उत्तर-छायावादी कविता

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • उत्तर-छायावादी कविता का तात्पर्य समझ सकेंगे;
  • उत्तर-छायावादी कविता की प्रमुख धाराएँ व विशेषताएँ बता सकेंगे;
  • उत्तर-छायावादी काल के प्रमुख कवि व उनकी रचनाओं की चर्चा कर सकेंगे;
  • उत्तर-छायावादी कविता की काव्यभाषा तथा शिल्प का विवेचन कर सकेंगे।

सामान्यतः “छायावादोत्तर” संज्ञा से छायावाद के उपरांत आने वाली काव्यधाराओं का बोध होता है। जिसमें बच्चन, दिनकर, अंचल, नवीन आदि की कविता से लेकर प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तक शामिल हैं। इसी कारण प्रस्तावित युग के लिए “उत्तर-छायावादी संज्ञा का भी प्रयोग किया जाता है। अपने सामान्य अर्थ में यह नाम छायावाद के उत्तर चरण का बोध कराता है किंतु प्रयोग की दृष्टि से इसके अंतर्गत छायावादोपरांत रचित राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताएँ तथा वैयक्तिक प्रगीतों की वह धारा आती है जिसे “जवानी व मस्ती का काव्य’ भी कहा गया है। यद्यपि कालक्रम की दृष्टि से एवं अन्यथा भी प्रगतिवादी काव्य इसी सीमा में आता है किंतु उसकी कुछ अन्य व्यापक विशेषताएँ हैं जिसके कारण उस पर स्वतंत्र रूप में विचार करने की आवश्यकता है।

पृष्ठभूमि

छायावाद पर लिखी गई इकाई से आपको ज्ञात हुआ होगा कि छायावाद की पृष्ठभूमि में भारतीय नवजागरण आंदोलन है। यह नवजागरण भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति था। एक ओर तो इस आंदोलन में सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ नई चेतना जग रही थी और देश तथा काल दोनों की स्थापित सनातन मान्यताएँ टूटकर देश और काल की तात्कालिक व्याख्या आधुनिकता के दबाव में कर रही थीं। दूसरी ओर यह आंदोलन सांस्कृतिक महत्त्वबोध के लिए भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता को आध्यात्मिकता से परिभाषित करता था। छायावादी कविता के अनुभव में इसी कारण एक ओर लौकिक रूढ़ियों के बहिष्कार की ऊर्जा है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक विशदता की आभा भी। ये दोनों अनुभव छायावादी कविता की अनुभूति में घुलते-मिलते नजर आते हैं। नामवर सिंह ने छायावादी कविता को अनेक प्रवृत्तियों का पुंज कहा है।

वस्तुतः छायावादी कविता की मनोभूमि इन विविध प्रवृत्तियों की “तन्मय एकाग्रता” की मनोभूमि है। इस मनोभूमि पर रचित कोई भी छायावादी रचना एक साथ आध्यात्मिक, वैयक्तिक, राजनैतिक व सामाजिक अर्थच्छायाएँ देने लगती है। इसके उदाहरण के रूप में छायावाद के जागरण-गीतों को लिया जा सकता है। वैसे यह प्रवृत्ति कमावेश हर छायावादी रचना की है। इसके लिए छायावादियों – प्रसाद, पंत, निराला आदि ने अपनी प्रतिभा, अंतर्ज्ञान और अध्यवसाय से एक काव्यविधान निर्मित किया था। उस काव्य-विधान में अनुभूति का प्रमाण बिम्ब था जो अपनी आंतरिक गतिशीलता में इन सभी अर्थच्छायाओं को व्यक्त करता था। छायावाद में व्यक्ति के अनुभूत सत्यों को पहली बार वाणी मिली, किंतु छायावादी वैयक्तिकता नव्य- वेदांत- दर्शन के “आत्म” में घुल-मिल जाती थी। छायावादी कविता में कल्पना और स्वप्न की भूमिका उस अनुभूति के कारण महत्त्वपूर्ण है जो वास्तविकता की बजाय वास्तविकता की संभावना से निर्मित होती है। छायावाद की वैयक्तिक स्वतंत्रता आध्यात्मिक-सांस्कृतिक स्तरों के माध्यम से अपने राजनैतिक – सामाजिक आशयों को प्रस्तावित करती है। इस कारण छायावादी रचनाओं में यथार्थ “आदर्शोन्मुख” होकर ही ग्राह्य होता है।

परन्तु 1930-31 से भारतीय वास्तविकता में परिवर्तन आने शुरू हो जाते हैं। एक ओर जहाँ बड़े राजनैतिक आंदोलन अधूरे रह जाते हैं या किसी समझौते पर खत्म हो जाते हैं वहाँ जमीनी स्तर के कई किसान-मजदूर आंदोलन व अन्य जनांदोलन अपने हितों व उद्देश्यों को राजनैतिक स्वतंत्रता से स्पष्टतया जोड़कर देखने लगे थे। युवकों में नयी आशा और चेतना की लहर दौड़ रही थी जिसके प्रमाणस्वरूप नेहरू, सुभाष और भगतसिंह जैसे नए युवा नेता लोकप्रिय हो रहे थे, जिनकी लोकप्रियता के पीछे कोई आध्यात्मिक-सांस्कृतिक अपील न होकर विशुद्ध राजनैतिक-सामाजिक अपील थी।

इन परिस्थितियों में बदले हुए यथार्थ और पुराने आदर्श के बीच का समीकरण भी बदला और यथार्थ और आदर्श के बीच एक फाँक पैदा हो गई। उत्तर-छायावादी कविता कुछ तो इसी “खंडित तन्मय एकाग्रता” की अभिव्यक्ति है तो कुछ इस फाँक को भरने के लिए किए गए प्रयत्नों की अभिव्यक्ति। उत्तर-छायावादी काव्य की अंतर्वस्तु में हम इन प्रयत्नों व उसके प्रभावों को देख सकते हैं।

