लोक सिविल सेवा के मूल्य और लोक प्रशासन में नैतिकता: स्थिति और समस्याएँ

लोक प्रशासन सरकार की कार्यपालिका शाखा का प्रतिनिधित्व करता है। यह मूलतः सरकारी गतिविधियों के प्रभावकारी निष्पादन से संबंधित तंत्र और उसके प्रावधानों का अध्ययन है। प्रशासन की परिभाषा कुछ सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु किए गए सहकारी, मानवीय प्रयासों के रूप में दी जाती है। लोक प्रशासन, प्रशासन का वह प्रकार है जो एक विशेष राजनीतिक व्यवस्था में संचालक का काम करता है। यही वह साधन है जो नीति निर्माताओं द्वारा किए गए नीतिगत निर्णयों और कार्य संपन्न करने की पूरी योजना के बीच संबध स्थापित करता है।

लोक प्रशासन का काम उद्देश्यों और लक्ष्यों को निर्धारित करना, विधायिका तथा नागरिक संगठनों का समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्हें साथ लेकर काम करना, संगठनों की स्थापना करना तथा उनका पुनरावलोकन करना, कर्मचारियों को निर्देश देना एवं निरीक्षण करना, नेतृत्व प्रदान करना आदि है। यह वह साधन है जिसके द्वारा सरकारी उद्देश्यों और लक्ष्यों को वास्तविक रूप प्रदान किया जाता है।

 लोक प्रशासन से जुड़ा हुआ ‘लोक’ शब्द इस अध्ययन शाखा को खास विशेषताएं प्रदान करता है। इस शब्द को सामान्यतः सरकार के रूप में समझना चाहिए। अत: लोक प्रशासन का अर्थ हुआ सरकारी प्रशासन। इसमें नौकरशाही पर विशेष बल दिया जाता है। सामान्य बातचीत में लोक प्रशासन से यही अर्थ लगाया जाता है। यदि ‘लोक’ शब्द का व्यापक अर्थ लगाया जाए तो ऐसा कोई भी प्रशासन जिसका ‘लोक’ पर व्यापक प्रभाव पड़ता हो, इस अध्ययन-शाखा की सीमा के अंतर्गत माना जाएगा।

नौकरशाही के कार्यों को विस्तृत करने के क्रम में सरकार के बढ़ते हए महत्व के कारण लोक प्रशासन बहुत ही ज्यादा जटिल और विशेषीकत होता जा रहा है।

शासन व्यवस्था में नैतिकता एवं जवाबदेही

(Ethics and Accountability in Governance)

लोक प्रशासन से जुड़ी गतिविधियां मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करती है। आजकल सूचना एवं संचार तकनीक में एक क्रांति-सी आ गई है। सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप पर विशेष जोर दिया जा रहा है साथ ही सामाजिक मान्यता देखने को मिल रहा है। इन सबके मिले जुले प्रभावों के कारण लोगों की उम्मीदं बढ गई हैं तथा वे प्रशासन से नैतिकता, पारदर्शिता एवं जवाबदेही के उच्चतम स्तर की मांग करने लगे हैं। अब तो यह माना जाने लगा है कि लोक सेवा में नैतिकता न हो तो लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाना संभव नहीं हो सकता। सुशासन के लिए यह जरूरी है कि प्रशासन में नैतिकता, जवाबदेही और पारदर्शिता बरती जाए क्योंकि इसी के माध्यम से बेहतर लोक नीतियों का निर्माण संभव है। इन शर्तों के पूरा होने पर ही समाज व राष्ट्र में संपूर्ण विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। पुन: इससे लोक उपक्रमों के कार्य-प्रणालियों में भी सुधार संभव हो सकता है।

लोक प्रशासन भी तभी प्रभावी साबित हो सकता है जब जनता और लोक सेवकों के बीच का संबंध सहयोगात्मक हो। एक अच्छे नागरिक समाज में लोगों का सरोकार मुख्य रूप से इस बात से होता है कि उनकी सरकार कितनी कुशल व न्यायसंगत है? एक सरकार कुशल व न्यायोचित तभी हो सकती है जब शासन व्यवस्था के सभी अंगों में कुशलता, नैतिकता, मितव्ययिता तथा न्यायसंगतता आदि का पालन किया जाए। इसके अलावा शासन की प्रक्रिया भी काफी मायने रखती है। शासन संचालन उचित और लोकोन्मुख हो तो इससे भी सरकार के न्यायोचित होने का प्रमाण मिल जाता है सुशासन के लिए ये सारी शर्ते तो आवश्यक हैं ही परंतु प्रशासन में भी जवाबदेयता और संवेदनशीलता का होना जरूरी है। इससे शासन व्यवस्था को पारदर्शी बनाए रखने में मदद मिलती है और शासन में लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित हो पाती है।

