क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन : भगतसिंह और चिटगाँव शस्त्रागार पर छापा

इस इकाई के अंतर्गत हम भारत में 1922 के बाद विकसित हुए क्रांतिकारी आतंकवाद की प्रकृति के विषय में चर्चा करेंगे।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारत में क्रांतिकारी संगठनों की उत्पत्ति और प्रकृति के बारे में जान पायेंगे।
  • इन क्रांतिकारी संगठनों के उद्देश्यों और विचारधारा को समझ सकेंगे।
  • क्रांतिकारी संगठनों में वैचारिक रूपान्तर की व्याख्या कर पायेंगे।
  • क्रांतिकारी आतंकवाद के पतन के कारणों का वर्णन कर पायेंगे।

20वीं शताब्दी के आरंभ में किस प्रकार क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ । इस इकाई में सन् 1922 के बाद भारत में विकसित क्रांतिकारी आतंकवाद की दो प्रमुख धाराओं की व्याख्या की गयी है । क्रांतिकारी मुख्यतः दो क्षेत्रों में सक्रिय थे पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश (पुराने केंद्रीय प्रांतों) और बंगाल।

असहयोग आंदोलन के स्थगित हो जाने के बाद गांधी जी के नेतृत्व और उनके अहिंसात्मक संघर्ष की नीति के प्रति असंतोष के कारण क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन को प्रोत्साहन मिला । ऊपर बारलाये गये दोनों क्षेत्रों में क्रांतिकारी आंदोलन, परिवर्तनों के दौर से गुजरा, जैसे कि यह व्यक्तिगत पराक्रम के कार्य मे जन-आंदोलन की ओर तथा पहले के क्रांतिकारियों के धार्मिक राष्ट्रवाद से निरपेक्ष देशभक्ति की ओर मुड़ गया । यहां हम चर्चा करेंगे कि किस प्रकार इन परिवर्तनों ने आंदोलन को प्रभावित किया । इन क्षेत्रों में क्रांतिकारियों की गतिविधियों का अध्ययन करेंगे. अंत में उन तत्वों की चर्चा करेंगे जो आदोलन के पतन के लिए उत्तरदायी थे । स्वतंत्रता के आदर्श ने क्रांतिकारी आतंकवादियों को उत्तेजना और शोषण मे मुक्त नये समाज के निर्माण को भावना के लिए प्रोत्साहित किया।

पृष्ठभूमि

20वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों के दौरान राजनीतिक संघर्ष की असफलता से उत्पन्न निराशा और सरकारी दमन के कारण अंततः क्रांतिकारी आतंकवाद का जन्म हुआ । क्रांतिकारी आतंकवादियों का विश्वास था कि निष्क्रिय प्रतिरोध राष्ट्रवादी उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकता और इसलिए उन्हें बम का सहारा लेना पड़ा। सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारी आतंकवादियों के विरुद्ध घोर दमनकारी उपायों को अपनाया । अतः 1918 के बाद . उनके आंदोलन का पतन हो गया।

उनमें से अधिकांश 1919 के अंत और 1920 के आरंभ में जेल से रिहा कर दिये गये क्योंकि सरकार मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के लिए उचित वातावरण तैयार करना चाहती थी । 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ । महात्मा गांधी और सी. आर. दास, अनेक क्रांतिकारी आतंकवादी नेताओं से मिले और उनसे अहिंसात्मक जन-आंदोलन में शामिल होने या कम से कम इस अवधि में अपने आंदोलन को स्थगित करने का आग्रह किया । क्रांतिकारियों ने यह स्वीकार किया कि देश में नयी राजनीतिक स्थिति उभर चुकी है । इनके बहुत से नेताओं ने राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में भाग लिया और कांग्रेस में शामिल हो गये ।

चौरी-चौरा कांड के बाद 1922 के आरंभ में असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगित हो जाने से आंदोलन के युवा कार्यकर्ताओं के बीच निराशा और असंतोष की लहर फैल गयी । उनमें से बहुत से गांधी जी के नेतृत्व के प्रभाव से विमुख होने लगे और अहिंसात्मक आंदोलन की मौलिक नीति के विषय में प्रश्न करने लगे । ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए एक बार फिर उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाया । इस संदर्भ में उन्होंने रूस, आयरलैंड, तुर्की, मिस और चीन के क्रांतिकारी आंदोलनों से प्रेरणा ली । जब पुराने क्रांतिकारी नेता अपने संगठनों को पुनर्जीवित कर रहे थे उस समय उत्साही-असहयोगियों की श्रेणी से बहुत से नये क्रांतिकारी आतंकवादी उभरने लगे जैसे योगेशचन्द्र चटर्जी, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा. इन सभी ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया था ।

सन् 1922 के बाद क्रांतिकारी आतंकवाद का विकास दो विस्तृत धाराओं में हुआ : एक तो पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश (पुराने केंद्रीय प्रांतों) और दूसरा बंगाल में । दोनों धाराएं नये सामाजिक और वैचारिक शक्तियों के प्रभाव में आ गयीं ।

  • इनमें से एक प्रमुख प्रभाव पूरे भारत में समाजवादी विचारों और संगठनों के विकास का था,
  • दूसरा, जुझारू ट्रेड यूनियन आंदोलन का शुरू होना था, और
  • तीसरा, 1917 की रूसी क्रांति और सोवियत रिपब्लिक की स्थापना था ।

लगभग सभी क्रांतिकारी दल नये समाजवादी राज्य के नेतृत्व से संपर्क विकसित करना और विचारों और संगठन तथा साधनों की सहायता लेना चाहते थे ।

