मानवीय मूल्य / Human Values

नैतिक मूल्यों का संबंध ‘स्व’ से है। यहां ‘स्व’ का अर्थ बद्धि तथा भावना से है जो सयुक्त रूप से आत्मा के अर्थ मे समझा जाता है। यह व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक का कार्य करता है। चूंकि नैतिक मूल्यों की संख्या एक से अधिक है अतः इन्हें समग्र रूप से मुल्य व्यवस्था (मूल्यतंत्र) क रूप में समझा जा सकता है। मूल्य-तंत्र अथवा मल्यों की व्यवस्था एक स्थायी संगठन के समान होती है जो मानव अस्तित्व के विभिन्न स्तरों या आयामों के साथ व्यक्ति के अनुकूलन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण प्रोत्साहन उनका मार्गदर्शन भी करती है। मल्यों की इस व्यवस्था में किसी दो मूल्यों की महत्ता के बीच सापेक्ष संबंध होता है उदाहरणस्वरूप ‘ईमानदारी’ एक व्यक्ति के लिए ‘सफलता’ के मुकाबले के बीच सापेक्ष संबंध होता है। उदाहरणस्वरूप ‘ईमानदारी’ एक व्यक्ति का अधिक वांछनीय हो सकती है क्योंकि उसकी नजर में ईमानदारी सफलता सा अन्य व्यक्ति इसके ठीक विपरीत भी सोच सकता है।

नीतिशास्त्र और लोक प्रशासन

आज के बदलते सामाजिक आर्थिक व प्रशासनिक सन्दर्भो में नीतिशास्त्र अत्यधिक प्रासंगिक हा सका पहुच अब लोक प्रशासन तक हो चकी है। वस्तत: नीतिशास्त्र का मानव आस्तत्व आचामा स कार्यात्मक सबंध है। प्रस्तत शीर्षक के अंतर्गत हम नीतिशास्त्र के विभिन्न पक्षों को लोक प्रशासन के संदर्भ में समझें। सामान्य तौर पर कुछ सूत्रों (नियमा) क सहार इन पता सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। ये हैं:-

विवकपूर्णता एवं वैधता का सूत्रः नियम और कानन इसलिए बनाए जाते हैं ताकि विभिन्न प्रकार की नीतियों एवं इनसे जडे निर्णयों का कार्यान्वयन एवं संचालन किया जा सके। अत: एक प्रशासक स यह आशा की जाती है कि वह इन नियमों व कानूनों का अक्षरश: पालन करे।

उत्तरदायित्व एवं जवाबदेयता का सूत्रः एक प्रशासक से यह उम्मीद की जाती है कि अपने निर्णयों एवं कार्यवाहियों की जवाबदेही लेने से वह न हिचके। स्वविवेक से किए गए निर्णयों एवं कार्यवाहियों के लिए वह स्वयं को ही नैतिक रूप से जिम्मेदार समझे। यही नहीं बल्कि अपने से ऊपर के अधिकारियों के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करे। इसके अलावा उन लोगों के प्रति भी स्वेच्छा से जवाबदेयता स्वीकार करे जो उसके कार्यों एवं निर्णय से लाभान्वित होते हैं।

कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता का सूत्र: एक प्रशासक से यह आशा की जाती है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध रहे तथा अपने कार्यों का निष्पादन पूरी संलग्नता, बुद्धिमत्ता एवं दक्षता के साथ करे। जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, “प्रत्येक कार्य पवित्र होता है तथा अपने कर्तव्य श्रद्धा ही पूजा-अर्जना का सर्वोत्तम रूप है।” इन विचारों को अपनाने का अर्थ है कि व्यक्ति समयनित है, समय का आदर करता है एवं स्वयं क द्वारा किए गए वादों के प्रति भी ईमानदार है। वस्ततः कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व का वहन एक बोझ के समान नहीं होता बल्कि यह तो समाज की सेवा तथा सर प्रति रचनात्मक योगदान देने का एक अवसर होता है।

श्रेष्ठता का सूत्रः एक प्रशासक से यह आशा की जाती है कि अपने प्रशासनिक कार्यों को के दौरान वह सर्वोत्तम मानक अपनाएगा तथा सुविधा एवं आत्मसंतुष्टि के लालच में किसी एक समझौता नहीं करेगा। वर्तमान में अन्तरराष्ट्रीय परिवेश में तीव्र प्रतिस्पर्दा है। अत: एक प्रशासनिक के लिए यह आवश्यक है कि वह उत्कृष्ट एवं व्यापक प्रबंध कौशल के सभी शर्तों को पूरा करे।

संयोजन का सूत्रः एक प्रशासक व्यक्ति, संगठन तथा समाज से जुड़े लक्ष्यों में कोई फर्क नहीं करेगा बल्कि उद्देश्य को एकता सुनिश्चित करने का प्रया करेगा। यही नहीं अपने आचरण से भी उद्देश्य की एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखलाएगा तथा हितों के बीच संघर्ष की स्थिति में वह नैतिक मानदंडों के आधार पर नित्य सही चुनाव करेगा।

