जनपद और महाजनपद

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:

  • छठी शताब्दी ईसा पूर्व के समाज तथा उससे पूर्व के समाज के अंतर को समझ सकेंगे।
  • छठी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान समाज में नये समूहों के उदय के संदर्भ में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
  • विभिन्न मुख्य जनपदों तथा महाजनपदों के विषय में जान सकेंगे।

आपने देखा होगा कि आपके आस-पास के लोग एक ही माषा बोलते हैं। यही नहीं, पूरा क्षेत्र एक ही प्रकार के त्योहार मनाता है तथा उनकी शादी-ब्याह की रीतियाँ भी एक जैसी होती है। उनके खान-पान की आदतें मी लगभग समान ही होती है। सांस्कृतिक एकरूपता रखने वाले क्षेत्र कैसे अस्तित्व में आए ? इस प्रक्रिया का आरंभ जनपदों के उदय से ही हो गया था। जनपदों के उदय के साथ ही भारतीय भूगोल का जन्म भी माना जा सकता है। आपको ध्यान होगा कि वैदिक समाज पर चर्चा करते हुए हमने विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों पर बहस नहीं की थी।

इसका कारण यह था कि लोग किसी विशेष क्षेत्र से जुड़े हुए नहीं थे। किसानों की। बस्तियां कायम होने के साथ बस्तियों के निवासी आस-पास के क्षेत्र से भावनात्मक रूप में जुड़ गए। उन्होंने इन क्षेत्रों की नदियों, पक्षियों एवं पशुओं तथा फलों को देखा। यही नहीं, इसी समय उन्होंने किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र को अपना मानना शुरू किया। यह भौगोलिक क्षेत्र अन्य समुदायों के क्षेत्रों (जनपदों) से पृथक थे जो कि इन क्षेत्रों से मित्रता अथवा शत्रुता का भाव रख सकते थे। आंतरिक रूप से संबद तथा बाह्य जगत से अलग होने की विशेषता वाले यह जनपद प्राचीन भारत के आरंभिक विकास का आधार बने। ये इकाइयां अथवा जनपद समान भाषा, रीति-रिवाज़ों एवं धारणाओं के विकास के केन्द्र बन गए।

वैदिक युग तथा छठी शताब्दी ईसा पूर्व

जनपदों के विषय में चर्चा करते समय हमें जनपदों के उदय से संबंधित अनेक वस्तुओं का उल्लेख करना होता है। चूंकि जनपद छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक अस्तित्व में आ चुके थे, अत: हम कह सकते हैं कि जिन क्षेत्रों में यह जनपद अस्तित्व में आए, वहां काफी बड़े परिवर्तन मूर्त रूप में प्रकट हुए। जिन क्षेत्रों में लोग जनपदों में रहते थे वहां गांव, कस्बे और शहर हुआ करते थे। आपको ध्यान होगा कि जब हमने आरंभिक वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल की चर्चा की थी तो हमने गांव कस्बे और शहर जैसी इकाइयों में लोगों के रहने का उल्लेख नहीं किया था, यद्यपि वे सामान्य बस्तियों में निवास करते थे। यही वह समय है, जबकि राजेरजवाड़े इतिहास में पर्दापण करते हैं।

इसी समय ही गहन दार्शनिक विचारों का उदय हुआ। बौद्ध मत, जैन मत और कई अन्य असनातनी सम्प्रदाय इसी समय उभरे। भिक्षु, रजवाड़े तथा व्यापारी इतिहास के पन्नों पर फैल गए। इस प्रकार, जिस युग (लगभग छठी शताब्दी ईसा । पूर्व से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) का हम अध्ययन करेंगे वह कई अर्थों में हमारे समक्ष भारतीय समाज में (उस युग के बाद जिसका हमने खंड 3 में अध्ययन किया) हुए निरंतर परिवर्तनों को प्रकाश में लाएगा।

जानकारी के स्रोत

हमें जनपदों और महाजनपदों के विषय में जानकारी कुछ वैदिक तथा बौद्ध साहित्य से प्राप्त होती है। ब्राह्मण स्रोत एक वैदिक ग्रंथ का उल्लेख करते हैं जिसमें वैदिक अनुष्ठान के तरीकों का उल्लेख है। इसी प्रकार दार्शनिक समस्याओं को रेखांकित करने वाले उपनिषदों को भी वैदिक साहित्य का अंग माना जाता है। यह ग्रंथ 800 ईसा पूर्व के बाद से लिखे जाते रहे हैं। इनमें कई जनपदों और महाजनपदों का उल्लेख है जिससे हमें खेतिहर समुदायों की बस्तियों के विषय में विविध जानकारी प्राप्त होती है। इस युग के विषय में जानकारी का एक अन्य स्रोत बौदों द्वारा रचित साहित्य है। संघ के नियमों को रेखांकित करने वाली विनय पिटक, बुद्ध के उपदेशों का संग्रह सुत पिटक तथा अलौकिक समस्याओं का उल्लेख करने वाली अभिधम्म पिटक हमें इस युग के उपदेशक राजकुमारों, धनी एवं निर्धनों तथा गांवों एवं कस्बों के विषय में जानकारी देते हैं।

बुद्ध के पूर्व जन्मों के विषय में बताने वाली जातक कथाएं सुत्त पिटक का अंग है। वे हमें उस समय के समाज की स्पष्ट जानकारी देते हैं।

इन ग्रंथों में विभिन्न क्षेत्रों तथा भौगोलिक विभाजनों के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इस युग के प्रति हमारी जानकारी में पुरातत्वशास्त्री भी काफी योगदान करते हैं। उन्होंने अहिक्षेत्र, हस्तिनापुर, कोशाम्बी, उज्जैन, श्रावस्ती, वैशाली तथा अन्य कई स्थलों की खुदाई की है जिनका इन ग्रंथों में उल्लेख है। उन्होंने यहां के लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं, घरों, इमारतों, कस्बों आदि के अवशेष प्राप्त किए हैं।

उदाहरण के लिए इस युग की पुरातात्विक उपलब्धियों से पता चलता है कि इस युग के लोग उत्तरी काले पालिश किए मृदभांड कहे जाने वाले उत्कृष्ट बर्तनों का उपयोग करते थे, जिसका उल्लेख खंड 3 में किया जा चुका है। पूर्वकालीन बस्तियों में लोग या तो लोहे के इस्तेमाल से अनभिज्ञ थे अथवा इसे विशेष अवसरों पर ही इस्तेमाल करते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में लोगों ने लोहे का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर करना आरंभ किया। सम्पन्न खेतिहर बस्तियां और कस्बे भी खुदाई के दौरान पाए गए हैं। इस प्रकार पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोतों की मिली-जुली जानकारी से हमें छठी शताब्दी ई. पू. तथा बौधी शताब्दी ई. पू. के बीच के भारतीय समाज की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है।

जनपद

समकालीन ग्रंथों से सटर स्थित भौगोलिक क्षेत्रों में समाज तथा अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों की ओर संकेत मिलता है। इस समय के साहित्य में बस्तियों की विभिन्न इकाइयों का उल्लेख मिलता है। इनमें महाजनपद जनपद, नगर, निगम, ग्राम आदि मुख्य हैं। आइए, हम पहले जनपदों के विषय में जानकारी प्राप्त करें।

