिन्दुस्तान और पाकिस्तान । भारत-विभाजन के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए। आजाद भारत के निर्माण और विकास के लिए प्रयत्न हुए। तरह-तरह की योजनाएँ बनीं। उद्योग-धंधों, कार्यालयों और अन्य कर्म-क्षेत्रों का विस्तार हुआ। इस परिदृश्य से सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उथल-पुथल हुई, परिवर्तन, विघटन और निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके अलावा आजादी के भी जो मीठे-कडुवे अनुभव हासिल हुए, उन सबको केन्द्र में रखकर स्वातंत्र्योत्तर काल के उपन्यासकारों ने महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की। यशपाल का ‘झूठा-सच’ स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के यथार्थ को चित्रित करने वाला महाकाव्यात्मक उपन्यास है। यह उपन्यास दो खण्डों में लिखा गया है। पहला खण्ड है – ‘वतन और देश’ और दूसरा है देश का भविष्य’ । ये दोनों शीर्षक काफी व्यंजनापूर्ण हैं और आजादी के पूर्व और आजादी के बाद के भारत की संघर्ष-कथा को बड़ी सजीवता के साथ रूपायित करते हैं। इसमें 1942 से 1952 ई० तक के भारत के राजनीतिक-सामाजिक जीवन का यथार्थवादी चित्रण किया गया है।

देश-विभाजन के पूर्व और उसके बाद की परिस्थितियों, जीवन-दशाओं, संघर्षों और समस्याओं को चित्रित करने वाले उपन्यासकारों में यशपाल के अतिरिक्त चतुरसेन शास्त्री (धर्मपुत्र), विष्णु प्रभाकर (निशिकांत), मन्मथनाथ गुप्त (गृहयुद्ध, तूफान के बादल), भीष्म साहनी (तमस), कमलेश्वर (लौटे हुए मुसाफिर), जगदीश चन्द्र (मुट्ठी भर कांकर), राही मासूस रज़ा (आधा गाँव), बलवन्त सिंह (काले कोस), बदीउज्ज्मा (छाको की वापसी), भगवती चरण वर्मा (सीधी सच्ची बातें, प्रश्न और मरीचिका, वह फिर नहीं आई), और कृष्णबलदेव वैद (गुजरा हुआ जमाना) के नाम उल्लेखनीय हैं। देश-विभाजन और उसकी त्रासदी से जुड़े उपन्यासों का यह एक ऐसा कथा-संसार है जो उपन्यासकारों की सामाजिक-सांस्कृतिक चिन्ताओं, समाज-संबद्धता और जागरूकता का सही पता देता है। इन उपन्यासों को पढ़कर इस शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी (दश विभाजन) के अनेक पहलुओं को जानने-समझने में सुविधा होती है। यह मनुष्यता के अंधकारकाल की लोमहर्षक घटनाओं का जीता-जागता चित्र है।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी पिछली पीढ़ी के व्यक्तिवादी, समाजवादी, मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करने वाले उपन्यासकार सक्रिय रहे हैं। सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यासकार अमृतलाल नागर के अनेक महत्वपूर्ण उपन्यास स्वतंत्रता के बाद वाले दौर में प्रकाशित हुए। बूंद और समुद्र’, ‘सुहाग के नूपुर’, ‘शतरंज के मोहरे’, अमृत और विष’, ‘बिखरे तिनके’, ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’,’मानस के हंस’, ‘खंजन नयन’ और ‘करवट’ जैसे उपन्यासों से अमृतलाल नागर को स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा-साहित्य में विशेष प्रतिष्ठा मिली। ‘बूँद और समुद्र’ में उन्होंने व्यक्ति और समाज के संबंध को बूंद और समुद्र के संबंध के रूप में चित्रित किया और व्यक्ति की सामाजिक चेतना को प्रमुखता प्रदान की।

‘अमृत और विष’ में उन्होंने अंग्रेजी शासन के आरंभ से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जीवन-स्थितियों का सजीव चित्रण किया है। ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ मेहतर समाज के इतिहास, उनके रीति-रिवाज, वेश-भूषा, बोली-बानी तथा नित्य के दु:ख-दर्द का मार्मिक दस्तावेज तो है ही, सवर्णों के अत्याचार और वर्ण-व्यवस्था की खामियों और बुराइयों का भी उद्घाटक है। अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ में गोस्वासी तुलसीदास और ‘खंजन नयन’ में महात्मा सूरदास का जीवन अंकित किया है जो अनुसंधानपूर्ण और कथा-रस प्रधान है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के तीन महत्वपूर्ण उपन्यास – चारुचन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ – स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सातवें और आठवें दशक में प्रकाशित हुए। ये उपन्यास द्विवेदी जी की विशिष्ट रचना-शैली, सांस्कृतिक चेतना, ऐतिहासिक संवेदना और स्वच्छन्द-स्वच्छ रोमान्टिक भावना के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। हिन्दी में इन उपन्यासों की अपनी विशिष्ट पहचान है। भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’, ‘सामर्थ्य और सीमा’, ‘सबहिं नचावत राम गोसाई’, ‘सीधी-सच्ची बातें’, उपेन्द्र नाथ अश्क’ के ‘गिरती दीवारें’, ‘गर्म राख’, ‘शहर में घूमता

