चुनावी सुधार (ELECTORAL REFORMS)

एक स्वतंत्र, न्यायोचित तथा निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया के साथ-साथ अधिकाधिक नागरिक भागीदारी लोकतान्त्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए मूलभूत आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश, भारतीय चुनावी प्रणाली कुछ समस्याओं से ग्रसित रही है जिससे देश के लोगों के विश्वास को क्षति पहुंची है।

इन समस्याओं में काले धन की भूमिका, भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की शक्ति से संबंधित मुद्दे, किसी पार्टी के विरुद्ध मतदान किए जाने पर मतदाताओं का उत्पीड़न किया जाना इत्यादि शामिल हैं। अतः इस संदर्भ में चुनावी प्रक्रिया की शुचिता को बनाए रखने के लिए विभिन्न सुधार किए गए हैं या प्रस्तावित हैं:

  • उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए अतिरिक्त मानदंडों का प्रावधान लोक प्रहरी वाद में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को नियमों तथा उम्मीदवारों द्वारा दाखिल किए जाने वाले प्रकटीकरण फॉर्म और नामांकन पत्रों में संशोधन करने के लिए कहा है ताकि उनके साथ-साथ उनके पति/पत्नी तथा आश्रितों की आय के स्रोतों को भी इसमें शामिल किया जा सके। संपत्तियों एवं उनके स्रोतों को प्रकट न करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 के तहत “भ्रष्ट आचरण” माना जाएगा।
  • नोटा (NOTA) का प्रावधान: उच्चतम न्यायालय ने 2013 के पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ वाद में नोटा (नन ऑफ द एबव) के प्रावधान का मार्ग प्रशस्त किया। 2014 में ECI ने एक परिपत्र जारी करते हुए कहा कि नोटा के प्रावधान को राज्यसभा चुनावों में भी शामिल किया जाएगा। इससे प्रतीकात्मक असंतोष के प्रकटीकरण में सहायता प्राप्त होगी। इसके साथ ही यह राजनीति के अपराधीकरण को कम करने तथा सहभागी लोकतंत्र को सुदृढ़ करने में भी सहायक होगा।
  • टोटलाइजर मशीनों (Totalizer Machines) के लिए प्रस्ताव: इसके माध्यम से उम्मीदवार को अलग-अलग मतदान-केंद्रों पर प्राप्त मतों को प्रकट किए बिना, EVMs के समूह के समेकित परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप चुनाव से पूर्व तथा पश्चात मतदाताओं पर होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न की धमकी को रोका जा सकता है।
  • वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (WPAT) मशीनों का प्रयोग आरम्भ किया गया है, जिसके द्वारा पेपर ऑडिट के माध्यम से EVM परिणामों की जांच की जा सकती है। इससे स्वदेश-निर्मित मशीनों की जवाबदेहिता का एक और स्तर सुनिश्चित होगा।
  • इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिटेड पोस्टल बैलेट सिस्टम (ETPBS): हाल ही में इसका उपयोग चेंगन्नूर (केरल) विधानसभा क्षेत्र के उप-चुनावों में सेवा मतदाताओं (service Voters) को इलेक्ट्रॉनिक रूप से (पूर्व में डाक द्वारा प्रेषित) डाक मतपत्रों के त्वरित प्रेषण का वैकल्पिक तरीका प्रदान करने के लिए किया गया था। इसके तहत मतदाता डाक मतपत्र को डाउनलोड कर सकते हैं और इस प्रकार डाले गए मत डाक के माध्यम से पीठासीन अधिकारी द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं।
  • अन्य प्रमुख सुधार: इसके अंतर्गत चुनाव चक्र के पुनर्गठन तथा एक हाइब्रिड इलेक्टोरल सिस्टम की स्थापना के प्रस्ताव शामिल हैं।

हाइब्रिड इलेक्टोरल सिस्टम की मांग (Demand for a Hybrid Electoral System)

विभिन्न राजनीतिक दलों ने संसदीय पैनल को बताया है कि वर्तमान फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम को हाइब्रिड सिस्टम से प्रतिस्थापित किए जाने की आवश्यकता है।

हाइब्रिड इलेक्टोरल सिस्टम या मिश्रित निर्वाचक प्रणाली क्या है?

