उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय चेतना का उद्भव और विकास

इसको पढ़ने के बाद आपः

  • यह जान पाएँगे कि औपनिवेशि शासाने भारतीय जनता के विभिन्न वर्गों को किस प्रकार प्रभावित किया।
  • यह बता सकेंगे कि राष्ट्रीय चेतना के विकास में किन महत्वपूर्ण कारकों ने योगदान दिया।
  • यह व्याख्या कर सकेंगे कि किस प्रकर.रतीय जनता और मध्यम वर्ग ने औपनिवेशिक चुनौती का उत्तर दिया और किस
    प्रकार से राष्ट्रीय चेतना ने एक साठिन रूप ग्रहण किया।

इसमें हम यह देखेंगे कि किस प्रकार अंग्रेजी नीतियों के परिणामस्वरूप 19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ। हम इस बात पर अधिक बल देंगे कि राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए कौन-से तत्व उत्तरदायी हैं और हमारे अध्ययन काल में इस चेतना ने क्या रूप लिया।

19वीं शताब्दी में राष्ट्रीय चेतना का उद्भव वस्तुतः अंग्रेजी शासन का परिणाम था अंग्रेजी शासन ने जो परिवर्तन आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में किये थे उसके परिणामस्वरूप भारतीय जनता के सभी वर्गों का ही शोषण हुआ था जिससे कि जनता के बीच असंतोष की भावना ने एक व्यापक रूप लिया। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने डाक और तार व्यवस्था, रेल, छापेखाने, एकरूप प्रशासन आदि का विकास किया । यद्यपि इनका विकास एक सुचारू प्रशासन चलाने की दृष्टि से किया गया था तथापि इन सभी ने राष्ट्रीय चेतना की उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस इकाई में हम राष्ट्रीय चेतना के उद्भव में इन कारकों की भूमिका का विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे।

भारतीय अर्थव्यवस्था का विनाश

भारत में अंग्रेजों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाई उसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि और कुटीर उद्योगों को काफी धक्का लगा। इस प्रक्रिया के अंतर्गत किसानों, कामगारों और अन्य वर्गों की स्थिति निरंतर बिगड़ती चली गई।

इकाई-2 के अंतर्गत आपने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और राज्यात पहले ही अंग्रेजी शासन के आर्थिक दुष्प्रभावों को पढ़ा है जो कि कृषि के व्यावसायीकरण, अकालों और भारतीय उद्योगों के पतन के रूप में सामने आये थे। यहाँ पर हम बहुत ही संक्षिप्त रूप से इस बात की चर्चा करेंगे कि किस प्रकार अंग्रेजी शासन ‘ ने हमारे आर्थिक जीवन को 19वीं शताब्दी में प्रभावित किया।

कृषि

अंग्रेजों की कृषि नीति मुख्यतः अधिकतम भू-राजस्व एकत्रित करने के उद्देश्य से प्रेरित थी। स्थायी बंदोबस्त के इलाकों में जमींदारों को एक निश्चित धनराशि भू-राजस्व के रूप में सरकार को देनी होती थी । जमींदार किसानों से उससे कहीं अधिक लगान एकत्र करते थे जितना कि उन्हें सरकार को देना होता था। उनकी इस मांग को पूर्ण करने के लिए किसानों को स्वतः ही महाजनों से धन उधार लेना पड़ता था और महाजन किसानों से अत्यधिक ब्याज वसूल करते थे, जब भी किसान जमींदार या महाजनों द्वारा शोषण के विरुद्ध आवाज उठाते थे तो सरकार शोषकों का ही साथ देती थी।

अंग्रेजी सरकार नगदी फसलों (जैसे कि नील, कपास, गन्ना आदि) की उगाही अपनी मनमानी कीमतों पर करती थी और इन फसलों का प्रयोग अंग्रेजी उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता था। कपास और नील बोने वाले किसान इस शोषण नीति से सबसे अधिक पीड़ित थे। अंग्रेजी भू-राजस्व नीति के परिणामस्वरूप किसानों की एक बड़ी संख्या भूमिहीन कृषि श्रमिक बनती जा रही थी। 1901 की जनगणना के आँकड़े यह बताते हैं कि 20 प्रतिशत से अधिक आबादी देश में भूमिहीन श्रमिकों की थी।