उत्तर-छायावादी काव्य की अंतर्वस्तु

उत्तर-छायावादी काव्य की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक धारा, वैयक्तिक प्रगीतों की धारा में अंतर्वस्तु के तौर पर निम्नलिखित परस्पर संबद्ध सामान्य विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं :

यथार्थ का बढ़ता दबाव

उत्तर-छायावादी कविता के आरंभ में जो यथार्थ और आदर्श का तनाव उत्पन्न हुआ था उसमें यथार्थ का दबाव बढ़ता जाता है। यद्यपि आदर्श को नकारे जाने की प्रवृत्ति आरंभ नहीं हुई थी किंतु इस आदर्श के साथ यथार्थ के असामंजस्य के कारण आदर्श को प्रायः उपेक्षित किया गया और यथार्थ के प्रवाह को ही वाणी दी गई। दूसरे, कविता में आध्यात्मिक अनुषंग खत्म होते गए और अनुभूत सत्यों की सहज-सरल अभिव्यक्ति आरंभ हुई। व्यक्तिगत व्यथाएँ व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही व्यक्त की जाने लगी और उनके लिए किसी आध्यात्मिकता का सहारा लेने की जरूरत खत्म हो गई।

“कितना अकेला आज मैं

संघर्ष में टूटा हुआ

दुर्भाग्य से लूटा हुआ

परिवार से छूटा हुआ, किन्तु अकेला आज मैं।”

– बच्चन

छायावादी कविता का लक्ष्य जहाँ “एक कर दे पृथ्वी-आकाश” था वहाँ उत्तर-छायावादी कविता “मिट्टी की ओर” अग्रसर हुई। वास्तविकता के इस आग्रह के कारण काव्य में कल्पना और स्वप्न की भूमिका अप्रासंगिक जान पड़ने लगी और आध्यात्मिकता कविता के आंतरिक अनुभव के बजाय ओढ़ी हुई। दार्शनिकता के रूप में व्यक्त होने लगी। इसके साथ ही वास्तविकता के आग्रह ने काव्य का वस्तु जगत् व्यापक बनाया।

“व्योम कुंजों की परी अयि कल्पने,

भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं

उड़ न सकते हम तुम्हारे स्वर्ग तक

शक्ति है तो आ बसा अलका यहीं।”

संघर्ष की अभिव्यक्ति

इस साहित्य में युगीन वास्तविकता सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों से प्रेरित होकर काव्य में संघर्ष के सीधे चित्रण के रूप में व्यक्त हुई। राष्ट्रीय संघर्ष ने काव्य में उग्र राष्ट्रीय स्वरों को ध्वनित किया।

“क्या? देख न सकती जंजीरों का गहना।

हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश राज्य का गहना।।

कोल्हू का चर्रक चूँ? जीवन की तान।

मिट्टी पर लिखे अंगुलियों ने क्या गान?

हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ।

खाली करता हूँ ब्रिटिश राज्य का कुआ।।”

– माखन लाल चतुर्वेदी (कैदी और कोकिला)

या

“हे बलि वेदी, सखे प्रज्ज्वलित माँग रही इंधन क्षण-क्षण,

आओ युवक, लगा दो तो तुम अपने यौवन का इंधन।

भस्मसात हो जाने दो ये प्रबल उमंगें जीवन की,

अरे सुलगने दो बलिवेदी, चढ़ने दो बलि जीवन की।”

– नवीन

वैयक्तिक स्तर पर सामाजिक रूढ़ियों के सीधे नकार तथा मर्यादाओं की उपेक्षा के रूप में यह संघर्ष अभिव्यक्त हुआ। इस कविता में संघर्ष और तज्जन्य असफलता से उत्पन्न निराशा, हताशा और अवसाद के भी चित्र मिलते हैं। बच्चन, अंचल, नवीन आदि की कविताओं में इसके उदाहरण मिलते हैं।

‘है नहीं स्कंद पर उत्तरीय,

लिपटा है शव आकांक्षा का,

मैं मानव विभ्रम डोल रहा,

लादे बोझा निज वांछा का,

मेरी असफल आकांक्षा यह

असमय मर गई बिना बोले

पड़ गई गाँठ मेरे हिय में

उसको कोई कैसे खोले?”

– नवीन

हृदय और बुद्धि का द्वन्द्व

बदले हुए यथार्थ में पुराने आदर्शों को यथावत् स्वीकार कर लेने के कारण जो असामंजस्य उत्पन्न हुआ उसका एक लक्ष्य हृदय और बुद्धि के द्वंद्व के रूप में प्रकट हुआ। इस द्वंद्व की शुरुआत “कामायनी” से देखी जा सकती है। इस द्वंद्व में उत्तर-छायावादी कवियों ने प्रायः “कामायनी” के पथ का ही अनुसरण कर हृदय या भावना को बुद्धि या तर्क पर वरीयता दी। यह हृदयवाद या बुद्धि-विरोध इस युग में दिनकर, बच्चन, अंचल, नरेन्द्र, नवीन सबमें कुछ न कुछ अंशों में हैं।

“ज्ञान की आराधना दिन का शयन है

क्लेश से निस्तार केवल कर्म से है।

दर्शनों से सिद्धियाँ किसको मिली हैं?

जीव का उद्धार केवल धर्म से है।

लिख सको तो उंगलियों से खोदकर,

एक छोटा काव्य भूतल पर लिखो।

बुद्धि के बल पर जिसे पहले लिखा था,

आज उसको बाहु के बल पर लिखो।”

– दिनकर (चक्रवाल)

बुद्धि इन्हें अक्सर बेधड़क कर्म-पथ पर जाने से बरजती है, इसीलिए ‘मानव-धर्म’ दर्शनों से अधिक वरेण्य जान पड़ता है और बुद्धि-बल की अपेक्षा रक्त के आवेग से प्रेरित बाहुबल की आवश्यकता जान पड़ती है।

विडंबना यह थी कि जिस बदलते यथार्थ के कारण यह प्रवृत्ति आ रही थी, वह यथार्थ स्वयं तर्क और बौद्धिकता प्रेरित आधुनिक ज्ञान के दबाव में निर्मित हो रहा था। हृदय पर बल देना अपनी भावनाओं और नीयत की ईमानदारी पर बल देना था। उद्देश्य की जाँच बौद्धिक विवेक की माँग करती थी जिससे ये बचते रहे। हृदय और बुद्धि के द्वंद्व को हृदयवाद के सरलीकरण से परिभाषित करने के बावजूद ये उस “रिक्तता” को नहीं भर सके जो कल्पनाशील और राजनैतिक के बीच में दरार पड़ जाने से उत्पन्न हुई थी।

“बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,

कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?