अनुक्रियाशीलता एवं लचीलापन का सूत्रः एक प्रशासक से यह आशा की जाती है वह प्रशासन के अन्दर व बाहर की चुनौतियों के प्रति प्रभावशाली एवं सकारात्मक रवैया अपनाए एवं बदलते परिवेश के साथ सामजस्य बिठाने के दौरान नैतिक आदर्शों से न डिगे। नैतिक मानकों से परे जाने की स्थिति में भी एक प्रशासनिक तत्र में इतना लचीलापन अवश्य होना चाहिए ताकि अवसर आने पर यथा शीघ्र इसे नैतिक मानकों के अनुरूप ढाला जा सके।

उपयोगितावाद का सूत्र: एक प्रशासक से इस बात की आशा की जाती है कि नीतियों एवं निर्णयों के निर्माण एवं कार्यान्वयन के दौरान वह अधिकतम लोगों का अधिक कल्याण सुनिश्चित करे।

करुणा एवं संवेदनशीलता का सूत्र: एक प्रशासक से यह आशा की जाती है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपने स्वविवेक का प्रयोग करते हुए वह गरीब, कमजोर तथा असहायों के प्रति करुणा व संवेदनशीलता का दृष्टिकोण अपनाए और इस दौरान वह प्रचलित नियमों व कानूनों की अवज्ञा भी न करे। कम से कम वह इस बात को अवश्य सुनिश्चित करे कि समाज के कमजोर वर्ग उसके द्वारा दिए गए लाभों से वंचित न हो सिर्फ इसलिए कि वे कमजोर और पिछड़े हैं। दूसरे शब्दों में, समाज के सबल वर्ग को सिर्फ इसलिए लाभ न मिले क्योंकि वे समाज के सशक्त व प्रभावशाली तबके से है।

राष्ट्रीय हित का सूत्रः वैसे तो लोक सेवक उदार चरित्र एवं व्यापक दृष्टिकोण वाले समझे जाते हैं परंतु फिर भी इनसे इस बात की आशा की जाती है कि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखेंगे कि उनके कार्यों से राष्ट्र की शक्ति व प्रतिष्ठा का कोई प्रतिकूल असर न पड़े। इससे राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा की गुणवत्ता बढ़ेगी। जापान, कोरिया, जर्मनी तथा चीन की आम जनता तथा लोक सेवक शासकीय कर्तव्यों के निष्पादन के दौरान अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा और गरिमा का हमेशा ध्यान रखते हैं।

न्याय का सूत्रः ऐसा समूह जो शासन से संबंधित नीतियों एवं निर्णयों के निर्माण एवं संचालन के लिए उत्तरदायी हैं, से आशा की जाती है कि वे इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि शासन के दौरान समानता, निष्पक्षता, न्यायसंगतता तथा वस्तुनिष्ठता के नियमों का पालन किया जा रहा है तथा किसी व्यक्ति को सिर्फ शक्ति, सत्ता, वर्ग, जाति, लिंग या धन के आधार पर अनावश्यक लाभ तो नहीं मिल रहा है।

पारदर्शिता का सूत्रः एक प्रशासक से यह आशा की जाती है कि उसके द्वारा लिए गए निर्णय एव उसके कार्यान्वयन में पारदर्शिता हो ताकि वे लोग भी जो इन निर्णयों से लाभान्वित हुए हों, निर्णय के आचित्य का मूल्यांकन कर पाएं तथा यह भी जान पाएं कि आखिर सूचनाओं के वे स्रोत क्या हैं जिनके आधार पर इस तरह के निर्णय लिए जाते है।

ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठता का सूत्रः: एक प्रशासक से यह आशा की जाती है कि उसकी कायवाही ईमानदारी पर आधारित हो तथा अपनी शक्ति प्रतिष्ठा व स्वविवक का प्रयोग वह योग वह स्वयं के हित में या फिर अन्य लोगों को गैर-जरूरी लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से न करे।

लोक संबंध

संगठन चाहे निजी हो या सरकारी,  इनके व्यवस्थित संचालन में लोक संबंधों की भूमिका अहम होती जा रही हैये न सिर्फ संगठन के निर्णयों को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि जनमत पर भी इनका असर होता दिख रहा है। वर्तमान में लोक संबंध से जडे कार्य किसी भी संस्था या संगठन के लिए अपारहाय माने जाने लगे हैं। इसकी बढ़ती हुई महत्ता के कारणों को निम्नलिखित रूप में रेखांकित किया जा सकता है:

  • लोक संबंधों के लिए किये गए पहल के द्वारा सचना की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति के अधिकार को स्वीकृति व पहचान मिलती है।
  • दूरसंचार तथा यातायात के क्षेत्र में हई प्रगति से भी लोक संबंधों को प्रोत्साहन मिल रहा है।
  • वर्तमान में वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव एवं पारंपरिक रूप से बंद समाजों में आए खलेपन से भी लोक संबंधों को समर्थन मिलने लगा है।
  • स्वयं सरकार भी सत्ता में बने रहने के अलावा विकासात्मक कार्यों के लिए भी लोक संबंधों की दिशा में पहल कर रही है।
  • वर्तमान में व्यावसायिक गतिविधियों के बढ़ने, नये-नये उपक्रमों के खुलने, इनके बीच व्यावसायिक गठजोड़ के बनने तथा दूसरे देशों एवं दूसरी संस्कृतियों तक बिजनेस-व्यापार के संचालन में भी लोक संबंधी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। 

लोक संबधों में नैतिकता

किसी भी संस्था या संगठन द्वारा लोक संबंधों के लिए की जाने वाली पहल एक लम्बी कार्य योजना है। इसके अन्तर्गत इस बात का प्रयास किया जाता है कि लोग संस्था/संगठन से जुड़े विचारों एवं मनोवृतियों को स्वेच्छा से अपनाएं ताकि आम जनता एवं संगठन के बीच पारस्परिक समझ व संबंध कायम हो। यह तभी संभव है जब लोक संबंधों के लिए तैयार की गई नीतियां कुछ नैतिक मानकों पर आधारित हो तथा इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्त्रोत व साधन वैध हों। लोक संबंधों का महत्तम लक्ष्य चाहे कितना भी वैध हो परंतु इसके साधन के रूप में छल, बल या झूठ-फरेब को किसी भी स्थिति में वैध नहीं ठहराया जा सकता।

हलांकि, क्या नैतिक है और क्या अनैतिक यह तय करना एक दुष्कर कार्य है परंतु सहज शब्दों में कहा जाए तो अपने विवेक तथा अंत: अनुभूति के आधार पर सही और गलत विकल्पों का चुनाव ही नैतिक और अनैतिक के फर्क को स्पष्ट कर देता है। कुछ भी ऐसा जो वैध और उचित न हो, व्यक्ति के मन में असंतोष पैदा करता है और वह अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है। झूठ और फरेब के आधार “पर संबंधों को कभी भी मजबूत नहीं बनाया जा सकता। आम जनता को कम आँकना और उन्हें बेवकूफ समझना किसी भी स्थिति में उचित नहीं। अब्राहम लिंकन के शब्दों में, “कुछ लोगों को हमेशा बेवकूफ । बनाया जा सकता है, सभी लोगों को थोड़े समय के लिए बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन सभी लोगों को हमेशा बेवकूफ बनाना संभव नहीं।” कई ऐसे कार्य हैं जिन्हें लोक संबंध के संदर्भ में अनैतिक अर्थात् नैतिक मानकों के खिलाफ माना जाता है, जैसे महत्वपूर्ण सूचनाओं को छिपाना या फिर लोगों को गुमराह करना। ऐसे ही कुछ अन्य अनैतिक कार्य व्यवहार इस प्रकार हैं-

  • संस्था/संगठन से जुड़े नकारात्मक सूचनाओं को प्रेक्षित न करना।
  • तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करना।
  • किसी मुद्दे के लिए संघर्ष करने के बजाए उसे स्थगित करने का निश्चय कर अपना ही कोई हित साधना।
  • वे वादे करना जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता।
  • सम्पादकों पर गलत तरीके से दबाव बनाकर उनसे ऐसी सूचनाएं छपवाना जो प्रचार का माध्यम बने।

आजकल लोगों में शिक्षा का प्रसार बड़ी तेजी से हो रहा है। जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गई है। ऐसे में लोक संबंध से जुड़े अधिकारियों के समक्ष नयी चुनौतियाँ आ रही हैं क्योंकि अब उन्हें व्यापार संबंधों, उपभोक्ता संरक्षण समूहों तथा पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ताओं से भी निपटना पड़ सकता है। अत: लोक संबंध अधिकारियों के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि वे अपने आचरण को नियमित करें, नैतिकता के मानदंडों की अनदेखी न करें तथा लोगों को साथ बातचीत के दौरान कानूनी पेचीदगियों को भी ध्यान रखें।

लोक संबंधों में नैतिक मूल्य

लोक सेवा में नैतिक मूल्यों व नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परन्तु इन नैतिक मूल्यों व मानकों को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना एक कठिन कार्य है जबकि यह सच है कि ये ही वस्तुत: लोक सेवा की प्रकृति को परिभाषित करते हैं साथ ही उसे एक मजबूत आधार भी प्रदान करते है। दरअसल आचरण के ये मानक जनता एवं लोक सेवक दोनों ही के लिए अपरिहार्य हैं और उनके कार्य-व्यवहार के लिए एक ढांचा प्रस्तुत करते हैं जिसके दायरे में ही लोक सेवा व लोक संबंधों का स्वस्थ संचालन संभव है। खासकर लोक सेवकों के लिए इन नैतिक मूल्यों व नियमों की महत्ता इस बात में भी है कि इनके प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण अपनाने के कारण ही वे जनता को कुशल व प्रभावी सेवा प्रदान कर पाते है।