उद्योग

जब हम उद्योगों की चर्चा करते हैं तो यह देखने में आता है कि कामगारों को भी अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेजों ने भारत में बने कपड़े के निर्यात के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाये थे, जब कि इंग्लैंड में मशीन से बने कपड़े की भारत में बिक्री के ऊपर वस्तुतः किसी भी प्रकार का कर या प्रतिबंध नहीं था। भारतीय कामगार इस स्थिति में नहीं थे कि वे अंग्रेजी मशीन से बने कपड़े के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें।

हालाँकि इंग्लैंड में मशीनों के आगमन पर वहाँ के कामगारों की हालत भी बिगड़ी थी परन्तु शीघ्र ही उन्हें कारखानों में रोजगार मिल गया था। भारत में मशीन से बना सामान इंग्लैंड से आता था और यहाँ पर कारखानों के लगाये जाने की प्रक्रिया अत्यंत ही धीमी थी क्योंकि सरकार भारत में औद्योगीकरण के पक्ष में नहीं थी। ऐसी परिस्थिति में कामगारों का बेरोजगार होना स्वाभाविक ही था । जो कुछ छोटे-मोटे कारखाने, खदानें या । बागान यहाँ पर थे उनमें काम कर रहे कामगारों की स्थिति भी अच्छी नहीं थी, क्योंकि उन्हें मजदूरी बहुत कम दी जाती थी।

व्यापार, चुंगी, कर और यातायात के प्रति सरकार की नीतियों के कारण उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था।वे स्पष्ट रूप से यह अनुभव कर रहे थे कि किस प्रकार से इंग्लैंड प्रारंभ में भारत का उपयोग अपने उद्योगों के लिए कच्चामाल प्राप्त करने के लिए कर रहा था और बाद में किस प्रकार थोड़ी बहुत अंग्रेजी पूंजी का निवेश भारत में किया गया था । अंग्रेजी पूँजीपतियों के पास व्यापक साधन थे और उन्हें सरकार द्वारा हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध थी। भारतीय पूंजीपति वर्ग को अभी उद्भव की दशा में होने के कारण सरकारी संरक्षण की आवश्यकता थी और वह उसे प्राप्त नहीं था।

19वीं शताब्दी में भारत की स्थिति

इस संक्षिप्त विवरण से आपने यह देखा कि भारतीय समाज का प्रत्येक वर्ग अंग्रेजी शासन के अधीन कठिनाइयों का सामना कर रहा था । परन्तु जनता में असंतोष की भावना एकाएक ही नवीन चेतना को जन्म नहीं देती । वास्तव में यह अंसतोष विभिन्न समयों पर विद्रोह के विभिन्न पहलुओं के रूप में उभरकर सामने आया। कभी यह सरकारी अधिकारी के विरुद्ध था तो कभी जमींदार के और कभी किसी नये कानून के । वास्तव में विदेशी शासन के प्रति असंतोष की जो भावना थी उसके एक सही राष्ट्रीय चेतना के रूप में न उभरने के लिए कई कारक उत्तरदायी थे, जैसे कि देश का विस्तृत क्षेत्र, संचार साधनों का पिछड़ापन, अशिक्षा, समान भाषा की अनुपस्थिति, विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं का अलग-अलग होना और प्रशासन को क्रियान्वित करने के अलग-अलग रूप।

राष्ट्रीय चेतना के उद्भव के कारण

ऊपर हमने जिन तत्वों के बारे में चर्चा की है उनके कारण अंग्रेजों को भी एक प्रभावशाली प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने में कठिनाई हो रही थी। अतः अंग्रेजों ने कुछ नवीन प्रशासनिक तरीकों और नीतियों को अपनाया इन तरीको और नीतियों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में भी सहयोग दिया। अब हम अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई इन नीतियों और उनके प्रभावों । का मूल्यांकन करेंगे।

प्रशासन का संगठित स्वरूप

भारतीय साधनों का पूर्ण रूप से शोषण करने के लिए अंग्रेजों ने देश को एक रूप प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान की। प्रशासन में एकरूपता स्थापित करने के लिए जो महत्वपूर्ण तरीके अपनाए गये उनके अंतर्गत भू-राजस्व प्रशासन, पुलिस, कानून और व्यवस्था आदि के क्षेत्र सम्मिलित थे।