आईना’, ‘बांधो न नाव इस ठाँव बन्धु’ जैसे सामाजिक उपन्यास स्वतंत्रता-प्राप्ति के बीस-पच्चीस वर्षों की अवधि में लिखे गये। मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में इलाचन्द्र जोशी के ‘मुक्तिपथ’, ‘जिप्सी’, ‘जहाज का पंछी’, ‘भूत का भविष्य’, अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’, सामाजिक यथार्थवादी उपन्यासकार रांगेय राघव और भैरव प्रसाद गुप्त के अनेक उपन्यास भी स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास की अमूल्य निधि हैं। तात्पर्य यह कि बदले हुए सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के बीच पहले के रचनाकारों ने अपने समय से कभी प्रभावित होकर और कभी उसे प्रभावित करने की भावना से विविध विषयक उपन्यासों की रचना की और हिन्दी उपन्यास की गति को तीव्र से तीव्रतर किया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी में आंचलिक उपन्यासों की रचना की विशेष प्रवृत्ति का उदय हुआ। इसके शुभारंभ का श्रेय फणीश्वरनाथ रेणु’ को है। बिहार के अंचल विशेष के जीवन-यथार्थ, रहन-सहन, आचार-विचार को पर्याप्त निजता एवं रागात्मकता के साथ चित्रित करते हुए रेणु ने ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों की रचना की। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत में एक अंचल की आत्मपहचान से जुड़ी हुई सजनात्मकता की एक सहज-स्वाभाविक आकांक्षा का प्रतिफल है। प्रेमचंद के बाद भारतीय ग्रामीण जीवन को बदले हुए सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो में नवोन्मेष के साथ चित्रित करने की यह ललक जितनी स्वतंत्रता की क्रोड़ से पैदा हुई है, शहरी जीवन की कुण्ठा, घुटन, एकरसता और आत्माभिमुखता की ऊब से भी प्रकट हई है।

प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में जो गाँव गायब हो गया था, उसे रेणु ने नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया। उनके बाद कई लेखकों ने – जैसे उदयशंकर भट्ट (कब तक पुकारूँ), रामदरश मिश्र (पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ), राही मासूस रज़ा (आधा गाँव). शिवप्रसाद सिंह ( अलग-अलग वैतरणी), श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी), हिमांशु जोशी (अरण्य). विवेकी राय (बबूल, पुरुष पुराण, लोकऋण, सोना माटी, समर शेष है) शैलेश मटियानी (कबूतर खाना, दो बूंद जल) शानी (काला जल) आदि – आंचलिक उपन्यासों की रचना करके भारत के विभिन्न अंचलों के जीवन-यथार्थ, आशा-आकांक्षा, संघर्ष-टूटन, राजनीतिक-सामाजिक पिछड़ेपन-जागृति आदि का चित्रण । किया। उपन्यासकारों ने विभिन्न अंचलों की जीवन-दशा को अपनी रचना का विषय बनाकर उनके प्रति अपनी करुणा, सहानुभूति और रागात्मकता ही नहीं प्रदर्शित की है, तथाकथित प्रगति और विकास के दावेदारों की आँखों के सामने उपेक्षित और अलग-थलग पड़े अंचलों के दु:ख-दर्द को प्रत्यक्ष करके उनके सारहीन, दिखाऊ और प्रवंचनापूर्ण कृत्यों की पोल भी खोली है।

यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है स्वतंत्रता के बाद देश में नयी जीवन-स्थितियाँ पैदा हुईं। पहले उत्साह, ललक और उसके बाद मोहभंग, निराशा, हताशा, कुण्ठा आदि का वातावरण बना। शहरी मध्यवर्ग का विकास और उसके जीवन में तमाम विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ पैदा हईं। जनसंख्या के साथ-साथ मशीनों का उपयोग बढ़ने से भयानक बेकारी, भुखमरी और बेरोजगारी पैदा हुई। इन सबके साथ ही तरह-तरह की राजनीतिक पैतरेबाजी ने हिन्दी के नये उपन्यासकारों को समसामयिक जीवन-यथार्थ के चित्रण के प्रति सजग, संवेदनशील और प्रतिबद्ध किया है। रचनाकारों में यथार्थ के प्रति आग्रह बढ़ा, अनुभव का सच कहने और लिखने की प्रेरणा जगी तथा ‘हम जैसे हैं,वैसे ही दिखें, का यथार्थवादी दृष्टिकोण भी विकसित हुआ। यथार्थ की यह चेतना हिन्दी उपन्यास में कई रूपों में अभिव्यक्त हुई, कभी आधुनिकताबोध के रूप में कभी यथातथ्यवाद के रूप में, कभी मार्क्सवाद और जनवाद के रूप में।