इन नैतिक सिद्धान्तों को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है जिसे नोलान कमिटी (ग्रेट ब्रिटेन) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

  • नि:स्वार्थता: लोक सेवा से जुड़े अधिकारियों को अपने सारे निर्णय सिर्फ लोकहित में ही लेना चाहिए। लोक सेवक होने के नाते उन्हें ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए जिससे स्वयं उन्हें या फिर उनके परिवार व मित्रों को वित्तीय लाभ या अन्य फायदा पहुंचे।
  • सत्यनिष्ठाः लोक सेवा से जुड़े अधिकारियों को आम जनता या बाह्य संगठनों से किसी प्रकार का वित्तीय लाभ या अन्य फायदे स्वीकार नहीं करना चाहिए। इससे उनके कर्त्तव्य निष्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। दूसरे शब्दों में, उनकी निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।
  • वस्तुनिष्ठताः लोक सेवा से जुड़े अधिकारियों को अपने कार्य व्यापार में, जैसे लोगों से मिलने-जुलने, ठेका आवंटन अथवा लाभ और पुरस्कार की घोषणा आदि में योग्यता के आधार पर ही चुनाव करना चाहिए।
  • जवाबदेयता: लोक सेवा से जुड़े अधिकारीगण अपने निर्णयों एवं कार्यवाहियों के लिए जनता के प्रति जवाबदेय होते हैं। अत: इनके कार्यों की समीक्षा किए जाने की स्थिति में उन्हें अनिवार्य रूप से आज्ञाकारी और विनम्र बने रहना चाहिए।
  • खुलापन: लोक सेवकों को अपने कार्यों एवं निर्णयों में यथासंभव पारदर्शिता बरतनी चाहिए। अपने निर्णयों के लिए उन्हें ठोस युक्ति व कारण बताना चाहिए तथा सूचना की गोपनीयता तब तक बरतनी चाहिए जब तक कि व्यापक जनहित में इसका खुलासा अनिवार्य न हो।
  • ईमानदारी: लोक सेवकों का यह कर्तव्य है कि वे लोक स्पष्टीकरण करें तथा निजी हित और लोकहित के बीच संघर्ष की कि लोकहित को ही प्रमुखता मिले।
  • नेतत्व: लोक सेवकों को अपने नेतृत्व की क्षमता व अन्य  उदाहरणों के माध्यम से नैतिक मूल्योंका समर्थन व प्रसार करना चाहिए।

मानवीय मूल्य

मानवीय मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त इच्छाएं एवं लक्ष्य हैं जिन्हें मानव समाजी के माध्यम से सीखता है और जो व्यक्तिनिष्ठ अभिलाषाएं बन जाती है। निर्णय मानवीय मल्यों के भी हो सकते हैं या फिर निर्णय की प्रक्रिया में इनकी अनदेखी भी की जाती है। परन्त मानव के कारण के अन्तर्गत किए गए सारे महत्वपूर्ण निर्णयों, में इन मूल्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दूसरे शब्दों में, मानवीय मूल्य ही निर्णयों के आवश्यक एवं अपरिहार्य तत्व है। मानवीय मूल्य ही वह कडी है जो व्यक्तिगत अनुभवों और निर्णयों, उद्देश्यों तथा कार्यों को जोड़ता है। सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को समझने में भी मानवीय मूल्य इसी प्रकार की भूमिका का निर्वाह करते है। मूल्य व्यक्ति व समाज के व्यवहारों को नियंत्रित व सही मार्ग की ओर निर्देशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह एक ओर मनुष्य के मानसिक तनावों व संघर्षों को सुलझाते हुए आंतरिक संगति व सम्बद्धता को उत्पन करता है एवं दूसरी ओर आदर्श आयाम की ओर वैयक्तिक व सामाजिक जीवन की उन्नति को निर्देशित करता है।

लगभग सभी समाजों में हिंसा, युद्ध, घृणा तथा अपराध का वर्चस्व दिखाई पड़ता है तथा इतिहा के विभिन्न युगों में भी यही प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानवीय मूल्यों की सार्वभौमिकता जैसी कोई बात होती ही नहीं। परन्तु मानवीय मूल्यों की परंपरा आदि समाजों एवं धर्मों में भी देखी जा सकती है तथा मूल्यों की यह परंपरा तदन्तर आज भी जारी है जो सभी युगों एवं सभी संस्कृतियों में दृष्टिगोचर है। इस अर्थ में इन मूल्यों को सार्वभौम कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मानवीय मूल्यों की अन्तर्वस्तु 