संचार व्यवस्था

डाक और तार व्यवस्था का विस्तार और सुधार किया गया।सभी मुख्य नगरों को तार व्यवस्था से जोड़ा गया। 1853 से रेल लाइनें बिछाई गई, इसके अंतर्गत योजना यह थी कि प्रांतों को एक दूसरे के साथ और उन क्षेत्रों को जहाँ से कच्चा माल प्राप्त होता था, बन्दरगाहों के साथ जोड़ा जा सके। लेकिन जैसे-जैसे रेल लाइनों का विकास हआ यात्रियों के आवागमन में भी वृद्धि हुई और इस प्रकार दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ संपर्क स्थापित करने का अवसर प्राप्त हुआ।

छापाखाना

छापेखाने के आगमन के परिणामस्वरूप विचारों के आदान-प्रदान और शिक्षा की प्रक्रिया भी कीमती नहीं रही । अनेक अखबार और पत्रिकाएँ छपने लगे। इन प्रकाशनों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं से लोग अवगत होने लगे। आप स्वयं अपने अनुभव से यह अनुमान लगा सकते हैं कि प्रेस समाज के शिक्षित वर्गों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने में किस प्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

नवीन शिक्षा प्रणाली

अंग्रेजों ने भारत में जिस नवीन शिक्षा प्रणाली को लागू किया वह मुख्यतः पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित थी। अंग्रेजों की यह धारणा थी कि इस प्रकार की शिक्षा से भारतीयों में वह एक निष्ठावान वर्गखड़ा कर देंगे जो कि अंग्रेजों के लिए पूर्ण स्वामीभक्ति के साथ क्लर्की आदि का कार्य कर सकें। जैसे मैकाले ने कहा था कि, उद्देश्य यह था कि “व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग बनाया जाए जो कि खून और रंग से तो भारतीय हो परन्तु आदर्श, विचार और अक्ल से अंग्रेज हो”

परन्तु इस नवीन शिक्षा प्रणाली का एक दूसरा ही प्रभाव हुआ, इसके द्वारा ‘भारत का शिक्षित वर्ग समानता, स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के विचारों से एक ऐसे समय में परिचित हुआ जबकि औपनिवेशिक शासन को लेकर सर्वत्र असंतोष फैला हुआ था। हालांकि यह शिक्षा प्रणाली भारतीयों के एक छोटे-से वर्ग तक ही सीमित थी (उदाहरण के लिए 1921 तक लगभग 92 प्रतिशत भारतीय अशिक्षित थे) तथापि इस शिक्षा के माध्यम से शिक्षित भारतीय का परिचय यूरोप में चल रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों से हुआ (जैसे कि जर्मनी और इटली का एकीकरण और तुर्की के साम्राज्य के विरूद्ध विभिन्न जातियों के राष्ट्रीय आंदोलन) ।

इसके अतिरिक्त भारतीयों का परिचय कई उदारवादी लेखकों और विचारकों (जैसे जॉन मिल्टन, शेली, वेंथम, जॉन स्टुअर्ट मिल, रूसो, वालटेयर, मेजिनी और गैरी बाल्डी आदि) के विचारों और लेखन से हुआ।जो भारतीय इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त करके भारत लौटे तो उन्होंने यह पाया कि जो अधिकार यूरोपीय देशों के नागरिकों को स्वतः ही प्राप्त थे भारतीयों को उनसे वंचित रखा गया था।

अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति

अंग्रेजों ने प्रारंभ से ही अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए भारत के विभिन्न क्षेत्रों को विजित किया था। इस काल में भी उन्होंने अपनी विस्तारवादी नीति को जारी रखा। अनेक भारतीय रियासतों को जो अंग्रेजों से संघर्षरत भी नहीं थी अंग्रेजों ने हड़प लिया जैसे 1843 में सिंध, 1849 में पंजाब, 1856 में अवध और झांसी, सातारा और नागपुर आदि रियासतों का हड़पा जाना । इस प्रकार भारतीय राजा भी अंग्रेजों के प्रति सचेत हो उठे थे।

