शासन व्यवस्था में ईमानदारी : लोक सेवा की अवधारणा

लोक सेवा (Public Service)

 ‘लोक सेवा’ कहने मात्र से कई अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं। प्रथमतः, यह जनता की आवश्यकताओं की ओर संकेत करता है अर्थात् इसका संबंध उन सेवाओं यथा – बिजली, पानी, स्वास्थ्य, कानून और व्यवस्था तथा ग्रामीण एवं शहरी अवसंरचनाओं से है जो सरकार द्वारा नागरिकों को जनसेवाओं के रूप में मुहैया कराए जाते हैं। सरकार द्वारा जनता के लिए मुहैया कराई गई जनसेवाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि ये सेवाएं जनता के लिए किस सीमा तक उपलब्ध हैं, सरकार ऐसा करने में सक्षम हो पा रही है या नहीं या फिर जनता की पहुंच इन सेवाओं तक हो पा रही है या नहीं? इस संदर्भ में जनसेवा (लोक सेवा) का अर्थ उन वस्तुओं एवं सेवाओं से है जिनकी व्यवस्था सरकारी संस्थाओं द्वारा जनता के लिए की जाती है। इस क्रम में लोक सेवा जनता और प्रशासन के बीच की एक कड़ी का काम करता है।

द्वितीयत: लोकसेवा के अन्तर्गत उन सभी जनसेवकों को सम्मिलित किया जाता है जो प्रशासन अथवा सरकार की तरफ से जनता के हित में कार्य करते हैं। इसमें सेना, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका कर्मचारी/अधिकारी सभी शामिल किए जाते हैं।

संक्षेप में, लोक सेवाओं को सामान्यतः सरकार द्वारा संयोजित ऐसी नागरिक सेवाओं के रूप में परिभाषित किया जाता है जो सरकार की योजनाओं तथा कार्यक्रमों को व्यावहारिक रूप प्रदान कर सके।

लोक सेवा से अभिप्राय सरकारी तंत्र के उस शाखा से होता है जिसका संबंध कानून बनाने से नहीं बल्कि कानून लागू करने से है। लोक सेवक मंत्रियों के आदेशों पर अमल करते हैं और उन्हें नीति निर्माण में सलाह देते हैं।

अत: लोक सेवा एक महत्वपूर्ण सरकारी प्रतिष्ठान का नाम है जिसके अंतर्गत राज्य के केन्द्रीय प्रशासन के कर्मचारी आते हैं। लोक सेवा का अर्थ उस भावना से भी है जो आधुनिक लोकतंत्र की सफलता के लिए तथा अपना जीवन समाज की सेवा में समर्पित करने वाले लोक कर्मचारियों में व्यवसाय आदर्श के लिए आवश्यक है।

प्रशासन के संदर्भ में सार्वजनिक सेवाओं का अधिक व्यापक अर्थ इस दृष्टि से है कि लोककर्मियों के अतिरिक्त उनके अंतर्गत ऐसे कर्मचारियों की भी गणना कर ली जाती है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में, राष्ट्रीयकृत बैंक तथा पूर्ण अथवा आंशिक रूप से सरकार से सहायता प्राप्त अन्य अर्द्ध-सरकारी संगठनों में काम करते हैं। परन्तु सच तो यह है कि लोक सेवाओं से संबंधित पदों पर आसीन व्यक्तियों को भारत की संचित नाय (Consolidated Fund of India) से वेतन मिलता है, अन्य को इस प्रकार वेतन नहीं मिलता।

विकासशील देशों में लोक सेवा राजनीतिक आधुनिकीकरण का महत्वपूर्ण अभिकरण है। सुसबद्ध एवं सुसंगठित सार्वजनिक अधिकारी तंत्र ढांचा, निर्वाचन आधारित जनवाद के लिए एक पूर्व शर्त है। यह सरकारी तंत्र को स्थिरता एवं निरंतरता प्रदान करता है। लोक सेवा विशेषज्ञता, विकासोन्मुखता एवं नेतृत्व क्षमता जैसे विशेष गुणों का सामंजस्य है।

लोक सेवा और सरकार (शासन व्यवस्था) के बीच संबंध (Relation between public service and government)