आधुनिकतावाद नगरीकरण की तेज प्रक्रिया, पूँजीवादी लोकतंत्र से मोहभंग, अस्तित्ववादी दर्शन तथा पश्चिमी प्रभाव के फलस्वरूप पैदा हुआ। इसके प्रभावस्वरूप पारंपरिक मूल्य बिखर गये, सामाजिकता की जगह वैयक्तिकता का प्राधान्य हो गया और व्यक्ति अपनी असमर्थताओं-असफलताओं से घिरकर हताश, निराश, कुंठित हो गया। सातवें दशक के हिन्दी उपन्यासों में आधुनिकताबोध की ये सभी प्रवृत्तियाँ परिलक्षित हुई हैं। इस दृष्टि से मोहन राकेश (अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल), निर्मल वर्मा वि दिन), राजकमल चौधरी (मरी हुई मछली, शहर था : शहर नहीं था), महेन्द्र भल्ला (एक पति के नोट्स), उषा प्रियंवदा (रुकोगी नहीं राधिका), शिवप्रसाद सिंह (अलग-अलग वैतरणी), गिरिराज किशोर (यात्राएँ), मणि मधुकर (सफेद मेमने), ममता कालिया (बघर), मन्नू भण्डारी (आपका बंटी) आदि के उपन्यास पठनीय हैं। इन उपन्यासों का व्यक्ति अकेला, ऊबा हुआ, संत्रस्त, व्यर्थताबोध से पीड़ित, अजनबियत से घिरा हुआ, थका-हारा ऐसा व्यक्ति है जिसको कोई भविष्य नहीं दिखाई देता, न कहीं आशा-उत्साह की कोई किरण दिखाई पड़ती है। इनमें निर्मल वर्मा के उपन्यास और भी विशिष्ट हैं ।

वे दिन’ का परिवेश विदेशी है। इसमें द्वितीय महायुद्धोत्तर काल की योरोपीय युवा पीढ़ी के अर्थहीन यौनसंबंधों, अकेलापन, ऊब, अनास्था, भय, कुण्ठा आदि का चित्रण हुआ है। मोहन राकेश के उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी चित्रित है और राजकमल चौधरी में ‘मरी हुई मछली’ में अर्थाभाव झेलती हुई स्त्री की देह-गाथा का चित्रण हुआ है। इन उपन्यासों से भिन्न ‘आपका बंटी’ में उच्च मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण हुआ है यहाँ आधुनिकता फैशन के रूप में नहीं, एक वास्तविकता के रूप में चित्रित है। इस उपन्यास में बेटे की वेदना के माध्यम से एक परित्यक्ता और पुन: विवाहिता माँ की मानसिक यातनाओं का चित्रण सशक्त रूप में किया गया है।

आधुनिकतावादी इन उपन्यासों के विपरीत प्रगतिवादी विचारधारा से सम्पन्न आठवें दशक के उपन्यासकारों की वह परंपरा है जिसका गहरा संबंध प्रेमचंद की जनवादी परम्परा से है। इस दृष्टि से श्रीलाल शुक्ल (राग दरबारी), बदीउज्जमा (एक चूहे की मौत), जगदीशचन्द्र (धन धरती न अपना), काशीनाथ सिंह (अपना मोर्चा), गिरिराज किशोर (जुगलबंदी), भीष्म साहनी (तमस), रमेशचन्द्र शाह (गोबर गणेश), जगदम्बा प्रसाद दीक्षित (मुर्दाघर), रामदरश मिश्र (अपने लोग) राही मासूम रजा (कटराबी आरजू), कृष्ण सोबती (जिन्दगीनामा), मन्नू भण्डारी (महाभोज), मनोहर श्याम जोशी (कुरु-कुरु स्वाहा) और मार्कण्डेय (अग्निबीज) के उपन्यास उल्लेखनीय हैं। आधुनिकतावादी लेखकों ने जिस जीवन को मध्यवर्गीय जीवन के ‘अंधेरे बन्द कमरे में घुटने के लिए कैद कर दिया था, उसे इन उपन्यासकारों ने जन-जीवन के बीच उन्मुक्त सांस लेने के लिए फिर अवकाश प्रदान किया।

व्यंग्य, फैंटेसी, यथार्थ-जनता में क्रांति, विद्रोह, आन्दोलन का भाव जगाकर अपनी दुर्दशा-असहायावस्था से मुक्ति पाने का मार्ग भी दिखाया। इन उपन्यासों में राजनीतिक उठापटक, लोकतंत्र की छीछालेदर, ग्रामीण जीवन की रेंगती-घसीटती जिन्दगी, जातिवादी संघर्ष, साम्प्रदायिक विद्वेश, उन्माद और संघर्ष, मुर्दा होते हुए सामाजिक संबंध, युवा-विद्रोह आदि का जीता-जागता चित्र कभी आलोचनात्मक और कभी व्यंग्यात्मक ढंग से, कभी फैंटेसी के सहारे उपस्थित किया गया है। ‘रागदरबारी’ की व्यंग्यात्मकता और ‘एक चूहे की मौत’ की फैंटेसी इस दौर की उपन्यास कला को एक नया आयाम देती है।