जनपद, जिसका शालिक अनः है “जहां लोग अपने पैर रखते हैं” इस युग के ग्रंथों में अक्सर उल्लेखित है: आपको जन का अर्थ याद होगा। वैदिक समाज में इसका अर्थ होता था “एक कुल के सदस्य अरंभिक वैदिक समाज में जन के सदस्य पशु-पालक समूह होते थे जोकि चारागाहों की विनम्रण लिया करते थे। लेकिन उत्तरकालीन वैदिकचरण में जन सदस्यों ने खेती करमा आरंभ किया और स्थायी रूप से बसने लगे। यह खेतिहर बस्तियां जनपद कहलाती थी बारंभिक नरणों में इन रास्नियों का न प क्षेत्रों में बसे प्रभुत्ववान क्षत्रिय वंशों के नाम पर रखा जाता था? उदाहरा के लिए दिल्ली एवं ऊपरी उत्तर प्रदेश कुरू एवं पांचाल जनपद कहे जाते थे, जो प्रभुत्ववान क्षत्रिय वंशों के नाम थे।

उनके एक स्थान पर बस जाने पर खेती का विस्तार विशेषकर लोहे की कुल्हाड़ियों एवं हल के फलों के इस्तेमाल द्वारा, आरंभ हो जाता था। इन लोहे के औजारों से पूर्व-शताब्दियों के किसानों के ताम्र एवं पत्थर की कुल्हाड़ियों की अपेक्षा अधिक सुविधा से उंगलों की सफाई की जा सकती थी तथा खुदाई अधिक गहरी हो सकती थी। मध्य गांगेय घाटी जोकि इलाहाबाद के पूर्व की ओर का क्षेत्र है, धान की फसल के लिए उपयुक्त र्थः। धान की प्रति एकड़ की उपज की दर गेहूं की तुलना में कहीं अधिक है।

इसके कारण धीरे-धीरे खेती एवं जनसंख्या में बढ़ोत्तरी अवश्यंभावी थी। वंशों के मुखियाओं के पास एक-दूसरे से युद्ध के दौरान सुरक्षा तथा लूट-णट के लिए काफी कुछ था। अब पशु धन के अतिरिक्त खेतिहर उत्पादन भारी मात्रा में मौजूद था। बलि समारोहों को भव्य रूप देने के उद्देश्य से भी तट-खसोट की उनकी इच्छाएं तीव्र होने लगी थी। कृषि विस्तार, युद्ध तथा विजनों की प्रक्रिया में वैदिक जनजातियां एक दूसरे के तथा अनार्य जनसंख्या के सम्पर्क में आई। इसके कारण विस्तृत क्षेत्रीय इकाइयों का गठन आरंभ हो गया। उदाहरण के लिए पांचाल पांच छोटी-छोटी जनजातियों के विलय का प्रतिनिधित्व करते थे। कुछ जनपद छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक आते-आते महाजनपदों के रूप में विकसित हो गए। यह जनपदों की आररिक सामाजिक-राजनैतिक संरचना में होने वाले निरंतर परिवर्तनों का परिणाम था। इनमें से एक मुख्य परिवर्तन खेतिहर समुदायों का फैलाव था। इसकी जानकारी इस तथ्य से प्राप्त होती है कि समकालीन ग्रंथों में खेतिहर ज़मीन को महत्वपूर्ण सम्पत्ति बताया गया है। इन ग्रंथों में चावलों की किस्मों पर उतने ही विस्तार से व्याख्या की गई है, जितने विस्तार से वैदिक ग्रंथों में गाय की किस्मों पर की गई है। आइए अब हम इन परिवर्तनों की ओर दृष्टिपात करें।

नए समूहों का उदय

एक अत्यंत महत्वार्ण परिवर्तन समाज में नई श्रेणियों एवं समूहों का उदय था। आइए इसे विस्तार से देखें।

गहपति

‘गहपति भूसम्पन्न परिवारिक इकाई का मालिक होता था। कहा जाता है कि एक बाल्यण गहपति के पास इतनी जमीन थी कि उसे जमीन की जुताई के लिए पांच सौ हलों की आवश्यकता होती थी। उत्तर वैदिक समाज में “विस’ खेतिहर गतिविधियां सम्पन्न करता था। भूमि कुल की सामूहिक मपनि तोकी रमाज के उदः  का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई। क्षत्रिय एवं ब्राह्मणों के शासक कुलों ने इसे अपने नियंत्रण में कर लिया। इन समूहों से गहपति का उदय हुआ जो कि सामूहिक मिलकियत के बिखराव और बड़े व्यक्तिगत भूस्वामी के उदय का प्रतीक था। गहपति अपनी ज़मीन पर फसल उगाने का काम दास, कर्मकार तथा शुद्रों द्वारा करवाते थे।

युद्ध के दौरान बंदी बनाए गए लोग दास बना लिए जाते थे। जनजातियों के गरीब सदस्य भी मज़दूर (कर्मकार) बन जाते थे। आश्रित मज़दूरों का प्रयोग एक ऐसे वंचित वर्ग के उदय का सूचक था जिसका श्रम अतिरिक्त खाद्य उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता था। खेतिहर उत्पादन शूद्र अथवा दास को न मिलकर गहपति को मिलता था।

व्यापारी

एक महत्वपूर्ण व्यापारी वर्ग का उदय संभवत: गहपति वर्ग से ही हुआ। उत्पादनों को बेचकर इन्होंने कुछ धन इकट्ठा कर लिया, जिसे व्यापार के लिए इस्तेमाल किया गया। बौद्ध स्रोतों में व्यापारियों के लिए एक शब्द, जिसका बार-बार प्रयोग किया गया है, वह “सेठी” है जिसका अर्थ “जिसके पास सर्वोत्तम हो” है। इससे यह सिद्ध होता है कि धन का लेन-देन करने वाले व्यक्तियों को समाज में काफी प्रतिष्ठा एवं शक्ति प्राप्त हो गई थी। ब्राह्मणों के ग्रंथों में सामान्यत: व्यापारियों एवं वैश्यों, जोकि व्यापारी वर्ग था, को उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया है। छठी शताब्दी तक व्यापार एवं वाणिज्य आर्थिक गतिविधियों का एक स्वतंत्र क्षेत्र बन चुका था।

व्यापारी शहरों में रहते थे। इनके उदय को इस काल में कस्बों एवं शहरों के उदय से जोड़ा जा सकता है। यह व्यापारी काफी विस्तृत क्षेत्र में अपना व्यापार फैलाए हुए थे। विभिन्न प्रदेशों में व्यापार फैलाकर इन्होंने यह संभावना तैयार कर दी, कि राजा व्यापारियों द्वारा घूमे गए क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास करें। इस प्रकार छठी शताब्दी तक किसानों एवं व्यापारियों का एक मुक्त वर्ग अस्तित्व में आ गया था। इन्होंने पूर्व स्थिति के विपरीत, स्वयं को कुल के अन्य सदस्यों के साथ अधिशेष खाद्य अथवा धन बांटे जाने की बाध्यता से मुक्त कर लिया। इस काल में खेती में प्रयुक्त होने वाले मवेशियों, भूमि तथा उसके उत्पादन के रूप में निजी सम्पत्ति एक शक्तिशाली आर्थिक वास्तविकता बन गई।