मँझधार है, भँवर है, या पास है किनारा?

यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?

आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,

भगवान! इस नदी को भरमा न दे अँधेरा।”

– दिनकर (सामधेनी)

तथा

“पाँव चलने को विवश थे

जब विवेक-विहीन था मन,

आज तो मस्तिष्क दूषित

कर चुके पथ के मलिक कण”

– बच्चन (अभिनव सोपान)

मन का यह विभाजन ऊपरी और भीतरी के द्वंद्व में व्यक्त हुआ। ऊपरी रूप आदर्श, मर्यादा, ज्ञान, सामाजिकता का प्रतिनिधित्व करता था, अतएव क्रूर जड़ और कठोर था वहीं भीतरी रूप ही असली और सहज माना गया। उत्तर-छायावादी कवियों ने भीतरी मनुष्य और उसकी सहजता को ही प्रामाणिकता दी।

सहज-सरल मनुष्य

उत्तर-छायावादी कविता मनुष्य के इसी भीतरी रूप या सहज-सरल मनुष्य की कविता है। यह मनुष्य अपनी हृदय की पुकार सुनता है, रक्त के आवेग का विश्वास करता है। अपनी भावनाओं को छिपाना जानता नहीं, अपने को सच्चा या बड़ा बताने के लिए छल-छदम नहीं करता जो कि बुद्धि के व्यापार हैं :

“रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,

क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।”

– दिनकर

“पाप ही की गैल पर

चलते हुए ये पाँव मेरे

हँस रहे है उन पगों पर

जो बँधे हैं आज घर में ।”

– बच्चन

“हम सब कुछ कर के भी मानव,

हमी देवता, हम ही दानव,

हमी स्वर्ग की, हमीं नरक की क्षण भर में सीमा छू आते!

हम कब अपनी बात छिपाते?”

– बच्चन (निशा-निमंत्रण)

तर्क-जाल में उलझाव इसका पथ नहीं, वह तो अपनी प्रवृत्तियों के बहाव के अनुसार आगे बढ़ता है फिर चाहे वह “अग्निपथ” ही क्यों न हो। अपने खुलेपन, ईमानदारी, प्रवृत्तियों के सहज स्वीकार के कारण उसे अक्सर गलत समझा जाता है किंतु वह इससे तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि उसकी नीयत साफ है।

आवेग, मस्ती और फक्कड़पन

हृदय के आवेग को प्रमुखता देने तथा लक्ष्यों व आदर्शों को बिना किसी द्वंद्व के स्वीकार कर लेने के कारण इस काव्य में एक प्रकार की मस्ती, फक्कड़पन की प्रवृत्ति मिलती है। यह मस्ती जीवन-व्यापार के प्रवाह के रास्ते के दार्शनिक प्रश्नों की अनदेखी करती है। फलतः काव्य से गंभीरता अनुपस्थित होने लगती है और उसकी भरपाई एक आवेगमयता या संवेग से की जाती है

“चीर दूंगा विश्व के तूफान को!

आज उन्मुख हूँ क्षितिज के पान को

बस न पूछो प्राण! सीमाहीन हूँ,

दलित कर दूँगा गगन के गान को!”

– अंचल

कहीं दार्शनिक प्रश्न आते भी हैं तो वहाँ अनुभूति के बजाय शास्त्र महत्त्वपूर्ण हो जाता है। नवीन की कविताओं में ‘क्वासि’ या ‘कोऽहं सोऽहं की मुद्राएँ इसी प्रवृत्ति की द्योतक हैं, वहाँ सीधे औपनिषदिक शब्दावली उठा ली गई है। इस प्रकार कविता से विवेक अपदस्थ होने लगता है और एक विचारक्षीणता हावी होने लगती है।

आपने देखा कि उत्तर-छायावादी कविता छायावादी कविता से विकसित होती है पर यह विकास विभिन्न धाराओं में होता है। एक तरफ तो छायावादी स्वच्छन्दता या रूढ़ि-विद्रोह को यथार्थ-चेतना का पुष्टतर आधार प्राप्त होता है जिससे काव्य का वस्तु-जगत काफी व्यापक होता है तो दूसरी तरफ बदली यथार्थ चेतना के अनुरूप नया काव्य-विधान विकसित नहीं हो पाता है। दरअसल जब तक स्थापित मूल्यों, आदर्शों को प्रश्न-चिह्नित नहीं किया जाता, काव्य के विधान में परिवर्तन नहीं आ सकता। इस समय यथार्थ और आधुनिकता का दबाव एक नीति-निरपेक्ष मानवतावाद को काव्य में अभिव्यक्ति दे रहा था किंतु पुरानी नैतिकता के आदर्शों को अस्वीकार नहीं किया जा रहा था। इस दृष्टि से उत्तर-छायावादी, कविता छायावादी कविता और नई कविता के बीच की कड़ी लगती है। विजयदेवनारायण साही ने अपने प्रसिद्ध निबंध “लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस” में इस काव्य की इसी दृष्टि से व्याख्या की है।

प्रमुख धाराएँ

छायावाद-युग की परिव्याप्ति 1936 ई. तक मानी जाती है। 1936 ई. में प्रमुख छायावादी कवि पंत द्वारा रचित “युगांत” के प्रकाशन के साथ छायावाद-युग क, औपचारिक अंत माना जाता है। यद्यपि छायावादोत्तर काव्यधारा के लक्षण 1930-31 से ही प्रकट होने शुरू हो गए थे परंतु 1936 के बाद ही छायावादी काव्यधारा का विकास अनेकमुखी हुआ ।

राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता, प्रेम और मस्ती का काव्य (इसे हालावाद भी कहा गया) तथा प्रगतिवाद आदि काव्यधाराएँ प्रायः एक साथ अवतरित हुईं। इनमें पहली दो काव्य–प्रवृत्तियाँ पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों का ही विकास हैं जबकि अन्य का आविर्भाव ऐतिहासिक दबावों के कारण छायावाद की प्रतिक्रिया और प्रभाव से हुआ। इस इकाई में हम राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता और प्रेम और मस्ती के काव्य का अध्ययन करेंगे। मुख्यतः उत्तर-छायावादी काव्य में यही धाराएँ हैं। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी कविताएँ जो छायावाद के विरोध और प्रतिक्रिया में अधिकांशतः लिखी गई (यद्यपि छायावाद का प्रभाव उन पर पड़ा ही है) सामान्यतः छायावादोत्तर काव्य के अंतर्गत आती है।

राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता

आधुनिक हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति तो भारतेंदु काल से ही आरंभ हो गई थी परंतु उसका स्वरूप क्रमशः बदलता रहा है। द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता अतीत-गौरव के बोध से परिचालित थी तो छायावादयुगीन राष्ट्रीयता विशुद्ध मानव-ऐक्य का आदर्श लेकर चली है। द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता और छायावादी राष्ट्रीयता का यह अंतर नंददुलारे वाजपेयी ने मैथिलीशरण गुप्त की कविता “नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है” तथा प्रसाद व निराला की क्रमशः “अरुण यह मधुमय देश” तथा “भारति जय-विजय करे” कविताओं की तुलना करते हुए दिखाया है कि छायावादी राष्ट्रीयता में प्रादेशिकता का आग्रह कम है और विशाल मानव-ऐक्य की भावना है। विवेच्य काल की राष्ट्रीयता स्वतंत्रता-प्राप्ति की प्रत्याशा की तीव्रता और परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ फेंकने के उत्साह से संवलित है। इसके साथ ही उसमें एक सामाजिक चेतना का प्राधान्य भी है। यद्यपि द्विवेदी युगीन प्रबंध-काव्यों की तरह इस युग में भी अतीत व पौराणिक्ता पर आश्रित प्रबंध काव्य लिखे गए किंतु उनमें अतीत के गौरव गान की अपेक्षा आधुनिक समस्याएँ ही प्रधान हैं।

वास्तविकता का आग्रह, यथार्थ-चेतना की प्रखरता के साथ-साथ संघर्षात्मकता की अभिव्यक्ति और आवेग प्रधानता इन कविताओं की सामान्य विशेषताएँ हैं। इस धारा के प्रमुख कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा “नवीन” छायावाद एवं उससे पहले से ही इस प्रकार की कविताएँ लिख रहे थे। इनमें मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का उत्तमांश पहले ही प्रकाशित हो चुका था। माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ “एक भारतीय आत्मा” तथा बालकृष्ण शर्मा “नवीन” के कृतित्व में काफी समानता है। इन्होंने विद्रोह, देशभक्ति और प्रेम की कई कविताएँ लिखी हैं। उनकी “पुष्प की अभिलाषा”, “कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए” जैसी कविताएँ बहुत प्रसिद्ध हुईं –

“नियम और उपनियमों के ये

बंधन टूक-टूक हो जाएँ

विश्वभर की पोषक वीणा के

ये सब तार मक हो जाएँ

कवि कुछ ऐसी तान सुना दो

जिससे उथल-पुथल मच जाए!”

– नवीन

किंतु इस युग की धारा का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व करने वाले कवि हैं – रामधारी सिंह “दिनकर”। अपनी छोटी कविताओं तथा प्रबंध-काव्यों दोनों में ही दिनकर के काव्य का ओज व वक्तृत्व कला उस युग की उग्र राष्ट्रीय चेतना का निर्वहण करती है। राजनैतिक कविताओं में सियाराम शरण गुप्त व सोहनलाल द्विवेदी की कविताएँ गाँधीवादी चेतना की वाहक हैं –

“न हाथ एक शस्त्र हो, न साथ एक अस्त्र हो।

न अन्न नीर वस्त्र हो, हटो नहीं, डटो वहीं,

बढ़े चलो, बढ़े चलो”

– सोहनलाल द्विवेदी (भैरवी)

इस धारा की कविताओं में पराधीनता के प्रति आक्रोश, राजनैतिक विद्रोह, अतीत का गौरव-गान, बलिदान की आकांक्षा, सामाजिक विषमता व कुरीतियों का विरोध, के साथ-साथ इस वर्ग की कविताओं में तात्कालिक समाधान के प्रति एक आग्रह दिखाई पड़ता है जो कि इन कविताओं में एक उद्दाम आवेग भरता है। इसी तात्कालिक समाधान की आशा के टूटने पर निराशा और हताशा के भी स्वर निकलते हैं

“आज खड्ग की धार कुंठित है खाली तूणीर हुआ।

विजय-पताका झुकी हुई है लक्ष्य भ्रष्ट यह तीर हुआ।।”

नवीन (कुंकुम)

सामाजिक चेतना के स्वर जिन कवियों में प्रमुख थे वे प्रगतिशील काव्यधारा से भी जुड़े यथा – शिवमंगल सिंह “सुमन” अंचल, नरेन्द्र शर्मा आदि। सांस्कृतिक अतीत के गौरव-गान से अलग तात्कालिक राष्ट्रीय समस्याओं को अतीत में प्रक्षेपित कर कुछ महत्वपूर्ण प्रबंध काव्य लिखे गए यथा – कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, जयभारत, नकुल, विक्रमादित्य आदि।