समकालीन हिन्दी उपन्यास

वैसे तो सामान्य रूप से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों की गणना समकालीन हिन्दी उपन्यास के रूप में की जाती है किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में हम पिछले 20-25 वर्षों से लिखे जा रहे उपन्यासों की ही विवेचना करेंगे। इसके दो कारण हैं – एक यह कि हम इस इकाई में पहले ही आठवें दशक तक के उपन्यासों की चर्चा कर चुके हैं, दूसरे समकालीन हिन्दी उपन्यास के ताजा परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए पिछले दशक से जारी उपन्यास-यात्रा का विश्लेषण ज्यादा सार्थक है क्योंकि यही हिन्दी उपन्यास के आगामी विकास और भविष्य का सूचक है।

नवें दशक में भी पिछले दशक के कई उपन्यासकारों के नये उपन्यास प्रकाश में आये हैं। जैसे – ‘रात का रिपोर्टर’ (निर्मल वर्मा), ‘मय्यादास की माड़ी’ (भीष्म साहनी), ‘बिना दरवाजे के मकान’, ‘दूसरा घर’ (रामदरश मिश्र) ‘नीला चाँद’ (शिवप्रसाद सिंह), ‘हुजूर दरबार’, ‘तुम्हारी रोशनी में’, धीर समीरें’ (गोविन्द्र मिश्र), ‘बंधन’, ‘अधिकार’, ‘कर्म’, ‘अभिज्ञान’ (नरेन्द्र कोहली), सोना माटी’ (विवेकी राय) आदि।

नवें दशक से जिन उपन्यासकारों ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई उनमें मनोहर श्याम जोशी (कुरु-कुरु स्वाहा, कसप, हरिया हरिकुलिस), अब्दुल बिस्मिल्लाह (झीनी-झीनी बीनी चदरिया, दंतकथा, जहरबाद), मंजूर एहतेशाम (सूखा बरगद), संजीव (सर्कस, सावधान नीचे आग है) के नाम उल्लेखनीय हैं। वर्तमान दशक में वीरेन्द्र जैन (डूब, पार, पंचनामा), कमलाकांत त्रिपाठी (पाहीघर), पंकज विष्ट (उस चिड़िया का नाम), प्रियंवद (व वहाँ कैद हैं) आदि ने हिन्दी उपन्यास में नयी रचनाशीलता को सार्थक ढंग से प्रत्यक्ष किया है।

बीतते हुए दशक और समाप्त होती बीसवीं शताब्दी की एक अनूठी रचना है ‘मुझे चाँद चाहिए’ (सुरेन्द्र वर्मा)। इसने हिन्दी उपन्यास को एक नया जीवन प्रदान किया है। इसकी भाषा-शैली इतनी रोचक और आकर्षक है कि पाठक पूरी तरह इसमें तल्लीन हो जाता है। जनवादी, मार्क्सवादी और क्रान्तिकारी रचनाओं के बीच यह मानवीय भावनाओं का भिन्न स्वाद देने वाली विशिष्ट रचना है।

उपर्युक्त उपन्यासों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी उपन्यास में किसी खास प्रवृत्ति या विचारधारा का प्रभाव या दबाव नहीं है। इन उपन्यासों में विषयगत विविधता तो है ही, शिल्पगत नवीनता और प्रयोगशीलता भी विद्यमान है इसीलिए ये उपन्यास किसी परम्परा में अन्तर्भुक्त न होकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं। ‘कुरु कुरु स्वाहा’ की रोमैण्टिक कथा और बम्बइया हिन्दी कथा का अलग रंग है तो ‘कसप’ में उत्तर आधुनिकता की झाँकी विद्यमान है, ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ में बनारस के बुनकरों का जीवन-यथार्थ और संघर्ष उन्हीं की बोली-बानी में है तो सूखा बरगद’ में हिन्दी-मुस्लिम संबंध, ‘डूब’ में मध्यप्रदेश के पिछड़े अंचल की व्यथा-कथा है तो उस चिड़िया का नाम’ में पहाड़ी जीवन का संघर्ष, ‘मय्यादास की माड़ी’ में पंजाब की तीन पीढ़ियों का इतिवृत्त है। ‘पाहीघर’ में ब्रिटिश शासन के समय के अवध जनपद की संघर्ष-गाथा अंकित है। अन्य विधाओं के रचनाकारों की. अपेक्षा वर्तमान उपन्यासकार वैचारिक कठमुल्लेपन और सीमित जीवनानुभव की बंदिशों से काफी मुक्त हैं।

स्वातंत्र्योत्तर काल से हिन्दी उपन्यास में महिला कथाकारों की एक सशक्त पीढ़ी भी तैयार हुई, जिसने अपने रचना-संसार को विशिष्ट रूप-रंग प्रदान करके उसे एक नयी पहचान दी है। शशिप्रभा शास्त्री, शिवानी, कृष्णा सोबती, दीप्ति खण्डेलवाल, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा, निरुपमा सेवती, मेहरुन्निसा परवेज, राजी सेठ, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मृणाल पाण्डेय, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला, प्रभा खेतान आदि ने अन्य उपन्यासकारों के बीच अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है।

