समनुषंगिता के सिद्धांत का संक्षिप्त वर्णन

प्रश्न: समनुषंगिता के सिद्धांत व इसके महत्व की व्याख्या कीजिए एवं चर्चा कीजिए कि 73वां संविधान संशोधन अधिनियम इसे प्राप्त करने हेतु किस प्रकार प्रयास करता है।

दृष्टिकोण:

  • समनुषंगिता के सिद्धांत का संक्षिप्त वर्णन करते हुए अपना उत्तर आरंभ कीजिए।
  • जवाबदेहिता के साथ-साथ लोकतंत्र एवं प्रशासन की प्रभावशीलता एवं दक्षता के लिए इसके महत्व को संक्षेप में समझाइए। 
  • चर्चा कीजिए कि 73वां संविधान संशोधन अधिनियम इसे प्राप्त करने हेतु किस प्रकार प्रयास करता है।

उत्तर:

समनुषंगिता के सिद्धांत (principle of subsidiarity) से आशय यह है कि एक केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा उन कार्यों का संचालन नहीं किया जाना चाहिए जिन्हें निचले या स्थानीय स्तर पर कुशलतापूर्वक किया जा सकता है, बल्कि उस प्राधिकरण द्वारा इन्हें समर्थन प्रदान किया जाना चाहिए और समस्त समुदाय की गतिविधियों के साथ अपनी गतिविधियों के समन्वय हेतु सहायता प्रदान करनी चाहिए।

यह निर्णयन में नागरिकों की घनिष्ठ रूप से भागीदारी को सुनिश्चित करता है और इस तथ्य की निरंतर जांच की जाती है कि सामुदायिक स्तर पर की जाने वाली कार्रवाई राष्ट्रीय, क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संभावनाओं के संदर्भ में न्यायोचित है या नहीं।

सिद्धांत का महत्व: 

  • व्यापक लोकतांत्रिक सहभागिता: समनुषंगिता लोकतांत्रिक प्रणाली को उसकी पूर्ण वैधता प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है और स्थानीय समुदायों द्वारा कार्यक्रमों के अधिक स्वामित्व के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा देती है। बेहतर प्रशासनिक और आर्थिक दक्षता: लोगों को अपने क्षेत्रों में विद्यमान समस्याओं का बेहतर ज्ञान होता है। उनके पास इस बात की बेहतर समझ होती है कि धन का व्यय कहाँ किया जाए और कार्यों को किस प्रकार अधिक कुशलता से प्रबंधित किया जाए। उत्तरदायित्वों का स्पष्ट निर्धारण: किसी विशेष स्तर के लिए जो कुछ भी बेहतर कार्यवाही की जानी है उसे उसी स्तर पर ही अपनाया जाना चाहिए, न कि उच्च स्तरों पर। यह विभिन्न स्तरों पर निष्पादित होने वाले कार्यों हेतु तर्कसंगत और यथार्थवादी विश्लेषण को अनिवार्य बनाता है और इस प्रकार उत्तरदायित्वों का स्पष्ट निर्धारण होता है। बेहतर निर्णयन और नीति निर्माण: एक बार जब निर्णय निर्माण और इसके परिणामों को स्थानीय स्तर पर पूर्णतः संयोजित कर दिया जाता है, तो लोगों द्वारा बेहतर तरीके से शासन के माध्यम से कठोर कार्यवाईयों को अपनाने की आवश्यकता का समर्थन किया जाता है। साथ ही, यह ऐसी नीति निर्माण में भी सहायता करता है जिस पर सभी हितधारकों की सहमति हो।

समनुषंगिता का सिद्धांत विशेषतः वृहद् भौगोलिक विस्तार और विभिन्न क्षेत्रों एवं समुदायों की विविध आवश्यकताओं (जिनका समाधान स्थानीय स्तर पर बेहतर तरीके से किया जा सकता है) के कारण भारत के लिए प्रासंगिक होता जा रहा है। 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1993 निम्नलिखित के माध्यम से समनुषंगिता के सिद्धांत की विशेषताओं को प्राप्त करने का प्रयास करता है:

  • ग्रामीण आवास, निर्धनता उन्मूलन, पेयजल आदि जैसी 29 कार्यात्मक मदों (ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध) के प्रबंधन हेतु पंचायती राज संस्थानों के माध्यम से जमीनी स्तर तक व्यापक शक्ति हस्तांतरित करना।
  • ग्राम सभा (गाँव के सभी मतदाता जिसके सदस्य होते हैं) की स्थापना के माध्यम से समुदाय की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करना। पंचायत ग्राम सभा की समग्र निगरानी में कार्य करती है।
  • निधि (राज्य वित्त आयोग के माध्यम से), कार्यों और कार्यवाहियों के प्रभावी हस्तांतरण हेतु प्रावधान करना।
  • यह राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना के माध्यम से स्थानीय सरकारी निकायों के लिए नियमित रूप से चुनाव के आयोजन को संवैधानिक रूप से अनिवार्य बनाता है।
  • पंचायतों के चुनावी मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप को रोकना।

केरल, कर्नाटक और मध्य प्रदेश जैसे राज्य इसके बेहतर उदाहरण हैं जो यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1993 के माध्यम से समनुषंगिता सिद्धांत की विशेषताओं को प्राप्त किया जा सकता है। स्थानीय शासन का पूर्ण रूप से लाभ केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है जब 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के प्रावधानों को अक्षरशः लागू किया जाए।

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