  • शासन व्यवस्था आदिकाल से ही मानव समाज का अभिन्न अंग रही है। शासन व्यवस्था के लिए सरकार का कोई न कोई रूप अस्तित्व में रहा है और सरकार के उद्देश्यों व लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लोक सेवा से संबंधित एक ढांचा भी अस्तित्व में रहा है।
  • सरकार के निरूपण, योजनाओं एवं कार्यक्रमों के कार्यान्वयन, सूचना संकलन एवं मूल्यांकन के लिए लोक सेवा हमेशा से ही सरकार अथवा शासन व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है।
  • लोक सेवा की प्रकृति और स्वरूप निस्संदेह ही सरकार द्वारा किए जाने वाले कार्यों की प्रकृति एवं परिमाप पर निर्भर करता है। अतः जब कभी सरकार में परिवर्तन होता है, लोक सेवा में भी परिवर्तन आवश्यक रूप से देखा जाता है।
  • राजनेता की अपेक्षा अधिकारी तंत्र को अधिक ज्ञान, अनुभव, अंतर्राजकीय संबंधों तथा अतिरिक्त समय का लाभ प्राप्त होता है। दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।
  • सरकार तथा लोक सेवा के बीच संबंध यह सिद्ध करता है कि नीतियों के निर्धारण तथा कार्यान्वयन के बीच द्विविभाजन व्यावहारिक रूप से नहीं बनाए रखा जा सकता।
  • सरकार के लिए केवल नीतियों के सूत्रीकरण से सरोकार रखना और लोक सेवा के लिए निर्मित नीतियों के प्रशासनिक पहलू से ही जुड़े रहना असंभव सा है। सिद्धान्त और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से, इस सीमाओं का अक्सर ही उल्लंघन देखा जाता है, जिसके फलस्वरूप दोनों के बीच संपूरकता, पारस्परिकता एवं अन्योन्याश्रितता का संबंध विकसित हुआ है।

लोक सेवा के प्रकार्य (Functions of Public Service)

लोक सेवा सरकारी ढांचे का सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। लोक कार्मिकों को अनेक कार्य करने पड़ते हैं। इनके कुछ मुख्य कार्य हैं

  • नीति निर्धारण: देश मे नीतियों के निर्माण एवं निर्धारण में नागरिक सेवा में लगे व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका होती है। यद्यपि नीतियां विधायिका के क्षेत्र में आती हैं, सरकार की भूमिका से संबंधित तकनीकी मांगें नीतियों को सूत्रबद्ध करने में नागरिक सेवायुक्तों की भागीदारी की अपेक्षा करती है। नीतियों के कार्यान्वयन के अंतर्गत एक बड़ी सीमा तक नीतियों का निर्धारण भी आ जाता है। इसलिए लोक सेवक राष्ट्रीय नीति के सूत्रीकरण पर व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं। वे मंत्री एवं विधायिका को नीति करते हैं। विशेषज्ञता प्राप्त न होने के कारण मंत्रिगणों को लोकनीति की जटिलताओं का बोध नहीं हो सकता और फलतः वे लोक सेवकों की सलाह पर ही काम करते हैं। लोक सेवा में व्यक्ति व्यावहारिक रूप से सफल होनेवाली नीतियों से संबंधित विभिन्न विकल्प सुझाते हैं, क्योंकि ही जानते हैं कि नीतियों को व्यावहारिक रूप से क्या स्वरूप मिलता है।
  • विधि निर्माण एवं नीतियों का कार्यान्वयनः लोक सेवाओं से संबंधित अधिकारी विधायिका पारित नीतियों को कार्यान्वित करते हैं। कानून और नीतियों के कार्यान्वयन में लोक सेवक व्यापक में विवेक का प्रयोग करते हैं। कोई व्यावहारिक कदम उठाने से पहले वे उन सभी कारकों का मूल्यांकन करते हैं जो कार्यान्वयन को प्रभावित कर सकते हैं। उन्हें यह देखना होता है कि कोई कि अथवा नीति समचित है या नहीं। उन्हें वैधानिक मानदंडों और विधि सम्मत नियमों के अनरूप कि तथा ईमानदार आचरण करना होता है।
  • हस्तांतरित विधान: लोक सेवा अधिकारी विभागीय विधानों की रचना करते हैं। विधायिका विधान संबंधी व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत करती है और लोक सेवा अधिकारियों को विधान से संबंधित अन्य विवरण तैयार करने का अधिकार दे देती है। हस्तांतरित विधा बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि विधायिका के पास विस्तृत नियम तथा निर्धारक कानून बनाने के लिए समय नहीं होता और वह आधुनिक विधान रचना प्रक्रिया से परिचित भी नहीं होता। लोक सेवा अधिकारी ही यह काम करते हैं और विधायिका द्वारा पारित विधानों के अनुरूप आदेश जारी करते हैं। इन नियमों की विधायिका द्वारा पुन: परीक्षा होती है और तब वे अधिकारियों द्वारा लागू किये जाते हैं।
  • प्रशासकीय व न्यायिक निर्णय: लोक सेवक आज अर्द्ध-न्यायिक शक्तियों का भी प्रयोग करते हैं। वे नागरिकों के अधिकारों तथा कर्तव्यों से संबंधित मसलों का भी निर्धारण करते हैं। लोक सेवकों के पास कुछ न्यायिक सत्ता होनी चाहिए ताकि वे जनहित की सिद्धि तथा शोषण से निर्धनों की रक्षा कर सके। प्रशासकीय व न्यायिक निर्णय, सामाजिक कर्तव्यों तथा तकनीकी जटिलताओं से जुड़े प्रसंगों में समुचित एवं तात्कालिक न्याय करने की आवश्यकता के फलस्वरूप अस्तित्व में आया। ये अधिकारी नीतियों को लागू करते हैं, इसलिए नीतिगत आवश्यकताओं के अनुरूप फैसला देने की क्षमता भी उनमें हो सकती है।

