शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा की संक्षिप्त व्याख्या : शक्तियों के पृथक्करण से संबंधित न्यायिक निर्णयों का वर्णन

प्रश्न: भारत के मामले में शक्तियों के पृथक्करण ने संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत एक अनन्य विशिष्टता प्राप्त कर ली है। व्याख्या कीजिए।

दृष्टिकोण

  • शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
  • शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत को प्रदर्शित करने वाले संबैधानिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
  • क्या भारतीय सन्दर्भ में पूर्ण शक्ति पृथक्करण का पालन किया जाता है? व्याख्या कीजिए।
  • शक्तियों के पृथक्करण से संबंधित न्यायिक निर्णयों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

सामान्यतः, राज्य के अंगों के मध्य शक्तियों के पृथक्करण के संबंध में दो सामान्य मॉडल प्रचलित हैं। पहला, मोंटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत है। दूसरा वेस्टमिन्स्टर मॉडल है जो संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित लचीले शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रावधान करता है।

हालाँकि, भारतीय संविधान नै शक्ति पृथक्करण के एक अद्वितीय रूप का प्रावधान किया है। इस प्रकार यह शक्ति पृथक्करण का तीसरा मॉडल प्रस्तुत करता है।

भारत में, शक्ति पृथक्करण के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं:

  • अनुच्छेद 50 में उल्लिखित है कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने हेतु राज्य, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए कदम उठाएगा।
  • अनुच्छेद 122 और 212 के अनुसार, क्रमशः संसद और राज्य विधान सभाओं की कार्यवाहियों की विधिमान्यता को किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता। इस प्रकार सदस्यों की न्यायिक हस्तक्षेप से उन्मुक्ति सुनिश्चित की गई है।
  • अनुच्छेद 121 तथा 211 के अनुसार, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के न्यायिक आचरण पर क्रमशः संसद तथा राज्य विधानमंडल में चर्चा नहीं की जा सकती।
  • अनुच्छेद 361 के अनुसार, राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।

यहाँ, संविधान द्वारा राज्य के तीन अंगों को मान्यता तो प्रदान की गई है किन्तु इन अंगों में विभिन्न प्रकार की शक्तियों को स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं किया गया है। यह एक कार्यात्मक अतिव्यापन है, जो निम्नलिखित के माध्यम से परिलक्षित होता है:

  •  भारत की संसदीय प्रणाली के अंतर्गत राजनीतिक कार्यपालिका भी विधायिका का अंग होती है।
  • विधायिका द्वारा अपनी न्यायिक शक्तियों का उपयोग इसके विशेषाधिकारों के उल्लंघन, राष्ट्रपति पर महाभियोग और न्यायधीशों को पद से हटाने के मामलों में किया जाता है।
  • कार्यपालिका कानून बनाने की अपनी विधायी शक्तियों का उपयोग प्रत्यायोजित विधान तथा अध्यादेश पारित करने के माध्यम से करती है।
  • न्यायाधिकरण और अन्य अर्ध-न्यायिक निकाय जो कार्यपालिका के भाग हैं, उनके द्वारा न्यायिक कार्यों का निर्वहन किया जाता है और उनके अधिकांश सदस्य न्यायपालिका से होते हैं।
  • न्यायाधीशों की संख्या निर्धारित करने तथा साथ ही उन्हें नियुक्त करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।
  • न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अंतर्गत न्यायपालिका, कार्यपालिका को संवैधानिक और सांविधिक उपायों के रूप में निर्देश दे सकती है।

इस प्रकार, भारतीय व्यवस्था में किसी एक अंग द्वारा शक्तियों के मनमाने उपयोग की रोकथाम के लिए नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था भी विद्यमान है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्यायिक निर्णयों में शक्तियों के पृथक्करण के महत्त्व को दोहराया है। केशवानंद भारती वाद (1973) में कहा गया है कि शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत हमारे संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है। इसी सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक (2014) को असंवैधानिक और न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए खतरा मानते हुए निरस्त कर दिया था।

इस प्रकार, भारत में शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था ने पर्याप्त नियन्त्रण और संतुलन के साथ अपनी एक विशिष्टता प्राप्त कर ली है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार का कोई भी अंग अपनी शक्तियों का मनमाने ढंग से उपयोग न कर सके।

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