छोटे राज्यों की मांग (Demand for Smaller States)

छोटे राज्यों की मांग भारत में एक जटिल मुद्दा है। प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग ने राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत भाषायी सीमांकन के अनुरूप राज्यों का सर्वाधिक व्यापक स्तर पर पुनर्गठन किया। समान भाषा/समुदाय के आधार पर राज्यों को विभाजित करने का यह विचार समय की मांग थी। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 3 प्रभावित राज्यों के विधानमंडल से परामर्श के पश्चात राष्ट्रपति की सिफारिश पर संसद में प्रस्तुत विधेयक के माध्यम से एक नए राज्य के गठन की शक्ति प्रदान करता है।

भारत बड़े राज्यों से छोटे राज्यों के निर्माण और संघ शासित प्रदेशों को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की अन्य कई स्वतंत्र प्रक्रियाओं से गुजरा है जिससे राज्यों की संख्या 1956 में 14 से बढ़कर वर्तमान में 29 तक पहुंच गई है। इसके अतिरिक्त अन्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड, गुजरात में सौराष्ट्र, महाराष्ट्र में विदर्भ, राजस्थान में मरु प्रदेश और नागालैंड में नागालीम पृथक राज्यों की मांग जारी है।

मांग के कारण:

  •  ऐतिहासिक: उदाहरण के लिए, तमिलनाडु के विभाजन की मांग इस तथ्य पर आधारित थी कि अतीत में तमिल भाषी क्षेत्र में  कांचीपुरम और तंजौर/मदुरै के समीपवर्ती राज्य सम्मिलित थे।
  • प्रशासनिक: नई मांगों में से अधिकांश राज्यों के भीतर असमान विकास का परिणाम हैं। एक धारणा यह है कि ‘बड़े राज्यों का छोटे खण्डों में विभाजन करके, राज्य के शक्ति केंद्रों को जन सामान्य के समीप लाकर प्रशासन में सुधार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के वृहद आकार के कारण विदर्भ क्षेत्र का विकासात्मक पिछड़ापन। उत्तराखंड के अलग होने के बावजूद भी उत्तर प्रदेश जनसंख्या के मामले में ब्राजील, जापान या बांग्लादेश से बड़ा है।
  • आर्थिक: प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होने के बावजूद उनके लाभों से वंचित होने की भावना अलग राज्य की मांग का एक प्रमुख आधार है।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक: भाषायी विभाजन के पश्चात भी, राज्यों में व्यापक विविधता व्याप्त है जो प्रायः कुछ नृजातीय समूहों में ‘सांस्कृतिक रूप से पराधीनत और उत्पीड़ित’ होने की भावना उत्पन्न करती है। अतः नृजातीय पहचान को संरक्षित करने हेतु एक नए राज्य की मांग की जाती है। उदाहरण के तौर पर, पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड, उत्तर पूर्व में नागालीम, उत्तर प्रदेश से भोजपुरी भाषी पूर्वांचल क्षेत्र की मांग आदि।
  • राजनीतिकः अधिक राजनीतिक प्रभुत्व की प्राप्ति हेतु जाट बाहुल्य वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश की मांग की जा रही है। वर्तमान में यह राजनीतिक प्रभुत्व यादवों के पास है।

छोटे राज्यों के गठन के पक्ष में तर्क:

  •  शक्ति का विकेंद्रीकरण: छोटी प्रशासनिक इकाइयां दूरस्थ प्रांतीय सरकारों और सुदूरवर्ती राजधानियों के प्रशासन को लोगों के समीप लाएंगी। यह प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि के साथ आधुनिकीकरण की गति में तीव्रता लाने, पिछड़े क्षेत्रों के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने और राज्यों को स्थानीय वास्तविकताओं के आधार पर अलग नीति बनाने में सहायता करेगा।
  •  यह नृजातीय समूहों के मध्य पहचान की संकट की समस्या का समाधान करता है और उन्हें अपनी भाषा एवं संस्कृति को विकसित करने में सक्षम बनाता है। इससे उन्हें ‘आंतरिक उपनिवेशवाद की भावनाओं से छुटकारा पाने में सहायता मिलती है।
  • यह वर्तमान में बड़े आकार वाले राज्यों जैसे उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र एवं छोटे राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के प्रतिनिधित्व को अधिक समानुपातिक बनाकर संघ को अधिक संतुलित बनाता है।
  • सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन, कार्यान्वयन और आवंटन: अपेक्षाकृत समरूप छोटा राज्य सुगम सम्पर्क की सुविधा प्रदान करता है जो वंचित सामाजिक समूहों को संगठित होने और अपनी आवाज उठाने में सक्षम बनाता है।
  • बाल्कनाइजेशन (विखंडन) का और अधिक भय नहीं: पूर्व में बाल्कनाइजेशन के भय से अलग राज्यों की मांगों का विरोध किया गया था। हालांकि, स्वतंत्रता के 70 वर्षों के पश्चात अब इस तरह का भय नहीं है।

