क्रांतिकारी प्रवृत्तियाँ

बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया पहलू जुड़ा। क्रांतिकारी आंतकवाद का राजनैतिक हथियार के रूप में उदय हआ। 1907 तक पहला देशव्यापी जन-आंदोलन-स्वदेशी आंदोलन-लगभग समाप्त हो गया था; दूसरा मुख्य प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ। बीच के वर्षों में, राष्ट्रीय आंदोलन की राजनैतिक गतिविधियों में तीन प्रयोग हुए, जिनमें से प्रत्येक ने राष्ट्रीय चेतना जगाने और उसे बढ़ाने में अपने-अपने तरीके से योगदान दिया। पहला प्रयोग था क्रांतिकारी आतंकवाद का जिसका उदय स्वदेशी आंदोलन के पतन के साथ हुआ तथा अन्य दो प्रयोग-गदर पार्टी तथा होम रूल आंदोलन-प्रथम विश्व युद्ध के वर्षों में हुए।

क्रांतिकारी प्रवृत्तियाँ

क्रांतिकारी आतंकवाद राजनैतिक गतिविधि का एक ऐसा रूप था जिसे राष्ट्रीय युवा वर्ग की अत्यधिक प्रेरित पीढ़ी ने अपनाया था। इस वर्ग को प्रचलित राजनैतिक गतिविधियों में अपनी रचनात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला था।

 क्रांतिकारी प्रवृत्तियों के कारण

गरम दल द्वारा नरम दल (उदारवादी) की राजनीति की आलोचना ने उन्हें इस बात का विश्वास दिला दिया था कि प्रार्थना तथा तर्कों द्वारा ब्रिटिश शासकों को परिवर्तित करने का प्रयास बेकार था। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन में इस आशा और विश्वास से सक्रिय रूप से भाग लिया था कि आंदोलन के उग्र तरीकों जैसे कि बहिष्कार, सत्याग्रह आदि द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को उसके विशिष्ट खाँचे से बाहर निकाला जा सकेगा, उन्हें आशा थी कि इस आंदोलन द्वारा ब्रिटिश सरकार को घटने टेकने पर मजबूर किया जा सकेगा। स्वदेशी आंदोलन जनता के बहुत बड़े हिस्से को लामबन्द करने में केवल आंशिक रूप से ही सफल हो सका।  और न ही व बंगाल के विभाजन को वापिस करवा सका। यह असफलता लगभग निश्चित ही थी क्योंकि इसके द्वारा जनमानस को लामबन्द करने का यह पहला प्रयास था और दूसरे इनके तरीके इनकी वकालत करने वालों और इनको मानने से घबराने वालों, दोनों ही के लिए नये और अपरिचित थे।

इसलिए अपनाने वाले कुछ हिचकिचाहट से ही उन्हें अपना रहे थे। इसके कारण युवा वर्ग में अशान्ति तथा निराशा की भावना आ गई। यह वर्ग महसूस करने लगा कि जन-जागृति के लिए शायद कुछ और अधिक नाटकीय करने की आवश्यकता थी।

गरम दल (उग्रवादी) द्वारा आंदोलन की कमियों का विश्लेषण करने या इस गतिरोध में से बाहर निकाल सकने के नये रास्ते सझाने में असफलता के कारण इस भावना को और भी बल मिला। इसका नेतत्व करने वाले वर्ग के ही एक हिस्से ने जिनमें अरविन्द घोष भी शामिल थे. इस प्रवृत्ति का समर्थन किया। जो इससे सहमत नहीं थे वे इसकी खुली आलोचना करने के बजाय चप रहे, शायद यह सोच कर कि इससे सरकार को फायदा होगा।

क्रांतिकारी आतंकवाद की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलने का एक कारण सरकार द्वारा स्वदेशी आंदोलन का कर दमन भी था। उदाहरण के लिए, 27 अप्रैल 1906 की बरीसाल राजनैतिक कान्फ्रेंस में शरीक शांतिपूर्ण भीड़ पर पुलिस ने अकारण हमला कर दिया जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय अखबार “युगान्तर” ने कहा कि “बल को बल से ही रोका जाना चाहिए”।

सूरत में 1907 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल और नरम दल में विभाजन के बाद सरकार की दमन की क्षमता काफी बढ़ गयी क्योंकि गरम दल के दमन से नरम दल सरकार से नाराज नहीं होता। संविधान संशोधन के वायदों के लालच से नरम दल को बहका कर सरकार ने गरम दल पर पूरी तरह हमला बोल दिया ; तिलक को 6 साल के लिये बर्मा में निर्वासित कर दिया गया, अरविन्द घोष को क्रांतिकारी षड़यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौर में राष्ट्रवादी युवा वर्ग की एक पूरी पीढ़ी-विशेषकर बंगाल में :

  • दमन के कारण नाराज़ हो गयी
  • उदार दल के रास्ते की व्यर्थता के बारे में निश्चित रूप से कायल हो गयी
  • अशान्त थी कि गरम दल न तो सरकार से तुरंत कोई रियाएतें ही ले पाने में सफल हुआ और न ही जन-समुदाय को पूरी तरह लामबन्द करने में।

यह युवा पीढ़ी इसलिए वैयक्तिक वीरता की कार्यवाहियों या क्रांतिकारी आतंकवाद की ओर उन्मुख हुई। यह वही रास्ता था जिसे पहले आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और रूसी शून्यवादियों ने अपनाया था। हालाँकि वे मानते थे कि साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए अंततः जनता द्वारा हथियारबन्द बगावत आवश्यक थी, उन्हें इस काम की कठिनाई, विशेषकर सेना की वफादारी को खत्म करने के प्रयत्न में मुश्किलों का भी पूरा अहसास था। इसलिए तुरंत कार्यवाही के लिए उनके सामने एक ही रास्ता था : ब्रिटिश अधिकारियों, विशेषकर जो बदनाम हों, की हत्या। ऐसा इसलिए किया गया : 