वर्तमान में लोक सेवा तथा नागरिकों के बीच एक अलगाव की स्थिति बन गई है। इससे लोक प्रशासन के औचित्य, विश्वसनीयता, वैधता एवं प्रभावशीलता पर प्रतिकूल असर पड़ता दिख रहा है। लोक सेवकों एवं जनसाधारण के बीच आई इस दूरी को समाप्त करने के लिए नागरिकों को यह विश्वास्य दिलाना जरूरी है कि लोक सेवक अपने कार्यों में निष्पक्ष, ईमानदार, कुशल एवं सच्चे हैं।

प्रशासन में नैतिकता के अभाव के कारण न सिर्फ इसकी कुशलता एवं प्रभावशीलता में कमी आती है बल्कि कई अन्य तरीकों से यह पूरे समाज के लिए भी घातक सिद्ध होता है। इस प्रतिकूल प्रभाव को हम कमजोर प्रशासन तथा मानव एवं प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग जैसे परिणामों के रूप में समझ सकते हैं। हालांकि लोक सेवकों में निष्पक्षता तथा ईमानदारी एवं कार्य के प्रति प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने हेतु कई कानून बनाए गए हैं। लेकिन अभी भी प्रशासनिक कार्यों के अंतर्गत कई ऐसी गतिविधियां हैं जिन्हें किसी औपचारिक नियम, कानून अथवा विधि द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता।

ऐसे में प्रशासकों के लिए सबसे जरूरी यह है कि वे अपनी अंतरात्मा के प्रति जवाबदेह हों तथा लोक-कल्याण के प्रति अपने कर्तव्य को भलीभांति समझें। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि ‘नैतिक अवसंरचना’ जैसी कोई चीज हो जो लोक सेवकों के आचरण को नियमित व निर्देशित करे तथा प्रशासनिक क्षेत्र किसी भी गलत आचरण के लिए दंड का विधान भी करे। यहां नैतिक अवसंरचना का अभिप्राय ऐसी व्यवस्था व उपायों से है जो पारदर्शिता, जवाबदेयता तथा सूचनाओं तक पहुंच जैसी बातें सुनिश्चित करे ताकि लोक सेवक अपनी शक्ति और क्षमता का गलत इस्तेमाल न कर पाएं। संसद द्वारा प्रशासकों को निर्णय लेने का अधिकार प्रदान किया जाता है। निर्णय लेने की इस प्रक्रिया का वैचारिक आधार उचित व वैध होना चाहिए ताकि कोई भी निर्णय स्पष्ट, उत्तदायित्वपूर्ण और लोकहित में हो।

लोकप्रशासन में नैतिकता

(Ethics in Public Administration)

अमेरिकन सोसाइटी ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के द्वारा लोक प्रशासकों के लिए निम्नलिखित नैतिक संहिता प्रस्तुत किया गया है। :

  • लोकसेवकों को चाहिए कि वे लोक हित को स्वहित के मुकाबले वरीयता दें तथा लोक कल्याण उदेश्य से ही सरकारी संस्थाओं का संचालन करें। लोकहित का ध्यान रखकर ही वे अपने स्वविवेक का प्रयोग करें। उन्हें सभी प्रकार के भेदभाव और उत्पीड़न का विरोध करना चाहिए तथा  सकारात्मक कार्यों में अपनी रुचि दिखानी चाहिए।
  • लोकसेवकों को चाहिए कि वे जनसाधारण के अधिकारों को समझे। वे इस तथ्य को स्वीकार करें कि जनसाधारण को प्रशासन से जुड़े कार्यों की जानकारी होनी चाहिए। साथ ही लोकसेवकों का प्रयास ऐसा होना चाहिए कि वे सरकारी काम काज में सजगता के साथ अपनी भागीदारी निभाएं।
  • लोकसेवकों का यह कर्तव्य है कि वे कानून व संविधान का आदर करें। वे उन सभी नियमों का पालन करें जिनसे सरकारी विभागों, कर्मचारियों तथा नागरिकों के उत्तरदायित्व निर्धारित होते हैं। इसके अलावा लोकसेवकों का यह भी कर्तव्य है कि वे संविधान में दिए गए सिद्धांतों तथा समानता, निष्ठा, क्रियाशीलता, प्रतिनिधित्व तथा नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए दी गई आवश्यक प्रक्रिया का आदर करें।
  • लोकसेवकों के द्वारा हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए ताकि सांगठनिक क्षमता में वृद्धि हो जिससे लोक सेवा में नैतिकता, प्रभावशीलता, कुशलता जैसे मूल्यों को अपनाया जा सके।
  • लोक सेवकों को चाहिए कि वे व्यावसायिक दक्षता विकसित करने की कोशिश करे। इसके लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना चाहिए ताकि उनकी व्यक्तिगत क्षमता एवं कार्यकुशलता में वृद्धि हो। इससे दूसरों को भी अपनी दक्षता में वृद्धि करने हेतु प्रोत्साहन मिलेगा।