  •  हाइब्रिड सिस्टम/मिश्रित प्रणाली ऐसी निर्वाचक प्रणाली को संदर्भित करती है जिसमें एक से अधिक निर्वाचक प्रणालियों की
    सकारात्मक विशेषताओं को शामिल करते हुए दो प्रणालियों का एक ही में विलय कर दिया जाता है।
  •  मिश्रित प्रणाली में, दो निर्वाचक प्रणाली भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का उपयोग करते हुए, एक साथ संचालित होती हैं। उन्हीं मतदाताओं
    द्वारा मत दिए जाते हैं और वे दोनों प्रणालियों के अंतर्गत प्रतिनिधियों के निर्वाचन में योगदान देते हैं।
  • उनमें से एक प्रणाली बहुलता/बहुमत प्रणाली (या कभी-कभी एक ‘अन्य’ प्रणाली) है, सामान्यतः एकल सदस्यीय जिला प्रणाली, और दूसरी ‘सूची PR प्रणाली (List PR system) है।

 मिश्रित प्रणाली के दो रूप हैं

  •  जब दो प्रकार के चुनावों का परिणाम PR स्तर पर सीट आवंटन के साथ जुड़ा हुआ होता है (जो बहुसंख्यक / बहुमत /या अन्य
    जिला सीटों पर क्या हुआ, इस पर निर्भर होता है) और साथ ही किसी भी असंगतता के लिए क्षतिपूर्ति की व्यवस्था करता है,
    तो ऐसी प्रणाली को मिश्रित सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व (MMP) प्रणाली कहा जाता है।
  •  जहां निर्वाचनों के दो समुच्चय पृथक और विशिष्ट होते हैं तथा सीट आवंटन के लिए एक-दूसरे पर निर्भर नहीं होते हैं, ऐसी
    प्रणाली को समानांतर प्रणाली कहा जाता है।

जहां MMP प्रणाली का सामान्यत: आनुपातिक परिणाम होता है, वहीं समानांतर प्रणाली द्वारा ऐसे परिणाम की संभावना होती है,
जिसकी अनुरूपता बहुलता/बहुमत की आनुपातिकता और PR प्रणाली की आनुपातिकता के मध्य होती है।

विभिन्न प्रकार की निर्वाचक प्रणालियां

  •  फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम।
  •  आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली।
  •  मिश्रित प्रणालियां, जिन्हें कभी-कभी हाइब्रिड सिस्टम (hybrid system) भी कहा जाता है।

भारत में, हम मतदान की FPTP और साथ ही आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली दोनों का अनुसरण करते हैं। उदाहरण के लिए, लोकसभा के चुनावों के लिए FPTP और राष्ट्रपति निर्वाचन के लिए हम आनुपातिक प्रतिनिधित्व का अनुसरण करते हैं।

हाइब्रिड सिस्टम की मांग क्यों की जा रही है?

  •  यह तर्क दिया जा रहा है कि वर्तमान निर्वाचक प्रणाली में बहुमत की आकांक्षाएं और व्यक्तियों की इच्छा निर्वाचन परिणामों में
    प्रतिबिंबित नहीं हो रही हैं।
  • जब FPTP की वर्तमान प्रणाली को अपनाए जाने के बाद से (एक दल का शासन) परिस्थितियों में बहुत बदलाव आया है। परन्तु, वर्तमान में मतों का विभाजन होने के कारण 20% वोट हिस्सेदारी प्राप्त होने के बाद भी दल को एक भी सीट नहीं मिलती है, जबकि 28% हिस्सेदारी वाला दल अनुपातिक रूप से बड़ी संख्या में सीटें प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए, मार्च, 2017 में आयोजित उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव।
  • इस प्रणाली का विभिन्न यूरोपीय देशों द्वारा सफलतापूर्वक अनुसरण किया गया है।
  •  विधि आयोग की 170वीं और 255वीं रिपोर्ट में भी यह सुझाव दिया गया था कि वर्तमान लोकसभा में 25% या 136 अतिरिक्त
    सीटों की वृद्धि की जानी चाहिए और उन्हें आनुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा भरा जाना चाहिए।
  •  कई व्यक्तियों के द्वारा संकेत किया जाता है कि वर्तमान प्रणाली “अल्पसंख्यक लोकतंत्र” को प्रतिबिंबित करती है, जो स्वतंत्रता के
    पश्चात् से देश में चली आ रही है।

