उत्तर-पूर्व के विभिन्न राज्य

प्रश्न: इस क्षेत्र के अलगाव, इसकी जटिल सामाजिक प्रकृति और इसके पिछड़ेपन की परिणति स्वतंत्रता के उपरान्त से ही उत्तर-पूर्व के विभिन्न राज्यों के द्वारा मांगों के एक जटिल समुच्चय के रूप में हुई। चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • उन कारकों को बताइए जो उत्तर-पूर्व के राज्यों को भारत की मुख्य भूमि से पृथक बनाते हैं।
  • जटिल सामाजिक चरित्र एवं उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न पिछड़ेपन का उल्लेख कीजिए।
  • उपरोक्त के परिणामस्वरूप उत्पन्न मांगों के एक जटिल समुच्चय एवं उनके समाधान की चर्चा कीजिए। 

उत्तरः

आठ राज्यों वाला उत्तर-पूर्व भारत जिसमें अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा एवं सिक्किम सम्मिलित हैं। यह क्षेत्र स्वतन्त्रता के समय से ही संघर्ष के विभिन्न मुद्दों जैसे जातीय अशांति, विद्रोह, एवं अवैध आप्रवासन आदि का प्रत्यक्षदर्शी रहा है। ये संघर्ष अधिकांशत: निम्नलिखित कारणों से हुए हैं:

क्षेत्र का अलगाव:

उत्तर-पूर्व भारत एक भू-आबद्ध क्षेत्र है जिसकी सीमा का 98% भाग अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं का निर्माण करता है। इस क्षेत्र का देश के शेष भागों के साथ भौगोलिक सम्पर्क बेहद खराब है तथा यह सिलीगुड़ी नामक 22 किमी. की एक छोटी सी पट्टी के जरिए देश के शेष हिस्सों से जुड़ा है। ब्रिटिश अधिकारियों ने ईसाई मिशनरियों की सहायता से इस क्षेत्र के राजनीतिक अलगाव की एक सोची-समझी नीति का अनुसरण किया। इसका उद्देश्य इसे राष्ट्रवादी प्रभाव से दूर रखना तथा शेष भारत से इसके पृथक्करण को प्रोत्साहित करना था।

जटिल सामाजिक चरित्र:

इस क्षेत्र में देश के 635 में से 200 जनजातीय समूह निवास करते हैं तथा यहाँ 220 से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। ऐसी विविधता देश के किसी अन्य जनजातीय भाग में नहीं देखी जाती। साथ ही, इस क्षेत्र के अधिकाँश राज्यों का अस्थिर पड़ोसी राज्यों एवं देशों से आने वाले प्रवासियों के कारण व्यापक जनांकिकीय परिवर्तन हुआ है। इसका परिणाम प्राय: विरोधाभासी मांगों के रूप में सामने आता है जो इस क्षेत्र में तनाव का कारण बनता है। उदाहरण के लिए, नगालैंड द्वारा, जातीयता के आधार पर मणिपुर एवं म्यांमार के कुछ इलाकों को मिलाकर ‘वृहत नगालैंड की माँग किये जाने से उसका अन्य क्षेत्रों के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष उत्पन्न होता है।

पिछड़ापन:

इसकी अवस्थिति एवं भूभाग तथा स्वतन्त्रता के पश्चात गठित होने वाली विभिन्न सरकारों द्वारा कम ध्यान दिए जाने के कारण इस क्षेत्र को विकास की प्रक्रिया के लाभ समान रूप से प्राप्त नहीं हुए। यहाँ 1951-2001 की अवधि के दौरान जनसंख्या वृद्धि की दर 200% से अधिक हो चुकी है जिससे आजीविका पर और अधिक दबाव पड़ा है तथा भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गई है।

इन सभी कारकों के परिणामस्वरूप सामाजिक-राजनीतिक उपद्रव एवं अशांति उत्पन्न हुई। इसके परिणाम के रूप में विभिन्न राज्यों से विभिन्न जटिल मांगें की गईं। इन्हें माँगों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

  • राजनीतिक स्वायत्तता की मांगें पहली बार तब उभरीं जब गैर-असमियों को लगा कि असम की सरकार उन पर असमिया भाषा थोप रही है। अतः संपूर्ण राज्य में विरोध प्रदर्शन एवं दंगे हुए। इनके परिणामस्वरूप असम का विभाजन कर मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा व मणिपुर जैसे नए राज्यों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी प्रकार राज्य के भीतर रहने वाली विभिन्न जनजातियों द्वारा स्वायतता की मांगे भी की जाती हैं। चूंकि और अधिक छोटे राज्यों का निर्माण संभव नहीं, अत: छठी अनुसूची जैसे संवैधानिक प्रावधानों का उपयोग कर उनकी मांगों का शमन किया जाता है।
  • यह क्षेत्र पृथकतावादी आंदोलनों के द्वारा अलग देश की माँग का भी सामना कर रहा है। दो राज्यों, मिजोरम व नगालैंड में पृथकतावादी आंदोलनों की मजबूत उपस्थिति रही थी। 1986 के शांति समझौते के पश्चात, मिजोरम को पूर्ण राज्य के दर्जे के साथ विशेष शक्तियाँ दी गईं जिसके बाद यह इस क्षेत्र का सर्वाधिक शांत एवं विकसित राज्य बन गया। हालांकि नगालैंड की समस्या को अभी भी अंतिम समाधान की प्रतीक्षा है।
  • बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन: उत्तर-पूर्व की ओर होने वाले व्यापक प्रवास ने ‘स्थानीय’ समुदायों को उन लोगों के विरुद्ध खड़ा कर दिया जिन्हें ‘बाहरी’ अथवा ‘प्रवासी’ माना गया था। भारत अथवा विदेश से बाद में आकर बसने वाले इन लोगों को जमीन जैसे सीमित संसाधनों के अतिक्रमणकर्ता एवं रोजगार के अवसरों व राजनीतिक शक्ति के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा गया। इस मुद्दे ने उत्तर-पूर्व के अनेक राज्यों में राजनीतिक व कई बार हिंसक रूप धारण किया है।

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