छोटे राज्यों के गठन के विरुद्ध तर्क:

  •  छोटे राज्यों की मांग उन पिछड़े क्षेत्रों के तीव्र आर्थिक विकास की गारंटी प्रदान नहीं करती, जिनके पास आवश्यक सामग्री और मानव संसाधन नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, संभव है कि कुछ छोटे राज्य आर्थिक व्यवहार्यता न प्राप्त कर सकें।
  • छोटे राज्यों के गठन के परिणामस्वरुप सत्ता संरचना में प्रभावशाली समुदाय/जाति/जनजाति का प्रभुत्व स्थापित होने की भी सम्भावना होती है। इस प्रकार के राज्यों में उग्र क्षेत्रवाद की भावना का भी विकास हो सकता है। यह आगे चलकर भूमि-पुत्र (sons of-the-soil) अवधारणा का रूप ले सकता है। इससे प्रवासियों के लिए भय का माहौल उत्पन्न होगा।
  •  राज्य विधानमंडल के छोटे आकार के कारण सत्तारूढ़ दल या सत्तारूढ़ गठबंधन का बहुमत कमजोर बना रहेगा जिससे राज्य में कुछ नकारात्मक राजनीतिक परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। झारखंड इसका एक उपयुक्त उदाहरण है जहाँ यह देखा गया कि एक स्वतंत्र विधायक भी मुख्यमंत्री बनने के लिए विधायकों की संख्या में जोड़-तोड़ कर सकता है।
  • इन राज्यों में मुख्यमंत्री के पास शक्तियों के केंद्रीकरण का जोखिम अत्यधिक होता है और ऐसे में मुख्यमंत्री सचिवालय अधिकार सम्पन्न होगा।
  • इससे राज्य पूर्णतः मुख्यमंत्री का प्रभावक्षेत्र बन सकता है। इससे अंतर्राज्यीय जल, शक्ति और सीमा विवादों में वृद्धि हो सकती है, जैसा कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के मामले में देखा गया है।
  • इससे उनके सीमित वित्तीय संसाधनों पर दबाव उत्पन्न होगा क्योंकि नई राजधानियों के निर्माण और मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रशासकों की बढ़ती संख्या को बनाए रखने के लिए भारी धनराशि की आवश्यकता होगी।
  •  छोटे राज्यों के पिछले अनुभवों से ज्ञात होता है कि केवल राज्य का छोटा आकार बेहतर विकास के लिए कोई गारंटी प्रदान नहीं करता है। उदाहरण के लिए मानव विकास सूचकांक में उत्तराखंड निरंतर निचले स्थान पर रहा है, छत्तीसगढ़ में जनजातियों का सबसे बड़ा विस्थापन देखा गया है और झारखंड भ्रष्टाचार एवं भ्रष्ट प्रशासन से ग्रस्त है।

सुझाव और आगे की राह

  • बेहतर अभिशासन: बेहतर लोक सेवा प्रदायगी के लिए दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंचने और लोगों के मध्य विस्थापन एवं असंतोष की समस्याओं का समाधान करने हेतु प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना।
  • छोटे जिले सरकार और प्रशासन को जनसामान्य के समीप लाते हैं। प्रशासन को अधिक दक्ष और विकास हेतु जवाबदेह बनाने के  लिए जिला कलेक्टर तथा जिला परिषद के कार्यालय को अधिक अधिकार प्रदान किए जा सकते हैं।
  • प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण और स्थानीय स्वशासन का सुदृढीकरण: स्थानीय स्वशासन को अधिक शक्तियां प्रदान करना स्थानीय विकास हेतु अधिक कार्यक्षम, सशक्त और लाभप्रद होगा। प्रिंसिपल ऑफ़ सब्सिडैरिटी (उच्चतर स्तरों को उन कार्यों से मुक्त रखना जो
    निम्नतर स्तर पर दक्षतापूर्ण ढंग से सम्पादित किये जा सकते हैं) के आधार पर शक्तियों को विकेन्द्रीकृत किया जाना चाहिए।
  •  राजनीतिक स्थिरता नीतिगत मामलों की निरंतरता पर अधिक निर्भर करती है, न कि राज्यों के विशाल आकार पर। एक दक्ष और तत्पर प्रशासक एक बड़े राज्य को भी अधिक संतोषजनक ढंग से प्रबंधित कर सकता है।
  • इस विषय पर विचार करने हेतु द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग का निर्माण किया जाना चाहिए। अधिक उद्देश्यपूर्ण एवं वैज्ञानिक आधारों पर राज्यों का गठन इस मुद्दे का एक सकारात्मक समाधान हो सकता है।

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