न्यायिक सक्रियता की अवधारणा और इसके उद्भव के कारण

प्रश्न: न्यायिक सक्रियता की अवधारणा की व्याख्या करते हुए चर्चा कीजिए, कि न्यायालयों के लिए विधायिका या कार्यपालिका के कार्यों का अतिक्रमण न करना क्यों महत्वपूर्ण है।

दृष्टिकोण:

  • न्यायिक सक्रियता की अवधारणा और इसके उद्भव के कारणों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
  • चर्चा कीजिए कि विधायिका या कार्यपालिका के कार्यों का निपटान करते समय न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक संयम का पालन करना क्यों महत्वपूर्ण है।

उत्तर:

न्यायिक सक्रियता का आशय नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण और समाज में न्याय को बढ़ावा देने हेतु न्यायपालिका द्वारा सक्रिय भूमिका निभाने से है। यह सरकार के अन्य दो अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) को उनके संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन कराने के लिए न्यायपालिका की भूमिका पर बल देता है।

न्यायिक सक्रियता का उद्भव विधायी शून्यता, अपने दायित्वों के निर्वहन में कार्यपालिका की विफलता, अनु. 142 जैसे संवैधानिक अनुच्छेदों, मानव अधिकारों और सामाजिक कल्याण की अवधारणाओं में वृद्धि तथा उनके प्रति न्यायिक उत्साह जैसे अनेक कारणों से हुआ है। किन्तु यह उत्साह कभी-कभी अति उत्साह में या यहां तक कि अतिक्रमण में परिवर्तित हो जाता है, जो संवैधानिक अधिदेश के विरुद्ध हो जाता है। ऐसे में, स्वयं उच्चतम न्यायालय द्वारा भी न्यायालयों से न्यायिक संयम का अनुपालन करने हेतु कहा गया है।

न्यायालयों के लिए विधायिका या कार्यपालिका के कार्यों का अतिक्रमण न करने के संदर्भ में तर्क

  • यह संविधान में निहित संवेदनशील शक्ति संतुलन की व्यवस्था अर्थात् शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है जिसके अंतर्गत राज्य के प्रत्येक अंग को दूसरे अंगों का सम्मान करना चाहिए और उसे दूसरों के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।
  • अधिकांशतः कार्यपालिका या विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायिक अतिक्रमण का औचित्य यह बताया जाता है कि ये दोनों अंग अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं। यह मान भी लिया जाए तो यही आरोप न्यायपालिका पर भी लगाया जा सकता है, क्योंकि न्यायालय में विगत 50 वर्षों के लम्बे समय से मुकदमे लंबित हैं।
  • अधिक मुकदमों को स्वीकार करने से देश में न्याय वितरण में और भी विलम्ब होता जाता है।
  • न्यायपालिका द्वारा नियमित हस्तक्षेप भारतीय राजनीति की लोकतांत्रिक प्रकृति को कमजोर बनाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायपालिका गैर-निर्वाचित (non-elective) प्रकृति की है और न्यायाधीशों की नियुक्ति पर भाई-भतीजावाद और पूर्वाग्रह के आधार पर प्रश्न उठाए जाते हैं।
  • यह संभव है कि न्यायाधीशों के निजी राजनीतिक मूल्य और नीतिगत एजेंडा उनके न्यायिक विचार पर हावी हो जाएं।
  • न्यायपालिका को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि प्रशासनिक अधिकारियों को प्रशासन के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त  है।
  • न्यायपालिका के पास कार्यपालिका या विधायिका के कार्यों का निष्पादन करने हेतु आवश्यक संसाधनों का अभाव है।

न्यायिक सक्रियता ने लोगों के कल्याण के संदर्भ में एक क्रांति ला दी है जैसे कि विधि की सम्यक प्रक्रिया का समावेशन (मेनका गांधी वाद), विशाखा दिशा-निर्देश (1997), दिल्ली में डीजल वाहनों के पंजीकरण पर प्रतिबंध आदि, किन्तु न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिक्रमण के मध्य का अंतर बहुत कम है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि न्यायपालिका अपनी ओर से किसी भी अति उत्साह से बचने हेतु संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करे ताकि संविधान में व्यक्त किए गए DPSPs के दृष्टिकोण के अनुरूप समाज के समग्र कल्याण के लिए सक्रियता के साथ आगे बढ़ा जा सके।

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