शासक एवं शासित

सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में विकास के साथ-साथ महाजनपदों के राजनैतिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुए। पूर्व काल में राजा शब्द का प्रयोग कुल के मुखिया के लिए होता था। उदाहरण के लिए, राम जिनकी किवदंतियां इस युग से जोड़ी जाती हैं, बहुधा रघुकुल के राजा कहे जाते हैं जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जो रघु कुल अथवा वंश पर शासन करता हो। इसी प्रकार, युधिष्ठिर कुरू राजा कहे जाते हैं। वे अपने वंशों पर शासन करते थे, किन्तु किसी क्षेत्र पर शासन की संकल्पना अभी तक नहीं उभरी थी।

जातियों अथवा नातेदारों से कर वसूली सामान्यत: स्वैच्छिक आधार पर सम्पन्न होती थी। राजा एक उदार पिता-तुल्य व्यक्ति समझा जाता था, जिसका कर्तव्य वंश की सम्पन्नता सुनिश्चित करना था। उसके पास स्वतंत्र कर वसूली की व्यवस्था अथवा सेना नहीं होती थी। इसके विपरीत, छठी शताब्दी ईसा पूर्व के स्रोतों में राजाओं का उल्लेख राजा के विशिष्ट क्षेत्र में शासन करने, नियमित कर वसूली की। व्यवस्था तथा सेना होने के साथ होता है। किसानों (कृसक) जो राजा को कर देते थे तथा एक सेना का उल्लेख भी मिलता है। अब किसान तथा सेना किसी भी रूप में राजा के संगोत्र नहीं होते थे। अब राजा तथा प्रजा के बीच भिन्नता स्पष्ट हो चुकी थी।

प्रजा में गैर-वंशी समूह भी होते थे। सेना के मौजूद होने का अर्थ स्थानीय किसानों पर बलपूर्वक नियंत्रण तथा पड़ोसी राजाओं एवं जनता से निरंतर झगड़े होते रहना था। पूर्वकालीन मवेशियों के लिए छापामारी के स्थान पर अब संगठित धावे बोलकर क्षेत्रों को हड़प लेना तथा किसानों एवं व्यापारियों से बलपूर्वक कर वसूल करना आरंभ हो चुका था। कर वसूली के लिए नियुक्त कर्मचारियों का उल्लेख बार-बार मिलता है। खेतिहर उत्पादन से भाग वसूली के लिए भगदुध नाम से एक कर्मचारी होता था। खेतिहर भूमि के सर्वेक्षण के लिए राजुगाहक नाम से एक अन्य कर्मचारी होने का उल्लेख मिलता है। जातकों में राजा के अनाज गोदाम में भेजने के लिए राजकर्मियों द्वारा अनाज तोलने का उल्लेख मौजूद है। अधिकतर स्थानों पर महाजनपदों का नामकरण क्षत्रिय कुल के नाम के आधार पर नहीं होता था। उदाहरण के लिए कौशल, मगध, आवती तथा वत्स किसी क्षत्रिय वंश के नाम पर आधारित नहीं हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक एक नए प्रकार की राजनैतिक व्यवस्था पनप चुकी थी। पहले जनजाति का मुखिया शत्रु क्षेत्रों पर आक्रमण करके लूट का माल अपने साथियों में बांट लेता था, लेकिन अब इसके स्थान पर एक राजा आसीन था जिसके पास जाति स्वामिभक्ति से अप्रभावित एक सेना थी। सेना को वेतन किसानों से वसूले गए राजस्व द्वारा दिया जाता था।

वैदिक मुखियाओं की गौरव एवं बलिदान की इच्छा ने उन्हें वंश परम्परा से काट दिया। जनजातियां सुदूर क्षेत्र में युद्ध नहीं कर सकती थी तथा सेना की आवश्यकता हेतु नियमित कर देना उनके लिए मान्य न होता। राजा के लिए गौरव तथा शक्ति की दृष्टि से यह सब कुछ आवश्यक था। राजा की शक्ति जनजाति के अपने साथियों के बीच घन के बटवारे पर आधारित नहीं थी। अब राजा की शक्ति संबद्ध वंश समूहों को तोड़ने तथा धनोत्पादन में सक्षम व्यक्तियों एवं समूहों को मान्यता देने पर आधारित थी।

इस धन का कुछ हिस्सा कर स्वरूप उत्पादनकर्ता से ले लिया जाता था। वंश आधारित समाज में, जहां कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का सम्बन्धी समझा जाता था, इस प्रकार मुखिया द्वारा मनमाने ढंग से धन ले लेना स्वीकार न किया जाता। मुखिया के स्थान पर आसीन राजा किसानों एवं व्यापारियों से कर वसूल करता था तथा उन्हें आंतरिक एवं बाहय हमलों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता था।

महाजनपद

नई राजनैतिक-भौगोलिक इकाइयां, जिनमें गहपति, व्यापारी तथा शासक एवं शासित के बीच संबंध के नए प्रतिमान दिखाई पड़े, महाजनपद कहलाए। महाजनपद का तात्पर्य मगध, कौशल आदि ऐसे विशाल जनपदों से था जिनपर शक्तिशाली राजा अथवा अभिजात वर्ग राज करते थे। दरअसल छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कई महाजनपद पूर्व काल में स्वायत्त जनपदों को मिलाकर बने। उदाहरण के लिए कौशल महाजनपद में साक्य, काशी तथा मगध महाजनपद में इसके साम्राज्य बनने से भी पहले अंग, वाजी आदि जनपद शामिल हो चुके थे। समकालीन बौद्ध ग्रंथों में नए समाज का प्रतिबिंबन जीवक कथाओं में देखा जा सकता है। इतिहासकार इन कथाओं को उस युग के मानवों की आशाओं, अभिलाषाओं, संघर्षों तथा सामाजिक माहौल को समझने के लिए पढ़ते हैं।

जीवक की कथा

प्रसिद्ध वैध जीवक की कथा हमें बुद्ध के समय से प्राप्त होती है। राजगृह (पटना के निकट राजगीर) शहर में अभय नामक राजकुमार रहता था। उसने सड़क पर एक परित्यक्त शिशु देखा। वह उसे घर ले आया और दाई को बच्चे की देखभाल करने का आदेश दिया। बच्चे का नाम जीवक पड़ा।

जब जीवक बड़ा हुआ तो उसने सोचा कि जीविका के लिए उसे क्या करना चाहिए। उसने वैद्य बनने का निर्णय लिया। उन दिनों तक्षशिला शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र हुआ करता था। जीवक ने आयुर्वेद सीखने के लिए वहां जाने का निर्णय लिया।

