अंतरराष्ट्रीय नैतिकता (International Ethics)

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों के बीच पारस्परिक संबंधों एवं हर प्रकार के आदान-प्रदान का वैश्विक समुदाय से प्रत्यक्ष संबंध होता है। अगर ये संबंध अच्छे हों तो यह मानव सभ्यता के लिए हितकारी साबित होता है। परंतु अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कटुता, असहयोग और शत्रतापर्ण भावनाओं का प्रवेश हो जाए तो यह वैश्विक समाज के लिए हानिकारक परिणाम लाता है। अंतरराष्ट्रीय नैतिकता की जब हम बात करते हैं तो उसका अभिप्राय इन्हीं तथ्यों से है जिनसे वैश्विक समाज अनुकूल या प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। अंतरराष्ट्रीय नैतिकता ही वह दृष्टि पटान करता है जिससे यह पता चलता है कि दो देशों के बीच कैसा बर्ताव रखते हैं तथा एक देश के द्वारा किस तरह किसी दूसरे देश को हानि पहुंचायी जा रही है।

अत: अंतरराष्ट्रीय नैतिकता वह प्रयास है जिसके माध्यम से व्यक्ति और राष्ट्र अपनी सक्रिय भागीदारी द्वारा एक स्वस्थ और बेहतर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के निर्माण व विकास में प्रस्तुत करता है।

इस दिशा में संयक्त राष्ट संघ की भिन्न-भिन्न एजेंसियों द्वारा अपनी उपस्थिति एव काया सक सार्वभौमिक सिद्धांतों को प्रोत्साहन दिया जाता है। इन सिद्धांतों का संबंध किसी एक देश या फिर किसा राष्ट्र विशेष में प्रचलित सिद्धांतों से नहीं होता बल्कि राष्ट्र और राज्य की सीमाओं से परे जाकर इन सिद्धांतों द्वारा एक स्वस्थ वैश्विक समाज की स्थापना में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जाता है। 

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता

(Ethics in International Affairs)

प्रस्तुत खंड में हम नैतिकता को इस रूप में परिभाषित करेंगे कि यह अध्ययन की वह शाखा है जिसका सरोकार मानवीय कर्तव्य से जुड़े सिद्धांतों से होता है। अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में नैतिकता का अभिप्राय कर्तव्यों के अध्ययन से है परंतु ये कर्त्तव्य किसी देश या समुदाय तक सीमित नहीं होते बल्कि इनकी प्रकृति सार्वभौम होती है अर्थात् राष्ट्रों की सीमाओं से परे जाकर ये कर्त्तव्य मानव मात्र के लिए प्रासंगिक होते हैं। कतव्या की प्रकृति के अध्ययन का तात्पर्य यह जानना है कि राष्ट्रीय राज्यों में आबद्ध समुदायों का अपने सामा क्षेत्र से बाहर के नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए तथा अलग-अलग राष्ट्रों के समुदाया के बीच फर्क करना कहां तक उचित है?

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अनुशासन का तात्पर्य उन मुद्दे पर विमर्श करना है जिनका संबंध नैतिकता के प्रश्नों से जुड़ा होता है। वर्तमान में ध्यान देने योग्य जो नैतिक समस्याएं हैं उनका संबंध अंतरराष्ट्रीय संबंध से भी है जिनमें किसी देश या समूह द्वारा हिंसा के प्रयोग को न्यायोचित ठहराने के सवाल से लेकर विश्व के आर्थिक लाभ एवं बोझों के वितरण तक के मुद्दे शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत का भी मानना है कि संप्रभु देशों के नैतिक व्यवहार वर्तमान में एक ऐसा मुद्दा है जिसपर काफी चर्चा होती रहती है। भरविन फ्रॉस्ट भी अंतरराष्ट्रीय नैतिकता से जुड़े कुछ प्रश्नों का उल्लेख करते हैं, जैसे एक संप्रभु देश द्वारा दूसरे संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना किसी स्थिति में जायज माना जाएगा? किसी राज्य द्वारा युद्ध की शुरुआत किन परिस्थितियों में उचित ठहराया जा सकती है? ये सारे प्रश्न अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के केंद्रीय विषय हैं।