सातवें दशक में उषा प्रियंवदा (पचपन खंभे लाल दीवारें), मन्नू भण्डारी (‘एक इंच मुस्कान’ – सहलेखन के तौर पर) और कृष्णा सोबती (मित्रो मरजानी) ने जो सृजन-यात्रा शुरू की, वह उत्तरोत्तर गति पाती गई। बाद में मन्नू भण्डारी ने ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’; बोल्डनेस के लिए ख्यात कृष्णा सोबती ने ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’ और उषा प्रियंवदा ने ‘रुकोगी नहीं राधिका’ जैसे उपन्यास लिखकर अपने को हिन्दी उपन्यास-जगत् में पूरी तरह प्रतिष्ठित कर लिया। आठवें दशक में मृदुला गर्ग (चितकोबरा), ममता कालिया (नरक दर नरक), मृणाल पाण्डेय (पटरंग पुराण); नवें दशक में राजी सेठ (तत्सम), नासिरा शर्मा (शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, जिन्दा मुहावरे) ने अपनी पहचान बनाई। वर्तमान दशक में प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता, तालाबन्दी, अपने-अपने चेहरे) और मैत्रेयी पुष्पा (इदन्नमम) ने अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है।

इन उपन्यास-लेखिकाओं ने सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर जैसी विचारोत्तेजक कृतियाँ दी हैं, उनसे साफ तौर पर जाना जा सकता है कि उनके पास अनुभव-वैविध्य भी है और रचनात्मक दृष्टि भी। ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’, ‘जिन्दगीनामा’ जैसे उपन्यास समकालीन हिन्दी उपन्यास को प्रत्येक दृष्टि से समृद्ध करने वाले उपन्यास हैं।

हिन्दी उपन्यास में दलित चेतना

हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य की पृथक धारा का जोर दिखाई पड़ने लगा है किन्तु हिन्दी उपन्यास में अभी यह बड़े क्षीण रूप में विद्यमान है। जयप्रकाश कर्दम के ‘छप्पर’ (1994) और प्रेम कापड़िया के ‘ मिट्टी की सौगन्ध’ (1995) से हिन्दी में दलित-उपन्यास की वह परम्परा शुरू हो रही है जिसे दलितों के द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा जाने वाला साहित्य कहा जाता है। इन उपन्यासों में दलित जीवन का भोगा हुआ यथार्थ चित्रित हुआ है।

यदि दलितों के द्वारा दलितों के जीवन का साहित्य’ की अवधारणा को थोड़ी देर के लिए अलग करके मानवता की व्यापक अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में अभिव्यक्त दलित चेतना की बात करें तो कहना पड़ेगा कि प्रेमचंद से लेकर आज तक अनेक गैरदलित साहित्यकारों ने दलितों के जीवन पर प्रकाश डालने वाले और उनके संघर्ष को शक्ति और दिशा देने वाले अनेक उपन्यासों की रचना की है। प्रेमचंद के। ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ उपन्यासों में जो दलितों की पीड़ा, दुर्दशा और संघर्ष-कथा वर्णित है वह महज दया या सहानुभूति से नहीं उपजी है, उसके पीछे प्रेमचंद का प्रगतिशील दृष्टिकोण और उस जीवन का मार्मिक साक्षात्कार सक्रिय है। ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ (अमृतलाल नागर), ‘धरती धन न अपना’, ‘नरककुंड में वास’ (जगदीश चन्द्र), ‘एक टुकड़ा इतिहास’ (गोपाल उपाध्याय), ‘परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर), उत्तर-गाथा (मधुकर सिंह), ‘दण्ड विधान’ (मुद्राराक्षस), ‘बंधुआ रामदास’ (नीलकांत), महाभोज’ (मन्नू भण्डारी), ‘गगन घटा घहरानी’ (मनमोहन पाठक), पाथर घाटी का शोर’ (पुन्नी सिंह) आदि उपन्यासों में दलित जीवन पर जो प्रकाश डाला गया है, वह अनुभूत यथार्थ लिखने वाले दलित लेखकों के साहित्य से किसी भी तरह कम नहीं है।

इन उपन्यासों में समाज के सदियों से सताए, उपेक्षित. शोषित और दलित लोगों का जीवन अंकित करते समय न केवल सामाजिक जीवन की जड़ता, क्रूरता और अमानवीयता को रेखांकित किया गया है, बल्कि दलितों में अपने हक के लिए संघर्ष करने और सबके समान जीवन जीने की भावना को प्रेरित किया गया है। यदि दलितों की साहित्य-धारा इस चेतना में योग देकर या उससे जुड़कर विकास का मार्ग तलाशे तो इससे एक स्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण होगा और समाज की वास्तविक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा।

हिन्दी उपन्यास – शिल्प का विकास

किशोरी लाल गोस्वामी के परीक्षा गुरु’ से शुरू हुई हिन्दी उपन्यास की विकास-यात्रा आज भी अपने विध रूप-रंगों के साथ जारी है। लगभग सवा सौ वर्षों की इस अवधि में कथ्य, शिल्प और संवेदना की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास में कई तरह के परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। ये परिवर्तन कभी परिस्थितियों के दबाव से पैदा हुए, कभी रचनाकार की व्यक्तिगत आकांक्षा और प्रयोगशील चेतना के कारण।