उत्तर भारत में क्रांतिकारी

उत्तर भारत के क्रांतिकारियों ने सचिन्द्रनाथ सान्याल, जोगेश चटर्जी और राम प्रसाद बिस्मिल्ल के नेतृत्व में अपना पुनर्गठन आरंभ किया । अक्तूबर 1924 में कानपुर में उनकी बैठक हुई और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (या सेना) (एच. आर. ए) की स्थापना की गयी । वे सशस्त्र क्रांति द्वारा औपनिवेशिक शासन को समाप्त करके इसकी जगह वयस्क मताधिकार के आधार पर भारत के संयुक्त राज्यों का संघीय गणतंत्र स्थापित करना चाहते थे ।

एच. आर. ए. के लीडरों ने अपने संगठन के प्रचार तथा धन और शस्त्र आदि इकट्ठा करने के उद्देश्य से सरकार के विरुद्ध डकैतियाँ डालने का निश्चय किया । इनमें से सबसे महत्वपूर्ण काकोरी डकैती कांड था । 9 अगस्त, 1925 में दस क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास छोटे से गांव के स्टेशन काकोरी में सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली 8 डाउन ट्रेन को रोक लिया और रेलवे का सरकारी धन लूट लिया । सरकार डकैती में शामिल एच आर. ए. के सदस्यों और नेताओं को बड़ी संख्या में गिरफ्तार करने में सफल हुई । काकोरी षडयंत्र केस में उन पर मुकदमा चलाया गया । कैदियों को जेल. में भयंकर यातना दी गयी । इसके विरोध में उन्होंने अनेक बार भूख हड़ताल की । राम प्रसाद बिस्मिल्ल, रोशन सिंह और अशफाक-उल्लाह खान तथा राजेन्द्र लाहरी को फांसी की सज़ा दी गयी । अन्य चार व्यक्तियों को आजीवन कारावास के लिए अंडमान (काला पानी) भेज दिया गया और 17 व्यक्तियों को लंबी अवधि के लिए कारावास की सज़ा दी गयी ।

चारों क्रांतिकारी अनुकरणाय साहस के साथ शहीद हुए । राम प्रसाद बिस्मिल्ल और अशफ़ाक़-  उल्लाह, गीता और कुरान की पंक्तियों का उच्चारण करते हुए शहीद हो गए । राम प्रसाद ने घोषणा की कि “हम पुनः जन्म लेंगे, पुनः मिलेंगे और मातृभूमि की रक्षा के लिए कंधे से कंधा मिलाकर एक बार फिर मिलकर संघर्ष करेंगे”  अपने शहीद होने से एक दिन पहले अशफ़ाक़-उल्लाह ने अपने भतीजे से कहा कि “तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि हिन्दू समाज ने खुदीराम और कन्हाई लाल . जैसी महान आत्माओं का बलिदान दिया । जबकि मैं मुस्लिम समाज से संबंधित हूं फिर भी मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे इन महान शहीदों का अनुसरण करने का अवसर मिला”  एच. आर. ए. के नेताओं में अकेले चन्द्रशेखर आज़ाद ही पुलिस के जाल से बच निकलने में सफल हुए । उसके बाद उन्हें एक घोषित अपराधी की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ा ।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. एस. आर. ए.)

काकोरी कांड से क्रांतिकारियों को धक्का पहुंचा लेकिन शीघ्र ही युवाओं का एक नया दल इस कमी को पूरा करने के लिए सामने आया ! उत्तर प्रदेश में विजयकुमार सिन्हा, शिक्वर्मा और जयदेव कपूर, पंजाब में भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा और सुखदेव ने चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच. आर. ए. का पुनर्गठन आरंभ किया । वे समाजवादी विचारों से भी प्रभावित हुए । अंत में 9 और 10 सितंबर सन् 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में उत्तर भारत के प्रतिनिधि क्रांतिकारी आतंकवादियों की एक बैठक हुई । उन्होंने समाजवाद को अपने लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया और पार्टी का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (आमी) (एच. एस. आर. ए.) कर दिया ।

एच. एस. आर. ए. का नेतृत्व व्यक्तिगत वीरता के कार्यकलापों से हटकर तेज़ी से जन-आधारित सशस्त्र संघर्ष के विचारों की ओर बढ़ने लगा । लेकिन जब 30 अक्तूबर, 1928 के दिन लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन का नेतृत्व करते हुए महान राष्ट्रवादी नेता लाला लाजपत राय की लाठियों के क्रूर प्रहार से हत्या हो गयी, तब क्रुद्ध और भावुक युवाओं ने महसूस किया कि इस गंभीर अपमान का बदला लेना आवश्यक है । इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत हत्या की प्रारम्भिक प्रथा का आश्रय लिया । और इस तरह 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद और राजगुरु ने लाहौर में पुलिस अफसर साँडर्स की हत्या कर दी । यह अफसर, लाठी प्रहार कांड के लिए उत्तरदायी था । हत्या के बाद एच. एस. आर. ए. द्वारा लगाये गये पोस्टर में हत्या के समर्थन में निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखी गयीं “करोड़ों व्यक्तियों के सम्मानित नेता की एक साधारण पुलिस अफसर के नीच हाथों से हत्या होना “देश के लिए अपमान की बात है । भारत के युवाओं का कर्तव्य है कि वे इसे मिटा दें..”हमें अफसोस है कि हमें एक व्यक्ति की हत्या करनी पड़ी परन्तु वह इस अमानवीय और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अभिन्न अंग था, जिसे नष्ट करना आवश्यक था” |