इनके अतिरिक्त, लोक अधिकारियों के रोजमर्रा के कार्यों में अनुपालन जारी करना तथा निरीक्षण कार्यों, सरकारी नीतियों का नियमन, कर संग्रह, कार्य दशाओं से संबंधित सूचनाएं जुटाना इत्यादि कार्य आते हैं। इस प्रकार लोक अधिकारी, संक्षेप में निम्न भूमिकाओं का निर्वहण करते हैं

  • कार्यक्रमों के संबंध में सरकार को सलाह देना। मंत्रियों को आवश्यक सूचना एवं आंकड़े उपलब्ध कराना। 
  • सरकार द्वारा निर्मित योजनाओं, नीतियों एवं कार्यक्रमों पर अमल करना।
  • सरकार के कार्यक्रमों से संबंधित सूचनाओं का संकलन एवं मूल्यांकन करना।
  • सरकार द्वारा सौंपे गये कार्यों को पूरा करना।
  • नागरिकों तथा पार्टियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों से संबंधित मद्दों का निर्धारण करना।

लोक सेवा के प्रतिदर्श (Sample)

  • निष्पक्ष भूमिका: लोक सेवाओं की निष्पक्ष भूमिका उनको साधकीय भूमिका के अनुरूप हाती है। यह स्पष्ट है कि लोक सेवाओं को अपनी संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक ढांचे के तहत ही काम करना होता है।उन्हें अपने दृष्टिकोण एवं क्रियाकलाप में निष्पक्षता का परिचय देना होता है। उन्हें अपने व्यवहार में अपने-अपने राजनीतिक मूल्यों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। लोक सेवा अधिकारी नष्ठ भावुकता रहित और निष्पक्ष विशेषज्ञ समूह होते हैं जिन्हें अपना कार्य पूर्ण कटुता, दक्षता एवं मर्पण भाव के साथ करना होता है। नीतियों तथा उनके कार्यान्वयन से संबंधित निर्णय एक बार कर ना जाने के बाद अधिकारियों को यही देखना होता है कि वे कार्यक्रम को अमली रूप देने के लिए पार सलभ साधनों के अधिकतम सीमा तक उपयोग का प्रयास करे।