अंतरराष्ट्रीय नीतिशास्त्र की मौजूदा स्थिति कई कारकों का परिणाम है। परमाणु अस्त्र की खोज एवं परमाणु अस्त्रों ने मौलिक नैतिक मुद्दों को उठाया है जो कि द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ से लेकर पूरे शीत युद्ध के दौरान चर्चा का विषय बना रहा। वियतनाम में अमेरिकी अनुभव ने कई दार्शनिकों को युद्ध में जाने तथा युद्ध लड़ने की नैतिकता पर सोचने के लिए विवश किया। देशों की लगातार बढ़ रही अंतनिर्भरता ने वैश्विक न्याय के मुद्दे और ऐसे मुद्दों को उभारा जिसकी उपेक्षा करना कठिन है।

विभिन्न उपागमों के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय नीतिशास्त्र

अन्तरराष्ट्रीय मामलों के भिन्न-भिन्न उपागमों का अंतरराष्ट्रीय नैतिकता पर पड़ने वाले प्रभावों को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है:

वस्तुवाद और अंतरराष्ट्रीय नैतिकता

(Realism and International Ethics)

वस्तुवाद के अंतर्गत यह धारणा है कि अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में एक तथ्य जो सचमुच मायने रखता है वह है शक्ति संपन्नता, अर्थात् एक राष्ट्र कितना शक्तिशाली है? बाकी कुछ भी इस संदर्भ में प्रासंगिक नहीं होता, नैतिकता, नीतिशास्त्र, कानून, राजनीतिक व्यवस्था, कानूनी व्यवस्था या फिर सांस्कृतिक पक्ष। वस्तवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इन तथ्यों की भूमिका को स्वीकार नहीं करता तथा इन्हें अप्रासंगिक मानता है। वस्तुवाद के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मामले एक प्रकार से अराजकतावाद की स्थिति है जहां कोई कानून नहीं चलता।

वस्तुवादी उपागम अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नीतिशास्त्र की भूमिका का निषेध करता है। वस्तुवाद के अनुसार अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य नैतिक रूप से शून्य या नैतिकता से युक्त क्षेत्र होते हैं और इस क्षेत्र पर उसी राष्ट्र का अधिकार या वर्चस्व हो जाता है जो सबसे अधिक शक्तिशाली और प्रभावी होते हैं। परंतु वस्तुवाद को अपनाने या वस्तुवादी नीतियों को लागू करना वैश्विक समाज के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है क्योंकि यह प्रत्येक के लिए एक सर्वसामान्य दृष्टिकोण अपनाने की वकालत करता है।

आदर्शवाद और अंतरराष्ट्रीय नैतिकता

(Idealism and International Ethics):

अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में आदर्शवाद राष्ट्रों के सर्वसामान्य हितों पर ही मुख्य रूप से बल देता है। शक्ति, विभिन्न राष्ट्रों की क्षमताओं में अंतर या फिर शक्ति संतुलन आदि विषयों को आदर्शवाद के अंतर्गत विशेष तवज्जो नहीं दी जाती। इस विचारधारा के अंतर्गत एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय परिवेश की कल्पना की जाती है जो आदर्शवादी मूल्यों व मानदंडों पर आधारित हो। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों एवं समस्याओं से सरोकार रखने वाले सभी राष्ट्रों के लिए ये नैतिक मूल्य व मान्यताएं समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं।

आदर्शवाद इस तथ्य को स्वीकार करता है कि अंतरराष्ट्रीय परिवेश नियम, कानून तथा संस्थाओं के अनुकूल होते हैं और सारे कार्य व्यवहार में इनका अनुपालन किया जाता है। नीतिशास्त्र, नैतिकता, कानून, विधि व्यवस्था तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आदर्शवाद के अंतर्गत केंद्रीय स्थान दिया जाता है। अत: अंतरराष्ट्रीय नीतिशास्त्र के प्रति आदर्शवाद एवं वस्तुवाद के विचारों में भिन्नता है क्योंकि वस्तुवाद मुख्य रूप से शक्ति संपन्नता पर ही जोर देता है।