बौद्धिक जागरण

भारत में 19वीं शताब्दी में सामाजिक सुधार और बौद्धिक जागरण का काल प्रारंभ हुआ। बौद्धिक जागरण से हमारा अभिप्राय उस प्रयास से है जिसके द्वारा तत्कालीन समाज का आलोचनात्मक और रचनात्मक मूल्यांकन इस उद्देश्य से किया गया कि उसका परिवर्तन आधुनिक आधार पर किया जा सके। इस विश्लेषण का श्रेय उन बुद्धिजीवियों को जाता है जिन्होंने कि आधुनिक शिक्षा हासिल की थी। राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और सर सैयद अहमद खाँ आदि ऐसे प्रमुख बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने कि 19वीं शताब्दी में राष्ट्रीय चेतना के उद्भव में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अंग्रेजों ने अपने शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए अपने से पहले के युगको (18वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध) एक ऐसे काल के रूप में प्रस्तुत किया जिसके दौरान भारतीय समाज में एक ठहराव की स्थिति थी, उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया , कि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भारत की कोई उपलब्धि नहीं थी और न ही भारतीय एक अच्छी सरकार देने के योग्य थे। शिक्षित भारतियों ने अंग्रेजों के प्रचार के विरोध में कला, साहित्य दर्शन, विज्ञान और भवन निर्माण आदि के क्षेत्र में भारतीयों द्वारा प्राप्त की गई उपलब्धियों का जिक्र किया। इन ऐतिहासिक क्षेत्रों में खोज के परिणामस्वरूप जो नवीन चेतना उभरकर सामने आई उसका उद्देश्य धर्म के नाम पर निहित बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में सुधार लाना था।

रंगभेद नीति

अंग्रेजों द्वारा अपनाया गया रंगभेद दृष्टिकोण भी राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने में सहयोगी बना। यह भेद अंग्रेजों द्वारा केवल सामाजिक व्यवहार में ही नहीं अपनाया जाता था बल्कि न्यायिक क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया जाता था।

1864 में जी.ओ. ट्रैवीलियन ने जो कि एक इतिहासकार और प्रभावशाली सरकारी अफसर भी थे यह लिखा था कि “कचहरी में हमारे देश के एक व्यक्ति की गवाही, कई हिन्दुओं की गवाही के मुकाबले ज्यादा महत्व रखती है। यह एक ऐसी परिस्थिति है जो कि एक बेईमान अंग्रेज के हाथों में अत्यधिक शक्ति देती है”। वास्तव में रंगभेद की इस नीति ने व्यावहारिक रूप से जो कठिनाइयाँ और अपमान भारतीयों को दिया उससे राष्ट्रीय चेतना के विकास में अधिक बल मिला।

भारतीय प्रतिक्रिया

भारतीयों ने अंग्रेजी शोषण और इसके द्वारा लागू की गई नुकसानदेह नीतियों का विरोध विभिन्न स्तरों पर किया। धीरे-धीर इस विरोध ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया, हालांकि इस प्रक्रिया की गति प्रारंभिक अवस्थाओं में काफी धीमी थी। भारतीयों द्वारा अंग्रेजों के प्रति दर्शाये गये विरोध को हम दो रूपों में विभाजित कर सकते हैं।

  • किसान और जन-जातीय आंदोलन
  • मध्यम वर्ग का विरोध

 किसान और जन-जातीय आंदोलन

19वीं शताब्दी में हम यह देखते हैं कि अनेक स्थानों पर किसानों और जन-जातियों ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया। यद्यपि इन प्रारंभिक विद्रोहों को राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा नहीं दी जा सकती तथापि राष्ट्रीय चेतना के उद्भव और विकास में इन विद्रोहों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह प्रारंभिक विद्रोह अंग्रेजों की शोषक नीति के विरूद्ध हुए थे। इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार प्लासी के युद्ध से लेकर अगले लगभग 100 वर्षों तक इन विद्रोहों का संचालन परंपरागत नेतृत्व के हाथ में था (जैसे कि उजड़े हुए जमींदार, मुखिया या साधु और फकीर आदि) परन्तु इन विद्रोहों में हिस्सा लेने वाले समाज के पीड़ित छोटे वर्ग थे । इतिहासकार कैथलिन गफ ने ऐसे 77 किसान विद्रोहों का उल्लेख किया है, जिनमें कि हिंसा का प्रयोग किया गया था।