व्यक्तिगत शौर्य की स्थिति से आगे बढ़ने के लिए एच. एस. आर. ए. के नेताओं ने जनता के दीच अपनी राजनीतिक विचारधारा का प्रचार करने का निश्चय किया, जिससे जन-क्रांतिकारी आंदोलन का संगठन किया जा सके । 8 अप्रैल, 1929 को श्रम विवाद कानून (Trade Disputes Bill) और जन सुरक्षा कानून (Public Safety Bill) और श्रम आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में भगत सिंह और बी. के. दत्त को केन्द्रीय विधान सभा में बम फेंकने के लिए नियुक्त किया गया । जन सुरक्षा कानून (Public Safety Bill) से नागरिक स्वतंत्रता में कमी और विशेषकर श्रमिकों के संगठन बनाने और संघर्ष करने के अधिकार पर रोक लगने वाली थी । बम फेंकने का उद्देश्य हत्या करना नहीं था, क्योंकि वम अपेक्षाकृत अहानिकारक था । जैसा कि बम के साथ फेंके गये पर्चे में कहा गया था, इसका उद्देश्य केवल “बहरों को सुनने लायक बनाना था” ।

भगत सिंह और दत्त ने बच निकलने का कोई प्रयास नहीं किया । वे स्वय को गिरफ्तार करवाना चाहते थे और अदालत के मुकदमें का प्रचार मंच की तरह प्रयोग करना चाहते थे, जिससे जनता के बीच एच. एस. आर. ए. के कार्यक्रम और विचारधारा का व्यापक प्रचार हो सके ।। असेम्बली बम कांड में भगत सिंह और वी. के. दत्त पर मुकदमा चला । पुलिस ने सॉन्डर्स हत्या कांड से संबंधित सभी विवरणों को उजागर कर दिया । लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु तथा कई अन्य व्यक्तियों पर मुकदमा चला । भगत सिंह और उनके सहयोगियों ने अदालत को प्रचार मंच में बदल दिया ।

उनके बयान समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए और जनता के बीच चर्चा का विषय बने । अदालत में वे अपने निडर और साहसी व्यवहार से जनता की श्रद्धा के पात्र बने । यहाँ तक कि अहिंसा के समर्थकों ने भी उनके देश प्रेम के कारण उनका सम्मान किया । प्रतिदिन वे “इंकलाब ज़िन्दाबाद”, “साम्राज्यवाद का नाश हो” और “सर्वहारा वर्ग (श्रमजीवीं अमर रहे’ के नारे लगाते और देशभक्ति के गीत गाते हुए अदालत में प्रवेश करते थे । भगत सिंह का नाम घर-घर में लिया जाने लगा । जेल में भयावह स्थितियों के विरुद्ध वहां क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल की । लम्बे समय तक चली इस भूख हड़ताल से सारा देश आंदोलित हो उठा । उन्होंने मांग की कि उनके साथ साधारण अपराधी की तरह नहीं बल्कि राजनीतिक कैदी की तरह व्यवहार किया जाए । 13 सितम्बर, 1929 में दृढ़ इच्छा शक्ति वाले दुबले-पतले युवा जतिनदास की भूख हड़ताल की वजह से मृत्यु हो गयी । पूरा देश आंदोलित हो उठा । उनके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाने वाली ट्रेन पर ले जाया गया ।

प्रत्येक स्टेशन पर हज़ारों व्यक्ति उन्हें श्रद्धांजलि देने आये । कलकत्ता में 6 लाख लोगों के दो मील लंबे जलूस के साथ उनका शव श्मशान तक ले जाया गया । लाहौर के ट्रिब्यून ने जतिनदास की मृत्यु पर लिखा है कि- “यदि कभी किसी व्यक्ति ने शूरवीर की मौत पायी है और किसी उच्च आदर्श के कारण शहीद हुआ है, तो वह है जतिननाथ दास । शहीदों के खून ने सभी युगों में और देशों में उच्चतर और श्रेष्ठतर जीवन आदर्शों तथा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का बीज बोया है” ।

लाहौर षडयंत्र कांड और इस प्रकार के अन्य कांडों में बहुत से क्रांतिकारियों को अपराधी घोषित करके लंबी अवधि के कारावास की सज़ा दी गयी । उनमें से बहुतों को अंडमान की सेलुलर जेल में भेज दिया गया । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को फांसी की सज़ा दी गयी । उनकी फांसी का समाचार फैलते ही पूरे देश में मौत का सन्नाटा छा गया । करोड़ों व्यक्तियों की आँखें भर आयीं, उन्होंने उपवास रखा, छात्रों ने स्कूलों का बहिष्कार किया तथा दैनिक कार्यों से अलग रहे । भगत सिंह शीघ्र ही संपूर्ण देश के लिए बहादुरी और देशभक्ति की मिसाल बन गये । उनके चित्र घरों और दुकानों की शोभा बढ़ाने लगे । उनकी शहादत को लेकर हज़ारों गीत लिखे और गाये गये । उनकी लोकप्रियता गांधीजी से स्पर्धा करने लगी ।

उत्तर भारत के क्रांतिकारियों का वैचारिक विकास

एच. एस. आर. ए. ने अपने कार्यकलापों के मार्गदर्शन और क्रांतिकारी संघर्ष के लिए एक अग्रगामी . सामाजिक विचारधारा विकसित की । इसके अलावा क्रांतिकारी गतिविधियों के लक्ष्य को तथा क्रांतिकारी संघर्ष के रूपों को बेहतर ढंग से परिभाषित किया गया ।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. आर. ए.)

वास्तव में पुनर्विचार एच. आर. ए. की आरंभिक अवस्था में ही आरंभ हो गया था । प्रारम्भ से ही एच. आर. ए. ने पूर्ण धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक और समाजवादी ढांचे के अंदर अपना कार्यक्रम बनाना शुरू कर दिया था । 1925 में इसके घोषणा-पत्र में इसका प्रमुख उद्देश्य “संगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा भारत में संयुक्त राज्यों के संघीय गणतंत्र” की स्थापना करना घोषित किया गया था । गणतंत्र का मूल सिद्धांत “सार्वजनिक मताधिकार की स्थापना और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण करने वाले सभी रीति-रिवाजों का अंत करना था”  अक्तूबर 1924 में एच. आर. ए. की परिषद् की पहली बैठक में “सामाजिक क्रांतिकारी और साम्यवादी सिद्धांतों की शिक्षा देने का निश्चय किया  गया । मजदूर किसान संगठन आरंभ करने का भी निश्चय किया गया । रेलवे और बड़े उद्योगों जैसे इस्पात, जहाज़ निर्माण और खानों के राष्ट्रीयकरण की भी वकालत की गयी ।

भगत सिंह और एच. एस. आर. ए.

