पश्चिम एशिया में अपने विस्तारित पड़ोस के साथ भारत की सहभागिता : ‘लुक वेस्ट’ दृष्टिकोण

प्रश्न: पश्चिम एशिया में अपने विस्तारित पड़ोस के साथ भारत की सहभागिता हाल के दिनों में ‘लुक वेस्ट’ दृष्टिकोण के रूप में विकसित हुई है। हालांकि इस अस्थिर क्षेत्र में उपस्थित कई फाल्टलाइंस भारत की ओर से एक संतुलनकारी कार्यवाही की मांग करते हैं। चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • विस्तारित पड़ोस से सम्बंधित भारत की विदेश नीति का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • बताइए कि किस प्रकार पश्चिम एशिया ने भारत के लिए महत्व प्राप्त किया है।
  • बताइए कि कई फाल्टलाइंस क्या हैं और इन्हें संतुलित करने की आवश्यकता क्यों है।

उत्तर

अपने विस्तारित पड़ोस से संबंधित भारत की विदेश नीति मुख्य रूप से अपने नागरिकों के लिए अवसरों को बढ़ाने और उनके लिए एक स्थायी एवं सुरक्षित परिवेश प्रदान करने के उद्देश्यों द्वारा निर्देशित होती है। पश्चिम एशिया, विशेष रूप से खाड़ी क्षेत्रों में अपने विस्तारित पड़ोस के साथ भारत की सहभागिता रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रही है क्योंकि

  • ऊर्जा सुरक्षा: यह क्षेत्र भारत के लिए ऊर्जा संसाधनों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। भारत अपने तेल और गैस की आपूर्ति का दो तिहाई से अधिक भाग इसी क्षेत्र से प्राप्त करता है।
  • निवेश: भारत अपने घरेलू आर्थिक रूपांतरण के लिए संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे समृद्ध राष्ट्रों से भी निवेश प्राप्त करना चाहता है।
  • डायस्पोरा: पश्चिम एशिया में लगभग 7 मिलियन भारतीय कार्य कर रहे हैं और केरल जैसे भारतीय राज्यों के लिए उनसे विप्रेषण प्राप्त करना महत्वपूर्ण है।
  • कनेक्टिविटी: भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया से जोड़ने के लिए ईरान भू-रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है।
  • समान सुरक्षा खतरे (Common security threats): इस्लामी चरमपंथ, आतंकवाद, समुद्री डकैती, मनी लॉन्ड्रिंग, अवैध हथियारों का व्यापार आदि।

पिछले कुछ वर्षों में, इस क्षेत्र के साथ भारत की सहभागिता, संभावनाओं और आयामों की दृष्टि से अधिक गहन और विस्तृत हो गई है। भारत ने द्विपक्षीय स्तर पर दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति के साथ ही सार्थक उच्च स्तरीय शिखर सम्मेलनों के माध्यम से ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, इराक आदि सभी प्रमुख क्षेत्रीय अभिकर्ताओं के साथ मधुर और प्रगतिशील संबंध बनाए हैं। इससे भारत का लुक वेस्ट दृष्टिकोण विकसित हुआ है। इसमें तीन महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं:

  • रणनीतिक साधन के रूप में डायस्पोरा का उपयोग करना।
  • सुरक्षा, रक्षा और आतंकवाद-रोधी उपायों को संस्थागत बनाना।
  • ईरान, सऊदी अरब और इज़राइल के साथ द्विपक्षीय संबंधों को आकार देना।

हालांकि, कई फाल्टलाइंस की उपस्थति के कारण इस क्षेत्र की अस्थिरता बढ़ गई है। इन फाल्टलाइंस के कारण निम्नलिखित हैं:

  • क्षेत्रीय प्रतिस्पर्द्धा,धार्मिक और सांप्रदायिक संघर्ष
  • अस्थिर शासन
  • गृह युद्ध और इस्लामिक स्टेट जैसे अभिकर्ताओं का उदय।

इसके अतिरिक्त, भारत को पश्चिम एशिया में विदेशी नीति सम्बन्धी कुछ विशिष्ट चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि:

  • पाकिस्तान और आतंकवाद- परंपरागत रूप से, पश्चिमी एशियाई राष्ट्रों ने पाकिस्तान का समर्थन किया है और आतंकवाद के खतरे के प्रति न्यूनतम चिंताओं को प्रदर्शित किया है।  पाकिस्तान के प्रति एक सशक्त आतंकवाद-रोधी नीति के लिए मजबूत अरब समर्थन की आवश्यकता है।
  • इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक संतुलन की बदलती स्थति- जैसे कि ईरान और अमेरिका के मध्य संबंधों में परिवर्तन, उदाहरणार्थ- संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा हाल ही में संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना (JCPoA) से अपना नाम वापस लेना।  
  • पश्चिम एशिया के देशों के सन्दर्भ में चीन की राजनयिक पहलें।
  • इज़राइल-फिलिस्तीन संबंध: भारत ने डीहाइफनेशन (De-hyphenation) की प्रक्रिया प्रारंभ की है। हालाँकि, इज़राइल के साथ भारत के संबंध और भी बेहतर होते जा रहे हैं परन्तु फिर भी इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य कई मुद्दों का समाधान न होना चिंतनीय है।

‘एक्ट ईस्ट’ के विपरीत, ‘एक्ट वेस्ट’ नीति भारत की अपनी है तथा इस क्षेत्र के प्रति हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त और व्यावहारिक होना चाहिए। भारत को मध्य पूर्व के साथ अपनी सहभागिता की गहनता को एक बदलते क्षेत्र और इसके अवसरों के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। इसलिए, पश्चिम एशिया के साथ भारत की सहभागिता के लिए आवश्यक है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए भारत पश्चिम एशिया के आंतरिक विरोधाभासों के मध्य अपनी विदेश नीति का सावधानीपूर्वक संचालन करे और साथ ही उनमें संतुलन साधने का भी प्रयत्न करे। इसके लिए, भारत को राजनीतिक रूप से निरंतर ध्यान देते रहना चाहिए और सर्वोच्च स्तर पर निर्धारित भारतीय आर्थिक और सुरक्षा प्रतिबद्धताओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करना चाहिए।

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