मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के मध्य टकराव के मूल कारण

प्रश्न: संविधान के लागू होने के पश्चात् से अनेक न्यायिक निर्णयों और संविधान संशोधनों ने मूल अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के मध्य के संतुलन को परिवर्तित कर दिया है। विश्लेषण कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के मध्य टकराव के मूल कारणों पर प्रकाश डालते हुए संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • अनेक न्यायिक निर्णयों और संविधान संशोधनों के कारण मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के मध्य परिवर्तित होते संबंधों पर चर्चा कीजिए।
  • दोनों के मध्य संतुलन की स्थापना को अंतिम स्थिति के रूप में संदर्भित करते हुए उत्तर समाप्त कीजिए।

उत्तर:

एक ओर मूल अधिकारों की प्रकृति प्रवर्तनीय होने तथा दूसरी ओर राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की प्रकृति गैर-प्रवर्तनीय होने के बावजूद इन्हें लागू करने हेतु राज्य की नैतिक बाध्यता, दोनों के मध्य संघर्ष/विवाद उत्पन्न करती है। संविधान लागू होने के समय से ही विभिन्न न्यायिक निर्णयों और संवैधानिक संशोधनों द्वारा मूल अधिकारों और निदेशक तत्वों के मध्य संबंधों की प्रकृति को परिवर्तित करने का प्रयास किया गया है:

  • मूल अधिकार सर्वोच्च किन्तु संशोधनीय: चम्पाकम दोराइराजन वाद (1952) मूल अधिकारों और DPSP के मध्य टकराव सम्बन्धी प्रथम वाद है। इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि दोनों के मध्य किसी भी प्रकार के टकराव/विवाद के मामले में मूल अधिकार प्रभावी रहेंगे। हालांकि, यह भी निर्धारित किया गया कि निदेशक तत्वों को लागू करने हेतु मूल अधिकारों को संसद द्वारा संवैधानिक संशोधन अधिनियमों के तहत संशोधित किया जा सकता है।
  • मूल अधिकार अलंघनीय: गोलकनाथ वाद (1967) में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद किसी भी मूल अधिकार (जिनकी प्रकृति अलंघनीय है) को समाप्त या सीमित नहीं कर सकती है। इसका अर्थ यह है कि निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
  • मूल अधिकार संशोधनीय और कुछ निदेशक तत्वों लागू करने वाले कानूनों को कुछ मूल अधिकारों पर वरीयता: गोलकनाथ वाद में निर्णय की प्रतिक्रिया स्वरूप, संसद द्वारा 24वां संशोधन (1971) और 25वां संशोधन (1971) लागू किया गया।
  1. 24वें संशोधन में यह स्पष्ट किया गया कि संसद को मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की शक्ति प्राप्त है।
  2. 25वें संशोधन के तहत एक नया अनुच्छेद 31C अंतःस्थापित किया गया, जो यह प्रावधान करता है कि अनुच्छेद 39(b) और 39(c) के तहत निदेशक तत्वों को लागू करने वाली किसी विधि को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि वह अनुच्छेद 14, 19 और 31 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है। साथ ही, यह प्रावधान भी किया गया कि इस प्रकार की विधि न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर होगी।
  3. केशवानंद भारती वाद (1973) में दो निदेशक तत्वों को कुछ मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान की गई। हालांकि निर्णय दिया गया कि न्यायिक समीक्षा को सीमित करना असंवैधानिक तथा मूल ढांचे का उल्लंघन है।
  • निदेशक तत्वों को वरीयता: 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत, संसद द्वारा अनुच्छेद 31C में संशोधन कर अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत प्रदत्त मूल अधिकारों पर संविधान के भाग IV में निहित सभी निदेशक तत्वों को वरीयता प्रदान कर दी गयी।
  • निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों के मध्य संतुलित संबंध: मिनर्वा मिल्स वाद (1980) में, उच्चतम न्यायालय ने सभी निदेशक तत्वों को सर्वोच्चता प्रदान किए जाने को असंवैधानिक और अवैध घोषित कर दिया तथा अनुच्छेद 31C को पुनः उसके मूल रूप में स्थापित कर दिया गया। यह निर्णय दिया गया कि भाग III और भाग IV के मध्य संतुलन भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की मूल भावना का निर्माण ये एक साथ मिलकर करते हैं।

इस प्रकार, वर्तमान स्थिति में निदेशक तत्वों की तुलना में मूल अधिकारों को वरीयता प्रदान की गई है। हालांकि, संसद निदेशक तत्वों को लागू करने के उद्देश्य से मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है, किन्तु इस संशोधन से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।

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