FPTP की वर्तमान प्रणाली के बारे में

  •  एकल सदस्य जिलों और उम्मीदवार-केंद्रित मतदान का उपयोग करने वाली फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम बहुलता/बहुमत प्रणाली का
    सरलतम रूप है। मतदाता के समक्ष नामांकित उम्मीदवारों का नाम प्रस्तुत किया जाता है और वह उनमें से एक और केवल एक को चुनकर मत देता
  •  विजयी उम्मीदवार केवल वही व्यक्ति होता है, जो सबसे अधिक मत प्राप्त करता है। सिद्धांततः, वह दो मतों से भी निर्वाचित हो
    सकता है, यदि अन्य सभी उम्मीदवारों को केवल एक ही मत मिले।
  •  इस प्रणाली का UK में हाउस ऑफ कॉमन्स, US कांग्रेस के दोनों सदनों और भारत एवं कनाडा में निचले सदन के सदस्यों को चुनने
    के साथ-साथ ऐसे अन्य स्थानों पर उपयोग किया जाता है जो पहले ब्रिटिश उपनिवेश हुआ करते थे।

हमने FPTP क्यों चुना?

देश ने निम्नलिखित कारणों से निर्वाचन प्रणाली के लिए FPTP को चुना –

  •  सरलता – स्वतंत्रता के समय अधिकांश भारतीय आबादी साक्षर नहीं थी और PR प्रणाली की जटिलता को समझने में असमर्थ थी।
  • सुपरिचितता (Familiarity) – स्वतंत्रता पूर्व से FPTP प्रणाली के आधार पर नियमित रूप से कई चुनावों का आयोजन किया गया था, जिसने इस प्रक्रिया को देश के जन सामान्य के लिए अधिक सुपरिचित बना दिया था।
  • स्थायित्व के पक्ष में- संसदीय सरकार के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (PR system) अनुपयुक्त प्रतीत होती है क्योंकि इस  प्रणाली में राजनीतिक दलों की संख्या में वृद्धि करने की प्रवृत्ति होती है और इसके परिणामस्वरूप सरकार अस्थिर हो सकती है।
  •  PR प्रणाली दल को सत्ता के प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित करती है, जबकि FPTP निश्चित विशिष्ट क्षेत्र के लोगों के प्रतिनिधि के
    रूप में एक व्यक्ति को चुनती है। स्वतंत्रता के समय भारत की स्थिति देखते हुए, यह हमारे नेताओं के लिए बड़ी चिंता का विषय था,
    क्योंकि लोग एक विशेष राजनीतिक दल की अपेक्षा अपने नेताओं से अधिक जुड़े हुए थे।

FPTP और PR के बीच का अंतर आनुपातिक प्रतिनिधित्व

आनुपातिक प्रतिनिधित्व

फर्स्ट पास्ट द पोस्ट

  • यह डाले गए मतों का संपूर्ण रूप से जीती गई सीटों में परिवर्तित करता है
  • अल्पसंख्यक दल को प्रतिनिधित्व की सुविधा प्रदान करता  है।
  • दलों और हित समूहों के मध्य सत्ता-साझेदारी को अधिक स्पष्ट करता है।
  • एकल पार्टी का प्रभुत्व मुश्किल होता है।
  • यह प्रणाली छोटे दलों को प्रतिनिधित्व से बाहर नहीं करती है।
  • यह डाले गए मतों का संपूर्ण रूप से जीती गई सीटों में परिवर्तित नहीं करता है।
  •  इससे अल्पसंख्यक दलों को प्रोत्साहन नहीं मिल सकता है।
  • विभिन्न समूहों के बीच सत्ता साझेदारी अधिक स्पष्ट नहीं होती
  • यह प्रणाली एक-दलीय सरकारों को जन्म देती है।
  • यह प्रणाली छोटे दलों को ‘उचित’ प्रतिनिधित्व से बाहर कर देती है।

लोकसभा एवं विधानसभाओं के एक साथ चुनाव (Simultaneous Elections)

विधि आयोग ने लोकसभा एवं विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने से सम्बंधित श्वेत पत्र (ह्वाइट पेपर) जारी किया।