प्रेम और मस्ती का काव्य

वैयक्तिक प्रेम और तज्जन्य निराशा के गीत छायावाद से ही रचे जाने आरंभ हो गए थे किंतु इन गीतों का प्रेम नितांत लौकिक धरातल का प्रेम बनकर उत्तर-छायावादी काव्य में ही प्रकट हुआ। छायावाद की आदर्श चेतना लौकिक अनुभूति को आध्यात्मिक आभा दे देती थी या फिर उनका दार्शनिकीकरण करती थी जैसा कि प्रसाद के “आँसू” जैसे काव्यों में हुआ है। किंतु उत्तर-छायावादी कविता मन और शरीर तक ही सीमित रही है। सुंदर के प्रति सहज आकर्षण, उसकी प्राप्ति की आकांक्षा तथा इस प्रयत्न की असफलता से उत्पन्न निराशा का सीधा सा क्रम इन कविताओं में है। एक उद्दाम मस्ती या मादकता का आवेग इन कविताओं की विशेषता है। जीवन के अनुभवों की अकुंठ अभिव्यक्ति में जीवन के उद्देश्य या जीवन-दृष्टि का प्रश्न इनके सम्मुख प्रधान नहीं है। अपने फक्कड़पन में इन्हें जगत् या लोकापवादों की कोई चिंता नहीं है। ये अपने प्रेम की अभिव्यक्ति में कोई दुराव-छिपाव नहीं चाहते –

“मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता।

शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।”

– बच्चन

अपनी मस्ती के आलम में वह यथार्थ को भूल जाना चाहता है

“हो जाने दे गर्क नशे में, मत पड़ने दे फर्क नशे में

ज्ञान ध्यान पूजा पोथी के फट जाने दे वर्क नशे में

ऐसी पिला कि विश्व हो उठे एक बार तो मतवाला

साकी अब कैसा विलम्ब भर-भर ला तन्मयता-हाला।”

– नवीन

मस्ती, नशे और खुमार के इस काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय अभिव्यक्ति हरिवंशराय “बच्चन” की “मधुशाला” में हुई। इसके प्रभाव के कारण कई बार व्यंग्य से इस काव्यधारा को “हालावाद” कहा जाता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संबंध में कहा है – “वस्तुतः यह “हाला” एक प्रतीक मात्र है जो तत्कालीन प्रचलित झूठी आध्यात्मिकता के प्रतिवाद का एक प्रतीक मात्र था। मूलतः बच्चन की कविता मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता है।” इस असंकुचित और आत्मकेंद्रित मस्ती का एक और रूप भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में दिखाई पड़ता है

“हम दीवानों की क्या हस्ती,

हम आज यहाँ कल वहाँ चले

मस्ती का आलम साथ चला

हम धूल उड़ाते जहाँ चले।”

बालकृष्ण शर्मा “नवीन” की “हम अनिकेतन, हम अनिकेतन” भी इसी घर फूंक मस्ती की कविताएँ हैं। नरेन्द्र शर्मा व अंचल आदि की कविताओं में अकुंठ प्रेम और यथार्थ की टकराहट से उसके टूक-टूक हो जाने के वर्णन है-

“टूट गया मधुघट नसीब-सा

जो मैं उसका एक टूक था

छलनी हुआ कलेजा जिसका

उसकी अंतिम एक हूक था।”

– नरेन्द्र शर्मा

“पर मिलें कब प्राण के वे मीत वे मन के निवासी!

है उमंगों के प्रलय में मिट रही पगली जवानी

जल रहा प्यासा हिया, मेरे पिया की यह निशानी।”

– अंचल 

मस्ती, फक्कड़पन, आवेग में हृदयवाद उस युग में हावी हुआ दिखाई पड़ता है।

“पढ़ो रक्त की भाषा को विश्वास करो इस लिपि का

यह भाषा, यह लिपि मानस को न भरमायेगी

छली बुद्धि की भाँति, जिसे सुख-दुख से भरे भुवन में

पाप दीखता वहाँ जहाँ सुंदरता हुलस रही है,

और पुण्य-चय वहाँ जहाँ कंकाल. कुलिश, काँटे हैं।”

-दिनकर

बुद्धि का यह विरोध और प्रवृत्तियों पर यह विश्वास क्षणभंगुर जीवन का सत्य जानने के कारण भी है

“मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय”

-बच्चन

बच्चन इसी मस्ती में सिंधु की लहरों के निमंत्रण को अनदेखा कर तीर पर रुकना नहीं चाहते किंतु सिंधु का वह हिल्लोल कम्पन पूरे जगत पर प्रतिच्छायित है और बच्चन के हृदय की पुकारें उसी की। प्रतिध्वनियाँ हैं

“रात का अंतिम प्रहर है

झिलमिलाते हैं सितारे

वक्ष पर युग-बाहु बाँधे

मैं खड़ा सागर किनारे

शून्य में भरता उदधि

उर की रहस्यमयी पुकारें

इन पुकारों की प्रतिध्वनि

हो रही मेरे हृदय में

सिंधु का हिल्लोल कंपन

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

आज लहरों में निमंत्रण।”

छायावादी कविता में जहाँ कवि नाविक से भुलावा देकर “उस पार” ले जाने का आग्रह करता था वहाँ उत्तर-छायावादी कवि उस पार की बजाय “इस पार” के ही भोग को तरजीह देता है –

“इस पार प्रिये मधु है, तुम हो

उस पार न जाने क्या होगा?”