जीवक तक्षशिला में सात वर्षों तक रहा। वहां उसने प्रसिद्ध आयुर्वेदविद् की देख-रेख में गहन अध्ययन किया। शिक्षा के अन्त में उसके गुरु ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। उसने जीवक से कहा कि वह तक्षशिला के चारों ओर घूमकर कुछ ऐसी जड़ी-बूटियां लाए जोकि दवाओं के किसी काम की न हो। जीवक ने जाकर बड़ी सावधानी-पूर्वक ऐसी जड़ी-बूटियां ढूंढनी शुरू की, जोकि दवाओं की दृष्टि से बेकार हो। उसके वापस आने पर उसके गुरु ने उससे पूछा, “तुम्हें कितनी जड़ी-बूटियां मिली ?” जीवक ने कहा “श्रीमान मुझे एक भी ऐसी जड़ी-बूटी नहीं मिली जो किसी औषधि के काम न आ सके।” गुरु अति प्रसन्न हुए और कहा कि उसकी शिक्षा अब पूरी हो गई।

जीवक राजगृह की ओर चल पड़ा। अभी वह आधे रास्ते तक ही पहुंचा था कि उसका सारा धन समाप्त हो गया। वह काम खोजने में लग गया। उसे पता चला कि एक धनी व्यापारी की पत्नी काफी बीमार है। जीवक ने उसे ठीक कर दिया। व्यापारी ने जीवक को काफी सारा धन दिया। इस प्रकार जीवक राजगृह पहुंचा। राजगृह में राजा बिम्बसार का निजी वैद्य बन गया। बिम्बसार जीवक की विद्या से इतना प्रभावित हुआ कि वह जीवक को बुद्ध के इलाज के लिए भेजने लगा। इस प्रकार जीवक बुद्ध के संपर्क में आया। उसने बौद्ध भिक्षुओं को काफी भेट दी।

अब आप इस कथा-सार की आरंभिक वैदिक समाज के घटनाक्रम से तुलना कीजिए। मवेशी पालने, बलि चढ़ाने तथा पुरोहितों का कहीं उल्लेख नहीं है। कहानी विकसित शहरी बस्तियों की ओर संकेत करती है तथा कथा के मुख्य पात्र हैं एक बच्चा जोकि वैद्य बनना पसंद करता है, व्यापारी (श्रष्ठिन), एक राजा (बिम्बसार) तथा नए दर्शन का प्रवक्ता बुद्ध। आप भौगोलिक क्षेत्र पर दृष्टि डाले तो पाएंगे कि आरंभिक वैदिक आर्य चारागाहों की तलाश में पंजाब के मैदानों में भटक रहे थे। जीवक बिहार से लेकर उत्तर-पश्चिमी पंजाब की सीमा तक यात्रा करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आयुर्वेद विद्या सीखने के लिए उसने दो हज़ार किलोमीटर से अधिक रास्ता तय किया। नई बस्तियां, नए व्यवसाय तथा नए मार्ग परिवर्तित ऐतिहासिक परिस्थिति के प्रतिमान हैं।

जीवक बस्तियों की एक नई व्यवस्था, शहर में रहा। शहर सम्पन्न गांवों के आधार पर उदित हुए। गांव महाजनपदों के सामाजिक-राजनैतिक संगठन की मूल इकाई थे। अत: आइए अब हम छठी शताब्दी ईसा पूर्व के गांवों पर एक दृष्टि डालें।

गांव

महाजनपदों में मूल बस्तियों की इकाइयां गांव थी (जोकि पाली एवं प्राकृत में संस्कृति के ग्राम शब्द का समानार्थी है और इसका अर्थ भी गांव है)। आपको आरंभिक वैदिक युग के ग्राम याद होंगे। यह ग्राम लोगों की चलती-फिरती इकाइयां होती थी और जब दो गांव आस-पास पहुंच जाते थे तो संग्राम (जिसका शाब्दिक अर्थ गांवों का एक दूसरे के पास आना है) अथवा युद्ध होता था। चलती-फिरती इकाइयां होने के कारण जब दो शत्रुता रखने वाले ग्राम मिलते थे तो एक-दूसरे के मवेशी छीनने के प्रयास करते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के गांव ऐसी मानवीय बस्तियां थी, जहां के लोग खेती करते थे। (यह पशुपालन से खेतिहर समुदाय में परिवर्तन की ओर संकेत करता है) गांव छोटे और बड़े, दोनों ही प्रकार के होते थे जहां एक परिवार भी बस सकता था और कई परिवार एक साथ भी।

ऐसा प्रतीत होता है कि परिवार एक ही गोत्र से जुड़े होते थे और सारा गांव एक-दूसरे से नातेदारी से जुड़ा होता था। किन्तु बड़े पैमाने पर ज़मीन रखने वाले परिवारों के उदय तथा उनके दास, कर्मकार तथा पोरिस रखने के साथ ही गैर-सगोत्री गांव अस्तित्व में आए। भूस्वामित्व एवं विभिन्न प्रकार के काश्तकारी अधिकार के भी उल्लेख मिलते हैं। कसक तथा क्षेत्रिका शब्दों का प्रयोग शूद्र जाति के आम किसानों के लिए होता था। ग्राम नेता गामिणी कहे जाते थे। सिपाहियों, हाथियों तथा अश्व प्रशिक्षकों एवं मंच प्रबंधकों को भी गामिणी कहा जाता था। शिल्प में विशेषज्ञता में वृद्धि के प्रमाण गांव के पशु-पालकों, लोहारों तथा लकड़हारों के उल्लेखों से प्राप्त होते हैं।

कृषि के अतिरिक्त अन्य कलाओं में गांवों द्वारा विशिष्ट कौशल प्राप्त करना बढ़ते हुए व्यापार तथा सम्पन्न अर्थव्यवस्था का सूचक है। इसका कारण यह है कि जो ग्रामीण स्वयं अन्न नहीं उगाते थे, वे अन्य ग्रामीणों से अन्न प्राप्त करते रहे होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि वस्तुओं का परस्पर विनिमय जन-साधारण के आर्थिक जीवन का अभिन्न अंग बन चुका था। कलाओं में उनकी विशिष्ट दक्षता से भी इस दिशा में संकेत मिलता है कि उन शिल्पकारों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की काफी मांग रही होगी।

कस्बे और शहर

इस काल में नई प्रकार की बस्तियों के रूप में राजाओं तथा व्यापारियों द्वारा नियंत्रित किन्तु विजातीय जनसंख्या वाले कस्बों एवं शहरों का उदय हुआ। यह इकाइयां पुर, निगम तथा नगर के रूप में अलग-अलग प्रकार से उल्लेखित की जाती रही हैं। इन बस्तियों के बीच अंतर स्पष्ट नहीं है। यह कस्बे और शहर गांवों की अपेक्षा काफी बड़े हुआ करते थे। समकालीन साहित्य में अयोध्या तथा वाराणसी जैसे शहरों का उल्लेख मिलता है, जिनका क्षेत्रफल तीस वर्ग किलोमीटर से पचास वर्ग किलोमीटर के बीच बताया गया है। यह तथ्य बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं क्योंकि इन शहरों की खुदाई से इस काल में साधारण बस्तियां होने की जानकारी मिलती है।