दूसरे शब्दों में, उन्हें कोई राजनीतिक पक्ष नहीं लेना चाहिए और न ही उन्हें इस बात की अनुमति मिलनी चाहिए। नीतिगत रणनीतियों का चयन करते समय अवश्य ही व्यक्तिगत मूल्य निर्णय प्रभावी होते हैं, लेकिन इसके बाद नहीं। लोक सेवक राजनीतिक प्रतिनिधि नहीं बल्कि राज्य के कर्मचारी होते हैं। राजनीतिक निष्पक्षता सरकारी कर्मचारियों, सेवाओं के लिए पूर्व शर्त है और दलगत राजनीति को इससे दूर ही रखा जाना चाहिए। इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों से सरकार द्वारा निर्मित नीतियों पर अमल करने की अपेक्षा की जाती है। वे न तो कार्यक्रमों के राजनीतिक अंतर्वस्तु के लिए जिम्मेदार होते हैं और न सार्वजनिक जीवन में उन्हें इसकी पुष्टि करनी होती है।

  • साधकीय भूमिका: इस बात पर आम सहमति है कि लोक सेवाओं को अपने संचालन में मूलत: साधकीय भूमिका निभानी चाहिए। इस अर्थ में यह नीति निर्धारण तथा कार्यान्वयन में कर्ता नहीं बल्कि अधिकरण मात्र है। इसलिए यह सार्वभौम रूप से अपेक्षित होता है और एक बड़ी सीमा तक स्वीकार भी किया जाता है कि इन सेवाओं का संयोजन ऐसा होना चाहिए कि वे राजनीतिक नेतृत्व एवं नीतिगत संघटकों की ओर सुसंगत और स्वैच्छिक अनुक्रिया कर सके। सारभूत रूप में यह बात प्रशासनिक व्यवस्था पर राजनीतिक विचारधारा के प्रभाव का ही परिचायक है।

राज्य के नीतिगत कार्यक्रमों में भागीदारी एवं व्यापक उपस्थिति के बावजूद इन सेवाओं से यह अपेक्षित नहीं है कि वे अपनी साधकीय भूमिका से हटकर नीति निर्धारण की संचालक शक्ति बनने का प्रयास करे।

  • प्रतिबद्ध भूमिका: क्या सरकारी कर्मचारियों को किसी दल, शासक दल अथवा दल के किसी व्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए? उनकी प्रतिबद्धता का स्वरूप क्या होना चाहिए? लोक सेवाओं की प्रतिबद्ध भूमिका के समुचित बोध के लिए इन प्रश्नों का उत्तर आवश्यक है। इस विषय पर विभिन्न विचार व्यक्त किए गए हैं। एक सामान्य धारणा के अनुसार “प्रतिबद्धता का आशय होता है सरकार के नीतिगत उद्देश्यों से बौद्धिक सहमति होना”। दूसरा, यह विचार सामने आता है कि प्रतिबद्धता एक नयी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था से होनी चाहिए जिसका विकास एवं पोषण लोक सेवकों के करियर द्वारा होना चाहिए। तीसरा दृष्टिकोण दूसरे का ही अनुषंगी बनता है। इसके अनुसार प्रतिबद्धता का संबंध राज्य के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दर्शन से होना चाहिए, अन्य आधनिकीकरण एवं राष्ट निर्माण कार्यक्रमों के अतिरिक्त। चौथे दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबद्धता एक आदर्श रूप में देश के संविधान से होना चाहिए जो कि नीतियों के अनुसरण एवं अनुपालन के प्रसंग में जनमत की सामहिक मेधा का प्रतिनिधि रूप बनता है। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबद्धता का संबंध लोक सेवा अधिकारियों की अंत:चेतना, उनकी आस्था, सांस्कृतिक एवं आचारगत मूल्यों और न्याय एवं औचित्य के बोध से होता है।

लोक सेवकों ने प्रायः राजनीतिक दलों के साथ अपने व्यक्तिगत जुड़ाव समरूपा । एवं संबंध का परिचय दिया है। उच्च अधिकारियों के प्रति उनकी व्यक्तिगत निष्ठा अक्सर सामने आई है। इस प्रकार की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता उनके लिए पदोन्नति एवं त्वरित प्रगति की दृष्टि से सहायक सिद्ध होती है। लेकिन प्रतिबद्ध अधिकारी तंत्र का अर्थ किसी दल विशेष के प्रति निष्ठावान अधिकारी तंत्र नहीं होता, इसका अर्थ यह भी नहीं होता कि कर्मचारी किसी व्यक्ति विशेष अथवा राजनीतिक नेता के प्रति निष्ठावान हो। इसका अर्थ यही है कि अधिकारी तंत्र को संविधान में सन्निहित उद्देश्यों, आदर्शों, संस्थानों एवं प्रक्रियाओं से प्रतिबद्ध होना चाहिए।