बिजॉय सिन्हा, शिव वर्मा, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और भगत सिंह जैसे युवा नेताओं के समाजवाद और मार्क्सवाद की ओर झुकाव से क्रांतिकारी आतंकवादी विचारधारा के विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया । यह परिवर्तन भगत सिंह के जीवन और विचारों में विशेष रूप से दिखाई पड़ता है । इसका प्रमाण उनके बहुत से पत्रों, कथनों और लेखों में अब उपलब्ध है ।

भगत सिंह का जन्म 1907 में प्रसिद्ध देशभक्त परिवार में हुआ था । उनके पिता एक काग्रेसी थे और चाचा अजीत सिंह प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे । भगत सिंह बदर के प्रमुख वीर करतार सिंह सराभा से अत्याधिक प्रभावित थे । भगत सिंह की अध्ययन में विशेष रुचि थीं । उन्होंने समाजवाद, सोवियत संघ और विश्व के क्रांतिकारी आंदोलनों से संबंधित साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया था । लाहौर में उन्होंने और सुखदेव ने युवा विद्यार्थियों के लिए अध्ययन मंडलों का संगठन किया ।

एच. एस. आर. ए. के नेता आपस में गहन राजनीतिक विचार-विमर्श किया करते थे । उन्होंने जेल में भी गहन अध्ययन किया । अन्य नेताओं जैसे-बिजॉय सिन्हा, यशपाल, शिव वर्मा और भगवती चरण वोहरा की भी अध्ययन के प्रति विशेष रुचि थी । चन्द्रशेखर आज़ाद अग्रेज़ी कम जानते थे, लेकिन राजनीतिक वादविवादों में पूरी तरह भाग लेते थे और विचारों के क्षेत्र में हुए प्रत्येक परिवर्तन की पूरी जानकारी रखते थे । अजय कुमार घोष ने, जिन पर लाहौर षडयंत्र-कांड में भगत सिंह और अन्य लोगों सहित मुक़द्दमा चला था, चन्द्रशेखर आज़ादं के विषय में लिखा है—“अपने सक्रिय जीवन के बीच वे स्वयं को अध्ययन में व्यस्त रखते थे । दिन-प्रति-दिन उनके विचार परिपक्व होते जा रहे थे । वे अनेक बातों की व्याख्या और स्पष्टीकरण के लिए अपने अंग्रेज़ी जानने वाले साथियों की सहायता लेने में कभी संकोच नहीं करते थे ।”उनका विचार था कि ज़्यादा से ज़्यादा साथियों को किसानों और मजदरों के बीच समाजवादी विचार फैलाने के लिए कार्य करना चाहिए” ।

1929 में अपनी गिरफ्तारी से पहले भगत सिंह ने आतंकवाद और व्यक्तिगत पराक्रम के कार्य के प्रति अपना अविश्वास व्यक्त किया । वे विश्वास करने लगे थे कि पूर्णतः जनता पर आधारित लोकप्रिय आंदोलन से ही भारत और मानव जाति को दासता से मुक्त किया, जा सकता है । उन्होंने लिखा कि क्रांति केवल “जनता द्वारा और जनता के लिए” ही प्राप्त की जा सकती है । इसलिए उन्होंने युवाओं, किसानों और मजदूरों के बीच राजनीतिक कार्य को आगे बढ़ाने के लिए 1926 में नौजवान भारत सभा की स्थापना में विशेष रुचि ली । वे इसके संस्थापक सचिव थे । इसकी शाखाएं गांवों में खोलने का भी विचार था ।

भगत सिंह और सुखदेव ने विद्यार्थियों के बीच खुलम-खुल्ला राजनीतिक कार्यों को करने के लिए लाहौर विद्यार्थी परिषद् का गठन किया । वास्तव में भगत सिंह ने क्रांति और बम के प्रयोग की विचारधारा को कभी भी एक न समझा । जैसाकि हमने पहले उल्लेख किया है कि भगत सिंह और वी. के. दत्त ने 1929 में केन्द्रीय विधानसभा में जान-माल को कम से कम नुकसान पहुंचाने वाला बम इसीलिए फेंका क्योंकि उनकी नीति गिरफ्तार होना और अदालत को अपने विचारों के प्रचार का कार्यक्षेत्र बनाना था और यह काम उन्होंने बहुत खूबी से किया ।

1929 से 1931 तक भगत सिंह और उनके साथी ने अपने कथनों और घोषणा पत्र में यह दृढतापर्तक बार-बार दोहराया कि क्रांति का अर्थ जनसाधारण को जागृत करना और जन आंदोलन का गठन करना है । अपनी फांसी से पूर्व भगत सिंह ने घोषणा की कि-“वास्तविक क्रांतिकारी सेना गावों और फैक्टरियों में है” । 2 फरवरी, 1931 में युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए अपनी सलाह ने उन्होंने घोषणा की कि “देखने में मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूं  मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ घोषणा करता हूँ कि मैं आतंकवादी नहीं हूं और न ही कभी था, शायद अपने आरम्भिक क्रांतिकारी जीवन को छोड़कर मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि इन तरीकों से हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं” ।।

अब प्रश्न यह उठता है कि भगत सिंह ने खुले रूप से आतंकवाद का विरोध क्यों नहीं किया । इसे भी उन्होंने अपने संदेश में स्पष्ट किया है ।