रचनात्मकतावाद और अंतरराष्ट्रीय नैतिकता

(Constructivism and International Ethics)

रचनात्मकतावाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों एवं अंतरराष्ट्रीय परिवेश के निर्माण में वैदेशिक, कटनीतिक पहलों इत्यादि की भूमिका पर विशेष बल देता है, खासकर उस स्थिति में जब राष्ट्रों का प्रभाव इस संबंध में निर्णायक हो और वे इस तरह के पहल के लिए इच्छुक भी हो। इन मामलों में विशेष जोर घरेलू राजनीति पर रहता है। साथ ही इस बात पर भी कि वैदेशिक नीति का मुख्य उद्देश्य क्या है और यह देश की आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों से किस प्रकार प्रभावित हो रहा है? वस्तुतः रचनात्मकतावाद के अंदर राष्ट्रीय पहचान और उसकी भूमिका पर विशेष जोर दिया जाता है तथा यह देखा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में किस हद तक अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है।

अन्तरराष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्रीय पहचान की भूमिका अंतरराष्ट्रीय कार्य व्यवहार को एक नया आयाम प्रदान करता है। इस संदर्भ में रचनात्मकतावाद के अंतर्गत यह माना जाता है कि जब भी किसी राष्ट्र के समक्ष पहचान की समस्या उत्पन्न होती है या फिर राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय संप्रभुता पर कोई आंच आती है तो राष्ट्रों द्वारा उसका विरोध किया जाता है अर्थात् ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्र समुदायों का व्यवहार स्वाभाविक नहीं रह जाता है। परंतु इस तरह की बातों से अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों, अंतरराष्ट्रीय परिवेश और अंतरराष्ट्रीय तंत्र को नुकसान पहुंच सकता है।

विश्व बंधुत्व और अंतरराष्ट्रीय नैतिकता

(Cosmopolitanism and International Ethics)

जहां तक विश्व बंधुत्व का प्रश्न है तो अंतरराष्ट्रीय संदर्भो में यह आदर्शवाद के विचारों से काफी संबंध रखता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के विषय में विश्व बंधुत्व और आदर्शवादी उपागमों में कई बातें एक जैसी हैं। दोनों ही उपागमों में इस बात पर बल दिया जाता है कि वही करो जो सही (उचित) है। यहां सही अथवा उचित का अभिप्राय है वैसा व्यवहार करना जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं। विश्व बंधुत्व वैश्विक समुदायों के बीच होने वाले व्यवहार व आदान-प्रदान पर मुख्य रूप से बल देता है। यहां वैश्विक समुदाय की चर्चा का उद्देश्य इस बात पर आधारित है कि किसी राष्ट्र विशेष के लोग अन्य राष्ट्रों के लोगों के साथ भी परस्पर संबंध बनाते है और उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान भी होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब दो देशों के बीच परस्पर संबंध और आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहता है, ऐसे में यह नैतिक दायित्व बनता है कि अन्य देशों के नागरिकों के प्रति हमारा व्यवहार नैतिक हो और उन्हें भी हम एक नीतिपरक मानव के रूप में देखें। अत: विश्व बंधुत्व अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के आधार को मजबूत करता है और वैश्विक स्तर पर नैतिक मूल्यों व मान्यताओं के विकास को प्रोत्साहित करता है।

विश्व बंधुत्व नैतिक आचरण को लागू करने की वकालत करता है। जहां नियम, कानून का अभा होता है वहां पर विश्व बंधुत्व यह मांग करती है कि ऐसे नियम और कानून बनाए जाए जो नैतिक की कसौटी पर खरे उतरे तथा अन्य देशों के नागरिकों से हमारे संबंध इन्हीं नियमों व कानूनों द्वा शासित हों। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दो राष्ट्रों के बीच किसी भी प्रकार के व्यवहार और संबं में इन्हीं नैतिक नियमों का पालन किया जाए क्योंकि ये स्वभावतः ‘नैतिक’ है।