लोक प्रशासन के लक्षण

  • यह सरकार की कार्यकारी (कार्यपालिका) शाखा है।
  • यह राज्य की गतिविधियों से संबंधित होता है।
  • इसके द्वारा लोक नीतियों का कार्यान्वयन किया जाता है।
  • यह कानून के द्वारा प्रतिपादित एवं परिलक्षित जनसाधारण की आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश करता है।
  • विद्वानों द्वारा इस बात पर बल दिया जाता है कि लोक प्रशासन को जनसाधारण के प्रति प्रतिबट एवं समाप्त होना चाहिए परंतु लोक प्रशासन के व्यवहार से अमानवीयता तथा यांत्रिकता झलकती है

लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र: स्थिति

(Ethics in Public Administration : Status)

हालांकि नीतिशास्त्र के प्रति जागरूकता में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है. लेकिन जनसाधारण/आम नागरिक अभी भी इस बात से आश्वस्त नहीं है कि नौकरशाही के व्यवहार में पहले की अपेक्षा वाकई में काफी सुधार हुआ है। इसका कारण यह हो सकता है कि लोक प्रशासन सेर वामन्न संप्रदायों विचारों अथवा प्रतिष्ठानों के द्वारा अब तक नीतिशास्त्र पर एक निश्चित पाठ्यक्रम तैयारनहीं किया जा सका है जो सर्वमान्य हो। यह भलीभांति महसूस किया जा रहा है कि लोक प्रशासन से जुड़े विभिन्न संप्रदायों/मतों के बीच नीतिशास्त्र के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार करने अथवा नीतिशास्त्र की शिक्षा व्यवस्था के लिए एक सर्वमान्य प्रारूप व उपागम के संबंध में एकमत नहीं है।

लोक प्रशासन एक अत्यंत दुरूह और जटिल विद्या है। साथ ही इसके नानाविध पक्ष हैं जो रुचिकर भी हैं तथा जिसमें विभिन्न प्रकार के सिद्धांत, प्रतिमान तथा कार्य पद्धति शामिल होते हैं जो अन्य विज्ञानों से लिए गए होते हैं। कई विद्वानों ने तो यह कहकर खेद भी प्रकट किया है कि वर्षों से लोकप्रशासन एक कुव्यवस्था का शिकार रहा है। कुछ विद्वानों ने इस बात पर भी शंका जाहिर की है कि लोक प्रशासन सचमुच एक स्वतंत्र विद्या है। परंतु सभी आक्षेपों के बावजूद इस बात में कोई शक नहीं कि लोक प्रशासन से संबंधित पाठ्यक्रमों में सुधार की जरूरत है इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन अगर स्वयं अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है तो ऐसे में लोक प्रशासकों के लिए नैतिक प्रतिमानों का सुनिश्चित न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। 

प्रशासनिक व्यवस्था की निष्ठा व कर्तव्यपरायणता पर ही किसी भी राष्ट्र व समाज की प्रगति निर्भर करती है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह आवश्यक है कि राष्ट्र के त्वरित विकास के लिए सरकारी तंत्र नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए जिम्मेदारियों को निष्ठापूर्वक निभाएं। इसीलिए सार्वजनिक सेवाओं को ‘स्टील फ्रेम’ कहा जाता है

लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र : समस्याएं

(Ethics in Public Administration: Problems)

लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र के अंतर्गत वस्तुत: कई चीजें शामिल हैं। सर्वप्रथम तो यह कि आखिर लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र का आधार दर्शन को बनाया जा सकता है या नहीं? इस मुद्दे पर एकमत होने के बाद पुनः जो दूसरी समस्या उभर कर आती है, वह यह है कि नीतिशास्त्र के आधार के रूप में किस दर्शन का उपयोग करना ज्यादा उचित होगा? पुन: इसी से जुड़े अन्य प्रश्न भी उभर कर आते हैं, तथा क्या अरस्तु और संत एक्वीनास के दार्शनिक विचारों को नीतिशास्त्र के आधार के रूप में अपनाया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि अरस्तु एवं एक्वीनास ने बाह्य और अंतर जगत के संबंध में कुछ वस्तुनिष्ठ नियम प्रस्तुत किए हैं जिनका दार्शनिक जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि प्लेटो और जर्मन आदर्शवादियों के दर्शन संबंधी उपागम को अपनाना कहां तक उचित होगा। इसी प्रकार कुछ अन्य प्रश्नों पर विचार किया जाता है, जैसे क्या हम सब स्वयं की बनाई दुनिया में निवास करते हैं जहां वास्तविकता व्यक्ति की अंतरात्मा से ही निर्देशित होती है?

