राज्यपाल के पद की एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि

प्रश्न: राज्यपाल महत्वपूर्ण शक्तियों के साथ एक अहम संवैधानिक पदाधिकारी है ,हालांकि पिछले कुछ वर्षों से यह पद आलोचना का शिकार बन गया है। चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • राज्यपाल के पद की एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि प्रस्तुत कीजिए तथा स्वतंत्रता के पश्चात राज्यपाल की बदलती भूमिका का आकलन कीजिए।
  • कई वर्षों से राज्यपाल का पद आलोचनाओं का शिकार रहा हैं, इसके पीछे निहित कारणों की चर्चा कीजिए।
  • राज्यपाल की भूमिका और उत्तरदायित्वों में आवश्यक परिवर्तनों के लिए सुझाव दीजिए।

उत्तरः

1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट के पारित होने से लेकर 1935 के अधिनियम तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के निहित हितों की सुरक्षा के लिए राज्यपाल का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना रहा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात संविधान निर्माताओं ने यह अपेक्षा की थी कि मनोनीत राज्यपाल राज्य का एक संवैधानिक प्रमुख होगा जो हमारी संघीय राजनीति में केंद्र और राज्यों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करते हुए संसदीय प्रणाली को मजबूत बना सकता है और यह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करेगा। परन्तु अभी तक राज्यपाल ने जिस तरीके से कार्य किया है उससे कुछ अलग ही संदर्भ परिलक्षित होता है।

1967 के पश्चात गठबंधन सरकारों के उद्भव ने राज्यपाल को अपनी पसंद के मुख्यमंत्री के चयन, मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी, विधानसभा के विघटन और अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश के संदर्भ में अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने का अवसर प्रदान किया है।

दिशा-निर्देशों की अनुपस्थिति में राज्यपाल द्वारा केंद्र में सत्ताधारी दल की राजनीतिक संभावनाओं को बढ़ाने हेतु मनमाने तरीके से अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार राज्यपालों द्वारा कई विषयों पर मनमाने तरीके से कार्य किया गया और संवैधानिक मूल्यों से समझौता भी किया गया है।

उदहारण के लिए:

  • अनुच्छेद 213 राज्यपाल को अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति प्रदान करता है। परन्तु अभी तक अधिकाँश अध्यादेश उभरती हुई परिस्थितियों के लिए नहीं ‘प्रशासनिक सुविधाओं’ के लिए प्रख्यापित किए गए हैं।
  • अनुच्छेद 356 राज्यपाल को राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन करने की शक्ति प्रदान करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत भी राज्यपाल अपनी शक्तियों का दुरूपयोग कर सकता है। इस प्रकार राज्यपाल को सत्ताधारी राजनीतिक दल के एक अंग के रूप में देखा जाता है। राज्यपालों का राज्य कार्यकारी के प्रतिष्ठित प्रमुख और केंद्र में सत्ताधारी दल की इच्छा पर निर्भर उनके कार्यकाल के मध्य अत्यधिक विसंगति है।
  • अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने राजनीति से प्रभावित कदमों को उलटते हुए एक पद के रूप में राज्यपाल के सम्मान को पुनःस्थापित किया है। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा अरुणाचल प्रदेश के मामले में दिया गया निर्णय उल्लेखनीय है, क्योंकि इसने राज्यपाल द्वारा बर्खास्त की गयी पिछली सरकार को पुनः स्थापित करने का आदेश दिया।
  • संविधान निर्माताओं द्वारा संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति में सुरक्षा कवच के रूप में और निर्वाचित राज्य सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के विरूद्ध एक सेफ्टी-वाल्व के रूप में राज्यपाल के पद की कल्पना की गई थी किन्तु संविधान निर्माताओं ने संविधान में उन क्षेत्रों का उल्लेख नहीं किया नहीं किया जहां राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करता। हालांकि राज्यपाल अपने विवेकाधिकार का मनमाने तरीके से प्रयोग नहीं कर सकता है।
  • राज्यपाल की नियुक्ति,पदच्युति एवं कार्यपद्धति के सम्बन्ध में प्रशासनिक सुधार आयोग I और II, सरकारिया आयोग तथा पुंछी आयोग द्वारा दी गयी अनुशंसाओं को संवैधानिक पद की गरिमा को सुनिश्चित करने और बनाए रखने हेतु प्रभावशाली तरीके से कार्यान्वित किया जाना चाहिए।

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