जीवन की समानता और अंतरराष्ट्रीय नैतिकता

गरिमा के स्तर पर सभी व्यक्ति एक समान होते हैं अर्थात् मानव गरिमा ही वह तत्व है जो सभी मनुष्यों को समान स्तर पर लाता है। अत: नैतिकता भी सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से प्रासंगिक है। इस कारण सभी मनुष्य के नैतिक मूल्य भी समान होते हैं। अगर एक राष्ट्र उपर्युक्त बातों में विश्वास रखता है तो ऐसे में उसके लिए वैश्विक हितों और घरेलू हितों में कोई फर्क नहीं रह जाता। तात्पर्य यह है कि ऐसे राष्ट्र या उसकी सरकार द्वारा अपने नागरिकों को किसी प्रकार की वरीयता नहीं दी जाती। अर्थात् वह राष्ट्र प्राणीमात्र के कल्याण में विश्वास रखता है। ऐसे राष्ट्र किसी भी कारण से अपने नागरिकों तथा अन्य देश के नागरिकों के हितों के बीच कोई फर्क नहीं करता तथा दोनों ही नागरिक को समान प्राथमिकता प्रदान करता है। सभी व्यक्ति के अधिकार समान होते हैं तथा सभी व्यक्ति हर प्रकार से समान माने जाते हैं।

इस उपागम में इस तथ्य पर बल दिया जाता है कि अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के अंतर्गत मानवीय गरिमा को सिद्धांत एवं व्यवहार दोनों ही तरीके से अपनाया जाना चाहिए। जन्म लेने से पहले ही जीवन जीने के अधिकार को आदर व सम्मान की परंपरा जिस दिन से से शुरू होगी वह दिन वास्तव में सार्वभौम शांति एवं सद्भाव का दिन कहलाएगा। अगर हमें यह निर्णय लेने का अधिकार दिया जाये कि किस प्रकार की दुनिया में हम जीना चाहते हैं तो हम उस दुनिया की कल्पना करेंगे जहां सबसे कमजोर व्यक्ति को अधिकतम सुरक्षा प्राप्त हो। वहां हम यह नहीं सोचेंगे कि ऐसी दुनिया में हमारी स्थिति क्या और कैसी होगी? अतः इस सिद्धांत के अंतर्गत यह माना जाता है कि उपर्युक्त विश्व में ही जीवन जीने के अधिकार को सही अर्थ व मायने प्राप्त हो सकता है तथा जीवन की समानता का अधिकार व्यवहार का रूप ले सकता है।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के अंतर्गत नैतिक मुद्दे

(Ethical Issue in International Affair)

वस्तुवाद के प्रणेताओं का मानना है कि राज्य/राष्ट्र द्वारा निर्णय लेने के क्रम में नैतिकता को न तो कोई स्थान प्राप्त है और न ही उसकी कोई भूमिका होती है। एक राष्ट्र वही करता है जो उसे करना चाहिए क्योंकि उसे स्वयं की उत्तरजीविता (survival) के लिए अन्य राष्ट्रों से संघर्ष करना पड़ता है। इस अर्थ में नैतिकता अथवा नीतिशास्त्र एक सुख का साधन मात्र है जिसके लिए इन राष्ट्रों/राज्यों के पास कोई समय नहीं होता। वैसे भी यह सोचना कि “क्या सही और उचित है’, इन राष्ट्रों के लिए खतरनाक हो सकता है क्योंकि तब वे शायद यह न सोच पाए कि “क्या आवश्यक है।” दूसरी तरफ कुछ उदारवादी विचारकों का तर्क है कि हमारे सभी कार्य-व्यवहार में नैतिकता के प्रश्न सन्निहित होते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुद्दों जैसे युद्ध और शांति, हस्तक्षेप, मानवाधिकार, वैश्वीकरण तथा विकास से ज्यादा ज्वलंत नहीं होते।