अपने आरभिक क्रांतिकारी जीवन में परिलक्षित तथा दूसरे महान् क्रांतिकारी आतंकवादी नेताओ के शौर्यपूर्ण बलिदान को ठेस पहुंचाए बिना वे युवकों को आतंकवाद छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे । जीवन देर-सबेर स्वयं मही राजनीति की शिक्षा दे देता है । एक बार जब बलिदान की भावना समाप्त हो जाती है, उसे वापस हामिल करना मुश्किल काम है ।

भगत सिंह और उनके साथियों ने क्रांति के अर्थ और कार्यक्षेत्र को भी पुनः परिभाषित किया । क्रांति केवल जझारूपन या हिंसा का ही नाम नहीं था इसका पहला उद्देश्य राष्ट्र की मक्ति या और उसके बाद एक नये समाजवादी समाज का निर्माण था ।

दिल्ली अदालत में असेम्बली वम कांड के संबंध में दिए गए अपने बयान में उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि उनके लिए क्रांति का अर्थ है “आमूलचूल परिवर्तन” इसलिए यह ज़रूरी भी है । इसलिए क्रांति उन लोगों का कर्तव्य भी है जो समाज को समाजवादी आधार पर पुनटित करना चाहते हैं ।

1929 में एच. एस. आर. ए. के घोषणा पत्र में घोषणा की गयी कि-‘सर्वहारा की आशाएँ अव इसलिए समाजवाद पर केन्द्रित हैं, क्योंकि एकमात्र वही पूर्ण स्वतंत्रता की ओर ले जा सकता है और मभी सामाजिक मतभेदों और विशेषाधिकारों को समाप्त कर सकता है । भगवती चरण वोहरा, चन्द्रशेखर आजाद और यशपाल ने अपनी पुस्तक “फिलासफी आफ दी वम” में क्रांति का अर्थ – “सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतत्रता” बतलाया और इसका उद्देश्य “एक ऐसे नये समाज का निर्माण करना है, जिसमें राजनीतिक और आर्थिक शोषण होना असंभव होगा” । भगत सिंह और बी. के. दत्त ने असेम्बली बम कांड के दौरान अदालत को बतलाया कि “यह आवश्यक नहीं कि क्रांति में खूनखरावा हो, न ही इसमें व्यक्तिगत शत्रता के लि. कोई स्थान है । बम और पिस्तौल साध्य नहीं हैं । क्रांति से हमारा तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष अन्या। पर आधारित वर्तमान व्यवस्था को बदलना चाहिए” ।

भगत सिंह ने समाजवाद को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया । इसका पूंजीवाद और वर्ग प्रभत्व को समाप्त करना है । उन्होंने पूरी तरह मार्क्सवाद और समाज के वर्गीय दृष्टिकोण को स्वीकार किया । वास्तव में उन्होंने स्वयं को भारत में समाजवादी और माम्यवादी विचारों के प्रचारक और समाजवादी आंदोलन को आरंभ करने वाले के रूप में देखा था । अक्तूबर 1929) में जेल मे दिये गये अपने संदेश में उन्होंने अपने गजनीतिक विचारों के विषय में संक्षेप में कहा था कि क्रांति मे हमारा तात्पर्य वर्तमान मामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है । इसके लिए राज्य सत्ता को अपने हाथ में लेना आवश्यक है । राज्य सत्ता अव विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के पास है ।

जनता के हितों की रक्षा करने, अपने विचारों को वास्तविकता में बदलने और कार्लमार्म के सिद्धान्तों के अनमार समाज की नींव रखने के लिए राजमत्ता पर कब्जा करना ज़रूरी है” । भगत सिंह उस समय के उन कुछ प्रमुख नेताओं में से थे. जो भारतीय समाज और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सामने मौजूद सांप्रदायिकता के ख़तरे के प्रति परी तरह जागरूक थे । वे प्रायः अपने श्रोताओं से कहा करते थे कि सांप्रदायिकता भी उपनिवेशवाद की तरह दहत बड़ा खतरा है । भगत सिंह ने लाला लाजपतराय के सांप्रदायिक राजनीति की ओर उन्मख होने पर रनकी कड़ी निन्दा की । भगत सिंह द्वारा बनाये गये, नौजवान भारत सभा के छ: नियमों में से दो नियम इस प्रकार थे, “सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाले सांप्रदायिक संगठनो या दलों के मा कोई संबंध नहीं रखना चाहिए” तथा “जनता के बीच सहिष्णता की भावना जागृत करनी चाहिा’ यौर हे यह बतलाना चाहिए कि धर्म व्यक्तिगत विश्वास की चीज़ है और उमी भावना अनुसार चाहिए” ।

भगत सिंह का यह भी विश्वास था कि व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को मानसिक दासता और अंधविश्वास से मुक्त कर ले । अपने शहीद होने से कुछ ही समय पहले उन्होंने “मैं नास्तिक क्यों हूँ” नामक लेख लिखा । इसमें उन्होंने धर्म की आलोचना की है । उन्होंने लिखा है कि क्रांतिकारी को न केवल साहसी होना चाहिए बल्कि उसमें आलोचना की सामर्थ्य और स्वतंत्र विचार शक्ति भी होनी चाहिए । उन्होंने लिखा कि-“कोई भी व्यक्ति जो प्रगति का समर्थक है, उसे पुरानी आस्था के प्रत्येक अंग की आलोचना करने और अविश्वास व्यक्त करने, चुनौती देने का अधिकार है । प्रचलित विश्वासों के प्रत्येक पहलू की हर दृष्टि से भलीभांति जांच परख करनी चाहिए” । उन्होंने नास्तिकता और भौतिकवाद में अपना विश्वास प्रकट करते हुए स्वीकार किया कि वे “मनुष्य की भांति अपना सिर अंत तक, यहां तक कि फांसी के तख्ते पर भी ऊँचा रखेंगे” ।