किसी भी काल में यह क्षेत्रफल पांच वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं था। इतिहास के इस चरण का उत्तर काले पॉलिश किए मृभांड (NBPW) जैसे उत्कृष्ट बर्तनों का इस्तेमाल करने वाली इन बस्तियों से है। इन बस्तियों में व्यापार तथा जनसंख्या में निरंतर वृद्धि होती रही। कोशाम्बी, उज्जैनी, राजघाट (वाराणसी) तथा राजगीर शहरों के चारों ओर सख्त किलेबंदी के प्रमाण मिले हैं। साहित्य में मिले उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शहरों का उदय शक्ति के केन्द्र तथा महाजनपद पर नियंत्रण के रूप में परिलक्षित हुआ। राजा शहरों से शासन करते थे। नवोदित व्यापारी वर्ग, विशेषकर सिक्के का प्रयोग आरंभ होने के बाद इन्हीं केन्द्रों में रहकर व्यापार नियंत्रित करते थे।

सोलह महाजनपद

पिछले उप-माग में हमने छठी शताब्दी में विद्यमान बस्तियों की मूल इकाइयों के साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाणों पर चर्चा की। अब हम प्राचीन साहित्य में सोलह महाजनपदों के उल्लेखों की चर्चा करेंगे। बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध के समय में सोलह महाजनपदों के मौजूद होने के उल्लेख मिलते हैं। बौद ग्रंथों में जहां भी बुद्ध का उल्लेख आता है वहां बार-बार इन महाजनपदों की मुख्य बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है। इतिहासकारों में बुद्ध के जीवन-काल की तिथियों के प्रति अभी भी मतभेद हैं। तथापि, यह माना जाता है कि बुद्ध छठी तथा पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व की दोनों शताब्दियों के कुछ भाग में जीवित थे।

इसीलिए बौद ग्रंथों में बुद के जीवनकाल के उल्लेखों को इस युग के समाज के प्रतिबिंबन के उद्देश्य से देखा जाता है। इन उल्लेखों से हमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों की राजनैतिक एवं आर्थिक दशा पर काफी जानकारी प्राप्त होती है। यह महाजनपद हज़ारों गांव और कुछ शहरों के विलय का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सोलह महाजनपद उत्तरी-पश्चिमी पाकिस्तान से लेकर पूर्वी बिहार तक तथा हिमालय के तराई क्षेत्रों से दक्षिण में गोदावरी नदी तक फैले हुए थे।

बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय जोकि सुत्त पिटक का एक भाग है, बुद्ध के समय निम्नलिखित महाजनपद होने का उल्लेख करता है:

एक अन्य बौद्ध स्रोत, महावस्तु में सोलह महाजनपदों की ऐसी ही सूची मिलती है। लेकिन इसमें गांधार तथा कंबोज, जोकि उत्तर-पूर्व में स्थित थे, का नाम नहीं है। इनके स्थान पर पंजाब में सिबी तथा मध्य भारत में दर्शन के नाम जोड़े गए हैं। इसी प्रकार जैन ग्रंथ भगवती सूत्र सोलह महाजनपदों की भिन्न सूची का उल्लेख करता है जिसमें वंग तथा मलय शामिल हैं। सोलह की संख्या पारंपरिक प्रतीत होती है तथा सूची में भिन्नता का कारण यह है कि बौद और जैनों ने अपने-अपने महत्व के क्षेत्रों को सूची में शामिल किया होगा।

सूचियों से पता चलता है कि मध्य गांगेय घाटी धीरे-धीरे केन्द्रीयता प्राप्त कर रही थी क्योंकि अधिकतर महाजनपद इन्हीं क्षेत्रों में स्थित थे। आइए इन महाजनपदों के इतिहास एवं भूगोल पर एक दृष्टि डालें।

काशी

सोलह महाजनपदों में से काशी आरंभ में सबसे शक्तिशाली महाजनपद प्रतीत होता है। आज के वाराणसी जिले में तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में स्थित इस महाजनपद की राजधानी वाराणसी को. जो गंगा तथा गोमती के संगम पर स्थित है. भारत का सबसे मुख्य शहर महाजनपद बताया गया है। यहां की भूमि अत्यधिक उपजाऊ थी। काशी सूती कपड़ों तथा घोडो’ के माज़ार के लिए विख्यात था। बनारस के रूप में पहचाने गए राजघाट स्थान की खुदाई में छठी शताब्दी ईसा पूर्व में शहरीकरण के कोई प्रभावपूर्ण प्रमाण नहीं मिले हैं। एक मुख्य नगर के रूप में इसका उदय 450 ईसा पूर्व के आस-पास हुआ होगा। फिर भी बौद्ध भिक्षुओं के गेरूए वस्त्र जिन्हें संस्कृतं में काशय कहा जाता था, काशी में बनाए जाते थे। इससे बुद्ध के समय में काशी के कपड़ा उत्पादक केन्द्र और बाज़ार के रूप में उदित होने का संकेत मिलता है। काशी के कई राजाओं द्वारा कौशल एवं अन्य राज्यों पर विजय प्राप्त करने के उल्लेख मिलते हैं। रुचिकर प्रसंग यह है कि राम की कहानी का प्रचीनतम वृतांत “दशरथ जातक” दशरथ, राम आदि को अयोध्या के बजाए काशी का राजा उल्लिखित करता है। जैन सम्प्रदाय के तेइसवें गुरु पार्श्व के पिता (तीर्थकर) को बनारस का राजा बताया गया है। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश बनारस के निकट सारनाथ में दिया। इस प्रकार, प्राचीन भारत के तीनों मुख्य धर्म अपना सम्बन्ध बनारस से जोड़ते हैं। लेकिन बुद्ध के काल तक कोशल ने काशी महाजनपद पर कब्जा कर लिया था और काशी मगध एवं कोशल के बीच युद्ध का कारण बना हुआ था।

कोशल

कोशल महाजनपद पश्चिम में गोमती से घिरा हुआ था। इसके पूर्व में सदानिरा नदी बहती थी, जो इसे विदेह जनपद से अलग करती थी। इसके उत्तर में नेपाल की पहाड़ियां तथा दक्षिण में स्यानदिका नदी बहती थी। साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि कोशल का उदय कई छोटी-छोटी इकाइयों एवं वंशों के सामंजस्य से हुआ। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि कपिलवस्तु के शाक्य कौशल के नियंत्रण में थे। महिझम निकाय में बुद्ध स्वयं को कोशल का निवासी बताते हैं। इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि कोशल के राजा विदुधान ने साक्यों को नष्ट कर दिया था। जिसका अर्थ यह हुआ कि साक्य वंश कोशल के नाममात्र नियंत्रण में था। नवोदित राजतंत्र ने केन्द्रीकृत नियंत्रण स्थापित करके साक्यों की स्वायत्तता नष्ट कर दी थी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध के शासकों में जिन राजाओं का उल्लेख है वे हिरण्यनाभ, महाकोशल, प्रसेनजित तथा सुदोदन है। इन राजाओं के बारे में अयोध्या, साकेत, कपिलवस्तु अथवा श्रावस्ती से शासन करने का अनुमान है।