  • कि अधिकारियों में दहशत फैल जाये;
  • लोगों की उदासीनता तथा डर दूर हो जाये तथा;
  • उनकी राष्ट्रीय चेतना जागृत हो जाये।

प्रारंभिक गतिविधियाँ

हालाँकि 1907-1908 के आस-पास ही क्रांतिकारी आतंकवाद की प्रवृत्ति सही मायने में ताकत बन सकी, परन्त इससे पहले भी इसके कुछ उदाहरण मिलते हैं :

  • 1897 में पूना के चापेकर भाइयों-दामोदर और बालकृष्ण ने दो ब्रिटिश अफ़सरों की हत्या की थी।
  • महाराष्ट्र में 1904 तक वी.डी. सावरकर तथा उनके भाई गणेश ने मित्रमेला और अभिनव भारत जैसी गुप्त समितियों का संगठन किया।
  • 1905 के बाद से ही कई अखबारों तथा लोगों ने इस तरह की राजनैतिक गतिविधियों का समर्थन शुरू कर दिया था। 1907 में, बंगाल के लेफ्टीनेंट गवर्नर पर कातिलाना हमला किया गया, हालाकि वह असफल हो गया।

लेकिन इस प्रवृत्ति की असली शुरुआत अप्रैल 1908 में मानी जाती है जब खुदीराम बोस तथा प्रफल्ल चाकी द्वारा उस गाड़ी पर बम फेंका गया जिसमें उनके अनुसार मज्जफरपर का बदनाम जिला न्यायधीश किग्सफोर्ड यात्रा कर रहा था। लेकिन दुर्भाग्यवश उसमें दो अंग्रेज औरतें यात्रा कर रही थीं जिनकी अनजाने में हत्या हो गयी। पकड़े जाने के बदले प्रफल्ल । चाकी ने स्वयं को गोली से मार देना बेहतर समझा लेकिन खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। सरकार ने इस अवसर को अरविन्द घोष और । उसके भाई बारिन तथा कई अन्यों को एक षडयंत्र केस में फंसाने के लिए भी इस्तेमाल किया, जिसमें अरविन्द स्वयं तो छूट गये लेकिन उनके भाई सहित अन्य कई लोगों को निर्वासन तथा कठोर कारावास जैसी सजायें दी गयीं।

गुप्त संस्थाओं की स्थापना तथा क्रांतिकारी गतिविधियाँ

अंग्रेज़ी सरकार के दमन के फलस्वरूप गुप्त संस्थायें बनने लगीं, बहुत-सी हत्यायें हुईं तथा हथियार खरीदने के लिए कई “स्वदेशी” डकैतियाँ डाली गई। बंगाल में जो क्रांतिकारियों का केंद्र था, क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन “अनुशीलन” और “युगान्तर” जैसी संस्थाओं द्वारा किया गया। महाराष्ट्र में पना, नासिक और बंबई क्रांतिकारियों की गतिविधियों के केंद्र बन गये। मद्रास में “भारत माता ऐसोसिऐशन” के वांची अय्यर ने गरम दलीय नेता चिदम्बरम पिल्लई की गिरफ्तारी का विरोध कर रही भीड़ पर गोली चलाने वाले अफसर की हत्या कर दी।

लंदन में मदनलाल धींगरा ने इंडिया हाउस के अफसर कर्ज़न वाइली की हत्या कर दी तथा रासबिहारी बोस ने 23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली में प्रवेश कर रहे वाइसराय लार्ड हार्डिंग पर कातिलाना हमला किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाल हरदयाल, वी.डी. सावरकर, अजीत सिंह और मैडम कामा ने यूरोप में केंद्र स्थापित किये जहाँ से वे क्रांतिकारी संदेश प्रसारित करते रहे तथा स्वदेश में अपने सहयोगियों की सहायता करते रहे। कुल मिलाकर 1908-1918 के बीच 186 क्रांतिकारी या तो मारे गये या पकड़े गये।

क्रांतिकारी प्रवृत्ति का पतन

कठोर दमन, क्रूर नियमों और लोकप्रियता के अभाव के कारण क्रांतिकारी आतंकवाद की लहर धीरे-धीरे धीमी पड़ गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि वैयक्तिक वीरता के कामों के कारण क्रांतिकारियों को कछ लोकप्रियता, प्रशंसा और हमदर्दी मिली और खदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी जैसे कई क्रांतिकारी लोग प्रसिद्ध हो गये। लेकिन जैसा कि इसकी प्रवृत्ति से ही स्पष्ट था, इस प्रकार की राजनैतिक कार्यवाही का अनकरण केवल कछ व्यक्तियों द्वारा ही। किया जा सकता था, जन-समुदाय द्वारा नहीं। आम जनता अभी भी ऐसे आंदोलन की प्रतीक्षा में थी जो उनकी कमजोरियों को समझते हये उनकी शक्ति का उचित उपयोग कर सके।

इस इकाई में हमने देखा कि किस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारी प्रवृत्तियाँ उभरीं। अनुशीलन व युगान्तर जैसी क्रांतिकारी समितियाँ आंदोलन की महत्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ थीं। क्रांतिकारी गतिविधियाँ देश के किसी एक भाग तक सीमित नहीं थीं, बल्कि वे देश के बाहर भी प्रकट हुई।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.