कार्यपालिका से संबंधित मामले (Issues Related to Executive)

अध्यादेश जारी करना (Ordinance Making)

यह देखा गया है कि सरकार द्वारा जटिल परिस्थितियों से निपटने हेतु विभिन्न अध्यादेशों, जैसे- दिवाला और दिवालियापन संहिता (संशोधन) अध्यादेश 2018, भगोड़ा आर्थिक अपराधी अध्यादेश 2018, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश आदि, का व्यापक रूप से प्रयोग किया जा रहा है।

संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 123 और अनुच्छेद 213 क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करते हैं।

संविधान के तहत, कार्यपालिका की अध्यादेश जारी करने की शक्ति के संबंध में कुछ सीमाएं भी आरोपित की गई हैं।

  •  संसद के सत्रावसान की अवधिः राष्ट्रपति अध्यादेश केवल तभी जारी कर सकता है, जब संसद के दोनों सदनों में से कोई भी सत्र में नहीं है।
  • तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है: राष्ट्रपति एक अध्यादेश तब तक जारी नहीं कर सकता है जब तक उसे यह समाधान न हो कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं जिसमें ‘तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
  •  सत्र के दौरान संसदीय अनुमोदन: यदि संसद इस पर कोई कार्रवाई नहीं करती तो संसद के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह के पश्चात् यह अध्यादेश समाप्त हो जाता है। यदि संसद के दोनों सदन इसे समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव पारित कर दें तो यह निर्धारित छह सप्ताह की अवधि से पूर्व भी समाप्त हो सकता है।

अध्यादेश के अत्यधिक प्रयोग के कारण 

  • संसद द्वारा विशेष मुद्दों का सामना करने की अनिच्छा।
  • संसद में बहुमत की कमी।
  • विपक्षी दलों द्वारा सदन की कार्यवाही में बार-बार और जानबूझकर व्यवधान उत्पन्न करना।

मुद्दे

  •  अध्यादेश जारी करने की कार्यपालिका की शक्ति वस्तुतः विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध है।
  •  यह तर्क और विचार-विमर्श की लोकतांत्रिक आवश्यकताओं की उपेक्षा करती है।
  • इसे पुन:जारी करना, इससे संबंधित उस संवैधानिक प्रावधान के उद्देश्य को निष्फल करता है जिसके तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को अध्यादेशों को जारी करने की सीमित शक्ति प्रदान की जाती है।
  •  यह संविधान द्वारा प्राथमिक विधि निर्माता के रूप में निर्दिष्ट संसद और राज्य विधानमंडलों की संप्रभुता के समक्ष खतरा उत्पन्न करता है।

संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान किया गया है, इसके तहत विधि निर्माण का कार्य विधायिका को सौंपा गया है। कार्यपालिका को आत्म-संयम के साथ संविधान की भावना के अनुसार अध्यादेश जारी करने की शक्ति का उपयोग करना चाहिए तथा विधायी जांच और चर्चा से बचना नहीं चाहिए।

अध्यादेश से संबंधित महत्वपूर्ण मामले

  • आर.सी. कूपर बनाम संघ, 1970: इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि ‘तत्काल कार्रवाई’ की आवश्यकता नहीं थी; और अध्यादेश मुख्य रूप से संसद में बहस और चर्चा से बचने के लिए पारित किया गया था।
  • ए. के. रॉय बनाम भारत संघ, 1982: इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर नहीं है। बाद में वेंकट रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1985) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले को परिवर्तित करते हुए कहा कि राष्ट्रपति की संतुष्टि पर प्रश्न चिन्ह आरोपित नहीं किया जा सकता
  • डी. सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य, 1987: इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अध्यादेश जारी करने के लिए कार्यपालिका की विधायी शक्ति असाधारण परिस्थितियों में उपयोग की जानी चाहिए, न कि विधि बनाने की शक्ति के विकल्प के रूप में। यह एक ऐसे मामले की जांच से सम्बंधित था जहां राज्य सरकार द्वारा कुल 259 अध्यादेशों और उनमें से कुछ को समय-समय पर पुनः जारी कर 14 वर्ष तक प्रभावी बनाए रखा गया था।
  • कृष्णा कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य, 2017: इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी भी अध्यादेश को विधायिका के समक्ष रखने में विफलता संविधान की शक्तियों का दुरुपयोग और संविधान के साथ धोखाधड़ी है। इस निर्णय द्वारा किसी अध्यादेश के अनुमोदन के लिए इसे विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य बना दिया गया।

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