संभवत: छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आरंभ में कोशल का नियंत्रण कई छोटे-छोटे कबीलायी सरदारों के हाथ में था जो छोटे-छोटे कस्बों में शासन करते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अंतिम वर्षों में प्रसेनजित तथा विधान जैसे राजाओं ने सभी अन्य कबीलाई सरदारों को अपने नियंत्रण में कर लिया। वे श्रावस्ती से शासन करते थे। इस प्रकार तीन बड़े शहरों — अयोध्या, साकेत तथा श्रावस्ती – को अपने नियंत्रण में लेकर कोशल एक सम्पन्न राज्य हो गया। कोशल ने काशी तथा उसके क्षेत्र पर भी कब्जा कर लिया। कोशल के राजा ब्राह्मणवाद तथा बौद्ध मत, दोनों को प्रोत्साहन देते थे। राजा प्रसेनजित बुद्ध का समकालीन तथा मित्र था। परवर्ती चरण में कोशल उदीयमान मगध साम्राज्य का सबसे कट्टर शत्रु बन गया। 

अंग

अंग में दक्षिण बिहार के भागलपुर तथा मुंगेर जिले शामिल थे। संभव है कि इसका विस्तार उत्तर की ओर कोसी नदी तक हुआ हो और इसमें पुर्णिया जिले के कुछ भाग भी जुड़ गए हों। यह मगध के पूर्व तथा राजमहल पहाड़ियों के पश्चिम में स्थित था। अंग की राजधानी चम्पा थी। यह गंगा तथा चम्पा नदी के संगम पर स्थित थी। चम्पा छठी शताब्दी ईसा पूर्व के छ: महान नगरों में से एक था। यह अपने व्यापार एवं वाणिज्य के लिए विख्यात था तथा व्यापारी यहां से सुदूर पूर्व गंगा पार करके जाते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में अंग को मगध ने हड़प लिया। भागलपुर के निकट चम्पा में खुदाई के दौरान उत्तरी काले पॉलिश (NBPW) किए मृदभांड भारी मात्रा में मिले हैं।

मगध

मगध दक्षिणी बिहार में पटना तथा गया के निकटवर्ती क्षेत्रों में स्थित था। इसके उत्तर तथा पश्चिम में क्रमश : सोन तथा गंगा नदियां थीं। पूर्व में यह छोटा नागपुर के पठार तक फैला हुआ था। इसके पूर्व की ओर चम्पा नदी बहती थी, जो इसे अंग से अलग करती थी। इसकी राजधानी गिरिव्रज अथवा राजगृह कहलाती थी। राजगृह पांच पहाड़ियों से घिरा अभेद्य शहर था। राजगृह की दीवारें भारत के इतिहास में किलेबंदी का प्राचीनतम उदाहरण है। पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास राजधानी पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दी गई। इन पर आरंभिक मगध राजाओं की शक्ति की छाप है। ब्राह्मणीय ग्रंथों में मगध की जनता को मिश्रित तथा हीन श्रेणी का बताया गया है। इसका कारण संभवत: यह है कि पूर्व ऐतिहासिक युग में यहां के ।

निवासी वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणीय अनुष्ठान के अनुयायी नहीं थे। इसके विपरीत, इस क्षेत्र में बौद्ध मत का काफी महत्व था। बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति इसी क्षेत्र में हुई। राजगृह बुद्ध के प्रिय पड़ाव स्थलों में से एक था। मगध के राजा बिम्बिसार तथा अजातशत्रु उनके मित्र तथा शिष्य थे। तराई चावल की खेती के लिए उपयुक्त उपजाऊ खेतिहर ज़मीन, दक्षिणी बिहार में कच्चे लोहे के भंडारों पर नियंत्रण तथा अपेक्षाकृत खुली सामाजिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में मगध उत्तरकालीन इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण राज्य के रूप में प्रकट होता है।

गंगा, गंडक तथा सोन नदी के व्यापार मार्गों पर इसके नियंत्रण के कारण इसे काफी राजस्व प्राप्त हो जाता था। कहा जाता है कि मगध के राजा बिम्बिसार ने 80,000 गांवों के गामिनियों की एक सभा बुलाई थी। हो सकता है कि संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हो, लेकिन इससे यह पता लगता है कि बिम्बिसार के प्रशासन में गांव संगठन की इकाई के रूप में उभर आए थे। गामिनी उसके नातेदार नहीं बल्कि गांवों के मुखिया तथा प्रतिनिधि थे। इस प्रकार उसकी शक्ति उसके संबंधियों की कृपा पर आधारित नहीं थी। अजातशत्रु ने सिंहासन पर कब्ज़ा करके उसे याताना देकर मार डाला। वज्जि तथा वैशाली पर मगध के नियंत्रण का विस्तार होने के साथ एक । साम्राज्य के रूप में मगध की सम्पन्नता बढ़ती गई। इसकी परिणति चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य के रूप में हुई।

वज्जि

बिहार के वैशाली जिले के आस-पास बसा वज्जि (जिसका शाब्दिक अर्थ पश-पालक समुदाय है) गंगा के उत्तर में स्थित था। यह महाजनपद उत्तर में नेपाल की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। गंडक नदी इसे कोशल से अलग करती थी। पूर्व उल्लेखित महाजनपदों के विपरीत वज्जियों का राजनैतिक संगठन भिन्न था। समकालीन ग्रंथों में उन्हें गणसंघ कहा जाता था जिसकी व्याख्या गणतंत्र या कुलतंत्रीय राज्य के रूप में की गई है। इस युग के गणसंघ किसी एक सर्वशक्तिमान राजा द्वारा शासन का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे बल्कि यह शासन क्षत्रिय सरदारों द्वारा संयुक्त रूप से होता था। यह शासक वर्ग, जिसके सदस्य राजा कहे जाते थे, अब गैर-क्षत्रिय समूहों से पृथक हो गए।

वज्जि आठ कबीलों के संगठन का प्रतीक थे, जिनमें विदेह, लिच्छवी, ज्ञात्रक मुख्य हैं। विदेहों की राजधानी मिथिला थी। इसे नेपाल का आधुनिक जनकपुर माना जाता है। यद्यपि रामायण में इसे राजा जनक के साथ जोड़ा गया है, बौद्ध स्रोतों में इसे कबीलायी परंपरा से जोड़ा गया है।