जन-जातियों के आंदोलन भी अत्यंत उग्र थे। कुंवर सुरेश सिंह ने इन आंदोलनों का अध्ययन कर यह धारणा प्रस्तुत की है कि भारतीय समाज के किसी अन्य वर्ग की अपेक्षा जन-जातीय आंदोलनों की संख्या अधिक थी और यह अधिक हिंसक भी थे। भारत में किसान और जन-जातीय विद्रोहों की एक लंबी सूची है और यहाँ हम केवल उनमें से कुछ का ही उल्लेख करेंगे

19वीं शताब्दी के पूर्वाध में होने वाले महत्वपूर्ण विद्रोह थेः

  • ट्रिवेनकोर विद्रोह (1800-1809)
  • भील विद्रोह (1818-1831)
  • हो विद्रोह (1820-1821)
  • खासी विद्रोह (1829-1831)
  • कोल विद्रोह (1831)
  • संथाल विद्रोह (1855-1856)

इनके अतिरिक्त वाहवी आंदोलन 1813-1869 और फरैजी आंदोलन 1834-1847 भी इस काल के महत्वपूर्ण आंदोलन थे। इनमें से अधिकांश विद्रोहों में नेतृत्व अंग्रेजों की नीतियों के परिणामस्वरूप उजड़े हुए सामंतों ने प्रदान किया था। इन विद्रोहों को आधुनिक दृष्टि से ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय आंदोलनों की उपमा नहीं दी जा सकती, परन्तु इसके साथ-साथ यह स्पष्ट है कि इन विद्रोहों के पीछे प्रेरक शक्ति अंग्रेजों की शोषक नीतियों का संयुक्त विरोध श और अक्सर कई आन्दोलन किसी शोषक जमींदार, महाजन या सरकारी अधिकारी के विरूद्ध भी हुए।

इस काल में शहरों में बसने वाली जनता ने भी अंग्रेजी नीतियों के विरूद्ध आवाज उठाई। 1810-11 की बनारस की हड़ताल और 1816 का बरेली विद्रोह इसके कुछ उदाहरण हैं। बनारस में शहर की जनता ने गृह टैक्स के विरूद्ध हड़ताल की थी और बरेली में पुलिस टैक्स के विरूद्ध । यह पुलिस टैक्स जनता से इस बात के लिए उगाहा जाना था कि पुलिस उन्हें सुरक्षा प्रदान कर सके। बनारस विद्रोह के कारण अंग्रेजों को गृह टैक्स वापस लेना पड़ा, परन्तु बरेली की जनता को पुलिस टैक्स देना ही पड़ा।

1857 का विद्रोह

अंग्रेजी सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप जो व्यापक असंतोष जनता में फैल रहा था वह 1857 के विद्रोह के रूप में प्रतिभूत हुआ । उत्तरी और मध्य भारत के अधिकांश क्षेत्रों में यह विद्रोह फैला । कहने को तो इसका प्रारंभ कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह से हुआ था, परन्तु शीघ्र ही किसानों और कामगारों ने इससे अपना संबंध जोड़ लिया । क्रांतिकारियों द्वारा दिल्ली से जारी की गई एक घोषणा में अंग्रेजों के संबंध में यह कहा गया था किः

“प्रथम तो उन्होंने हिन्दुस्तान में तीन सौ रूपये के राजस्व की उगाही की जहाँ कि केवल दो सौ रूपये ही बनते थे और पाँच सौ रुपये वहाँ उगाहे जहाँ कि चार सौ रुपये बनते थे और निरंतर अपनी माँग बढ़ाते ही जा रहे थे। नतीजा यह हुआ कि जनता भिखारी बन रही थी और विनाश की ओर अग्रसर हो रही थी। दूसरे उन्होंने चौकीदारी कर को भी दुगुना, चौगुना और दस गुना बढ़ा दिया था और उनकी इच्छा जनता का नाश करने की थी। तीसरे अनेक सम्मानित और विद्वान व्यक्ति बेरोजगार हो और लाखों लोगों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ भी प्राप्त नहीं होती थी । शासकों के अत्याचारों का हम कहाँ तक वर्ण । धीरे-धीरे बात यहाँ तक बढ़ गई कि सरकार हर किसी का धर्म भी भ्रष्ट करना चाहती थी।”