  • निर्वैयक्तिक भूमिकाः नीतियों, कार्यक्रमों तथा विशेष मुद्दों से संबंधित मामलों को सुलझाने में लोक सेवकों को “निर्वैयक्तिक भूमिका” अपनानी चाहिए। उन्हें संबंधित व्यक्तियों अथवा संभाव्य रूप में प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के आधार पर न कोई फैसला करना और न उसे बदलना चाहिए बल्कि उन सिद्धान्तों, नियमों तथा निर्देशों का दृढ़ता से अनुपालन करना चाहिए जिसके अनुसार ही, प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के पद एवं प्रतिष्ठा की अपेक्षा करते हुए सरकारी मामलों का निर्णय होना चाहिए। लोक सेवकों को समस्याओं के प्रति भावुकता रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
  • अनाम भूमिकाः इसके अनुसार यह अपेक्षा की जाती है कि मंत्री संसद में लोक सेवकों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा। इस प्रकार लोक सेवक संसद की आलोचना से बच जाता है। मंत्री को अपने निश्चित आदेशों का पालन करने वाले अधिकारी का संरक्षण करना होता है। मंत्री अधिकारी के गलत कार्यों के लिए जवाबदेह भी बनता है। इस प्रकार अनाम सिद्धान्त मंत्रिपद संबंधित दायित्व के साथ चलता है। इसका अर्थ है कि सरकारी कर्मचारी पृष्ठभूमि में ही बना रहता है, वह सामने आकर राजनीति में प्रमुख भूमिका नहीं अपना सकता। उन्हें अपरिचितता के वातावरण में काम करना होता है। यह बात उन्हें ईमानदार तथा वस्तुनिष्ठ निर्णय करने में सहायता करती है।
  • व्यावसायिक भूमिकाः लोक अधिकारियों की नियुक्ति उनके ज्ञान, दक्षता, विशेषज्ञता, अनुभव, सामर्थ्य एवं योग्यता को ध्यान में रखकर की जाती है। उन्हें विकास कार्यक्रमों का अमलीजामा देने के लिए उत्साह के साथ अपनी सारी कार्यकुशलता का प्रयोग करना चाहिए। उनको प्रशिक्षण भी इस प्रकार का दिया जाना चाहिए कि वे अपनी संपूर्ण सुलभ मानसिक, भौतिक एवं तकनीकी क्षमता को सर्वाधिक प्रभावी एवं दक्ष रूपों में प्रयोग कर सके। उद्देश्य उनको ऐसा प्रशिक्षण देने का होना चाहिए कि अल्प समय में कम से कम लागत के न्यूनतम निर्देश से अधिकतम उपलब्धि प्राप्त की जा सके। व्यावसायिक श्रेष्ठता, परिणाम, प्रेरणा तथा बौद्धिक निष्ठा उनका उद्देश्य होना चाहिए। ज्ञान तथा अनुवर्ती शिक्षा को व्यवस्था का अंग होना चाहिए क्योंकि व्यावसायिक अधिरचना के लिए आधार वही बनते हैं। लोक सेवकों की व्यावसायिक भूमिका ही उनके अस्तित्व का मूल और लोक सेवा में उनके बने रहने का औचित्य भी है।

