मुद्रा के मूल्यह्रास और अवमूल्यन के अर्थ की संक्षेप में चर्चा

प्रश्न: मुद्रा के मूल्यह्रास और अवमूल्यन के मध्य अंतर प्रकट करते हुए, स्पष्ट कीजिए कि ये किसी देश के विदेशी व्यापार को कैसे प्रभावित करते हैं।

दृष्टिकोण:

  • मुद्रा के मूल्यह्रास और अवमूल्यन के अर्थ की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • मुद्रा के मूल्यह्रास और अवमूल्यन के मध्य मुख्य अंतरों पर प्रकाश डालिए।
  • किसी देश के विदेशी व्यापार पर उनके प्रभाव की चर्चा कीजिए।

उत्तरः

मूल्यह्रास एवं अवमूल्यन, दोनों ही एक ऐसी आर्थिक स्थिति को प्रदर्शित करते हैं, जिसमें किसी अन्य मुद्रा की तुलना में घरेलू मुद्रा के मूल्य में कमी होती है जिसके परिणामस्वरूप उस मुद्रा की क्रय शक्ति में गिरावट आती है। हालांकि इनके घटित होने के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। मूल्यह्रास एवं अवमूल्यन के मध्य निम्नलिखित अंतर हैं:

  • मूल्यह्रास नम्य विनिमय दर (floating exchange rate) प्रणाली में घटित होता है, जिसमें बाजार कारकों के आधार पर देश की मुद्रा का मूल्य निर्धारित होता है। दूसरी ओर, अवमूल्यन स्थिर विनिमय दर (fixed/pegged exchange rate) प्रणाली के साथ संबद्ध है।
  • मांग एवं आपूर्ति जैसे बाजार कारकों के कारण घरेलू मुद्रा के मूल्य में कमी (मूल्यह्रास) होती है जबकि अवमूल्यन, केंद्रीय बैंक द्वारा जानबूझकर किसी अन्य मुद्रा के सापेक्ष घरेलू मुद्रा के मूल्य में की गई कमी को प्रदर्शित करता है। मूल्यह्रास दैनिक आधार पर हो सकता है, जबकि अवमूल्यन सामान्यतया केंद्रीय बैंक द्वारा समय-समय पर किया जाता है।

किसी देश के विदेशी व्यापार पर मूल्यह्रास और अवमूल्यन के प्रभाव:

  • व्यापार घाटे को कम करनाः मूल्यह्रास एवं अवमूल्यन दोनों के परिणामस्वरूप आयात महंगे हो जाते हैं। इसलिए नागरिकों द्वारा प्राय: आयातित वस्तुओं की कम खरीद की जाती है। दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय क्रेताओं के लिए निर्यात की जाने वाली वस्तुएं अपेक्षाकृत सस्ती हो जाती हैं, परिणामस्वरूप निर्यात की मांग में वृद्धि जाती है। इस प्रकार, आयात में कमी तथा निर्यात में वृद्धि के फलस्वरूप न केवल व्यापार घाटे में कमी लाई जा सकती है, बल्कि इससे अधिशेष का भी सृजन हो सकता है। हालांकि, व्यापार घाटे में आशानुरूप कमी नहीं हो सकती है और कुछ परिस्थितियों में इसमें वृद्धि भी हो सकती है, जैसे यदि ऐसी आवश्यक वस्तुओं का आयात किया जा रहा हो, जिन्हें घरेलू उत्पादों से प्रतिस्थापित करना कठिन हो।
  • विदेशी निवेश में कमीः मूल्यह्रास एवं अवमूल्यन, दोनों को ही आर्थिक कमजोरी के संकेतकों के रूप में देखा जाता है, जिसके कारण राष्ट्र की साख के समक्ष संकट उत्पन्न हो सकता है। यह देश की अर्थव्यवस्था के प्रति निवेशकों के विश्वास में कमी कर सकता है जिसके परिणामस्वरूप विदेशी निवेश में कमी हो सकती है। हालांकि, यदि घटते आयात एवं उच्च निर्यात मांग के कारण घरेलू उत्पादों की समग्र मांग में वृद्धि होती है तथा अर्थव्यवस्था में उच्च मुद्रास्फीति और इसके कारण उच्च ब्याज दर की स्थिति उत्पन्न होती है, तो इसके फलस्वरूप विदेशी निवेश में भी वृद्धि हो सकती है।
  • वैश्विक बाजारों में अस्थिरताः व्यापारिक भागीदारों के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है, क्योंकि यह उनके निर्यात उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। साथ ही, पड़ोसी देश अपने व्यापारिक साझेदार के अवमूल्यन के प्रभावों से बचने हेतु अपनी मुद्राओं का भी अवमूल्यन कर सकते हैं। इस प्रकार प्रतिस्पर्धी अवमूल्यन के कारण वैश्विक वित्तीय बाजारों में अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक कठिनाइयां और अधिक गहन हो जाती हैं।

एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में, अवमूल्यन का प्रयोग तर्कसंगत आधारों पर किया जाना चाहिए। जबकि मूल्यह्रास के नकारात्मक प्रभावों का समाधान निर्यात प्रतिस्पर्धा में सुधार करके, आपूर्ति श्रृंखला की दक्षता को बढ़ाकर तथा सरकार की अग्रसक्रिय नीतियों जैसे दीर्घकालिक उपायों पर ध्यान केंद्रित करके किया जा सकता है।

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