इस विद्रोह में हम पहली बार यह देखते हैं कि जनता राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित हुई थी। एस.एन. सेन ने अपनी पुस्तक ‘अठारह सौ सत्तावन’ में इस महत्व को दर्शाया है । अंग्रेजों ने इस विद्रोह का क्रुरतापूर्वक दमन किया लेकिन इसके साथ-साथ भारत का प्रशासन अब ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से निकलकर सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया, परन्तु इस विद्रोह के दमन से लोकप्रिय विद्रोहों का सिलसिला रुका नहीं। 19वीं शताब्दी के अंत तक विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध विद्रोह होते रहे।

1857 के उपरांत के किसान विद्रोह

19वीं शताब्दी के दूसरे अर्द्ध में जो महत्वपूर्ण किसान आंदोलन हुए वे थेः

  • बंगाल में नील विद्रोह (1859-60)
  • त्रिपुरा में कुकी विद्रोह (1860-90)
  • पंजाब में कुका विद्रोह (1869-72)
  • बंगाल में पावना किसान विद्रोह (1872-73)
    महाराष्ट्र में किसान विद्रोह (1979) और
  • दक्षिणी बिहार में विरसा मुंडा का विदोह (1899-1900)

इस प्रकार हम यह देखते हैं कि 19वीं शताब्दी में लगातार भारतीय जनता किसी न किसी क्षेत्र में अग्रेजों के विरूद्ध संघर्षरत रही है, यद्यपि यह संघर्ष असफल रहा परन्तु इन्होंने जनता में अंग्रेजी विरोधी भावनाओं को सशक्त किया।

मध्यम वर्गीय चेतना

19वीं शताब्दी में जन-आधारित लोकप्रिय आंदोलनों और विद्रोहों के अतिरिक्त शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग में एक नवीन चेतना का विकास हो रहा था । मध्यम वर्ग में जागृत इस चेतना ने ही लोकप्रिय असंतोष को एक निश्चित दिशा प्रदान की और राष्ट्रीय चेतना के विकास में एक महत्वपूर्ण कारक बना।
शिक्षित मध्यम वर्ग ने भारतीय समाज पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डाली और इस जागरूक वर्ग ने उसमें सुधार करने के लिए अत्यधिक प्रयास किया। राजा राममोहन राय इसमें अग्रदूत बने । सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। इसी प्रकार दयानन्द सरस्वती ने ‘आर्य समाज’ की और स्वामी विवेकानन्द ने ‘राम कृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इनके अतिरिक्त इस युग में ऐसे कई और संगठन भी बने जिन्होंने कि सती प्रथा, छुआछूत और अन्य आडंबरों को दूर करने के लिए प्रयास किये । यद्यपि ये सुधार आंदोलन मुख्यतः समाज के मध्यम वर्गों तक सीमित थे परन्तु इस संबंध में भारतीय जनता के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर एक सामाजिक चेतना जागृत करने में उन्होंने अत्यधिक ध्यान दिया और जनता में एक सामान्य संस्कृति से जुड़े होने की भावना को प्रबल किया।

सामाजिक चेतना के साथ-साथ राजनीतिक चेतना का भी विकास हो रहा था जैसे कि पहले जिक्र किया जा चुका है, भारतीय शिक्षित मध्य वर्ग भी जिसमें कि व्यापारी, वकील, अध्यापक, पत्रकार, डाक्टर आदि थे अंग्रेजी शासन के अंतर्गत कष्टों का सामना कर रहा था। किसानों और कामगारों की तुलना में यह वर्ग साम्राज्यवाद के उद्देश्यों और औपनिवेशिक शासन के स्वरूप को अधिक स्पष्टता से समझकर उनका विश्लेषण कर सकता था ।

प्रारंभ में इस वर्ग की यह धारणा थी कि संचार साधनों का विकास और रेल लाइन आदि भारतीयों के लिए लाभदायक साबित होंगे। इस धारणाा के कारण ही उन्होंने अंग्रेजी नीतियों का समर्थन किया था। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह स्पष्ट होने लगा कि अंग्रेजों ने जो प्रशासनिक तरीके अपनाए थे वे वास्तव में अंग्रेजी शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए अपनाए थे और उनकी आर्थिक नीतियाँ भी केवल अंग्रेजी व्यापारियों और पूंजीपतियों के हित के लिए ही थी, जैसे ही भारतीय मध्यम वर्ग को अंग्रेजी शासन के इस तथ्य की अनुभूति हुई उसने औपनिवेशिक शासन का विरोध प्रारंभ कर दिया, परन्तु किसानों, कामगारों और जन-जातियों ने जो विद्रोह का रास्ता अपनाया था उसे मध्यम वर्ग ने नहीं अपनाया । मध्यम वर्ग ने दो नवीन तरीके अपनाए:

  1. इस वर्ग ने अंग्रेजी नीतियों की आलोचना करते हए किताबें लिखीं, लेख लिखे और समाचार पत्रों के माध्यम से जनजागरण
    का प्रयास किया।
  2. इस वर्ग द्वारा अपनाया गया दूसरा तरीका विभिन्न संगठनों औ’ समितियों की स्थापना थी, जिनके द्वारा समान कार्यक्रम
    बनाया जा सके।

आइये हम पहले साहित्यिक क्षेत्र में किये गये मध्यम वर्ग के कार्यों की विवेचना करें। यह चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं कि किस प्रकार छापाखाना के आने से विचारों के आदान-प्रदान को सहयोग मिला था। राजा राममोहन राय ने इस क्षेत्र में भी
अग्रदूत का कार्य किया। उन्होंने बंगला भाषा में एक पत्रिका संबाद कौमुदी प्रकाशित करनी प्रारंभ की जिसमें कि विभिन्न विषयों पर लेख लिखे जाते थे, दीन बंधु मित्र ने बंगला भाषा में नील दर्पण नामक नाटक लिखे। जिसमें कि नील की खेती करने वाले किसानों के कष्टों का जिक्र था, बंकिम चन्द्र ने आनंद मठ लिखा। जो राष्ट्रीय भावना से प्रेरित था।

इसी प्रकार उर्दू की शायरी और लेखन में भी भारतीय जनता की गिरती हुई दशा का जिक्र हुआ और इस बात को भी उठाया गया कि किस प्रकार से परंपरागत भारतीय नगरों का पतन हो रहा था । मराठी, हिंदी और तमिल में भी इन्हीं विषयों पर लेख प्रकाशित हुए । अंग्रेजी के अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं में भी समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। उस समय के कुछ प्रमुख समाचार पत्र जिन्होंने कि राष्ट्रीय चेतना में योगदान दिया, निम्नलिखित थेः

  • बंगाल में हिन्दु पैट्रीएट, अमृता बाजार पत्रिका, बंगाली और संजीवनी
  • बंबई में मराठा, केसरी और नेटिव ओपीनियन
  • मद्रास में हिंदु, आंध्र पत्रिका और केरल पत्रिका
  • संयुक्त प्रांत में हिन्दुस्तान और आजाद
  • पजाब में ट्रिब्यून और अखबार-ऐ-आम आदि

1877 तक देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की संख्या 169 हो गई थी इसके साथ-साथ कई महान । साहित्यकार भी उभरकर सामने आये जिनकी कलम ने राष्ट्रीय चेतना को एक नवीन रूप दिया । इन साहित्यकारों में बंकिम चन्द्र चटर्जी, रविन्द्र नाथ ठाकुर, सुब्रह्मण्यम भारती, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अलताफ हुसैन हॉली और विष्णु शास्त्री चिपलुकर आदि प्रमुख थे।

मध्यम वर्ग द्वारा अपनाया गया दूसरा रास्ता विभिन्न संगठनों और समितियों की स्थापना थी, इनमें से कुछ प्रमुख प्रारंभिक संगठन थेः

बंगाल में : लैंड होल्डर सोसायटी (1838) ,बंगाल इंडिया सोसायटी (1843) ,ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन (1851)

महाराष्ट्र में : बोम्बे ऐसोसिएशन (1852) ,डेकेन एसोसिएशन (1852) आदि

मद्रास में : मद्रास नेटिव एसोसिएशन

इन संगठनों का प्रमुख उद्देश्य ऐसी अंग्रेजी नीतियों का संयुक्त रूप से विरोध करना था जो कि उनके स्वार्थों पर आघात करती थी परन्तु विरोध का तरीका पूर्णतः सवैधानिक था, जैसे कि कचहरी में अर्जी देना, सरकार को अर्जी देना या अंग्रेजी संसद से अपील करना । वे यह चाहते थे कि 1853 के कंपनी चार्टर के अंतर्गत व्यापक सुधार लागू किया जाए परन्तुं यह चार्टर उनकी मांगों को संतुष्ट करने में असफल रहा।