प्राचीन भारतीय गणसंघों में सर्वाधिक विख्यात, लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी। वैशाली के एक विशाल एवं सम्पन्न शहर होने का अनुमान है। एक अन्य कबीले के रूप में ज्ञात्रक वैशाली के उपनगरों की बस्तियों में रहते थे। इसी कबीले में जैन गुरु महावीर का जन्म हुआ। संगठन के अन्य समुदाय उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्षवाक थे। वैशाली संभवत: पूरे संगठन का केन्द्र था। वे अपने मामले आपसी सभाओं में तय करते थे। एक जातक कथा के अनुसार। वज्जियों पर अनेक वंशों के सरदार शासन करते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह महाजनपद एक महत्वपूर्ण शक्ति बना हुआ था। लेकिन इनके पास न तो सेना थी और न ही इनके पास कृषि राजस्व प्राप्त करने की कोई व्यवस्था थी। माना जाता है कि मगध के राजा अजातशत्रु ने इस संगठन को नष्ट कर दिया था। अपने मंत्री वस्सकार की सहायता से उसने वंश के सरदारों में बैर का बीज बोया और उसके बाद लिच्छिवियों पर आक्रमण कर दिया।

मल्ल

प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित मल्ल एक अन्य क्षत्रिय वंश थे। इस वंश की विभिन्न शाखाएं थीं, जिनमें से दो का मूल स्थान पावा तथा कुशीनगर था। कुशीनगर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कसिया क्षेत्र को माना गया है। पावा के क्षेत्र के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। मल्ल का क्षेत्र साक्य क्षेत्र के दक्षिण पूर्व तथा पूर्व की ओर स्थित था। अनुमान है कि मल्लों पर पांच हज़ार कबीलायी सरदारों का शासन रहा होगा। बुद्ध की मृत्यु कुशीनगर के निकट हुई और मल्लों ने ही उनका अंतिम संस्कार किया।

चेदि

चेदि क्षेत्र आधुनिक बुंदेलखंड के पूर्वी भागों के आस-पास था। संभव है इसका विस्तार मालवा पठार तक हो गया हो। कृष्ण का प्रसिद्ध शत्रु शिशुपाल चेदियों का शासक था। महाभारत के अनुसार, चेदि चंबल के पार मत्स्य, बनारस के काशियों तथा सोन नदी की घाटी में करूषों के निकट सम्पर्क में थे। इसकी राजधानी सोथीवती (सुक्तिमति) संभवत: उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित थी। इस क्षेत्र के अन्य मुख्य नगर सहजाति एवं त्रिपुरी थे।

वत्स

वत्स, जिसकी राजधानी कोशाम्बी थी, छठी शताब्दी ईसा पूर्व का सबसे शक्तिशाली केन्द्र था। इलाहाबाद के निकट यमुना के तट पर बसा कोशाम्बी आधुनिक कोसम के रूप में जाना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वत्स आधुनिक इलाहाबाद के आस-पास बसे होंगे। पुराणों के अनुसार, पांडवों के वंशज निचक्षु ने हस्तिनापुर की बाढ़ में बह जाने के बाद अपनी राजधानी कोशाम्बी में बना ली। नाटककार भास ने अपने नाटकों के द्वारा वत्सों के एक राजा, उदयन को अमर बना दिया। यह नाटक उदयन तथा अवंति की राजकुमारी वासवदत्ता के बीच प्रेम संबंध की कहानी पर आधारित है। इनमें मगध, वत्स और अवंती जैसे शक्तिशाली राज्यों के बीच टकराव का भी उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन संघर्षों में वत्स की पराजय हुई क्योंकि बाद के ग्रंथों में वत्स को अधिक महत्व नहीं दिया गया।

कुरू

ऐसा विश्वास है कि कुरू के राजा युधिष्ठिर के परिवार से संबंध रखते थे। वे दिल्ली-मेरठ के आस-पास स्थित थे। अर्थशास्त्र तथा अन्य ग्रंथों में उन्हें राजशब्दोपजिविनह अर्थात् राजा की पदवी रखने वालों की.संज्ञा दी गई है। इससे कबीलायी वंशों की विसरित संरचना की ओर संकेत मिलता है। क्षेत्र में इनके सम्पूर्ण एकाधिकार की अनुपस्थिति के प्रमाण इसी क्षेत्र में कई राजनैतिक केन्द्रों के उल्लेख से भी मिलते हैं। हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, इशुकर में से प्रत्येक कुरूओं की राजधानी के रूप में उल्लेखित किए गए हैं। इनमें से प्रत्येक का अपना शासक था।

हम कुरुओं के विषय में महाकाव्य महाभारत के द्वारा परिचित हैं। यह पाण्डवों तथा कौरवों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध की गाथा है। प्रेम, युद्ध, षडयंत्र, घृणा तथा मानवीय अस्तित्व के बृहत दार्शनिक मुद्दों पर अपने उत्कृष्ट विवरणों के कारण यह महाकाव्य पीढ़ियों से भारतीय जन-साधारण को रोमांचित करता रहा है। इतिहासकार इस महाकाव्य को घटनाओं के वास्तविक विवरण के बजाय एक साहित्यिक महाकाव्य के रूप में देखते हैं। बड़े पैमाने पर युद्ध महाजनपदों के उदय के बाद ही आरंभ हुए। इससे पूर्व के चरण में यह केवल मवेशी हांक ले जाने तक सीमित था। महाभारत में यूनानियों का भी उल्लेख है जोकि भारत के सम्पर्क में पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद ही आए। अत: यूनानियों के साथ युद्ध की संभावना केवल प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में ही हो सकती थी।

संभवतः महाभारत की कहानी दो क्षत्रिय वंशों के आपसी युद्ध की कहानी है, जोकि भाटों की गायन परंपरा का एक हिस्सा बन गयी। आरंभिक ऐतिहासिक युग की शुरुआत के साथ महाजनपदों में आपस में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सम्पर्क बढ़ा। भाटो तथा ब्राह्मणों ने भारत के प्रत्येक क्षेत्र को महाभारत की कथा में शामिल कर लिया। इससे राजेरजवाड़े यह सोचकर गर्व का अनुभव कर सकते थे कि उनके पूर्वज महाभारत युद्ध में लड़े थे। इस प्रकार यह महाकाव्य ब्राहाणीय धार्मिक व्यवस्था के विस्तार का साधन बन गया। इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि महाभारत के प्राक्कथन में कहा गया है कि 24,000 छन्द वाला एक पूर्व मूल पाठ अभी भी सामयिक है, जबकि वर्तमान महाकाव्य में एक लाख छन्द हैं।

पांचाल

पांचाल महाजनपद रूहेलखंड तथा मध्य दोआब के कुछ भागों (मोटे तौर पर बरेली, पीलीभीत, बदायूँ, बुलंदशहर, अलीगढ़ आदि) पर स्थित था। प्राचीन ग्रंथों में पंचालों के दो वंशो: उत्तर पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल, जिन्हें भगीरथी नदी पृथक करती थी, का उल्लेख मिलता है। उत्तरी पांचालों की राजधानी उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले में अहिक्षत्र में स्थित थी। दक्षिणी पांचालों की राजधानी कापिल्य थी। संभवत: वे कुरुओं से निकट संपर्क रखते थे। यद्यपि एक या दो पांचाल शासकों का उल्लेख मिलता है, लेकिन हमारे पास उनके विषय में बहुत कम जानकारी है। वे भी संघ कहे जाते थे। छठी शताब्दी तक वे लुप्त हो चुके थे।