मानवीय मूल्यों की अन्तर्वस्तु मानवीय मूल्यों को कई तरीके से प्रतिपादित अथवा अभिव्यक्त किया जा सकता है- अर्थात इन्हें व्यावहारिक उदाहरणों से लेकर उच्च नैतिक सिद्धान्तों के रूप में भी समझा जा सकता है। मानवीय मूल्य शिक्षाविदों अथवा उपदेशकों द्वारा विकसित किया गया कोई अमूर्त सिद्धान्त नहीं है अपित जीवन मे जडे विचार एवं नियम हैं जिनका औचित्य कई तरह से सिद्ध किया जा सकता है। चूकि मूल्यों का संबंध मानव से है अत: यह स्पष्ट है कि ये किसी आध्यात्मिक अथवा अतिप्राकृतिक सत्ता द्वारा निर्देशित आचरण के नियम भी नहीं हैं और न ही कोई ईश्वरीय आदेश। इनका संबंध विभिन्न संस्कृतियों विशिष्ट स्तियों तथा परिस्थितियों से है। इनका विकास ही मानव के लिए और मानवीय अर्थों में हुआ है जो मानवमात्र की आत्मसिद्धि में सहायक बने। समाज या संस्कृति मनुष्य को मूल्यों के आधारभत प्रतिमान समस्त मानवीय इच्छाएं सामाजिक आवेगा के साथ घुलो मिली रहती है। मानवीय मूल्य मनुष्य के सामाजिक संबंधों का घातक है। यह संस्कृति परंपरा व प्रशिक्षण ही मूल्य व्यवस्थाओं का सृजन करते हैं। मानवीय मूल्यों में वैयक्तिका को मिलता है। अपनी अभिरुचियों, आदतों तथा क्षमताओं में विविधता के अपने-अपने ढंग से करता है।

आधारभूत मानवीय मूल्य

यहाँ मानवीय मूल्यों की एक सूची प्रस्तुत की जा रही है जिसके प्रति आम लोग समान रूप से आस्था प्रकट करते हैं, अर्थात् इन मूल्यों को सार्वभौम व सर्वगतमूल्यों की कोटी मे रखा जा सकता है। ये हैं-

  • सत्यता (सत्य) 
  • प्रेम और सेवा भावना 
  • शांति ।
  • अहिंसा ।
  • न्याय

सत्यता (सत्य)

किसी तथ्य की सत्यता किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा या आकांक्षा पर निर्भर नहीं करती। सत्यता का अस्तित्व इच्छाओं, हितों एवं विचारों से स्वतंत्र होता है। यह सच है कि कोई भी झूठा व्यक्ति बल्कि अधिकांश झूठे लोग स्वयं को झूठा कहलवाना पसंद नहीं करते। इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है तथा यह मानव मन में अन्तर्निहित होता है। सत्य से बौद्धिक संतष्टि मिलती है। केवल सत्य के अस्तित्व का ही नहीं, बल्कि सत्य के ज्ञान का भी साध्यमूल्य होता है। यह सर्वविदित है कि सत्य एक साध्यमूल्य है।

प्रेम और सेवा भावना

यहां ‘प्रेम’ शब्द का व्यापक अर्थ है। यहां ‘प्रेम’ से अभिप्राय है स्नेह रखना, ध्यान रखना तथा किसी की सुध लेना। मानव मूल्यों में यह बेहद मौलिक है जो दूसरों के प्रति आदर तथा सेवा भावना को व्यक्त करता है। प्रेम को व्यक्ति सामान्य तौर पर ‘व्यक्तिगत’ अर्थों में लेता है जिसमें काम विषयक भावना निहित होती है। परन्तु मानव मूल्य के अर्थ में प्रेम का सार एक पवित्र भावना को परिलक्षित करता है। यहां ‘प्रेम’ का अर्थ नि:स्वार्थ प्रेम है जो दसरों के प्रति तथा पूरे विश्व क प्रति समर्पित किया जा सकता हैप्रेम में स्वार्थ की भावना जितनी ही कम होगी जीवन की गुणवत्ता में उतनी ही अधिक व्रद्धि होगी यधपि  प्रम’ शब्द स्वयं में अस्पष्ट एवं झूठ है परन्तु इसे परोपकारिता, क्षमा तथा सालमल क अर्थों में भी समझा जा सकता है। प्रेम की भावना अथवा संवेग के अर्थों में नही लिया जा सकता बल्कि इसे सिर्फ मानव चेतना के स्तर पर ही समझा जा सकता है। वस्तुतः यह मनुष्य की आत्मा की एक अदभुत विशिष्टता है और सार्वभौम सत्य भी।