1858 में भारतीय प्रशासन का उत्तरदायित्व अंग्रेजी राज ने सीधे अपने हाथ में ले लिया जिससे भारत के मध्यम वर्ग में नयी आशा जागृत हुई। उन्होंने यह सोचा कि अंग्रेज भारत का आर्थिक शोषण बन्द करके भारतीयों के कल्याण हेतु कार्य करेंगे परन्तु शीघ्र ही उन्हें यह अनुभव हुआ कि भारतीयों का शोषण तो जब भी बरकरार है। अतः मध्यम वर्ग की राजनीतिक गतिविधि तीव्र हो उठी और नये संगठनों की स्थापना की गई । भारतीयों ने इंगलैंड में लंदन इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की और 1866 में उसे ईस्ट इंडिया एसोसिएशन में मिला दिया गया। 1870 में महाराष्ट्र में पूना सार्वजनिक सभा का गठन किया गया, बंगाल में इंडियन एसोसिएशन (1876) और इंडियन नेशनल कांफ्रेंस (1883) का गठन किया गया और मद्रास में मद्रास महाजन सभा का गठन किया गया।

यदि हम प्रारंभिक संगठनों से इन संगठनों की तुलना करें तो यह संगठन निसंदेह राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित था । इनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी नीतियों के विरूद्ध प्रस्तावों और अपीलों के द्वारा विरोध करना था। जन-जागृति उत्पन्न करने के लिए इन्होंने सार्वजनिक सभाओं का रास्ता अपनाया इन सभाओं में राष्ट्रीय मुद्दों पर भी बहस होती थी और विचारों का आदान-प्रदान किया जाता था। वास्तव में इन संगठनों ने ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) की भूमिका तैयार की थी।

इसी समय अंग्रेजी सरकार ने कुछ दमनकारी कानून भी पारित किये, जैसे कि वर्नाकुलर प्रेस एक्ट और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयु का कम किया जाना । इस प्रकार के कानून वाइसराय लार्ड लिटन के काल में (1876-80) बनाये गये थे। इनके बारे में भी आगे चर्चा की जाएगी। यहाँ हम केवल इतना उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं कि भारतीयों पर इस प्रकार के दमनकारो कानूनों की तीव्र प्रक्रिया हुई थी। बंगाल के प्रमुख समाचार पत्र बंगाली ने लिखा (12 जून, 1980)

लार्ड लिटेन को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि अपने दमनकारी तरीकों के द्वारा उसने इस देश की जनता में जोश भर दिया और उसके लिए हमारे देश को उसका आभारी होना चाहिए।

सारांश

इस इकाई में आपने इस बात का अध्ययन किया कि अंग्रेजी शासन के दौरान किस प्रकार भारत में धीरे-धीरे राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। वास्तव में इसचेतना का विकास अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई नीतियों का परिणाम था । जहाँ एक ओर जनता में विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे लोकप्रिय आंदोलनों ने राष्ट्रीय चेतना को सशक्त किया वहाँ दूसरी ओर मध्यम वर्ग ने नवीन तरीका अपनाकर इस चेतना को एक नवीन दिशा प्रदान की जो राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभ किये जाने में अत्यधिक सहायक थे।

शब्दावली

  • बौद्धिक जागरणः रूढ़िवादी विचारधारा में परिवर्तन के लिए किया गया प्रयास। 19वीं शती में भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा पुराने विचारों के स्थान पर नये विचारों के फैलाने का प्रयास जिससे समाज की प्रगति संभव हो।
  • राष्ट्रीय चेतनाः किसी राष्ट्र के इतिहास में परिवर्तन का वह काल जब राष्ट्रीय नेताओं तथा शिक्षा के द्वारा लोगों में राष्ट्र की उन्नति की बात फैली हो।
  • रंगभेदः अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेजों द्वारा रंग (वर्ण) के आधार पर अपनाई गई वह नीति जिसमें भारतीयों को नीचा समझा गया तथा उन्हें सामाजिक एवं न्यायिक अधिकारों से वंचित रखा गया।

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