‘न्याय में देरी ,न्याय का वंचन है (justice delayed is justice denied)’ : न्यायिक विलम्ब को कम करने हेतु उपाय

प्रश्न: न्यायालयों में वादों के लंबित रहने की समस्या की बहुत समय से पहचान होने के बाद भी, इनकी संख्या को कम करने की दिशा में सीमित प्रगति ही हो पाई है। ऐसे परिदृश्य के लिए संभावित कारण क्या हैं? इस समस्या को हल करने के लिए विभिन्न उपायों की एक रूपरेखा का सुझाव दीजिए।

दृष्टिकोण

  •  ‘न्याय में देरी ,न्याय का वंचन है (justice delayed is justice denied)’ कथन की संक्षेप में व्याख्या करते हुए भूमिका लिखिए।
  • भारत में वादों के निपटान की दीर्घकालिक न्यायिक विचारधीनता के कारणों का उल्लेख कीजिए।
  • इन कारणों को पुष्ट करने के लिए तथ्यात्मक जानकारी प्रदान कीजिए।
  • न्यायिक विलम्ब को कम करने हेतु उपाय सुझाइए।

उत्तर

वर्तमान में भारत के जिला न्यायालयों में 22 मिलियन से अधिक वाद लंबित हैं। उनमें से 6 मिलियन पांच साल से अधिक समय से चल रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अन्य 4.5 मिलियन उच्च न्यायालयों और 60,000 से अधिक सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हेतु प्रतीक्षारते हैं। दशवर्षीय प्रतिवेदनों के अनुसार इन आंकड़ों में वृद्धि हो रही है।

वादों के लंबित होने के लिए निम्नलिखित कारणों की पहचान की गई है – मुकदमेबाजी में अत्यधिक वृद्धि; उच्च न्यायालय से संबद्ध कर्मचारियों की अपर्याप्तता; बार के कुछ सदस्यों के पास कार्य का अत्यधिक संकेन्द्रण; न्यायाधीशों में समयबद्धता का अभाव; निर्णयों और आदेश की प्रतियों की अपर्याप्त आपूर्ति इत्यादि।

इन कारणों की पहचान होने के बाद भी, निम्नलिखित कारणों से वाद के विलंब को कम करने में सीमित प्रगति हुई है:

  • विभिन्न न्यायालयों में लंबित वादों की बहुत अधिक संख्या से निपटने के लिए देश में न्यायाधीशों की संख्या अपर्याप्त है।
  • वादों की संख्या में वृद्धि के अनुसार न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई है। भारत में प्रति एक मिलियन जनसंख्या पर 10-12 न्यायाधीश हैं। विकसित देशों में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश हैं।
  • लेकिन, केवल न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना ही एकमात्र समाधान नहीं है। कुछ अत्यावश्यक संस्थागत परिवर्तनों का समावेश किए जाने की आवश्यकता है। न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात महत्वपूर्ण परीक्षण नहीं है अपितु इसका निर्धारण न्यायाधीश-कार्यसूची अनुपात के आधार पर किया जाना चाहिए। कार्यसूची से आशय विचाराधीन वादों की सूची से है एवं यह न्यायाधीशों के कार्य के भार का सटीक संकेत प्रदान करता है। भारत में प्रति न्यायाधीश कार्यसूची अनुपात 987 है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में यह प्रति न्यायाधीश 3,235 है। समाधान संभवत: प्रभावी न्यायालय प्रबंधन में निहित है, जिसके लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा गंभीरतापूर्वक प्रयास नहीं किए गए हैं। उदाहरण के लिए, न्यायालय प्रबंधन में सुधार करने के लिए कंप्यूटरों का पर्याप्त उपयोग नहीं किया गया है।
  • यहाँ तक कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 301 सुनवाई प्रक्रियाओं का शीघ्र आयोजन करने का प्रावधान करती है, लेकिन यह सामान्य बात है कि बारंबार कार्यस्थगन होने के कारण वादों के निपटान में अत्यधिक विलम्ब होता है।
  • निचले न्यायालयों में वादों की अधिकता होना ही समस्या का मूल कारण है। कई न्यायालयों में अभी तक ‘मुक़दमा दर्ज करने की तिथि’ कॉलम के अंतर्गत आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं, जो कि विलम्ब की पहचान करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण घटक  है।
  • पुलिस जांच की आवश्यकता के कारण लंबित रहने वाले वादों के अनुपात का न्यायालयों की वादों के संबंध में त्वरित न्यायनिर्णयन की क्षमता पर थोड़ा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, गुजरात में, जहाँ 100 में से 92 वाद न्यायालय के समक्ष लंबित हैं, उनमें से लगभग 11.5% पूर्ण होने के लिए पुलिस जांच की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, असम में जहां 100 में से 80 वाद न्यायालय द्वारा न्यायनिर्णयन हेतु सुनवाई के लिए चयन किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उनमें से लगभग 50% वाद पुलिस जांच की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
  • पुलिस बल की अपर्याप्त क्षमता ने भी न्यायालयों के समक्ष लंबित वादों की संख्या में वृद्धि करने में अपनी भूमिका निभाई है।