उचित और अनुचित की व्याख्या किस हद तक प्रामाणिक होती है या फिर उचित और अनुचित दोनों के मिले जुले प्रतिमानों से नीतिशास्त्र की शिक्षा देना ही श्रेयकर होगा? वस्तुत: उपर्युक्त दिए गए सभी उदाहरण लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र की शिक्षा एवं नैतिक मूल्यों के कार्यान्वयन से जुड़ी समस्याएं हैं।

इस संदर्भ में जान रोड़ और टेरी कॉपर का यह मानना है कि लोक प्रशासन के अंतर्गत नीतिशास्त्र का शिक्षा का होना बहुत महत्वपूर्ण है। परंतु इन विद्वानों का यह मानना है कि अगर क्लासिकल अथवा राजनातिक नीतिशास्त्र को लोक प्रशासन में नीतिशास्त्रीय शिक्षा व्यवस्था का आधार न बनाया जा ता फिर नीतिशास्त्र के साथ न्याय कर पाना बडा मश्किल होगा। परंतु यह स्थिति एक प्रकार दुविधा प्रस्तुत करती है- अगर नीतिशास्त्र को दर्शन के एक अंग के रूप में स्वीकार किया गया तो इससे लोकप्रशासन के विद्यार्थियो केलिए नीतिशास्त्र का पाठ्यक्रम एक ढोल बन जाएगा। दूसरी तरफ, अगर दर्शन को नीतिशास्त्र की शिक्षा में शामिल नहीं किया जाता है तो फिर स्वयं विद्यार्थियों का नातिशा अधूरा शिक्षा हामिल सकगी। इसलिए रोड ने नौकरशाही के लिए एक नीतिशास्त्रीय आधार तैयार किया है जो अमेरिका के संविधान तथा वहां के उच्चतम न्यायालय के विचारों पर आधारित हा राई लिखते हैं-

नौकरशाहों को नीतिशास्त्र की शिक्षा देने का सर्वोत्तम माध्यम कुछ और नहीं बल्कि उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किए गए वे विचार हैं जिनसे नौकरशाहों को यह निर्देश तथा शिक्षा मिलती है कि किस प्रकार नैतिक मूल्य निर्णय लेने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक भूमिका अदा करता है, खासकर उन लोगों के संदर्भ में जिनके प्रति नौकरशाह जवाबदेह होते हैं। ज्ञातव्य है कि नौकरशाहों का सरोकार मुख्य रूप से जनसाधारण से होता है।

वस्तुतः रोड़ अमेरिकी शासन प्रणाली से जुड़े मूल्यों की चर्चा करते हैं जिसका संबंध मुख्य रूप से राजनीतिक संस्थाओं से है। इन राजनीतिक इकाइयों की रचना अमेरिकी संविधान द्वारा किया गया है। रोड़ का यह मानना है कि शासन प्रणाली से जुड़ी नैतिक मान्यताएं अमेरिका उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किए गए विचारों में परिलक्षित हुए हैं जो समाज से जुड़े विशिष्ट प्रकार के मूल्यों पर प्रकाश डालते हैं। हालांकि लोक प्रशासक उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई इन विचारों व मान्यताओं के आधार पर निर्णय ले सकते हैं। परंतु आमतौर पर ये विचार व मान्यताएं काफी जटिल, अस्पष्ट और अरुचिकर । होती हैं। इस तरह के विचारों में समानता भी नहीं होती। इसलिए इनके आधार पर निर्णय तो लिए जा सकते हैं परंतु यह जरूरी नहीं कि ये निर्णय उचित ही साबित हों। परंतु समस्या यह है कि सही निर्णय ही तो नीतिशास्त्र का केंद्रीय विषय है। 

पुनः उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए विचारों पर रोड़ का विश्वास इस अर्थ में तो सही है कि इससे प्रशासकों को स्वविवेक से निर्णय लेने में मदद मिलती है। इस प्रकार के प्रशासनिक निर्णय अमेरिका में सहायक एवं उपयोगी साबित हो सकते हैं। परंतु यह कहना मुश्किल है कि अमेरिकी उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किए गए विचार अन्य देशों में भी कारगर साबित होंगे। यह आलोचना कांट द्वारा दिए गए तर्कों पर भी लागू हो सकती है। कांट ने यह तर्क दिया है कि नैतिकता के निरपेक्ष आदेश को मानकर कानून का पालन करने मात्र से किसी व्यक्ति का कार्य ‘नैतिक’ दृष्टि से उचित माना जाएगा।

कहने का अभिप्राय यह है कि अमेरिकी संविधान तथा वहां के उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए विचारों एवं वक्तव्यों के परे भी कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे लोक प्रशासकों को नैतिकता के क्षेत्र में मार्गदर्शन मिल सके।

कछ अन्य लेखकों का तो यह मानना है कि क्लासिकल नोतिशास्त्र अब पुराना हो चका है. अर्थात अब यह प्रासंगिक नहीं रह गया है। इनका यह भी कहना है कि धर्मशास्त्र से संबंधित जिन सिद्धांतों का विकास किया गया है वे अब पुराने पड़ चुके हैं तथा उन पर अमल करना अब उचित नहीं है. खासकर उन लोगों के लिए जो सरकारी उपक्रम में कार्यरत हैं। इन सिद्धांतों से जो अर्थ निकल कर आता है  उसे तथाकथित रूप से नैतिक सिद्धांत की संज्ञा दी जाती है। किशोरों द्वारा इन सिद्धांतों की पुरजोर वकालत की जाती है।जब वे कहते हैं “प्रत्येक व्यक्ति ऐसा करते हैं।” अर्थात् वे इस तरह की परंपराओं व मान्यताओं को इसलिए मानते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उस पर अमल कर रहा होता है। परंतु ऐसा मानकर यह सोच लेना कि प्रत्येक व्यक्ति सचमुच ऐसा कर ही रहा है, उचित नहीं।