शांति

शांति एक भावात्मक मूल्य है जो सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। शांति का अर्थ है समरसता अथात् द्वेष और संघर्ष का अभाव। यह एक संतुलित परन्तु गत्यात्मक मानसिक स्थिति है। मानवीय मूल्यों – एक प्रकार्यात्मक संबंध होता है। अत: व्यक्ति अथवा समाज के नियंत्रण या अनुमोदन से समस्त मानवाय अभिप्रेरणाएं मूल्यों में रूपान्तरित हो जाती है। इनमें से सभी भावात्मक मानवीय मूल्यों केसम्मिलन से ही शांति की स्थापना संभव हो पाती है चाहे वह व्यक्तिगत जीवन में हो या फिर समाज या विश्व के स्तर पर। सत्य, न्याय और प्रेम, तथा भाईचारा शांति की स्थापना के लिए आवश्यक शर्ते है जिनके अभाव में हितों का संघर्ष शरू होता है तथा शांति खतरे में पड़ जाती है। हलांकि शांति को उपद्रव , हिंसा युद्ध तथा दुराचार के अभाव के रूप में भी समझा जा सकता है परन्तु इसके मूर्त रूपको समझना मुश्किल नहीं क्योंकि व्यक्ति इसे एक-दसरे के प्रति आदर. मित्रभाव, सहिष्णता और सक शाति के रूप में स्पष्ट रूप से महसूस करता है। मन की शांति भले ही एक व्यक्तिगत अनुभव परन्तु समाज के सदर्भ में शांति की स्थापना सकारात्मक कार्यों से ही संभव है। ये कार्य हिंसक या विध्वंसात्मक नहीं बल्कि रचनात्मक एवं सहिष्णुतापूर्ण होते हैं।

अहिंसा

 मानवीय मूल्यों में अहिंसा का महत्वपूर्ण स्थान है। अहिंसा के बिना सर्वोच्च सत्य की सिद्धि असम्भव है। अहिंसा का अर्थ है हिंसा न करना अर्थात् यह एक मानवीय प्रवृत्ति है जिसमें व्यक्ति प्राणियों तथा उनके परिवेश को हर प्रकार की हानि से सुरक्षित रखने की चेष्टा करता है। स्वार्थ और द्वेष को त्यागकर क्रोध पर विजय प्राप्त करना तथा किसी को भी किसी प्रकार का दु:ख या कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है। मूल्यात्मक अवधारणा होने के साथ-साथ अहिंसा एक व्यापक अवधारणा भी है। इस अर्थ में पर्यावरण तथा पारिस्थितिक तंत्र का शोषण तथा प्रदूषण आदि से रक्षा करना भी अहिंसा के अंतर्गत आता है। वस्तुत: इस कार्य से अहिंसा की भावना को बल मिलता है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो हमें अनैतिक कार्य करने तथा प्रकृति में असंतुलन पैदा करने जैसे कार्यों से रोकता है। हिन्दू धर्म तथा गांधी दर्शन में भी अहिंसा की व्याख्या इसी रूप में की गई है। वस्तुतः अहिंसा करना आदर्शवाद नहीं है। यह एक ऐसा मूल्य है जिसे सभी धारण कर सकते हैं। पशु भक्षण से खेती की ओर, लूटपाट से व्यवस्थित जीवन की ओर बढ़ना, व्यक्ति से परिवार की ओर, राष्ट्रीयता से अन्तरराष्ट्रीयता का विचार अहिंसा की व्यापकता के ही चिन्ह है। अत: अहिंसा के आधार पर ही आदर्श समाज का संगठन किया जा सकता है।

न्याय

यूरोपीय परम्परा के अन्तर्गत न्याय को उच्चतम मानवीय मूल्यों की कोटि में रखा गया है बल्कि सुकरात एवं प्लेटो ने तो इसे उच्चतम मानवीय मूल्य के रूप में स्वीकार किया है। ‘न्याय’ की संतोषजनक परिभाषा देना यद्यपि मुश्किल है परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि न्याय आधार निष्पक्षता है जिसका मौलिक अर्थ यह है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान है। न्याय एक सामाजिक मूल्य है जो अहिंसा व स्नेह के नियमों से संचालित होता है। न्याय का मूल उद्देश्य है संघर्षों को कम अथवा समाप्त करना। सार्वजनिक कल्याण हेत सामाजिक न्याय की परम्परा अत्यंत प्राचीन है जिसका उदाहरण हमें इतिहास-पूर्व काल में भी देखने को मिलता है। सभी समाजों में इसे एक केन्द्रीय विचार के रूप में अपनाया जाता रहा है। न्याय की संकल्पना प्राचीन यनान में चिंतन का मुख्य विषय रही है और इसी से बाद में मानवाधिकारों की संकल्पना का प्रादर्भाव हआ। तत्पश्चात दिसम्बर, 1948 में जेनेवा कवेशन के द्वारा मानवाधिकारों की विश्वजनीन घोषणा जारी की गई।