लोक सेवाओं की बदलती भूमिका

सरकारी कामकाज की उत्तरोतर बढ़ती जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए भावी प्रशासकों को विज्ञान एवं तकनीकी, सामाजिक एवं व्यवहार-विज्ञानों, प्रबंधन के आधुनिक अभिकरणों, प्रबंधन के अंतर्गत मानवीय संबंध तथा प्रशासनिक शोध एवं विकास इत्यादि क्षेत्रों का सम्यक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। प्रशासनिक सुधार आयोग ने यह पत्र सामने रखा है कि प्रशासन के अतगत सामान्यतावाद” कई क्षेत्रों में अपना औचित्य खो रहा है। यह प्रशासनिक समस्याओं के समाधान म विज्ञान एवं तकनीकी के अधिकाधिक प्रयोग का अनिवार्य परिणाम है। अपने सामने परिवर्तन की नई चुनौतियों के संदर्भ में लोक सेवाएं दो अनिवार्यता से बच नहीं सकती। एक अनुकूलन की तथा दूसरा व्यावसायीकरण की। बदलता राजनीतिक परिदृश्य, बढ़ती जनआकांक्षाएं, प्रशासकीय कार्यों का प्रसार, प्रशासनिक ढांचे का बढ़ता स्वरूप और विकासशील विज्ञान एवं तकनीकी जैसे बहुविधकारक लोक सेवाओं को विभिन्न परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को ढालने तथा व्यावसायिक रूप देने के लिए बाध्य कर रहे हैं।

लोक सेवकों को कुछ कार्य राजनीतिक अधिकारियों के साथ संयुक्त रूप से करने पड़ते हैं, गोपनीय, स्वतंत्र रूप में अथवा अकेले और प्रत्यक्ष रूपों में। ये हैं- राजनीतिक समाजीकरण, हितों की अभिव्यक्ति एवं संचयन तथा राजनीतिक संप्रेक्षण। इसके अलावा नियमों की रचना, प्रयोग एवं निर्णय।

ईमानदारी (Probity)

ईमानदारीपूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन नैतिक आचरण का प्रमाण है। यहां ईमानदारी का अर्थ व्यापक है जिसमें न्यायनिष्ठा, सत्यनिष्ठा तथा स्पष्टवादिता जैसे सद्गुणों को भी शामिल किया जाता है। सरकारी कर्मचारियों तथा एजेंसियों के ‘ईमानदार’ होने का मतलब सिर्फ भ्रष्टाचार से दूर रहना ही नहीं है। अगर लोक सेवक ईमानदार है तो इसका अर्थ यह भी है कि उन्हें सत्यता, तटस्थता, जवाबदेयता तथा पारदर्शिता जैसे नैतिक मूल्यों का भी अनुसरण करना है।

ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा का एक अर्थ और भी है। इस अर्थ के अनुसार ईमानदार वही है जिसे किसी तरह से भ्रष्ट न बनाया जा सके। अभिप्राय यह है कि लोक सेवक अगर व्यक्तिगत एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति सचेत हैं तो उसे भ्रष्ट नहीं बनाया जा सकता। ईमानदारी को इस रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है कि व्यक्ति अगर नैतिक संहिता का पालन कर रहा है और खासकर वित्तीय और व्यावसायिक मामलों में सत्यनिष्ठा का पालन कर रहा है तो इसका अर्थ है कि वह सत्यनिष्ठ है।

सरकारी क्षेत्र में ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करना प्रत्येक लोक सेवक का कर्तव्य ही यह प्रशासन के प्रत्येक स्तर में यथा, कार्यप्रणाली, पद्धति एवं आचरण में परिलक्षित होना चाहिश प्रशासन में नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित किया जा सके।

शासन व्यवस्था में ईमानदारी (Probity in Governance)

पारंपरिक सिविल सेवा मूल्यों यथा – क्षमता, सत्यनिष्ठा, जवाबदेयता तथा देशभक्ति सिविल सेवकों के लिए यह भी जरूरी है कि वे सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी मानवामिन आदर, कमजोर वर्गों के लिए दया और करुणा तथा कल्याण जैसे नैतिक मूल्यों को भी अपना प्रशासनिक सुधार आयोग)

कुशल एवं प्रभावी शासन तथा सामाजिक आर्थिक विकास के लिए शासन व्यवस्था में ईमानदारी का होना अति आवश्यक ही नहीं महत्वपूर्ण भी है। शासन व्यवस्था में ईमानदारी एवं करने के लिए भ्रष्टाचार का न होना एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण पूर्व शर्त है अर्थात – बनाए रखना हो तो उसे भ्रष्टाचार से मुक्त करना आवश्यक है। ईमानदारी के अलावा  कानून, नियम, अधिनियम जो सार्वजनिक जीवन को सुचारू रूप से संचालित करे तथा नियम की प्रभावी एवं उचित कार्यान्वयन भी शासन व्यवस्था के लिए अति आवश्यक है।

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