एक साथ चुनाव (SE) से सम्बंधित तथ्य

  •  एक साथ चुनाव कराने का आशय भारतीय चुनाव चक्र को इस प्रकार संरचित करना है कि लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के
    चुनाव एक ही समय में हों तथा किसी विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता राज्य विधानसभा और लोकसभा, दोनों के लिए एक ही दिन मतदान करें।
  • इसका अर्थ यह नहीं है कि देशभर में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक ही दिन मतदान किया जाना आवश्यक है।
  • अतीत में, 1967 तक भारत में एक साथ चुनाव आयोजित किये जाते थे, किन्तु ये विधानसभाओं के समय पूर्व विघटन के कारण बाधित हो गए।
  • लोकतंत्र के तृतीय स्तर के चुनाव एक साथ होने वाले चुनावों में सम्मिलित नहीं किया जा सकते क्योंकि –
  •  यह राज्य सूची का विषय है।
  •  स्थानीय निकायों की संख्या अत्यधिक है।

एक साथ चुनाव करवाए जाने की आवश्यकता

  •  बार-बार चुनाव करवाए जाने के कारण आचार संहिता लंबे समय तक लागू रहती है, परिणामस्वरूप विकास कार्यक्रमों,
    कल्याणकारी योजनाओं, पूंजीगत परियोजनाओं का कार्यान्वयन बाधित होता है तथा इससे पॉलिसी पैरालिसिस एवं गवर्नेस
    डेफिसिट की स्थिति उत्पन्न होती है
  •  चुनाव में राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों जैसे विभिन्न हितधारकों द्वारा भारी मात्रा में धन का व्यय किया जाता है। चुनाव जीतने के
    लिए निर्धारित सीमा से अधिक व्यय करने की प्रवृति देश में भ्रष्टाचार और काले धन के बढ़ने के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारणों में से एक है।
  • सरकारी दृष्टिकोण से देखने पर स्पष्ट होता है कि चुनावों को संपन्न करवाने के लिये प्रशासनिक मशीनरी के एक पूरे समूह की आवश्यकता होती है। नतीजतन, बार-बार होने वाले चुनाव प्रक्रिया प्रबंधन की प्रशासनिक लागत में वृद्धि करते हैं
  • इसके अतिरिक्त, आम तौर पर पूरे चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों (विशेष रूप से CAPF) की तैनाती होती है। ऐसा न होने पर उन सुरक्षा बलों को आंतरिक सुरक्षा उद्देश्यों के लिए तैनात किया जा सकता है।
  • बार-बार होने वाले चुनाव विधायी कामकाज में बाधा डालते हैं, क्योंकि आगामी चुनाव जीतने की बाध्यता अल्पकालिक
    राजनीतिक अनिवार्यता को तात्कालिक प्राथमिकता बना देती है।
  •  इससे निर्वाचन आयोग की सुविधा बढ़ेगी। चूंकि मतदाता, मतदान कर्मी और मतदान केंद्र सभी समान होते हैं अतः इसका कोई
    प्रभाव नहीं पड़ता कि मतदाता एक या दो अथवा तीन चुनावों के लिए मतदान कर रहा है।
  • अन्य मुद्दे- बार-बार होने वाले चुनाव सामान्य सार्वजनिक जीवन में व्यवधान और आवश्यक सेवाओं के कामकाज को प्रभावित करते हैं। चूंकि चुनावों के दौरान जाति, धर्म और सांप्रदायिक मुद्दे अत्यधिक चर्चा में होते है, अत: चुनावों की आवृत्ति में वृद्धि देश भर में ऐसे विभाजनकारी मुद्दों को कायम रखती है।