न्याय एक राजनीतिक मूल्य भी है और इस अर्थ में भी इसकी प्रासंगिकता व्यापक है क्योंकि राजनीति लोकतंत्र के साथ-साथ अन्य शासन प्रणालियों में भी राजनीतिक न्याय के आधार पर ही समतापूरक समाज और राष्ट्र की स्थापना की जा सकती है। मानवीय मूल्य होने के नाते न्याय की महत्ता इसी बात से स्पष्ट होती है कि यह सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है। आज न्याय के संबंध में केवल ऐसी संकल्पना को स्वीकार किया जाता है जिसका निर्माण जीवन के सामाजिक, आथिक, राजनीतिक यथार्थ को सामने रखकर किया गया हो। न्याय के मल्य को वेदों में उल्लिखित अहिंसा के अर्थ में भी समझा जा सकता है जहां अहिंसा को ‘सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और आदर के रूप में स्वीकार किया गया है। यह तथ्य इस धारणा पर आधारित है कि सृष्टि सावयव है। यद्यपि भिन्न-भिन्न प्राणियों का स्वतंत्र अस्तित्व है परन्तु सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। सृष्टि एक समुच्चय है तथा सभी प्राणी इसके अंग है। सृष्टि तथा इन प्राणियों में अंग-अंगी का संबंध है। इस सृष्टि में एक विशिष्ट प्रकार की एकता है। अत: ‘न्याय’ से अभिप्राय है इन सभी जीवों के प्रति एक समान व उचित व्यवहार। आधुनिक युग में न्याय की मुख्य समस्या यह है कि सामाजिक जीवन के अंतर्गत विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के प्रति वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों, लाभों, शक्ति और सम्मान के आवंटन का उचित आधार क्या होना चाहिए? परन्तु यह न्याय का संकुचित अर्थ है और इस परिभाषा का केन्द्रबिन्दु मानवमात्र है।

मानवीय मूल्य: महान नेताओं के जीवन से शिक्षा

समूचे विश्व में कई महान और युग प्रवर्तक नेता हुए हैं जिनमें कुछ प्रमुख है- महात्मा गांधी, अब्राहम लिंकन मार्टिन लुथर, नेल्सन मंडेला, वाक्लव हेवेल, मैडम आंग सा सू की तथा मदर टेरेसा। इनका नैतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उपलब्धियों से जिन मानवीय मूल्यों पर प्रकाश पड़ता है उसकी एक सूची यहां प्रस्तुत की जा रही है। ये हैं:

  •  न्याय के प्रति प्रेम और लगाव 
  • नि:स्वार्थता
  • मानवता के प्रति आदर
  • प्रत्येक के लिए गरिमा
  • स्नेहिल और यथोचित व्यवहार
  • अहिंसा और शान्ति के प्रति आस्था
  • परोपकारिता
  • करुणा व सहानुभूति ।

महान प्रशासकों के जीवन से शिक्षा

हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी वर्तमान पीढी सौभाग्यशाली है क्योंकि उसमें विश्व के कछ सर्वोत्तम प्रशासक पैदा हुए है। इनमें वर्गीस कुरियन, एम.एस. स्वामीनाथन सैम पित्रोदा, ई. श्रीधरन, सी.डी. देशमुख, आई.जी. पटेल, वी.पी. मेनन तथा जीवीजी कणामति का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है। इनकी उपलब्धियों से यह स्पष्ट है कि अपने कार्यों में इन्होंने मानवीय मल्या का हम समिकता दी। यहां उन व्यावसायिक एवं मानवीय मूल्यों की एक सूची प्रस्तुत की जा रहा है से इन प्रशासकों के लिए मार्गदर्शक साबित हुए। ये हैं-

  • सत्यनिष्ठता
  • भेदभाव का विरोध
  • अनुशासन
  • एक नागरिक के रूप में कर्तव्यपरायणता
  • सामाजिक समानता
  • कानून के प्रति सम्मान
  • नैतिक जवाबदेयता का बोध
  • साहस
  • आदर और भाईचारा

महान सुधारकों के जीवन से शिक्षा

भारत में कबीर, गुरूनानक देव, राजाराम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद जैसे कई समाज सुधारक पैदा हुए जिन्होंने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का पुरजोर विरोध किया तथा कई सामाजिक धार्मिक मुद्दों पर समाज को पुनर्जागृत किया। उनकी उपलब्धियों से जिन मानवीय मल्यों पर प्रकाश पड़ता है उसकी एक सूची कुछ इस प्रकार है:-

  • मानवता के प्रति आदर
  • प्रत्येक की गरिमा का ध्यान 
  • मानवतावाद
  • तर्क और अन्वेषण के सहारे सत्य की खोज
  • दयालुता और करुणा
  • आत्मसंतोष
  • सामाजिक समानता ।

मानवीय मूल्यों के आत्मसातीकरण में परिवार की भूमिका

परिवार ही प्राथमिक इकाई है जहां व्यक्ति का समाजीकरण होता है। बच्चे के व्यक्तित्व के निस में परिवार की अहम् भूमिका होती है। परिवार ही बालक को समाज का एक योग्य सदस्य बनाता है।  परिवार उसे आचरण संबंधी नियमों से परिचित कराता है। परिवार में बालक के अनेक मानवीय मल्यों का विकास होता है। वह प्रेम, आत्म-त्याग, परोपकार, कर्त्तव्य और आज्ञापालन तथा सहयोग का पाठ सीखता है। यह बालकों में सद्भावनाओं का संचार करता है। कई अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चका है कि जिन परिवारों में सदस्यों के बीच स्वस्थ संबंध रहते है, ज्यादातर उसी परिवारों के बच्चे सफलता और बड़ी-बड़ी उपलब्धियां कायम करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक संगठित परिवार ही अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है तथा जीवन में महान कार्य करने की असीम प्रेरणा भी देता है। परिवार के द्वारा दी गई मनोवैज्ञानिक सुरक्षा में ही बालक का मानसिक और बौद्धिक विकास हो जाता है जिससे बालक यह समझने लगता है कि व्यक्ति और समाज के प्रति उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए।