बंगाल में क्रांतिकारी आतंकवादी

1922 के बाद बंगाल में भी क्रांतिकारी आतंकवादियों के पुनर्गठन का कार्य आरंभ हो गया । उन्होंने प्रेस के माध्यम से बड़े पैमाने पर आतंकवादी प्रचार और भूमिगत गतिविधियाँ विकसित की । इसके साथ ही उन्होंने गांवों से प्रांतीय स्तर तक कांग्रेस संगठन में काम करना जारी रखा । इसकी वजह यह थी कि उन्होंने समझ लिया था कि गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस का जनआधार विकसित हुआ है । अतः उनका विचार था. कि कांग्रेस के अंदर काम करने से क्रांतिकारी, जनता विशेषकर युवकों से अपना संपर्क स्थापित कर सकते हैं । इसके साथ ही कांग्रेस में काम करने से वे छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों से सक्रिय कार्यकर्ता प्राप्त करने में भी सफल हो सकेंगे ।

सी. आर. दास ने क्रांतिकारियों और कांग्रेस के बीच अनेक प्रकार से भावनात्मक कड़ी की भूमिका निभायी । उनकी मृत्यु के बाद कांग्रेस का नेतृत्व धीरे-धीरे दो पक्षों में विभाजित हो गया, एक का नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस ने और दूसरे का जे. एम. सेनगुप्ता ने किया । क्रांतिकारी भी विभाजित हो गये । युगान्तर दल ने बोस के गुट को समर्थन दिया जबकि अनुशीलन समिति के लोग सेनगुप्ता के दल के साथ थे । सन् 1924 तक प्रमुख क्रांतिकारी आतंकवादी, व्यक्तिगत साहसिक गतिविधियों की अपर्याप्तता को समझ चुके थे । उन्होंने सिद्धांततः और योजनाबद्ध रूप में जन जागृति द्वारा सशस्त्र विद्रोह से सत्ता प्राप्त करके राष्ट्रीय स्वतंत्रता नीति स्वीकार की ।

परंतु व्यावहारिक रूप में वे अब भी छोटे पैमाने की। कार्यवाइयों, विशेषकर डकैती और अधिकारियों की हत्या में विश्वास करते थे । जनवरी 1924 में ऐसी ही एक कार्रवाई, गोपीनाथ साहा द्वारा कलकत्ता के कतिात पुलिस अधिकारी चार्ल्स टेगर्ट की हत्या का प्रयास था । यद्यपि यह प्रयास विफल हो गया परंतु गोपीनाथ साहा को जनता के विरोध के बावजूद गिरफ्तार किया गया तथा उन पर मुकदमा चलाया गया । 1921 में उन्हें फांसी दे दी गयी अब । सरकार मतर्क हो गयी और उसने व्यापक पैमाने पर दमन कार्य शुरू किया । नये घोषित अध्यादेश के अनर्गत वड़ी संख्या में क्रांतिकारी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया । इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस सहित बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले कांग्रेसियों को भी गिरफ्तार किया गया । लगभग सभी प्रमुख नेता जेल में थे, इससे क्रांतिकारी गतिविधियों को बहुत धक्का पहुंचा ।

पुराने क्रांतिकारी नेताओं के आपसी झगड़ों के कारण भी क्रांतिकारी गतिविधियों को धक्का पहुंचा । युगान्तर और अनुशीलन के समर्थकों के बीच भी झगड़े थे । 1926 के बाद जेल से छूटने पर पराने नेताओं के आलोचक बहुत से नये युवा क्रांतिकारियों ने स्वयं को नये विशाल ममूहों में पुनर्गठित करना आरंभ किया । ये नये समूह विद्रोह समूह (Revolt Group) के नाम से विख्यात हुए । इन समूहो ने रूसी और आयरिश क्रांतिकारियों के अनुभवों के आधार पर स्वयं को संगठित करने का प्रयास किया । पुराने अनुभवों से शिक्षा लेकर नये विद्रोही समूहों ने अनुशीलन और युगान्तर समितियों के सक्रिय वर्गों के साथ मैत्री संबंध विकसित किये । नये समूहों में चिटगाँव समूह का नेतृत्त्व सूर्यसेन ने किया । इस समूह ने बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त की ।

चिटगाँव शस्त्रागार पर छापा

सर्पसेन ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और चिटगाँव के एक गाँव के नेशनल स्कूल में अध्यापक बन गये । इस कारण वे मास्टर दादा के नाम से विख्यात थे । उन्हें 1926 में गिरफ्तार किया गया और 1928 में रिहा कर दिया गया । 1929 में सूर्यसेन चिटगांव जिला कांग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी थे । सूर्यसेन दुर्वल शरीर के निष्ठावान व्यक्ति थे । वे होनहार संगठक थे जिन्होंने नवयुवकों और नवयुवतियों को प्रेरित किया ।

शीघ्र ही सूर्यसेन ने अनन्त सिंह, गणेश घोष, अम्बिका चक्रवर्ती और लोकनाथ बाबुल जैसे क्रांतिकारी नवयुवकों का विशाल गुट बना लिया । 1929 के प्रारंभ में उन्होंने सशस्त्र विद्रोहियों को संगठित करने की योजना बनायी । यद्यपि यह संगठन छोटे पैमाने का था परन्तु इसका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि ब्रिटिश शासन को शस्त्रों से चुनौती दी जा सकती है । इस कारण हथियार प्राप्त करने के लिए उन्होंने अनेक जिलों के शस्त्रागारों पर छापा मारने की योजना बनायी । उन्होंने उत्साहपूर्वक प्रचार कार्य आरंभ किया ।