मानव होने के नाते हम स्वयं को अपने कार्यों एवं उनके परिणामों से अलग नहीं रख सकते। चूंकि विभिन्न देशों के बीच परस्पर सहयोग एवं प्रतिस्पर्धा में लगातार इजाफा हो रहा है, अत: इससे वैश्विक स्तर पर कई तरह के नैतिक मुद्दे उठ खड़े हुए हैं। यह दृष्टव्य है कि आर्थिक संपन्नता की दृष्टि से वैश्विक स्थिति में काफी सुधार हुआ है, लेकिन समानता, शांति, पर्यावरण तथा मानवाधिकारों के संदर्भ में कई ऐसे मुद्दे अब एक ज्वलंत समस्या का रूप ले चुके हैं जिनका एक नैतिक पक्ष भी है। यहां हम कुछ ऐसे नैतिक मुद्दों की चर्चा करेंगे जो वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहन विमर्श के विषय बने हुए हैं:

सार्वजनिक संसाधन का प्रबंधन

(Management of Common Goods) :

यहां सार्वजनिक संसाधन का अभिप्राय उस क्षेत्र से है जो किसी भी देश के राजनीतिक सीमा से परे होता है जिनके नाम हैं उच्च समुद्री क्षेत्र, पर्यावरण, अंटार्कटिक तथा अंतरिक्ष। इन सभी क्षेत्रों को लेकर कुछ नैतिक मुद्दे अकसर चर्चा में रहते हैं जिन्हें विस्तारपूर्वक निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है:

  • उच्च समुद्री क्षेत्र या सीमा (High Seas) : ऐसे क्षेत्रों को इतिहास के प्रारंभ से ही मानव सभ्यता के सार्वजनिक विरासत के रूप में जाना जाता रहा है। इसे सभी के लिए समान रूप से युक्त क्षेत्र भी कहा जाता है। वर्तमान में विभिन्न राष्ट्रों ने ऐसे क्षेत्रों पर अपना संप्रभु दावा करना प्रारंभ कर दिया है क्योंकि राजनीतिक एवं व्यावसायिक उपयोगिता की दृष्टि से ये क्षेत्र महत्वपूर्ण माने जाने लगे हैं। हालांकि इस प्रकार का दावा यूएनसीएलओएस (UNCLOS) के प्रावधानों का उल्लंघन माना जाता है। यह प्रावधान इन क्षेत्रों पर किसी भी राष्ट्र के दावों को खारिज करता है। यहां एक प्रश्न यह भी उठता है कि उच्च समुद्री क्षेत्रों पर संप्रभुता का दावा करना क्या नैतिक दृष्टि से उचित है?
  • अंटार्कटिक (Antarctic) : वर्तमान में अंटार्कटिक प्रदेश में पर्यावरण एवं पारिस्थिकी में लगातार ह्रास हो रहा है जिसका मख्य कारण है प्रदूषण। इसके परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान म लगातार वृद्धि हो रही है। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि मानवीय कार्यकलाप ही है जिससे इस क्षेत्र में पर्यावरणीय क्षति हो रही है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या विश्व के देशों द्वारा अंटार्कटिक प्रदेश में पर्यावरण को क्षति पहुंचाना नैतिक दृष्टि से उचित है जबकि यह सर्वविदित है कि आने वाले समय में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं?
  • जलवायु परिवर्तन (Climate Change) : जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भी राष्ट्रों में वैचारिक मतभेद हैं। ये राष्ट्र उद्देश्य की एकता तो स्वीकार करते हैं परंतु जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्या के समाधान के लिए असमान दायित्व को स्वीकार नहीं करते। इसके अलावा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण तथा अर्थिक संसाधन प्रबंधन के मुद्दे पर भी एकमत नहीं हैं।
  • अंतरिक्ष (Outers Space) : अंतरिक्ष में छोड़े जाने वाले उपग्रहों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है और विभिन्न राष्ट्रों में इस बात की एक होड़ सी लगी है। इससे अंतरिक्ष में उपग्रहों के आपस में टकराने एवं नष्ट हो जाने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। पुन: चीन ने अंतरिक्ष में ही उपग्रहों को नष्ट करने की क्षमता हासिल कर ली है।
  • मानवतावादी हस्तक्षेप (Humanitarian Intervention) : हाल के दशकों में अमेरिका तथा कुछ अन्य यूरोपीय देशों ने ‘जनमत के विरोध’ को आधार बनाकर अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया है। इसका विरोध किया जाने लगा है तथा इसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे हस्तक्षेप सरसरी तौर पर तो जायज प्रतीत होते हैं परंतु अब यह तर्क भी उभर कर सामने आया है कि ये हस्तक्षेप जानबूझ कर किए जाते हैं और इनका उद्देश्य भू-सामरिक होता है। यहां पुन: एक नैतिक प्रश्न यह है कि क्या अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना नैतिक रूप से जायज है? ऐसे हस्तक्षेपों के कारण जानमाल की भी हानि होती है और ऐसा होने पर क्या हस्तक्षेप करने वाले देश जानमाल की हानि का उत्तरदायित्व लेने के लिए तैयार हैं?
  • निःशस्त्रीकरण (Disarmament) : विडंबना यह है कि वे देश जिनके पास स्वयं आणविक अस्त्रों का भंडार जमा है। पुन: अमेरिका जैसा देश ईरान आदि देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगा रहा है ताकि ईरान आणविक अस्त्रों का विकास न कर पाए। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या स्वयं आणविक हथियार, मिसाइल और जहाज रखने वाला देश अन्य देशों के खिलाफ प्रतिबंध लगा सकता है और वो भी अपने आणविक अस्त्रों को नष्ट किए बगैर?
  • बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights) : विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को नई तकनीकों के लाभ से वंचित किया जा रहा है और इसका माध्यम है बौद्धिक संपदा अधिकार से संबंधित प्रावधान। विडंबना यह है कि ये प्रावधान जीवन रक्षक दवाओं पर भी लागू किए गए हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि व्यवसायिक लाभ के लिए क्या बौद्धिक संपदा अधिकार के औचित्य को सही ठहराया जा सकता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि धनी देश मानवता की सेवा और कल्याण की खातिर नयी प्रौद्योगिकी के लाभ से विकासशील देशों को वंचित न करें?
  • व्यापार वार्ता/दोहा राउंड (Trade Negotiations/Doha Round) : विश्व व्यापार संगठन के द्वारा चलाई जा रही व्यापार वार्ता (दोहा राउंड) पर लम्बे समय तक सहमति नहीं बन पायी थी और वर्ष 2014 में जाकर इस पर निर्णय हो पाया है। यहां भी कुछ नैतिक मुद्दे उभर कर आए हैं जिसमें सर्वप्रमुख यह है कि विकासशील देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अपेक्षाकृत कल अधिक रियायत की मांग करना क्या नैतिक दृष्टि से उचित है?
  • अग्रिम हमले (Pre-emptive stike) : अग्रिम हमला किसी राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धमकी देने के प्रतिक्रियास्वरूप की गई सैन्य कार्रवाई है, जिसका उद्देश्य धमकी देने वाले राष्ट्र से उत्पन्न होने वाले संभावित खतरों से स्वयं को बचाना है। यहां स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या अग्रिम हमले नैतिक रूप से जायज है?
  • इन नैतिक मुद्दों के अंतर्गत गंभीर नैतिक दुविधा यह हाती है कि एक राष्ट्र अपने राष्ट्रहित को प्राथमिकता दे या फिर नैतिक दायित्व को सर्वोत्तम माने। अक्सर यह देखा गया है कि अधिकांश देश ऐसी दुविधाजनक परिस्थिति में राष्ट्रहित को ही तवज्जो देते हैं और नैतिक दायित्व की अनदेखी करते हैं। उदाहरण के लिए, यह दृष्टव्य है कि अधिकांश देश आर्कटिक क्षेत्र से होकर नये समुद्री मार्ग की तलाश में जुटे हैं कि इससे वहां के पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा जहां वैश्विक तापमान के कारण बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है। यह भविष्य में दूसरे देशों के लिए तो नुकसानदेह साबित होगा ही बल्कि स्वयं उस देश के लिए भी खतरा उत्पन्न करेगा जो इस कार्य में लगे हैं।

इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नैतिक मानदंडों पर विचार करना अति आवश्यक है क्योंकि इस दिशा में किए गए स्वस्थ प्रयास से वैश्विक स्तर पर संपोप्य विकास सुनिश्चित हो सकेगा जो मानव सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक है

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