– बच्चन

छायावादी वैयक्तिक प्रेम-गीतों से इस कविता का यह महत्वपूर्ण अंतर है। यह लौकिक धरातल के प्रेम तथा उससे उत्पन्न उल्लास, मस्ती, मादकता, निराशा, हताशा, कुंठा की कविता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि इस धारा में जो निराशा और पराजय का स्वर है उसका कारण सिर्फ प्रेम की असफलता नहीं वह जीवन के अन्य संदों से भी जुड़ा है। यह स्वच्छंदतावादी कविता ही है। साही ने इस संदर्भ में इन कवियों की अंग्रेजी रोमांटिक कवि बायरन से तुलना की है। अंतर सिर्फ गंभीरता का है क्योंकि छायावादी मूल्यों से टकराहट की “क्राइसिस” में इन कवियों ने “क्राइसिस” की उपेक्षा करके “खुमारी और जवानी” का सहारा लिया और “बहुत गंभीर होकर अगंभीरता को अपनाया” 

“बच्चन की रूपकोक्तियाँ, दिनकर का रिटॉरिक, भगवतीचरण वर्मा की लापरवाह दीवानगी, नवीन का वलवला, अंचल का उबाल, नरेन्द्र शर्मा का नफीस ऐश्वर्य – इन सब में गंभीरता के अभाव की छाया है। कुल मिलाकर लगता है, जैसे अंग्रेजी कवि बायरन के पचासों टुकड़े कर दिए गए हों और उनमें से कुछ-कुछ टुकड़े इन तमाम कवियों की “जवानी” में अलग-अलग जज्ब कर दिए गए हों।” इस वैचारिक धारा में अक्सर विद्रोह के स्वर भी सुनाई पड़ते हैं किंतु वह विद्रोह सामाजिक असंतोष और व्यक्तिगत अस्वीकृति से उत्पन्न होते हुए भी भवावेशजन्य ही है, उसमें कोई रचनात्मक चिंतन या दृष्टि नहीं मिलती। आत्मानुभूति की सघनता, भावों की सरलता और आवेग की तीव्रता ही इस धारा की लोकप्रियता का मुख्य कारण है।

उत्तर-छायावादी काव्यभाषा व शिल्प

आधुनिक हिंदी कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यधारा उत्तर-छायावादी काव्यधारा ही रही है। इसका कारण एक तरफ इसकी आवेगमयता और भाव-सरलता है तो दूसरी तरफ इसकी काव्यभाषा की सफाई और सरलता भी है। छायावाद से वैयक्तिक प्रगीतों की जो विरासत इसे मिली उसे इसने और भी समृद्ध किया। प्रबंध काव्यों के स्वरूप में भी उत्तर-छायावादी कविता थोड़ा बदलाव लाती है।

काव्यभाषा

छायावादी कवियों ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए एक नई काव्यभाषा का निर्माण किया था। इस नई काव्य-भाषा के पीछे छायावादी कवियों की नई सौंदर्याभिरुचि का भी हाथ था। खड़ी बोली . कविता को कोमलकांत पदावली से समन्वित करने के लिए उन्होंने संस्कृत. बांग्ला और अंग्रेजी से प्रभाव-ग्रहण किए, उन्हें खड़ी बोली के प्रकृति के अनुरूप ढाल कर उनका प्रयोग किया। द्विवेदी युगीन तत्सम-बहुलता और छायावादी तत्सम-प्रधानता के बीच यह अंतर है।

छायावाद के कवियों के सम्मुख भाषा की एक अवधारणा यह थी कि भाषा वास्तविकता का उद्घाटन करती है। भाषा वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती है, इस अवधारणा से इंकार न करते हुए भी छायावादियों ने इसकी उपेक्षा की। वास्तव में शब्द की पृथक अर्थ-छायाएँ होती हैं, जो वास्तविकता से संबद्ध होती हैं। भाषा की यह प्रतिभा उसकी आंतरिक प्रतिभा होती है। भाषा की इस आंतरिक प्रतिभा का उपयोग छायावादी कवियों ने वास्तविकता की संभावनाओं के उद्घाटन के लिए किया । इस प्रवृत्ति के बलवती होने पर भाषा की आंतरिक प्रतिभा पर ही जोर पड़ने लगा और भाषा वस्तु-जगत से स्वाधीन होने लगी। फलतः काव्य में अमूर्तन और  आत्मग्रस्तता आने लगी। उत्तर-छायावादी काव्यभाषा में इस अमूर्त्तन से मुक्ति के प्रयास स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। उत्तर-छायावादी काव्यभाषा में एक खुलेपन, एक सफाई का आग्रह स्पष्ट है।

छायावादी तत्सम शब्दावली के इर्द-गिर्द एक प्रभामंडल सा व्याप्त होता है जो अर्थ की एक अन्य गौरवपूर्ण दुनिया बनाता है। उत्तर-छायावादी काव्यभाषा में यह तत्सम-बहुलता उतनी नहीं है। किंतु जैसा कि साही ने कहा है – “छायावाद ने संस्कृत शब्दों का प्रयोग उनके अभिधार्थ या लक्षणार्थ के ही लिए नहीं किया, बल्कि एक अलग प्रभामंडल के लिए किया जिसकी शर्त ही यही थी कि वह ठेठ शब्दों से स्रोत में ही अलग दीखे। इसी बहुलता को कम करने का काम दिनकर आदि ने किया। लेकिन स्रोत के प्रभामंडल का अतिरिक्त लाभ उन्होंने भी उठाया।” “तान-तान फण व्याल कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ” जैसी कविता में “व्याल” और “फण” के साथ लिपटे प्रभामंडल के अर्थ गौरव का अतिरिक्त लाभ दिनकर उठाते हैं। किंतु कुल मिलाकर, उत्तर-छायावादी कविता में तत्सम शब्दों के प्रयोग में कमी आयी और तत्समेतर शब्दों का प्रयोग बढ़ा।

संस्कृत शब्दों में कमी के साथ-साथ बच्चन, अंचल, भगवतीचरण वर्मा ने उर्दू कविता की खुमारी और मादकता से हिंदी कविता को संपन्न किया। उर्दू शब्दावली की सहजता इन कवियों में मिलती है, यथा –

“हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला

अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला”

नाज़ अदा अंदाज़ों से अब हाय, पिलाना दूर हुआ

अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ अदायी मधुशाला।”