पहली कार्यवाई चिटगाँव में होनी निश्चित हुई । उसकी कार्य योजना को सावधानी से तैयार किया गया ।  चिटगांव के दो प्रमुख शस्त्रागारों पर कार्यवाई करना निश्चित हुआ । इसका उद्देश्य क्रांतिकारियों के लिए हथियार प्राप्त करना था । चिटगांव और बंगाल के अन्य भागों के बीच टेलीफोन, टेलीग्राम और रेलवे संचार व्यवस्थाएं भंग कर दी गयीं । जिन युवा क्रांतिकारियों को शस्त्रागारों के छापे में भाग लेना था, उन्हें चुना गया और सावधानी से उन्हें प्रशिक्षित किया गया । 18 अप्रैल, 1930 मे रात के दस बजे कार्यवाई शुरू करने की योजना बनाई गयी । गणेश घोष के नेतृत्व में छः युवकों ने पुलिस शस्त्रागार पर कब्जा किया और “इन्कलाब जिन्दावाद,” “साम्राज्यवाद का नाश हो”, “गांधी राज्य की स्थापना हो गयी है” के नारे लगाये । क्रांतिकारियों के दूसरे समूह ने सहायक सेना शस्त्रागार . पर कब्जा कर लिया । छापा, इंडियन रिपब्लिकन आर्मी चिटगाँव शाखा के नाम पर डाला गया । सभी क्रांतिकारी समूह पुलिम शस्त्रागार के बाहर इकट्ठे हो गये । सूर्यसेन को औपचारिक रूप से प्रांतीय क्रांतिकारी सरकार का अध्यक्ष चुना गया । अग्रेज़ी झंडे को नीचे उतार दिया गया ओर “इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारों तथा बंदेमातरम् के घोष के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया ।

चूंकि ब्रिटिश फौज के साथ, जो तुरंत ही आने वाली थी, लड़ना संभव नहीं था, क्रांतिकारियों ने जलालाबाद पहाड़ी पर मोर्चा जमाया, जहाँ 22 अप्रैल को वे शत्रुसेना के हज़ारों सिपाहियों से घिर गये । भीषण और वीरोचित लड़ाई के बाद 12 क्रांतिकारी मारे गये । सूर्यसेन ने आमने-सामने के युद्ध को छोड़कर आस-पास के गांवों में रहकर छापामार युद्ध शुरू करने का निश्चय किया । कठोर दमन के वावजूद क्रांतिकारियों को गांव वालों, जिसमें अधिकांश मुस्लिम धे, ‘के आश्रय और सहायता के कारण लगभग तीन वर्षों तक सुरक्षा मिली । अंत में 16 फ़रवरी, 1933 को सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया गया और 12 जनवरी, 1934 को उन्हें फांसी दे दी गयी ।

बंगाल के लोगों पर चिटगांव शस्त्रागार के छापे का बहुत प्रभाव पड़ा । जैसा कि एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि “युवा वर्ग पर अब और अधिक प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता था । विभिन्न आतंकवादी समूहों में बड़ी संख्या में लगातार भर्ती होने लगी” । यहाँ तक कि अधिकारी वर्ग, पुलिस और सेना पर भी इसका प्रभाव पड़ा । इस संबंध में कल्पना जोशी ( उस समय दत्ता ) ने एक दिलचस्प घटना का उल्लेख किया है । मई 1933 में भयंकर लड़ाई के बाद जब कल्पना दत्ता सहित पूरे समूह ने आत्मसमर्पण किया, उस समय जाट रेजीमेंट के एक सूबेदार ने कल्पना दत्ता को थप्पड़ मार दिया । तुरन्त ही अन्य सैनिकों ने उसे घेर लिया और सूबेदार को चेतावनी दी कि “उसे छूना नहीं है । अगर तुमने एक बार फिर उस पर हाथ उठाया तो हम तुम्हारा आदेश नहीं मानेगे” ।

शस्त्रागार छापे की घटना के परिणामस्वरूप क्रांतिकारी गतिविधियों में पुनः नयी चेतना आयी । केवल मिदनापुर में ही तीन दण्डाधिकारियों की हत्या कर दी गयी । पुलिस के दो इंसपेक्टर जनरल को मार डाला गया और दो गवर्नरों की हत्या का प्रयास किया गया ।

सरकार ने दमनकारी रुख अपनाया, लगभग 20 दमनकारी ऐक्ट पारित किये गये । चिटगाँव के अनेक गावों को जलाया गया तथा अन्य बहुतों पर जुर्माना लगाया गया । राष्ट्रवादियों की अंधाधुध गिरफ़्तारी हुई । 1933 में उन्होंने राजद्रोह के अपराध में जवाहरलाल नेहरू को गिरफ्तार करके दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया, क्योंकि उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवाद की राजनीति की आलोचना करते हुए भी क्रांतिकारियों की वीरता की प्रशंसा और पुलिस दमन की निंदा की ।

बंगाल में क्रांतिकारी आतंकवाद ने एक नयी अवस्था में प्रवेश किया, जिसके तीन प्रमुख पहलू थे । पहला पक्ष बड़ी संख्या में युवतियों द्वारा भाग लेना था । सूर्यसेन के दल में इनका काम केवल आश्रय देना या संदेशवाहक और हथियार संवाहक का ही नहीं था बल्कि साथ-साथ लड़ना भी था । चिटगांव के पहाड़ताली में रेलवे इन्सटीट्यूट पर छापा मारते हुए प्रीतिलता वाडेकर की मृत्यु हो गयी थी जबकि कल्पना दत्ता को गिरफ्तार किया गया और सूर्यसेन के साथ ही उन पर मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई । दिसम्बर 1931 में शांतिघोष और सुनीति चौधरी नामक कोमिला की दो स्कूली छात्राओं ने ज़िलादंडाधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी । फरवरी 1932 में बीना दास ने दीक्षान्त समारोह में अपनी डिग्री लेते हुए गवर्नर की गोली मार कर हत्या कर दी।