एक साथ चुनाव की आलोचना

  •  समयावधियों के सिंक्रनाइज़ेशन के लिए विभिन्न विधान सभाओं की अवधि में कमी या विस्तार की आवश्यकता होगी जिसे सत्तारूढ़
    दल (अवधि के संकुचन के मामले में) या विपक्षी दल (अवधि के विस्तार के मामले में) द्वारा समर्थित नहीं किया जाएगा।
  • • इसके अतिरिक्त यह भी विवाद का विषय है कि क्या भारत के निर्वाचन आयोग के लिए इतने व्यापक स्तर पर चुनाव आयोजित
    करना व्यवहार्य है।
  • यदि एक साथ चुनाव के लक्ष्य को प्राप्त कर भी लिया जाता है तो इसे बनाए रखना मुश्किल होगा क्योंकि अनुच्छेद 83 (2) और 172 (1) के तहत क्रमशः लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की अवधि निश्चित नहीं है।
  • अल्प-सूचित मतदाताओं के द्वारा चयन के कारण a) राज्य विधानसभा चुनावों में मतदान के दौरान मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करने वाले राष्ट्रीय मुद्दे; या b) लोकसभा चुनावों में मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करने वाले क्षेत्रीय मुद्दे उत्पन्न हो
    सकते हैं।
  •  बार-बार होने वाले चुनावों के कारण राजनीतिक दल के नेता, निरंतर मतदाताओं के संपर्क में रहते हैं तथा इससे नेताओं की जनता
    के प्रति उत्तरदायित्व में वृद्धि होती है। यह नेताओं को ‘जनता की नब्ज’ को टटोलने में मदद करता है और विभिन्न स्तरों पर चुनावी
    परिणाम समय-समय पर सरकार को उसके कार्यक्रमों में आवश्यक सुधार की गुंजाइश से अवगत कराते रहते हैं।
  •  एक साथ चुनाव केवल राष्ट्रीय दलों के अनुकूल है क्योंकि केवल एक राज्य में चुनाव में भाग लेने वाले दलों पर वस्तुतः उतना ही
    भार होगा जितना वर्तमान में है।
  • इससे सरकार को सत्ता से हटाने की विधायिका की शक्ति में कटौती हो सकती है। ‘सृजनात्मक अविश्वास प्रस्ताव’ रखना अनिवार्य होगा। इसका अर्थ है कि कोई विपक्षी दल अविश्वास प्रस्ताव लाने में तब तक सक्षम नहीं होगा जब तक कि वह स्वयं एक नई सरकार का गठन करने की क्षमता न रखता हो।

ड्राफ्ट पेपर की कुछ सिफारिशें

  • RPA अधिनियम 1951 की धारा 2 में “एक साथ चुनाव” की परिभाषा को जोड़ा जा सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 (जो क्रमशः संसद के दोनों सदनों और राज्य विधायिकाओं की अवधि से संबंधित हैं) को RPA अधिनियम 1951 के अनुभाग 14 और 15 (क्रमशः संसद के दोनों सदनों और राज्य विधायिकाओं में आम चुनावों की अधिसूचना से संबंधित) के साथ उचित रूप से संशोधित किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह होगा कि मध्यावधि चुनावों के पश्चात् गठित नई लोकसभा और विधानसभा, केवल शेष अवधि के लिए ही कार्यरत रहेगी।
  • संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुच्छेद 2(1) (b) के तहत उल्लिखित दल बदल विरोधी कानून को एक अपवाद के रूप में हटाया जाए, ताकि त्रिशंकु सदन की स्थिति में गतिरोध से बचा जा सके। आम चुनावों की अधिसूचना जारी करने के लिए 6 महीने की सांविधिक सीमा को बढ़ाने हेतु RPA, 1951 की धारा 14 और 15 को संशोधित किया जाना चाहिए ताकि एक साथ चुनाव आयोजित करने में चुनाव आयोग को लचीलापन प्रदान किया जा सके।
  •  अविश्वास प्रस्ताव के कारण विधानसभा के समयपूर्व विघटन का एक विकल्प यह हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले सदस्यों द्वारा उसके साथ ही वैकल्पिक सरकार के गठन का प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया जाए।
  • सरकार को स्थिरता प्रदान करने हेतु लोकसभा/विधानसभा का नेतृत्व करने के लिए प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री का सम्पूर्ण सदन द्वारा चुनाव किया जा सकता है, जैसे कि लोक सभा के अध्यक्ष को चुना जाता है।

भारत में एक साथ चुनाव आयोजित करवाने के अत्यंत कठिन कार्य के क्रियान्वयन हेतु सभी हितधारकों के मध्य समन्वय और विचारविमर्श की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त, लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल का सिंक्रनाइज़ेशन (संसदीय समिति द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार) एक बार में करने के बजाय विभिन्न चरणों में किया जा सकता है। कानून के माध्यम से एक साथ चुनाव आयोजित करने हेतु मजबूर करने के स्थान पर, उन राज्य विधानसभाओं में एक साथ चुनाव आयोजित करने के प्रयास किए जाने चाहिए जिनका कार्यकाल एक साथ पूर्ण हो रहा है।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.