मल्यों के आत्मसातीकरण में समाज की भूमिका

प्रशासन से संबंधित नैतिक मूल्य व मानक उस समाज में प्रचलित सामान्य नैतिक मूल्यों व मानकों का ही एक रूप है, अर्थात् किसी समाज अथवा समुदाय एवं वहां के अभिशासकों के नैतिक मूल्यों व आदर्शों में फर्क नहीं किया जा सकता। समाज शब्द का प्रयोग बहधा व्यक्तियों के एक ऐसे समूहों या सामाजिक साहचर्य के एक ऐसे रूप के लिए किया जाता है जिसके सदस्य एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं और जिनमें एकत्व की भावना, अन्तरिस्परिकता, साझा संस्कृति तथा संगठित क्रियाकलापों जैसी विशेषताएँ होती है। फाइनर के शब्दों में, “सूक्ष्म विश्लेषण करने पर यह पाया जा सकता है कि किसी संस्था, संगठन या व्यवसाय से जुड़े नैतिक मापदंड उस देश में प्रचलित नैतिक मानकों व मूल्यों से कम या ज्यादा नहीं होता बल्कि उसी के अनुरूप होता है जिस देश में ये संस्था, संगठन या व्यवसाय संचालित रहते हैं, अर्थात् किसी संगठन या व्यवसाय के लिए तय किए नैतिक मूल्यों पर वहां की सभ्यता व बाह्य परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

किसी देश की सरकार की सफलता वहां के नागरिकों को जागरूकता एवं शासन में उनकी भागीदारी पर निर्भर करती है। यही कारण है कि नागरिकशास्त्र की सभी पुस्तकों में देश को प्रगति में वहां की जनचेतना की भूमिका को सबसे अहम बताया जाता है। जनचेतना एवं जागरूकता के माध्यम से देश की प्रगति तभी संभव है जब वहां की शिक्षा व्यवस्था तथा मीडिया नागरिकों के चरित्र निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का सही तरीके से निर्वाह करे। किसी देश में नागरिकों के चरित्र ही वह स्त्रोत है जिनसे देश के विकास व आधुनिकीकरण को ऊर्जा मिलती है।

ऐसे में शिक्षा, वयस्क शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से लोगों में देश प्रेम, अनुशासन व नागरिक चेतना प्रदान करने की परजोर आवश्यकता है। इससे लोक सेवकों को सभी समुदायों के लोगों का सहयोग मिल सकेगा तथा शासन में जनभागीदारी बढ़ेगी। ऐसे में लोक सेवक भी कठिन पारश्रम के लिए उद्यत होंगे ताकि जनता का समग्र विकास सनिश्चित हो।

मूल्यों के आत्मसातीकरण में शिक्षण संस्थानों की भूमिका

नैतिक मूल्यों के आदान-प्रदान में शिक्षा का की महत्वपूर्ण भूमिका होती है शिक्षा व्यक्ति को इस बात के लिये तैयार करती है कि वह सामाजिक परिवर्तन को नेतत्व प्रदान करे । शिक्षा व्यक्ति में अनुकलनकारी व्यक्तित्व का विकास करके परिवर्तन की प्रक्रिया में सहयोग प्रदान करती है। यह नवीन मल्यों एवं विचारों के आत्मसातीकरण में सहायक होती है और व्यक्ति को किसी विशिष्ट दिशा में परिवर्तन हेतु बौद्धिक एवं भावनात्मक रूप से तैयार करती है। शिक्षा समाज एवं संस्कृति की निरन्तरता के साथ-साथ उसमें वांछित सुधार एवं परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

परन्तु इसके लिए शिक्षा-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे प्रशिक्षु की स्वायत्तता व स्वतंत्रता बाधित न हो। किसी व्यक्ति के शैक्षणिक विकास के कई उद्देश्य हो सकते हैं जिनमें प्रमुख हैं- ज्ञानार्जन, संस्कृति-संरक्षण, व्यक्तित्व का विकास, सामाजिक न्याय की प्रगति, वैज्ञानिक मनोदशा का विकास, लोकतंत्र की सफलता तथा धर्मनिरपेक्ष मनोवृत्ति का विकास आदि। ये गुणात्मक रूप से उच्चतर एवं बेहतर जीवन की प्राप्ति में सहायक होते हैं। यह शिक्षा ही है जिसके माध्यम से समाज उच्च मानवीय मूल्यों का संरक्षण करती है और साथ में उन्हें प्रोत्साहन भी देती है।

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