मत्स्य

मत्स्य राजस्थान के जयपुर-भरतपुर-अलवर क्षेत्र में स्थित थे। उनकी राजधानी विराट नगर थी, जोकि पांडवों के छिपने के स्थान के रूप में विख्यात है। यह क्षेत्र पशु-पालन के लिए उपयुक्त था। इसीलिए महाभारत कथा में जब कौरवों ने विराट पर आक्रमण किया तो वे मवेशियों को हांक कर ले गए। स्वाभाविक है कि स्थायी कृषि पर आधारित शक्तियों से मत्स्य मुकाबला न कर सके। मगध साम्राज्य ने इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। अशोक के कुछ सर्वाधिक विख्यात आदेश-पत्र प्राचीन विराट, बैरात (ज़िला जयपुर) में पाए गए हैं।

सुरसेन

सुरसेनों की राजधानी यमुना तट पर मथुरा में थी। महाभारत और पुराण में मथुरा के शासक वंश को यदु कहा गया है। यादव वंश कई छोटे-छोटे वंशों जैसे अंधक, वृष्णि, महाभोज आदि में बंटा हुआ था। इनकी राज व्यवस्था भी संघ व्यवस्था थी। महाकाव्यीय नायक कृष्ण इन्हीं शासक परिवारों से संबंधित है। मथुरा दो विख्यात प्राचीन भारतीय व्यापार मार्ग – उत्तर पथ तथा दक्षिण पथ के बीच में स्थित था। इसका कारण यह था कि मथुरा स्थायी कृषि वाले गांगेय मैदानों और विकीर्ण जनसंख्या वाले चारागाहों, जो मालवा पठार तक पहुंचते थे, के अंतर्वती क्षेत्रों के बीच स्थित था। इसीलिए मथुरा एक महत्वपूर्ण नगर बन गया। लेकिन खंडित राजनैतिक संरचना तथा प्राकृतिक विभिन्नताओं के कारण इस क्षेत्र के शासक इसे शक्तिशाली राज्य न बना सके।

अस्सक

अस्सक महाराष्ट्र में आधुनिक पैठान के निकट गोदावरी के तट पर फैले हुए थे। पैठान को अस्सकों की राजधानी, प्राचीन प्रतिष्ठान माना जाता है। दक्षिण पथ प्रतिष्ठान को उत्तरी शहरों से जोड़ता था। अस्सकों के राजाओं के अस्पष्ट उल्लेख अवश्य मिलते हैं। किन्तु अभी तक हमारे पास इस क्षेत्र की जानकारी काफी सीमित है।

अवंति

अवंति छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सबसे शक्तिशाली महाजनपदों में से एक था। इस राज्य का मुख्य क्षेत्र मोटे तौर पर मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले से लेकर नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। इस राज्य में एक अन्य महत्वपूर्ण नगर महिस्मति था जिसे अक्सर इसकी राजधानी के रूप में माना जाता है। अवंति क्षेत्र में कई छोटे बड़े कस्बों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में अवंति की आधारशिला रखने का श्रेय यदुओं के हैहय वंश को दिया गया है। कृषि के लिए उपजाऊ भूमि पर स्थित होने तथा दक्षिणी ओर होने वाले व्यापार पर नियंत्रण होने के फलस्वरूप यदुओं ने यहां एक केन्द्रीकृत राज्य की स्थापना कर ली। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में एक शक्तिशाली राजा प्रद्योत अवंति का शासक था। संभवत: उसने वत्स पर विजय प्राप्त की थी। यही नहीं, अजातशत्रु भी उससे भय खाता था।

गांधार

गांधार भारत के उत्तर पश्चिम में काबुल और रावलपिंडी के मध्य का क्षेत्र था। संभव है कि इसमें कश्मीर का भी कुछ भाग रहा हो। यद्यपि वैदिक युग में यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था, किन्तु ब्राह्मणीय और बौद्ध परंपरा के उत्तरकालीन चरणों में इसके महत्व में कमी आयी। इसकी राजधानी तक्षशिला एक महत्वपूर्ण शहर था, जहां सभी जनपदों के लोग शिक्षा तथा व्यापार के उद्देश्य से जाते थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गांधार पर पुक्कसती नामक राजा शासन कर रहा था। वह बिम्बिसार का मित्र था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्ध में गांधार पर फारस ने विजय प्राप्त कर ली। आधुनिक तक्षशिला की खुदाई से पता चलता है कि इस स्थान पर 1000 ईसा पूर्व में ही लोग बस चुके थे और बाद के दिनों में नगरों का उदय हुआ। छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक आते-आते गांगेय घाटी के शहरों के समरूप यहां भी एक शहर का उदय हुआ।

कंबोज

कंबोज गांधार के निकट, संभवत: आज के पुंच क्षेत्र में स्थित था। सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में ही कंबोजों को ब्राहाणीय ग्रंथों में असभ्य लोगों की संज्ञा दी गई थी। अर्थशास्त्र में इन्हें वर्क्सशास्त्रपजीविन संघ, अर्थात् कृषकों, चरवाहों, व्यापारियों तथा योद्धाओं का संगठन कहा गया है।

सारांश

हमने छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारत में विद्यमान राजनैतिक परिस्थितियों की समीक्षा की। नए सामाजिक-राजनैतिक विकासों से गुजर रहे क्षेत्रों के रूप में उदित हुए महाजनपद विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित थे। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये सात महाजनपद – अंग, मगध, वज्जि, मल्ल, काशी, कोशल तथा वत्स-मध्य गांगेय घाटी में स्थित थे। यह चावल उत्पादन का क्षेत्र है, जबकि ऊपरी गांगेय घाटी गेहू उत्पादक क्षेत्र है। ऐसा महसूस किया गया है कि भारत में परंपरागत कृषि प्रणाली में चावल की उपज गेंहू की उपज से अधिक रही है। चावल उत्पादक क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व भी अधिक रहा है। इसके अतिरिक्त मगध जैसे महाजनपदों के पास धातु जैसे महत्वपूर्ण साधन भी मौजूद थे। इन तथ्यों को मध्य गांगेय घाटी के राजनैतिक-आर्थिक शक्ति के केन्द्र बनने का कारण माना जा सकता है।

इस क्षेत्र में कई महाजनपदों के एक-दूसरे के निकटस्थ होने से यह भी संभावना बराबर बनी रहती थी कि कोई महत्वाकांक्षी शासक सम्पन्न पड़ोसी क्षेत्र को हड़पने का प्रयास कर सकता था। साथ ही पड़ोसी क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखना भी आसान था। पंजाब और मालवा के महाजनपदों के शासकों को सम्पन्न क्षेत्रों में पहुंचने के पूर्व रिक्त भौगोलिक क्षेत्रों को पार करना पड़ा होगा। इस प्रकार मध्य गांगेय घाटी के शासकों को अपनी शक्ति सुदृढ़ बनाने में सपाट मैदानी भूभाग तथा घनी बस्तियों ने भी काफी सहायता की। फिर यह स्वाभाविक ही है कि इस क्षेत्र की शक्ति, मगध, बाद के काल में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा।

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