– बच्चन

बच्चन की “मधुशाला” तथा भगवतीचरण वर्मा की “दीवानों की हस्ती” कविता में उर्दू शब्दावली, लय और मुहावरों के प्रयोग ने काव्यभाषा के खुलेपन और प्रवाहमयता को और भी समृद्ध किया । नरेन्द्र शर्मा की कविताओं में “कोट” “बटनहोल” जैसे अंग्रेजी शब्द भी मिल जाते हैं। भाषा के स्तर पर उत्तर-छायावादी कवियों ने संप्रेषणीयता और सहजता का सदा ध्यान रखा है।

लय और छंद

छंदों से मुक्ति की प्रेरणा और लय का अनुधावन हिंदी कविता में छायावाद की देन है। छंदो की विविध ता और पुराने छंदों का समयानुकूल प्रयोग भी छायावाद की विशेषता है। उत्तर-छायावादी कविता ने भी छंदों की इस विविधता को अपनाया है और अनेक रमणीय गीतों की रचना की है। पद्धड़िया, मत्तगयंद, तथा मिश्रित छंदों के उदाहरण बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, भगवतीचरण वर्मा के गीतों में हैं। बच्चन ने उर्दू की रुबाइयों और गजलों का प्रयोग अपने गीतों में किया है। छायावादी कविताओं में छंद या मुक्त-छंद की लय पूर्णतः प्रवाहपूर्ण नहीं है, उसके प्रवाह में कहीं-कहीं जोड़ मिलते हैं परंतु उत्तर-छायावादी कवियों की लय का प्रवाह कहीं बाधित नहीं होता।

प्रबंध-विधान

“कामायनी” के उपरांत परंपरागत विधान में प्रबंध काव्य लिखना अप्रासंगिक हो गया। छायावाद ने प्रबंध-कविता को अपनी एक देन “लंबी कविता” के रूप में भी दी। उत्तर-छायावादी कविता की प्रबंध रचनाएँ द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता और छायावादी लाक्षणिकता की मध्यभूमि पर रचित हैं। दिनकर की “कुरुक्षेत्र” व “उर्वशी” में प्रबंधत्व काफी क्षीण है। “रश्मिरथी” तथा गुप्तजी की “जयभारत”, “विष्णुप्रिया”, गुरुभक्त सिंह “भक्त” की “विक्रमादित्य”, मोहनलाल महतो “वियोगी” की “आर्यावर्त”, सियारामशरण गुप्त की “उन्मुक्त”, केदारनाथ मिश्र, “प्रभात” की “ऋतंभरा”, नरेन्द्र शर्मा की “द्रौपदी” जैसी प्रबंध रचनाएँ द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता की ओर झुकी हुई हैं। परंतु इनमें राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना पहले से अधिक प्रखर है।

“उर्वशी”, “ऋतंभरा” जैसी कृतियों की रचना के मूल में “कामायनी” से स्पर्धा का भाव भी है। युद्ध की समस्या, मानवता का भविष्य तथा महाभारत-पुराणों का आधुनिक आख्यान इन प्रबंध-काव्यों की विषय-वस्तु है। काव्य-रचना का कोई नया विधान इन उत्तर-छायावादी कवियों ने नहीं रचा। अपने युग की समस्याओं का समाधान जिस प्रकार पुराने आदर्शों व लक्ष्यों के स्वीकार के सरलीकरण के साथ किया, उसी प्रकार काव्य-विधान के पुराने रूपों को भी सहजता से अपना लिया।

शिल्प के स्तर पर महत्वपूर्ण अंतर सिर्फ काव्यभाषा के खुलेपन और प्रवाहमयता में है। यह अंतर भी वास्तविकता के बढ़ते दबाव के कारण । उपस्थित हुआ। दरअसल छायावाद ने अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल जिस काव्य-विधान को निर्मित किया था, उसकी संभावनाओं का छायावादी कविता ने पूरा उपयोग स्वयं कर लिया था और निराला तथा पंत जैसे छायावादी भी स्वयं उस विधान को छोड़ रहे थे। उत्तर-छायावादी कविता ने इस स्तर पर कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। फिर भी संप्रेषणीयता का जो स्तर उन्होंने ग्रहण किया वह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है।

प्रमुख कवि

उत्तर-छायावादी कविता के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं

रामधारी सिंह “दिनकर”

उत्तर-छायावादी कविता के सर्वप्रमुख कवियों में दिनकर हैं। दिनकर मुख्यतः अपनी कविताओं में वक्तृत्व-कला (Rhetoric) के लिए विख्यात हैं। ओज प्रधान राष्ट्रीयता और सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार इनकी कविताओं का मुख्य स्वर है। साथ ही दिनकर प्रेम की मस्ती के भी गीतकार हैं। “उर्वशी” तथा “गीत-अगीत” के रचयिता दिनकर का मुख्य स्वर “हुँकार”, “रेणुका”, “चक्रवाल”, “कुरुक्षेत्र” और “रश्मिरथी” जैसे काव्यों में फूटता है। वैयक्तिक आवेग की कमी उनमें नहीं है –

“सुनें क्या सिन्धु मैं गर्जन तुम्हारा

स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं”।

हरिवंशराय “बच्चन”

दिनकर के साथ-साथ बच्चन भी इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। बच्चन मुख्यतः प्रेम और मस्ती के गायक हैं। उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद, मधुशाला, मधुकलश जैसी रचनाओं की मधुचर्या के कारण इनके काव्य को उपहासवश “हालावाद” भी कहा गया। “निशा-निमंत्रण”, “एकांत-संगीत”, “आकुल-अंतर” के गीतों में बच्चन प्रेम की निराशा, कुंठा के साथ जगत् के बंधन और अपनी निश्छलता के गीत गाते दिखाई पड़ते हैं। योग और भोग के द्वंद्व में जगत् की नश्वरता का ज्ञान इन्हें भोग की ओर ही प्रेरित करता है।

छायावादियों के विपरीत ये “इस पार” के कवि हैं। “सूत की माला” की इनकी कविताओं में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक स्वर भी सुनाई पड़ता है।

माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा “नवीन”