जब हम हिन्दी उपन्यास के शिल्प-विकास पर दृष्टि डालते हैं तो हमें यह देखकर सुखद अनुभूति होती है कि हिन्दी उपन्यास अल्पकाल में ही काफी प्रौढ़ हो गया और उसमें प्रगति और प्रयोग की गति बराबर तीव्र से तीव्रतर होती गई। हिन्दी उपन्यास का प्रारंभिक शिल्प शिथिल और स्फीति-प्रधान रहा। उसमें मनोरंजन, वर्णन, स्थूलता और उपदेशात्मकता की ही प्रमुखता रही। इसका एक कारण तो यह था कि प्रारंभिक उपन्यासकार उपदेश और शिक्षा देने और समाज-सुधार की भावना से उत्प्रेरित था, दूसरा यह कि उसका कथा-रचना संस्कार अंग्रेजी के ‘नावेल’ और बंगला उपन्यास के साथ ही संस्कृत की कथा-आख्यायिका तथा हिन्दी की मध्ययुगीन प्रेम-कहानियों के सम्मिलित प्रभाव से निर्मित हुआ था। जैसे-जैसे हिन्दी उपन्यास प्राचीन संस्कारों से मुक्त होता गया, वैसे-वैसे वह अंग्रेजी ढंग के ‘नावेल’ की कला को आत्मसात करता गया। बाद में उसमें युगानुरूप परिवर्तन और विकास के लक्षण प्रकट हुए।

प्रारंभ में हिन्दी उपन्यास में दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ क्रियाशील थीं – एक प्रवृत्ति मनोरंजन की थी और दूसरी सामाजिक जागरण की। इन प्रवृत्तियों का उपन्यासों के रचना-शिल्प पर प्रभाव पड़ा है। ऐयारी, तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों में अद्भुत, अलौकिक, रहस्यमय घटना-व्यापारों की प्रमुखता थी। इन उपन्यासों के द्वारा मानव-मन की चमत्कार-प्रियता को ही बल मिला और उसकी कुतूहलवृत्ति को शान्ति मिली। इसके लिए उपन्यासकारों ने ऐयारों के विस्मयकारी कृत्यों और तिलस्मों की आश्चर्यजनक योजना में ही अपने कौशल को खपा दिया।

उन्होंने इस जगत के दुःख-ताप, असंतोष, हाहाकारे के नीरस वातावरण से दूर ले जाकर पाठक को एक जादुई संसार में छोड़ देने का कार्य किया। इस सत्य के बावजूद यह ध्यातव्य है कि इन उपन्यासकारों ने अपने अद्भुत रचना-कौशल, कल्पना-वैभव और बुद्धिमता का परिचय दिया है। घटनाओं का एक जटिल. सघन, दुरूह जाल दूर तक फैलाकर अन्त में अपनी विलक्षण स्मृति के बल पर उन्हें फिर समेट कर लक्ष्य तक ले जाना सामान्य बुद्धि और प्रतिभा के बूते की बात नहीं है। फिर भी यह कहा जाएगा कि मनुष्य की औत्सुक्य-वृत्ति को ही तृप्त करना इनका उद्देश्य रहा है। उसके मानसिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास के प्रति ये पूरी तरह बेखबर रहे हैं।

दूसरी तरफ सामाजिक उपन्यासों में मनोरंजन की प्रधानता के बावजूद समाज-सुधार और कल्याण की भावना निहित थी। परिवर्तित सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का इन उपन्यासों पर प्रभाव पड़ा है। इसके फलस्वरूप उनके ढाँचे में भी परिवर्तन हुआ। कुतुहलपूर्ण, आकस्मिक, अतार्किक घटनाओं की जगह सामाजिक जीवन से घटनाएँ चुनी गईं और उन्हें यथार्थ रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया गया। सामाजिक पक्ष की ओर आकृष्ट होने के बावजूद युग-रुचि की सीमाओं तथा उच्चकोटि की रचनात्मक प्रतिभा के अभाव के कारण प्रारंभिक सामाजिक उपन्यास स्थूल, वर्णनात्मक और घटना-प्रधान ही बना रहा। कलात्मक संयम के अभाव में वस्तु-विन्यास भी सुगठित न हो सका। बीच-बीच में लेखक के उपदेशक रूप के हस्तक्षेप से कथा में शिथिलता, स्फीति और विशृंखलता भी जाती रही।

