राष्ट्रीय आंदोलन : ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों अंतर
प्रश्न: रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति के क्रमगत विकास का पता लगाइए। रियासतों में राष्ट्रीय आंदोलन ब्रिटिश भारत के शेष भागों से किस प्रकार भिन्न था?
दृष्टिकोण
- देशी रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति के विभिन्न चरणों का उल्लेख कीजिए।
- ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों में हुए राष्ट्रीय आंदोलनों में अंतर स्पष्ट कीजिए और इसमें भिन्नता के लिए उत्तरदायी कारणों को लिखिए।
उत्तर
अंग्रेज़ों की भारत विजय पूर्णतः सुनियोजित थी। उन्होंने महत्वपूर्ण तटीय क्षेत्रों, उपजाऊ कृषि क्षेत्रों, बंदरगाहों, घाटियों और नौगम्य नदियों तथा सघन आबादी वाली समृद्ध भूमि पर तीव्रता से प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित किया जबकि दुर्गम और कम उपजाऊ क्षेत्रों को देशी रियासतों के अधीन रहने दिया। देशी रियासतों के विशिष्ट सन्दर्भ में देखें तो उनकी नीति निम्न प्रकार से परिलक्षित होती है:
- ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा अपनी अधीनस्थ स्थिति समाप्त कर भारतीय रियासतों के साथ समानता प्राप्त करने के लिए संघर्ष (1740-1765)
- घेरे की नीति (1765-1813): वॉरेन हेस्टिंग का उद्देश्य कंपनी की सीमाओं की रक्षा के लिए एक बफर जोन का निर्माण करना था। इसे घेरे की नीति कहा जाता है। बाद में वेलेजली की सहायक संधि की नीति घेरे की नीति का ही विस्तार थी जिसका उद्देश्य देशी रियासतों को उनकी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार पर निर्भर बनाना था।
- अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (1813-1857): राज्यों ने अपनी समस्त बाह्य संप्रभुता को कम्पनी के अधीन कर दिया यद्यपि आंतरिक संप्रेभुता बनाए रखी। बाद में व्यपगत सिद्धांत के तहत 6 राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया।
हालांकि, रियासतों की निष्ठा तथा भविष्य के राजनीतिक संकटों के प्रतिरोध के रूप में कार्य करने की इनकी क्षमता के कारण, 1857 के विद्रोह के पश्चात्, रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवर्तन आया।
- अधीनस्थ संघ की नीति (1857-1935): ब्रिटिश सरकार द्वारा व्यपगत नीति को त्याग दिया गया परन्तु ब्रिटिश क्राउन, की सर्वोच्चता बनी रही। बाद में कर्ज़न द्वारा “संरक्षण और अनाधिकार निरीक्षण की नीति” (Policy of Patronage and intrusive surveillance) को अपनाया गया। 1905 के बाद, व्यापक पैमाने पर व्याप्त राजनीतिक अशांति का सामना करने के लिए सौहार्दपूर्ण सहयोग की नीति अपनायी गयी।
- भारत सरकार अधिनियम 1935, के माध्यम से बराबर के संघ की नीति।
- अन्त में, लॉर्ड माउंटबेटन ने राज्यों को संप्रभु का दर्जा देने से इंकार कर दिया।
ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतों की आंतरिक परिस्थितियां भिन्न थीं; जैसे कि संघ निर्माण की स्वतंत्रता सहित सामान्य नागरिक स्वतंत्रता का अभाव, लोगों में तुलनात्मक रूप से राजनीतिक पिछड़ापन एवं देशी रियासतों का कानूनी रूप से स्वतंत्र इकाइयों के रूप में होना इत्यादि। इसलिए, देशी रियासतों में राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति ब्रिटिश भारत के लोगों से भिन्न थी।
देशी रियासतों में राष्ट्रीय आंदोलन मुख्य रूप से तब आरम्भ हुआ जब सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत की जनता असहयोग आंदोलन जैसे जन आन्दोलनों के प्रभाव से उद्वेलित हो चुकी थी। साथ ही, रियासतों में यह मुख्यतः प्रजा मंडल जैसे आंदोलनों के अंतर्गत नेताओं की व्यक्तिगत क्षमता के अधीन चलाया गया। इसके अतिरिक्त, 20 वीं सदी के पहले और दूसरे दशकों में ब्रिटिश प्रशासन से बचने के लिए, ब्रिटिश भारत से भाग कर देशी रियासतों में आए राष्ट्रवादियों ने भी वहाँ राजनीतिक गतिविधियाँ प्रारम्भ की।
अत्यधिक दबाव का प्रतिरोध करने के लिए ब्रिटिश समर्थित देशी रियासतों को अनेक तरह से संरक्षण प्रदान किया गया। परिणामस्वरूप, इनमें हुए आंदोलनों की प्रवृति अधिक हिंसात्मक थी। इसके कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) ने भी इन गतिविधियों से स्वयं को अलग रखा। इस प्रकार, कम्युनिस्ट और वामपंथी, जो हिंसा को माध्यम बनाने में कुछ कम संकोच रखते थे, राजनीतिक रूप से सशक्त हुए। हालांकि, 1930 के उत्तरार्द्ध में कांग्रेस ने इन आंदोलनों के प्रति अपनी रणनीति को परिवर्तित किया। इसके कारण ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलनों के मध्य एकीकरण हुआ जो कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान परिलक्षित होता है।
इस प्रकार, देशी रियासतों के आंदोलन में संघर्ष के उन तरीकों एवं रणनीतियों को अपनाया गया जो उनके विशिष्ट राजनीतिक सन्दर्भो के लिए उपयुक्त थीं।
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