इन दोनों कवियों में काफी समानताएँ हैं। ये दोनों छायावाद युग से ही कविकर्म में रत थे। इसके अलावा ये दोनों ही सक्रिय राजनीति से जुड़े हुए थे। दोनों की कविताओं में राष्ट्रीयता का स्वर प्रबल है किंतु दोनों ने ही प्रेम और मस्ती के तराने भी लिखे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ “भारतीय आत्मा” की रचनाएँ हैं- “माता”, “समर्पण”, “युगचरण”  इनकी “कैदी और कोकिला” तथा “पुष्प की अभिलाषा” कविताएँ काफी प्रसिद्ध हैं। बालकृष्ण शर्मा “नवीन” ने “अपलक”, क्वासि”, “हम विषपायी जनम के” आदि कृतियों की रचना की है।

नरेन्द्र शर्मा

“प्रभात फेरी”, “प्रवासी के गीत”, “पलाशवन”, “मिट्टी के फूल”, “कदलीवन” जैसी कृतियों के रचयिता नरेन्द्र शर्मा के गीतों में प्रकृति-प्रेम, मानव-सौंदर्य, तज्जन्य विरह-मिलन की अनुभूतियाँ बड़ी आत्मीयता और सरल प्रवहमान भाषा में व्यक्त हुई हैं। रूमानी दृष्टि के साथ-साथ इनकी कविताओं में सामाजिक स्वर भी सुनाई पड़ता है।

भगवतीचरण वर्मा

भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में मस्ती और प्रेम तथा यौवन का उल्लास है। “वे अनासक्त भोक्ता की भाषा में सुंदर के सौंदर्य की महिमा और अपनी मस्ती के गान गाते हैं। “मधुकण”, “प्रेम-संगीत”, “मानव” और “एक दिन इनकी काव्य रचनाएँ हैं। मस्ती का गान करते हुए कहते हैं

“हम दीवानों की क्या हस्ती है

आज यहाँ कल वहाँ चले

मस्ती का आलम साथ चला

हम धूल उड़ाते जहाँ चले।”

इनके अलावा रामेश्वर शुक्ल “अंचल”, गोपाल सिंह “नेपाली”, आरसी प्रसाद सिंह, सियारामशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, उदयशंकर भट्ट आदि इस धारा के अन्य प्रमुख कवि हैं।

सारांश

इस इकाई में आपने उत्तर छायावादी कविता का अध्ययन किया । उत्तर-छायावादी कविता का सर्वाधिक प्रभाव काव्यभाषा के क्षेत्र में है। भाषा की सफाई, संप्रेषणीयता इस कविता की उपलब्धियाँ हैं। काव्य भाषा को वस्तु जगत और यथार्थ से इस कविता ने सहज ही जोड़ा है।

आपने यह भी देखा कि राष्ट्रीयता और प्रेम या वैयक्तिक भावनाओं के क्षेत्र में जिस विद्रोह भावना या स्वछंदता के पथ पर यह कविता चली उसने इसे अत्यंत जन-प्रिय बनाया। दिनकर, नवीन, बच्चन की कविताएँ कई पीढ़ियों तक युवकों के कंठ पर चढ़ी रहीं। इन कविताओं का प्रवाह युवा-मन को प्रभावित करने में अभी समर्थ है। प्रेम का उद्दाम आवेग और उसकी सहज-अकुंठ अभिव्यक्ति या उसकी असफलता की व्यथा जिस सरलता से अभिव्यक्त हुई है, वह आरंभिक तौर पर अत्यंत आकर्षक है।

स्वच्छंदतावाद की इस प्रवृत्ति ने छायावादी आस्था का आवरण ओढ़े रखा जिसके कारण यह रोमैंटिक कविता पश्चिम की तरह किसी “अपराध-बोध” की प्रेरक नहीं बन पाई। “जहाँ पश्चिम की रोमैंटिक कविता अपराध-बोध से ग्रस्त हो गई वहीं भारतीय रोमैंटिक कविता ने “त्रास” की जगह “पावनता” की थाती ही समर्पित की” (साही)। उत्तर-छायावादी कवि स्थापित नीति-मर्यादाओं की उपेक्षा करते हुए भी किसी अनैतिकता का उद्घोष नहीं करते बल्कि दिनकर जैसे कवियों में तो नैतिकता का अंकुश भी मिलता है। छायावादी सांस्कृतिक प्रतीकों और आदर्शों को मानते हुए भी उत्तर-छायावादी कविता उस “आंतरिक लय” को पकड़ने का प्रयास करती है, जिससे ये प्रतीक व आदर्श जन्मते हैं। इसके कारण कविता के रूप में जो बदलाव आता है उसे विजयदेवनारायण साही ने इस प्रकार व्यक्त किया है – “छायावादी कलाकृति मूलतः एक विस्फोट करता हुआ काव्य रूप है – जैसे केंद्रीय अर्थ फूटकर चारों ओर क्रमशः विलीन होता हुआ बिखर रहा हो। तीसरे दशक की कलाकृति उसे विस्फोट की तरह नहीं, बल्कि एक लहर की तरह निर्मित करती है – जिस प्रयास में महादेवी से लेकर बच्चन तक के गीत निर्मित होते हैं।”

इस प्रकार उत्तर-छायावादी कविता आगामी नयी कविता के लिए भाषा और भाव-भूमि दोनों ही स्तरों पर जमीन तैयार करती है। यही इसका ऐतिहासिक दाय भी है।

अभ्यास प्रश्न

  1. छायावादी मनोभूमि से उत्तर-छायावादी मनोभूमि का अंतर स्पष्ट कीजिए।
  2. उत्तर-छायावादी कविता की प्रमुख धाराओं का परिचय देते हुए उनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  3. उत्तर-छायावादी काव्यभाषा की प्रकृति पर विचार कीजिए।
  4. उत्तर-छायावादी कविता छायावाद और नई कविता के विकास-क्रम की अनिवार्य कड़ी है। कैसे? स्पष्ट कीजिए।

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