चिटगाँव शस्त्रागार के छापे से यह स्पष्ट हो गया कि बंगाल के पुराने क्रांतिकारियों तथा उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के विपरीत बंगाल में नये विद्रोही दल, सशस्त्र विद्रोह की ओर बढ़ रहे थे । यद्यपि वे सशस्त्र विद्रोह को ठीक प्रकार से संगठित करने में असफल रहे परन्तु उनकी गतिविधियों की दिशा स्पष्ट थी ।

बंगाल के क्रांतिकारी आतंकवादी सांप्रदायिक नहीं थे । परंतु शुरू में उनकी विचारधारा हिंदू धर्म से प्रभावित थी । 1920 और 1930 के क्रांतिकारियों ने धीर-धीरे नी विचारधारा से धार्मिकता को त्याग दिया । अब बहुत से दलों में मुसलमानों को सम्मिलित किया गया । चिटगांव दल में सत्तार, मीर अहमद, फकीर अहमद मियां और तुनुमियां जैसे बहुत से मुसलमानों को सम्मिलित किया गया । सूर्यसेन और उनके सहयोगियों को मुसलमान गांव वालों ने सक्रिय सहयोग दिया ।

इस कारण वे लगभग तीन वर्ष तक गिरफ्तार नहीं किये जा सके । कलकत्ता के अब्दुल रज़ाक खान एक विद्रोही दल के सस्थापक थे । उन्होंने युगान्तर, अनुशीलन तथा अन्य क्रांतिकारी दलों के साथ सहयोग किया । सेराजउल-हक़ और हमीद उल-हक को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंडमान भेज दिया गया । रज़िया ख़ातून तथा बहुत से अन्य मसलमान युगान्तर और अनुशीलन ममितियों से संबंधित थे । बोगरा के डा० फज़ल-उल-कादिर चौधरी ने हिजली डकैती कांड में भाग लिया और उन्हें अंडमान भेज दिया गया ।

बगाल के फातिका भगत सिंह और उनके सहयोगियों के विपरीत सामाजिक प्रगतिशील आर्थिक कार्यक्रम को विकसित करने में असफल रहे । स्वराज पार्टी में काम करने वाले बहत मे क्रांतिकारी, ज़मींदारों के विरुद्ध किसानों का समर्थन करने में असमर्थ रहे ।

क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन का पतन

क्रांतिकारी आतकवादी आदोलन का धीरे-धीरे पतन होने लगा। ऐसा अनेक कारणों से हुआ । माना जी द्वारा निदेशात राष्ट्रीय आदोलन की मुख्यधारा हिंसा और आतंकवाद के विरुद्ध थी परन्तु कर भी ट्राय – के बहुत से नेताओं ने युवा क्रांतिकारियों के पराक्रम की प्रशंमा की और

अदालत में उनकी पैरवी की तथा उनके विरुद्ध किये गये पुलिस दमन के आदेशों की निंदा की । सरकार की कठोर कार्रवाई से धीरे-धीरे क्रांतिकारी दल कमज़ोर हो गये । 27 फरवरी, 1931 में इलाहाबाद के सार्वजनिक पार्क में चन्द्रशेखर आज़ाद की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गयी । वास्तव में इसके साथ ही उत्तर भारत में क्रांतिकारी आतंकवाद का पतन हो गया ।

सूर्यसेन की शहादत के पश्चात बंगाल में क्रांतिकारी आतंकवाद लगभग समाप्त हो गया । जेल या अंडमान में रह रहे क्रांतिकारियों ने अपनी राजनीति के विषय में पुनर्विचार आरंभ किया । बड़ी संख्या में इन्होंने मार्क्सवाद को अपनाया जैसा कि भगत सिंह और उनके साथियों ने 1920 के दशक में किया था । बहुत से व्यक्ति कम्यूनिस्ट पार्टी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी तथा अन्य वामपंथी गटों में शामिल हो गये । अन्य व्यक्तियों ने कांग्रेस के गांधीवादी दल को अपना लिया ।

1920 और 1930 में क्रांतिकारी आतंकवादी, जन आधारित सशस्त्र संघर्ष के उद्देश्य को पूरा करने में असफल रहे । वे जनता के साथ विशेष संबंध स्थापित करने में भी असफल रहे । फिर भी उन्होंने उपनिवेशवाद के विरुद्ध चल रहे राष्ट्रीय संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया । उनके साहस, बलिदान और गहन देशप्रेम ने भारतीय जनता को जागृत किया । विशेष रूप से युवाओं में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया · उत्तर भारत में भगत सिंह और उनके सहयोगियों ने समाजवादी विचारों और आंदोलन के बीज बोये ।

सारांश

इस इकाई के अंतर्गत आफ्ने 1922 के बाद पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और बंगाल में विकसित हुए क्रांतिकारी आतंकवाद की दो प्रमुख धाराओं (पहलुओं) का अध्ययन किया । आपने यह भी पढ़ा कि क्रांतिकारियों ने स्वयं को किस प्रकार संगठित किया, उनकी नीति क्या थी और किस प्रकार उनकी गतिविधियाँ एक विचारधारा से प्रेरित थी ।

ऊपर बतलाये गये दोनों क्षेत्रों में क्रांतिकारी, व्यक्तिगत पराक्रम के कार्यों से हटकर जन-आधारित सशस्त्र संघर्ष की ओर बढे । यद्यपि यह आंदोलन जन-आधारित सशस्त्र संघर्ष के अपने उद्देश्य को पूरा करने में असफल रहा, परन्तु उस समय के उपनिवेशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष में इसने महत्वपूर्ण योगदान दिया । क्रांतिकारी । आतंकवादियों के साहस, बलिदान ओर देशभक्ति से भारतीय नवयुवकों को प्रेरणा मिली और उनमें स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास जागृत हुआ ।

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