भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची : विधायिका के सदस्यों की निरर्हता के आधार

प्रश्न: भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत विधायिका के सदस्यों की निरर्हता के क्या आधार हैं? भारत जैसे एक संसदीय लोकतंत्र में ऐसे प्रावधान होने के गुणों और दोषों का विश्लेषण कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भूमिका में, 10 वीं अनुसूची के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  • भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत प्रदत्त निरर्हता के आधारों का उल्लेख कीजिए।
  • दल-बदल विरोधी कानून के गुणों और दोषों को बताइए तथा इन प्रावधानों के पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिए।
  • निष्कर्ष में, आगे की राह के संबंध में सुझाव दीजिए।

उत्तर

दसवीं अनुसूची, जिसे सामान्य रूप से दल-बदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है, को संविधान में 52वें संविधान संशोधन अधिनियम,1985 के माध्यम से जोड़ा गया था। यह कानून अयोग्यता हेतु निम्नलिखित आधार प्रदान करता है: 

  • किसी राजनीतिक दल से संबंधित संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य को अयोग्य माना जाता है यदि: 
  • वह स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल की सदस्यता को त्याग या छोड़ देता है।
  • या वह मतदान के समय पार्टी नेतृत्व के निर्देशों का उल्लंघन करता है या 15 दिनों की पूर्व अनुमति के बिना मतदान में अनुपस्थित रहता है।
  • कोई निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव के पश्चात् किसी राजनैतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • कोई मनोनीत सदस्य सांसद विधायक बनने के छह महीने के पश्चात् किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है।

समय के साथ, दल-बदल विरोधी कानून द्वारा विभिन्न परिस्थितियों का सामना किया गया है, जिसने इसके गुणों और दोषों, दोनों पर प्रकाश डाला है।

गुण

  • यह दोषी पाए गए विधायकों को अयोग्य घोषित कर सरकार में स्थायित्व को सुनिश्चित करने और सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास करता है।
  • यह दलगत अनुशासन में वृद्धि करता है और यह सुनिश्चित करता है कि जो सदस्य दल के समर्थन से और दल के घोषणा पत्रों के आधार पर निर्वाचित हुए हैं, वे दल की नीतियों के प्रति ईमानदार रहें।
  • दल-बदल लोगों के विश्वास का उल्लंघन करता है, और दल-बदल विरोधी कानून इस विश्वास का संरक्षण करता है।

दोष

  • इस अधिनियम ने सदन के सदस्यों को दल बदलने से प्रतिबंधित करके संसद और जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही को कम किया है।
  • यह सांसदों की वाक् एवं अभिव्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता को सीमित करता है और उन्हें एक प्रबुद्ध विधि-निर्माता के स्तर से नीचे, केवल विधेयक पारित करने हेतु आवश्यक संख्या के रूप में प्रतिस्थापित करता है।
  • दल-बदल के सम्बन्ध में पीठासीन अधिकारी (PO) का निर्णय अंतिम होना भी अतीत में समस्या का कारण रहा है। हालांकि, किहोतो होलोहन बनाम जेचिल्हु मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि PO का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

अतः वर्तमान में, दल की आंतरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में वृद्धि हेतु एक तंत्र की स्थापना कर, व्हिप के उपयोग को सीमित कर और दल- बदल सम्बन्धी मामलों को राष्ट्रपति/राज्यपाल को सौंप कर इस कानून को और अधिक सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, राजनीतिक दलों को, दोषी/अयोग्य पाए गए विधायकों को अपने दल में शामिल न करने के लिए प्रोत्साहित किये जाने की भी आवश्यकता है।

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