द्वितीय विश्व युद्ध : विचारधाराओं का एक संघर्ष

प्रश्न: चर्चा कीजिए कि क्या द्वितीय विश्व युद्ध विचारधाराओं का एक संघर्ष था या साम्राज्यवादी हितों के अनुसरण के परिणामस्वरूप एक अपरिहार्य अन्तराष्ट्रीय संघर्ष था।

दृष्टिकोण

  • द्वितीय विश्व युद्ध में घटित घटनाओं पर संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • उन्हें विचारधाराओं और साम्राज्यवादी हितों से संबंधित कारकों में विभाजित कीजिए और दोनों कारकों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
  • इसके अतिरिक्त, युद्ध की अपरिहार्यता पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

अपने चरम रूप में द्वितीय विश्व युद्ध में परिवर्तित होने वाला अंतरराष्ट्रीय संघर्ष आंशिक रूप से विचारधाराओं के संघर्षों के कारण और आंशिक रूप से साम्राज्यवादी हितों के कारण था। इनके परिणामस्वरूप विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया था।

विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में युद्ध:

  • प्रथम विश्व युद्ध में संपूर्ण यूरोप में उदारवादी लोकतंत्र की विजय हुई। हालांकि, इस विजय के एक दशक के भीतर, यूरोप ने लोकतांत्रिक आदर्शों और संस्थानों के प्रति पूर्ण अस्वीकार्यता का सामना किया। कम्युनिस्ट रूस, फासीवादी इटली और हिटलर के नेतृत्व में नाजी अधिनायकवाद के रूप में तानाशाही प्रकट हुई। चाहे इन तानाशाहों ने अपने राष्ट्रों की महत्वपूर्ण समस्याओं पर अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए, परन्तु वे लोकतंत्र के मौलिक आदर्शों की निन्दा करने में एकजुट थे। वे एक अधिनायकवादी राज्य और एकल पार्टी सरकार के संबंध में एकमत थे।
  • इन विचारों के तीव्र प्रसार ने पश्चिमी यूरोप के लोकतांत्रिक व्यवस्था के समक्ष एक गंभीर खतरा उत्पन्न किया। इसके अतिरिक्त, फासीवाद, साम्यवाद का विरोधी था तथा इसके प्रसार को रोकना चाहता था। इसके परिणामस्वरूप, साम्यवाद, फासीवाद और लोकतंत्र की वैचारिक ताकतों के मध्य एक त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ हो गया।

साम्राज्यवादी हितों के कारण युद्ध:

  • जहाँ ब्रिटिश, फ्रेंच, सोवियत और अमेरिका के पास अत्यंत आवश्यक कच्चे माल तक पहुंच हेतु विस्तृत औपनिवेशिक साम्राज्य थे, जबकि जर्मनी, इटली और जापान जैसे देशों के पास इस प्रकार का साम्राज्य उपलब्ध नहीं था। इसके अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के पतन के परिणामस्वरूप उपनिवेश संपन्न राष्ट्रों ने अपेक्षाकृत अधिक क्षेत्रीय व्यापार गुटों का गठन किया, उदाहरण के लिए ग्रेट ब्रिटेन की साम्राज्यवादी अधिमान्य प्रणाली।
  • जबकि “उपनिवेश-विहीन” राष्ट्रों ने अपने स्वयं के क्षेत्रीय व्यापार गुटों का निर्माण करने का प्रयास किया, उन्होंने पाया कि अत्यंत आवश्यक संसाधनों वाले प्रदेशों पर अधिकार करने हेतु सैन्य बल का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार के सैन्य बल के विकास हेतु व्यापक पुनःशस्त्रीकरण की आवश्यकता थी परन्तु, पुनःशस्त्रीकरण ने अधिक कच्चे माल की आवश्यकता पर बल दिया, परिणामस्वरूप इसके लिए क्षेत्रीय विस्तार की आवश्यकता थी।
  • इस प्रकार की साम्राज्यवादी विजयों ने जैसे- 1930 के दशक के आरंभ में जापान का मंचूरिया पर आक्रमण, वर्ष 1935 में इटली का इथियोपिया पर आक्रमण और वर्ष 1938 में जर्मनी द्वारा ऑस्ट्रिया के अधिकांश और चेकोस्लोवाकिया के कुछ भागों पर अधिकार इत्यादि सभी घटनाएं सीमा विस्तार की आवश्यकताओं का प्रतिरूपण थीं।

युद्ध की अपरिहार्यता

  • युद्ध की अपरिहार्यता को लेकर बहस अभी भी जारी है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिटलर कार्रवाई के लिए योजना तैयार कर चुका था, अतः युद्ध का कभी न कभी होना अपरिहार्य था। वे कहते हैं कि यदि वर्साय की संधि को समय रहते संशोधित कर दिया जाता, तो युद्ध को रोका जा सकता था। अन्य इतिहासकारों ने तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए कहा कि ब्रिटेन और फ्रांस को हिटलर के प्रति एक कठोर कदम उठाने चाहिए थे। कुछ ने USSR पर जर्मनी के साथ गैरआक्रामक समझौते पर हस्ताक्षर करके युद्ध को अपरिहार्य बनाने का भी आरोप लगाया। यह देखा जा सकता है कि इनमें से प्रत्येक कारक की युद्ध में भूमिका थी और इस प्रकार युद्ध में परिणति हेतु विचारधारा या साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त अन्य कारक भी उत्तरदायी थे।
  • निष्कर्ष में, यद्यपि यह कहा जा सकता है कि विचारधाराओं का संघर्ष निःसंदेह एक महत्वपूर्ण कारक था, परन्तु एक विशेष वैचारिक गुट में शामिल होने का प्रोत्साहन राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाना था और वह विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता मात्र नहीं था। इन दोनों कारकों में से किसी एक को द्वितीय विश्व युद्ध हेतु उत्तरदायी ठहराना एक अति सरलीकरण होगा।

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