पन: अगर प्रत्येक व्यक्ति ऐसा कर भी रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं कि जो किया जा रहा है वह सही ही है। नैतिकता की एक कसौटी होनी चाहिए जिसके आधार पर यह तय किया जा सके कि क्या उचित है और क्या अनुचित। कोई कार्य किया जा रहा है, सिर्फ ऐसा सोचकर उस कार्य को वैध और नैतिक ठहराना उचित नहीं।

व्यवसाय के संबंध में अपने लेखों के लिए प्रसिद्ध पीटर ड्रकर का तो यह मानना है कि निजी प्रशासन तथा सरकारी प्रशासन में कोई फर्क नहीं हैं। अत: ड्रकर के अनुसार दोनों ही प्रशासनों के लिए अलग-अलग नीतिशास्त्र अर्थात् भिन्न भिन्न नैतिक मूल्यों व मान्यताओं की बात करने का कोई अर्थ नहीं। कहने का अर्थ यह है कि निजी व लोक उपक्रमों के प्रशासन के लिए अलग-अलग नैतिक संहिताओं का होना आवश्यक नहीं है। ड्रकर का यह मानना है कि निजी या सरकारी कोई भी पेशा हो, इनमें कार्यरत प्रशासकों के लिए बस एक ही नैतिक संहिता होती है और वह है ”जानबूझकर किसी को हानि न पहुंचाना”। यही वह शपथ है जो सभी अधिकारियों चाहे वे सरकार में हो फिर निजी उपक्रम में हो, द्वारा ग्रहण किया जाता है। ‘दूसरों को जानबूझकर नुकसान न पहुंचाने’ जैसी बातों को अपनाना वस्तुतः प्राकृतिक कानून का ही अनुसरण करना होता है। यही वह सामान्य नैतिक सिद्धांत है जिसका उल्लेख क्लासिकल नीतिशास्त्र में किया गया है।

लोक प्रशासन में नीतिशास्त्र के निर्धारक

(Determinants of Ethics in Public Administration)

सरकारी उपक्रम में प्रशासनिक आचरण के मुख्य निर्धारक तत्व निम्नलिखित हैं-

  • प्रत्येक शासन व्यवस्था के अंतर्गत लोक प्रशासन वहां की राजनीतिक संरचना का ही एक अंग होता है। यह राजनीतिक संरचना लोक प्रशासकों के आचरण का निर्धारक होती है।
  • कानूनी ढांचा भी प्रशासकों के व्यवहार को निर्धारित करता है।
  • स्वयं प्रशासक तथा लोक सेवा से जुड़े कर्मचारी जो सरकारी सेवा प्रदाता के रूप में कार्यरत होते हैं उनसे भी प्रशासनिक आचरण की प्रकृति तय होती है।
  • लोक सेवा उपभोक्ताओं तथा नागरिक समाज के सदस्यों से भी प्रशासनिक आचरण के निर्धारण में मदद मिलती है।

प्रथमत: लोक प्रशासन में नैतिकता के निर्धारक तत्वों में (जिनसे किसी लोक सेवक के आचरण आवश्यक रूप से संबंद्ध होते हैं) कई बातें शामिल होती हैं, यथा… निर्णयन कौशल, मानसिक अभिवृत्ति, सदगुण तथा सिविल सेवा से जुड़े नैतिक मूल्य आदि।

द्वितीयत: संगठन की संरचना एवं विस्तार की व्याख्या, जवाबदेयता, सहयोग पर आधारित व्यवस्था, असहमति एवं भागीदार प्रक्रिया द्वारा सुनिश्चित होती है।

तृतीयत: राजनीतिक प्रबंधन संस्कति के अंतर्गत विश्वास, एक की संस्कृति के विकास, रख-रखाव तथा अनुकूलन में नेतत्व की अहम भूमिका होती है।

पुनःसंगठन में नैतिक आचरण को प्रोत्साहन तब मिलता है जब वहां कार्यरत आंधकारिक कर्मचारियों की शिक्षा एवं उनके व्यक्तिगत आदर्श पर बल दिए जाने की परंपरा का रहा हो। नैतिक आचरण के प्रति संगठन में तब और रुझान बढ़ता है जब वहां कायरत सत्य पर अटल रहें तथा वहां कार्यरत अन्य कर्मचारी आपस में नैतिकता से जुड़े वाद -विवाद में एक साथ संलग्न दिखाई दें। अंतत: संगठन से समाज की भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं। इन अपेक्षाओं में जन भागीदारी, कानून तथा सरकार की नीतियों को शामिल किया जाता है।

भारतीय सिविल सेवा में नैतिकता से जुड़े मुद्दे

(Ethical issues in Indian Civil Services)