हिन्दी उपन्यास-शिल्प को प्रौढ़ता मिली प्रेमचंद के उपन्यासों में । उनके उपन्यासों में समाज-चित्रण के साथ-साथ चरित्र-चित्रण और जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति को महत्व मिला। कल्पना, रोमांस एवं चमत्कार-प्रदर्शन के इन्द्रजाल से विमुक्त होकर उन्होंने सामाजिक यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़े होकर सामाजिक उपन्यासों की रचना की। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रेमचंद ने हिन्दी कथा-संसार से राजा-रानी, देवी-देवता को विदा दे दी और साहित्य के मंच पर सूरदास, होरी, गोबर, धनिया जैसे दलित-शोषित-उपेक्षित पात्रों को उनकी सम्पूर्ण दशा-दुर्दशा के साथ प्रतिष्ठित कर जन-पक्षधरता का प्रगतिशील दृष्टिकोण विकसित किया जो आज भी अपने सबल रूप में विद्यमान है।

उनके प्रारंभिक उपन्यासों – ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ आदि में पहले आदर्शोन्मुख यथार्थवाद और बाद में ‘गोदान’ में यथार्थोन्मुख आदर्शवाद की अभिव्यक्ति हुई है। इन दृष्टियों का प्रभाव उनके उपन्यास-शिल्प पर पड़ा है। प्रेमचंद के उपन्यासों में कथावस्तु, चरित्र, कथोपकथन, देशकाल एवं वातावरण तथा भाषा-शैली आदि पर समुचित ध्यान दिया गया है और यह कोशिश की गई है कि रचना प्रभावशाली, सुगठित, मार्मिक और संप्रेषणीय हो । यद्यपि प्रेमचंद के उपन्यासों में घटना-वर्णन की प्रधानता के कारण कुछ स्थूलता और शिथिलता है, किन्तु अपेक्षाकृत उनके उपन्यास सुगठित हैं। वे कला की प्रौढ़ता का भी पता देते हैं। प्रेमचंद की कथा-सृष्टि और तत्संबंधी उनकी दृष्टि का हिन्दी उपन्यास साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिन्दी उपन्यास समाज-चित्रण की ओर अग्रसर हुआ और उसमें बहुरंगी यथार्थ को स्थान मिला।।

प्रेमचंद-यग में उपन्यास-कला का जो विकास हआ, उसमें वर्णन-प्रियता और बाहय-घटनात्मकता की प्रवृत्ति प्रबल रही। चरित्रों के आदर्शीकरण और घटनाओं की निर्णयात्मक परिणति पर बल अधिक रहा। जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी आदि मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों ने उपन्यास को बाय-वर्णन से हटाकर आंतरिक चित्रण में प्रवृत्त किया। इससे कथानक की स्थूलता समाप्त हुई और अन्तर्वत्तियों का उद्घाटन प्रमुख रहा। इन उपन्यासकारों ने उपन्यास के नवीन रूप-विधान और तत्संबंधी प्रयोग पर बल दिया। प्रेमचंद-युग में एक विस्तृत चित्रपट पर, कार्य-कारण श्रृंखला से युक्त, सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित कथा के द्वारा जीवन को उसकी संपूर्णता में चित्रित करने का प्रयास किया गया था, प्रयोगवादी उपन्यासकारों ने प्रयोग को महत्व दिया। अज्ञेय ने ‘शेखर : एक जीवनी’ से हिन्दी में एक अभिनव प्रयोग का सार्थक रूप प्रस्तुत किया। उन्होंने कथा-विन्यास में पात्रों के मनोविश्लेषण और सूक्ष्म अन्तर्दशाओं के चित्रण की कला का तो उपयोग किया ही, पूर्व दीप्ति शैली का प्रभावशाली प्रयोग भी किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में कथा-आख्यायिका की प्राचीन शैली और चरित्र-वर्णन की आधुनिक शैली का ऐसा सम्मिलित प्रयोग किया है कि यह उपन्यास हर दृष्टि से अभिनव एवं विशिष्ट हो गया है।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों ने कथानक, चरित्र-चित्रण, देश-काल और वातावरण, भाषा-शैली आदि से संबंधित दृष्टि में व्यापक परिवर्तन किया और इन्हें नही ऊर्जा प्रदान की। कथानक तो दूर, घटना तक की संकल्पना बदल गई। देश, काल, परिस्थिति और वातावरण जो पहले पृष्ठभूमि का काम करते थे, अब उपन्यास के आलंबन बन गये। आंचलिक उपन्यासकारों ने तो अंचल विशेष के सौन्दर्य, जीवन और वातावरण को उपन्यास का मुख्य उपजीव्य बना दिया । वातावरण या परिवेश का यथार्थ चित्रण इन उपन्यासों के लिए महत्वपूर्ण हो गया। इसके लिए उन्हें उसी अंचल की भाषा भी अपनानी पड़ी।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासों में उपन्यास-कथा सरल-सीधी न रहकर जटिल एवं संश्लिष्ट हो गई। अनेक आत्मकथाओं से एक कथानक की सृष्टि का कौशल प्रभाकर माचवे के परन्तु’ और भगवती प्रसाद वाजपेयी के ‘सपना बिक गया’ में देखा जा सकता है। इसी तरह विविध कथाओं के सहारे एक श्रृंखला और तारतम्यहीन कथा की चरम परिणति ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ में देखी जा सकती है। ये अभिनव प्रयोग हैं। लक्ष्मीकांत वर्मा के उपन्यास ‘खाली कुर्सी की आत्मकथा’ में आत्मकथात्मक शैली का जो व्यंग्यपूर्ण उपयोग किया गया है, वह भी उपन्यास के नये शिल्प-सौन्दर्य का एक नमूना है।