लंबित न्यायिक कार्य को कम करने का उपाय:

  • जिन मामलों में अपराधी दो वर्ष से अधिक समय से हिरासत में हों, ऐसे पुराने मामलों को निपटाने के लिए न्यायिक अधिकारियों हेतु वार्षिक लक्ष्य और कार्य योजनाओं को निर्धारित किया जाना चाहिए।
  • न्याय निर्णयन की गुणवत्ता से समझौता कर वादों का जल्दबाजी में निपटान किए जाने जैसे कदाचार पर अंकुश लगाने के लिए न्यायिक अधिकारियों के प्रदर्शन की त्रैमासिक समीक्षा अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए।
  • रिक्त पदों को शीघ्रतापूर्वक भरा जाना, न्यायालय की अवसंरचना सुधार एवं न्यायिक भर्ती परीक्षाओं के मानकों की स्थापना इत्यादि जिला न्यायाधीशों की गुणवत्ता में सुधार के लिए अन्य उपाय हैं।
  • न्यायाधीशों के चयन में अनुभव की जाने वाली अनियमितताओं पर विचार किए जाने की आवश्यकता है; इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत की गई राष्ट्रीय जिला न्यायाधीश भर्ती परीक्षा पर अनिवार्य रूप से गंभीर चिंतन किया जाना चाहिए।
  • वृद्धि संबंधी उपाय जैसे कि कार्यस्थगनों को प्रतिबंधित करना, ग्रीष्म अवकाशों पर अंकुश लगाना, और रियल टाइम निगरानी के साथ न्यायालयी कार्यवाही की दृश्य-श्रव्य रिकॉर्डिंग परिवर्तनकारी प्रभाव उत्पन्न करेगी।
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समितियों जैसे न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव समिति द्वारा प्रदत्त अनुशंसाओं की जाँचपड़ताल करके केस फ्लो सैनेजमेंट (Case Flow Management :CFM) नियमों को समाविष्ट किया जा सकता है।
  • फास्ट ट्रैक न्यायालयों के साथ-साथ, विवाचन (arbitration), मध्यस्थता, सुलह जैसे वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों को प्रोत्साहित करना।
  • यातायात से संबंधित वादों को सामान्य न्यायालयों से पृथक करना।
  • अधीनस्थ न्यायाधीशों की गुणवत्ता में, भर्ती के स्तर पर और साथ ही कार्य पर प्रशिक्षण के दौरान सुधार करना।
  • सायंकालीन न्यायालयों की अवधारणा को लागू करना जहां विधि स्नातकों के साथ-साथ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सेवाएँ भी ली जा सकती हों।  इससे युवा अधिकारियों के प्रशिक्षण में सहायता करने एवं लंबित वादों की संख्या को कम करने का दुहरा लाभ प्राप्त होगा।

निष्कर्ष रूप में, अन्य राज्यों को हरियाणा, चंडीगढ़, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और केरल के पदचिह्नों का अनुसरण करना चाहिए जहाँ 10 वर्ष से अधिक समय से लंबित रहने वाले वादों की संख्या घटकर कुल लंबित मामलों की केवल 1% रह गई है। इसके अतिरिक्त “बकाया एवं पिछला शेष: अतिरिक्त न्यायिक महिलाशक्ति का निर्माण (Arrears and Backlogs : Creating Additional Judicial Womanpower)” विषय पर विधि आयोग के 245वें प्रतिवेदन की अनुशंसाओं को भी कार्यान्वित किया जाना चाहिए।

Read More

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.