वर्तमान में भारतीय सिविल सेवा के समक्ष नैतिकता से जुड़े ढेर सारे मुद्दे मौजूद हैं और इनमें ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार से ही संबंधित हैं। भ्रष्टाचार नैतिकता के ह्रास का ही एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है। भ्रष्टाचार अंग्रेजी के शब्द ‘Corruption’ का हिन्दी रूपांतरण है। अंग्रेजी के इस शब्द ‘Corrupt’ को ग्रीक शब्द ‘Corruptus’ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है तोड देना या नष्ट कर देना। अंग्रेजी में नीतिशास्त्र के लिए ‘Ethics’ प्रयुक्त होता है और यह ग्रीक शब्द ‘Ethicos’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘ आदत से उत्पन्न’ यह दुर्भाग्य ही है कि भ्रष्टाचार अब एक ‘आदत’ बन चुकी है तथा उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों से लेकर छोटे मोटे व्यवसायी भी इसमें लिप्त हैं। इससे जनसाधारण के रोजमर्रा की जिंदगी गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है।

आज सिविल सेवकों के समक्ष नैतिकता से जुड़ी कई समस्याएं आ खड़ी हुई हैं जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  • शक्ति एवं प्राधिकार का असमान वितरण एवं इनका दुरुपयोग
  • जवाबदेही की कमी ।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप तथा भाई-भतीजावाद
  • सत्यनिष्ठा का अभाव
  • भ्रष्ट कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही करने में विलंब
  • व्हीस्ल ब्लोअर को मिली अपर्याप्त सुरक्षा
  • सिविल सेवकों के लिए आवश्यक नैतिक संहिता का अभाव
  • पारदर्शिता एवं आम आदमी के प्रति संवेदनशीलता का अभाव इस संदर्भ में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा निम्नलिखित तथ्यों को रेखांकित किया गया है।
  • भ्रष्टाचार एवं गंभीर चिंता का विषय है खासकर पद सोपानक्रम में उच्च स्तर के नौकरशाहों के संदर्भ में सिविल सेवकों में आम जनता की शिकायतों के निवारण के प्रति पर्याप्त जवाबदेही एवं प्रतिबद्धता का अभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है।
  • शासन व्यवस्था में लालफीताशाही एवं अनावश्यक रूप से जटिल प्रशासनिक कार्यवाहियों के कारण जनता की बढ़ती हुई तकलीफें एक गंभीर समस्या है।
  • सरकारी सेवकों पर दोष सिद्धि विरले ही संभव हो पाता है तथा उनके खिलाफ उच्च अधिकारियों से शिकायत दर्ज करने का भी कोई फायदा नहीं हो पाता क्योंकि वे इसमें रुचि नहीं लेते हैं। यह अपने आप में सिविल सेवकों के समक्ष एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करता है
  • कई सरकारी पदाधिकारियों की मनोवृत्ति में अक्खड़पन या उदासीनता देखने को मिलती है। अर्थात् इनका व्यवहार आम जनता के प्रति सामान्य-सा नहीं रहता है।
  • सरकारी पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों के तबादले असमय एवं कम अंतराल पर होते रहने के कारण उनकी कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा है और अपने काम के प्रति उनकी जिम्मेदारी को भी व कम महत्व देने लगे हैं।
  • राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाही के बीच के गठजोड़ से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।

परिणामस्वरूप प्रशासन भी कमजोर पड़ने लगता है।

मूल्य संघर्ष (Value Conflicts)

सभी व्यक्ति या व्यक्ति समूह अथवा समुदाय के मूल्य एक समान नहीं होते। इसी प्रकार व्यक्ति और संगठन के मूल्यों में भी भिन्नता हो सकती है। अर्थात् इन सभी के विश्वास व उनकी मान्यताएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। मूल्यों में संघर्ष तब होता है जब व्यक्ति का विश्वास किसी दूसरे व्यक्ति के या फिर किसी संगठन के मूल्यों व विश्वासों से मेल नहीं खाते। मूल्यों के इस संघर्ष को धार्मिक, सास्कृतिक भिन्नताओं के संदर्भ में समझा जा सकता है। इसके अलावा अलग-अलग व्यक्तियों के पालन-पोषण में अंतर के कारण भी मूल्यों में विभिन्नता पाई जाती है जो मूल्य संघर्ष का कारण बनता है।

लोक नीतियों के निर्माण में मूल्य आधारित संघर्ष कुछ अधिक ही दृष्टिगोचर होने लगा है। आम जनता के लिए बनाई गई शासकीय नीतियों के कारण विवाद उत्पन्न होना एक आम बात है। ये विवाद मूलत: मूल्यों के संघर्ष के कारण ही उत्पन्न होते हैं। यहां विवाद अथवा मूल्यों में संघर्ष इस बात को लेकर होता है कि लोकनीतियां कहां तक सही हैं अथवा बिल्कुल गलत हैं या फिर ये नीतियां किस हद तक न्यायपूर्ण है अथवा भेदभाव पर आधारित हैं? प्रशासकों द्वारा नीति संबंधी लिए गए निर्णय कुछ और नहीं बल्कि किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह द्वारा किए गए चुनाव अथवा उसकी व्यक्तिगत रुचि को ही प्रदर्शित करता है। दो व्यक्तियों की रुचियों या निर्णयों में भिन्नता अलग-अलग मूल्यों व विश्वासों के प्रति उनकी निष्ठा का ही परिणाम है। इस प्रकार मूल्यों में भी एक प्रतिस्पर्धा और टकराव देखने को मिलता है। मूल्यों के संघर्ष को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है:

  • अवसर की समानता को प्रोत्साहन देने के लिए किए जाने वाले प्रयास से क्षमता, न्याय, समानता, अनेकता, गुण तथा व्यक्तिगत उपलब्धि जैसे मूल्यों के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है।
  • अपराध रोकने से संबंधित नीतियों के फलस्वरूप स्वतंत्रता, सुरक्षा, उचित प्रक्रिया, समानता, प्रभावशीलता, पहुंच तथा न्याय के मूल्यों के बीच टकराव की स्थिति बन जाती है। गृह सुरक्षा नीतियों के कारण ज्ञान की उत्पत्ति, सूचनाओं के आदान प्रदान, गोपनीयता, निजता, नागरिक स्वंतत्रता, व्यक्तिगत अधिकार तथा सुरक्षा जैसे मूल्यों के संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

नैतिक व्यवहार का ढांचा

(Framework of Ethical Behaviours)

सिविल सेवकों के जीवन में नीतिशास्त्र की भूमिका के कई आयाम हैं। एक तरफ इनसे श्रेष्ठ नैतिक आचरण की अपेक्षा की जाती है तो दूसरी तरफ इनके कार्य-निष्पादन संबंधी तथ्यों को रेखांकित किया जाता है जिनके लिए ये वैध रूप से जिम्मेदार ठहराये जा सकते हैं। सिविल सेवकों के लिए प्रयुक्त नैतिक आचरण के किसी भी ढांचे में निम्नलिखित बातें शामिल की जाती है:

  •  नैतिक मान्यताओं एवं व्यवहारों का संहिताकरण।
  • व्यक्तिगत हित एवं समूह हित के आपसी संघर्ष को टालने हेतु व्यक्तिगत रुचि का खुलासा करना।
  • नैतिक संहिता के कार्यान्वयन हेतु एक तंत्र अथवा मैकेनिज्म का निर्माण करना।
  • ऐसे मानक तैयार करना जिसके आधार पर किसी सिविल सेवक को योग्य या अयोग्य करार दिया जा सके।
  • लोक रुचि तथा लोक प्रशासन की भूमिका को समझना।

यहां लोक रुचि का अभिप्राय है जनकल्याण में उनकी रुचि। अर्थात् वे किस हद तक लोक कल्याण में अपना योगदान दे सकते हैं? शासन की प्रकृति से लेकर लोकतंत्र, राजनीति तथा नीति संबंधी चर्चा और विवाद आदि सभी विषयों का केंद्रीय बिंदु कुछ और नहीं बल्कि आम नागरिक और उनसे जुड़े मुद्दे ही होते हैं। दरअसल सरकार का स्वरूप और उनकी प्रकृति अत्यंत व्यापक होती है। यह दो नागरिकों के बीच फर्क नहीं करता बल्कि सभी का कल्याण ही इसका मुख्य उद्देश्य होता है। इसी संदर्भ में प्रशासन की लोकोन्मुख प्रवृत्ति लोक प्रशासन के क्षेत्र में काफी मायने रखती है क्योंकि लोक कल्याण के प्रति रुचि वस्तुत: एक प्रकार की नैतिक प्रतिबद्धता का संकेत देती है।

लोक हित संबंधी दार्शनिक विचार/संप्रदाय

(Philosophies of Public Interest)

लोक हित संबंधी दार्शनिक संप्रदायों को मोटे तौर पर चार वर्गों में बांटा जाता है:

  • अंत:अनुभूतिवाद का दर्शन
  • आत्मपूर्णतावाद
  • उपयोगितावाद
  • न्याय का सिद्धांत

अंत:अनुभूतिवाद का दर्शन

(Intutionist Philosophy)

अंतः अनुभूतिवाद के द्वारा इस बात पर बल दिया जाता है कि नैतिक गुण, न कर्म फल, न उद्देश्य और न मानव विचारों पर निर्भर है, अपितु कर्म में ही निहित है। अंत:करण ही नैतिक मानदंड है। इसका निर्णय अपरोक्ष या सहज है। अर्थात् विरोधाभास की स्थिति में एक प्रशासक उसी विकल्प का चुनाव करता है जिसकी इजाजत उसे स्वयं अपने अंत:करण से मिलती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक प्रशासक किसी परिस्थिति विशेष में जो कार्य करता है अथवा निर्णय लेता है। वह उसे उस खास परिस्थिति के लिए सबसे उचित प्रतीत होता है। उसका ऐसा सोचना किसी अन्य कारण से नहीं बल्कि स्वयं उसकी अंत:अनुभूति का परिणाम होता है जिसे वह सहज और उचित मानकर अपना निर्णय लेता है। परंतु अंत:अनुभूतिवाद की कमी यह है कि इसके अंतर्गत कर्म के लिए कोई दिशा निर्देश प्राप्त नहीं होता तथा लोकहित के लिए कोई स्पष्ट सिद्धांत भी प्रस्तुत नहीं करता।