स्वातंत्र्योत्तर युग में हिन्दी उपन्यास के शिल्प में अभूतपूर्व विकास हुआ। आत्मकथात्मक शैली, पत्र-शैली, डायरी शैली, रिपार्ताज शैली, रेखाचित्र शैली या इन सबका सम्मिलित उपयोग करके चलने वाली शैली में कई विशिष्ट उपन्यास लिखे गये हैं। चरित्र-चित्रण के लिए चेतना-प्रवाह, पूर्वदीप्ति, मुक्त आसंग, स्वप्न-विश्लेषण, सम्मोहन, दिवास्वप्न आदि का भी सहारा लिया गया है। यह कला मनोवैज्ञानिक एवं व्यक्तिवादी उपन्यासों में अधिक दिखाई पड़ती है।

स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में वातावरण की सृष्टि के लिए ध्वनि-चित्रों, प्रतीक-संकेतों का भी भरपूर उपयोग हुआ है। लक्ष्मी नारायण लाल के उपन्यास ‘बया का घोसला और साँप’ का शीर्षक ही प्रतीकात्मक है। नरेश मेहता के ‘डूबते मस्तूल’ और कमलेश्वर के समुद्र में खोया हुआ आदमी’ में सांकेतिकता है; गिरिराज किशोर के ‘इन्द्र सुने’ में फंतासी है। श्रीलाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’ तो आद्योपान्त व्यंग्यात्मक है। सुरेन्द्र वर्मा का ‘मुझे चाँद चाहिए’ हिन्दी उपन्यास में एक अभिनव प्रयोग है जिसमें प्रसिद्ध साहित्यकारों – शेक्सपीयर, कालिदास आदि की रचनाओं के संवाद और अंश इस उपन्यास के पात्रों के संवाद और तथ्य बन गये हैं। इसमें उपन्यास और नाटक के तत्व पूरी तरह घुलमिल गये हैं।

सारांश

इस इकाई में आपने हिन्दी कथा साहित्य के अन्तर्गत हिन्दी कहानी एवं हिन्दी उपन्यास के विकास का अध्ययन किया। आपने देखा कि आधुनिक विधा के रूप में हिन्दी कहानी का तीव्र एवं अनेक आयामी विकास हुआ है। आरंभ से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति तक बृहत्तर जीवन संदर्भो से जुड़ने और समय-समय पर बड़े कहानीकारों की कला का सहारा पाने के कारण हिन्दी कहानी के कथ्य और शिल्प में बराबर परिवर्तन होता रहा। प्रेमचंद ने जहाँ इसे आरंभ में आदर्शवाद, सुधारवाद से संयुक्त करके अपने समय की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला, वहीं बाद में इसे यथार्थवादी शिल्प भी प्रदान किया और इसके सामाजिक आधार को पुष्ट किया। आपने यह भी देखा कि विभिन्न कहानी आन्दोलनों ने हिन्दी कहानी को बराबर एक नयी दिशा दी है। इन आन्दोलनों ने यदि हिन्दी कहानी के कथ्य और शिल्प में व्यापक परिवर्तन उपस्थित किया है तो उसकी कुछ सीमाएँ भी निर्धारित की हैं।

हिन्दी उपन्यास के विवेचन में आपने पढ़ा कि कथ्य के अनुरूप ही उपन्यास शिल्प में परिवर्तन और प्रयोग को बढ़ावा मिला। प्रेमचंद-पूर्व हिन्दी उपन्यासों की रचना नवीन सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त माध्यम की खोज के परिणामस्वरूप शुरू हुई थी, लेकिन जल्दी ही लेखकों के बड़े समूह ने पाठकों को प्रेम प्रधान, रोमांचकारी साहसिक तथा अद्भुत-घटना प्रधान उपन्यासों के कुतूहल-पूर्व मनोरंजन में निमग्न कर दिया। प्रेमचंद युग में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को विषय बनाकर उपन्यास रचना की गई। प्रेमचंद के बाद कथाकारों में अपने समय के परिवर्तनों, दबावों और आग्रहों के अनुसार जो वैचारिक परिवर्तन उपस्थित हुए, इनसे उपन्यास शिल्प भी प्रभावित हुआ। इस तरह यथार्थ के साथ दृष्टि बदली, शिल्प बदला और हिन्दी उपन्यास में बराबर प्रगति और प्रयोग का नवोन्मेष जारी रहा।

अभ्यास प्रश्न

  1. आरंभिक हिन्दी कहानी से लेकर प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी के विकास पर प्रकाश डालिए।
  2. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी के विभिन्न आंदोलनों की चर्चा कीजिए।
  3. समकालीन हिन्दी उपन्यासों के विषय एवं शिल्प का परिचय दीजिए।
  4. हिन्दी कहानी एवं उपन्यास में दलित चेतना का विवेचन कीजिए।

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