आत्मपूर्णतावाद

(Perfectionism)

इस दर्शन के मुताबिक लोकहित का अर्थ है समाज के अन्य तबके को अधिक से अधिक तरजीह देना। हालांकि इसके अंतर्गत संसाधनों के महत्तम व सदुपयोग पर बल दिया जाता है परंतु इस एप्रोच (उपागम) को मानकर चलने वाले प्रशासकों का यह प्रयास होता है कि शासकीय गतिविधियों से समाज के विशिष्ट वर्ग को अधिक से अधिक लाभ मिलेगा।

उपयोगितावाद

(Utilitarianism)

उपयोगितावादी सिद्धांत के अनुसार लोकहित का अर्थ है अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण। यह दर्शन इस बात पर बल देता है कि भले ही थोड़े से लोगों का अनिष्ट हो जाए पर अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख से ही लोकहित संभव है। तात्पर्य यह है कि इस दर्शन के अनसार मा संतुष्टि में हुई वृद्धि को ही लोकहित माना जाता है।

न्याय का सिद्धांत

(Theory of Justice)

इस सिद्धांत के प्रतिपालक जान रॉल्स थे। रॉल्स ने लोकहित को परखने के लिए न्याय से संत दो सिद्धांत प्रतिपादित किए। प्रथम सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को उसी हद तक स्वतंत्रता का अधिकार है जिस हद तक दूसरे की स्वतंत्रता बाधित न हो। द्वितीय सिद्धांत के अनुसार लोकनीति का औचित्य इस बात से है कि प्रत्येक को उसका लाभ मिले तथा सार्वजनिक पदों तक सभी की समान पहुंच होनी चाहिए। अर्थात् सभी को समान अवसर मिलना चाहिए। अगर इन दोनों सिद्धांतों के बीच संघर्ष की स्थिति हो तो न्याय के सिद्धांत के अनुसार द्वितीय सिद्धांत को ही प्राथमिकता देनी चाहिए तथा कोई भी निर्णय इसी आधार पर लिया जाना चाहिए।

लोक प्रशासन में विवेकपूर्ण निर्णय के लिए एवं नैतिक ढांचे का होना आवश्यक है। न्याय के सिद्धांत के अनुसार उपर्युक्त सिद्धांत के द्वारा ही निर्णयकर्ता लोकहित को सुनिश्चित कर सकता है।

मानवाधिकार

(Human Rights)

मानवाधिकार एक अनुलंघनीय मौलिक अधिकार है और ‘मानव’ होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को पाने का हकदार है। वस्तुत: मानवाधिकार को सार्वभौम एवं समतावादी अधिकार माना जाता है और कोई भी व्यक्ति इसका अपवाद नहीं माना जा सकता। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से यह अधिकार मिलना चाहिए। अधिकार स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक या कानूनी अधिकार में पाए जा सकते हैं। मानवाधिकार से संबंधित सिटी अतरराष्ट्रीय व्यवहारों, कानूनों तथा वैश्विक एवं क्षेत्रीय संस्थानों में तथा राज्यों एवं गैर सरकारी द्वारा तैयार की जाने वाली लोकनीतियों का आधार रहा है।

मानवाधिकारों के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:

  • ये सार्वभौम एवं अनुलंघनीय होते हैं।
  • ये समान और अविभेदकारी होते हैं।

समतावाद

(Egalitarianism)

समतावाद सिद्धांत वह या विचार है जो किसी वर्ग विशेष के लोग के बीच समानता की वकालत करता है या फिर सभी सजीव प्राणियों के बीच समानता पर बल देता है। समतावाद का सिद्धांत यह मानता है कि मौलिक रूप से सभी मनुष्य समान हैं और इसीलिए समाज के स्तर पर सभी को बराबर का माना जाना चाहिए। वेब्सटर शब्दकोष के अनुसार, आधुनिक अंग्रेजी में ‘इगलिटेरियन’ शब्द की दो अलग परिभाषाएं हैं। एक परिभाषा के अनुसार ‘इगलिटेरियनिज्म’ वह राजनीतिक सिद्धांत है जिसके अनुसार सभी व्यक्ति के साथ समान व्यवहार होना चाहिए तथा सभी को समान राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा नागरिक अधिकार है। दूसरी परिभाषा के अनुसार ‘इगलिटेरियनिज्म’ वह समाज दर्शन है जो आर्थिक असमानता को दर करने की वकालत करता है तथा शक्ति के विकेंद्रीकरण पर बल देता है कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार समतावाद का अर्थ है समानता जो मानवता के प्राकृतिक स्वरूप को परिलक्षित करता है।

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