बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराध (Crimes against children)
UNICEF के अनुसार बच्चों के विरुद्ध हिंसा “शारीरिक और मानसिक दुर्व्यवहार और चोट, उपेक्षा या अशिष्ट व्यवहार, शोषण और यौन दुर्व्यवहार के रूप में हो सकती है।” यह घर, स्कूलों, अनाथालयों, आवास गृहों, सड़कों पर, कार्यस्थल पर, जेल में और सुधार गृहों आदि में कहीं भी हो सकती है। इस प्रकार की हिंसा बच्चों के सामान्य विकास को प्रभावित कर सकती है जो उनके मानसिक, शारीरिक और सामाजिक अस्तित्व को हानि पहुंचाती है।
पिछले एक दशक (2006 में 18,967 की तुलना में 2016 में 1,06,958 से भी अधिक) में भारत में बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराधों में 500% से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है तथा नियमित रूप से इन अपराधों में वृद्धिशील प्रवृत्ति देखी गई है। हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau: NCRB) डेटा के अनुसार वर्ष 2015 और 2016 में, भारत में बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराधों में 11% की तीव्र वृद्धि हुई है।
भारतीय दंड संहिता (IPC) और विभिन्न सुरक्षात्मक तथा विशेष व स्थानीय निवारक कानूनों में उन अपराधों को विशिष्ट रूप से परिभाषित किया गया है जिनमें पीड़ित (victim) बच्चे होते हैं। बच्चे की आयु, संबंधित अधिनियमों और धाराओं में दी गई परिभाषा के अनुसार परिवर्तित होती रहती है, परन्तु किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु वर्ग को बच्चे के रूप में परिभाषित किया गया है।
बाल यौन शोषण (Child Sex Abuse)
वर्तमान में भारत तथा विश्व के विभिन्न भागों में बाल यौन शोषण (CSA) एक गंभीर एवं व्यापक समस्या है। यौन शोषण से संबंधित मानसिक क्षति विकास को अवरुद्ध कर सकती है तथा साथ ही ऐसे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक विकारों में वृद्धि कर सकती है, जिन्हें कुछ बच्चे और किशोर कभी नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। जब यौन शोषण संबंधी अपराध सामने नहीं आ पाते और बच्चों को आवश्यक सुरक्षात्मक एवं चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध नहीं करायी जाती, तो वे मौन रह कर पीड़ा सहते रह जाते हैं।
भारत में बाल यौन शोषण (CSA) कानून
- भारत सरकार द्वारा 1992 में UNICEF के बाल अधिकारों पर हुए अभिसमय (कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ़ द चाइल्ड) को अभिस्वीकृति प्रदान की गयी थी।
- 2012 से पहले तक भारत में बच्चों के प्रति किये अपराधों पर कोई समुचित विधान नहीं था। अतः ऐसे मामलों में निर्णय भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 354, 375, 377 तथा 509 के अधीन किया जाता रहा है।
- अंततः वर्ष 2012 में संसद द्वारा 18 वर्ष से कम आयु के यौन शोषण पीड़ितों हेतु लैंगिक अपराधों से बालकों की सुरक्षा अधिनियम (Protection of Children against Sexual Offences Act :POCSO), 2012 पारित किया गया।
- बच्चों को प्रभावित करने वाले पॉर्नोग्राफ़ी के मुद्दे के सन्दर्भ में इससे पहले तक युवा जन (हानिकारक प्रकाशन) अधिनियम, 1956 का पालन किया जाता था।
बाल अधिकारों के लिए कई संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं जैसे:
- अनुच्छेद 21- जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 24- 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को कारखाने अथवा खानों या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 39 (f) – इसके अंतर्गत राज्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी नीति को बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति की
सुरक्षा की दिशा में निर्देशित करे तथा उन्हें स्वस्थ रीति से विकसित होने के लिए अवसर एवं सुविधाएं प्रदान की जाएँ।
बाल यौन शोषण से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण आँकड़े
- 1993 से 2005-06 के मध्य बाल यौन शोषण की चिह्नित घटनाओं की संख्या में 47% की कमी आई है।
- नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो 2016 के अनुसार सम्पूर्ण भारत में बच्चों के विरुद्ध अपराध से जुड़े मामलों से संबंधित 93,344
मुक़दमे दर्ज हुए हैं। - इसका प्रमुख कारण यह है कि अब तक केवल 38% यौन शोषितों ने ही इस तथ्य को प्रकट किया है कि उनके साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ है।
- प्रकाश में आने वाले सभी यौन आक्रमणों (वयस्कों पर हुए यौन आक्रमणों सहित) में से लगभग 70%, 17 वर्ष और उससे कम आयु के किशोरों और बच्चों पर हुए हैं।
- यौन शोषण के शिकार बच्चों में से लगभग 90% अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले से परिचित होते हैं। यौन शोषण के शिकार केवल 10% बच्चे ऐसे हैं जिनके साथ अपरिचितों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है।
- यौन शोषण के शिकार बच्चों में से लगभग 30% के साथ परिवार के स
POCSO के विषय में
- यह बच्चों को यौन आक्रमण, यौन उत्पीड़न तथा पॉर्नोग्राफी के अपराधों से संरक्षण प्रदान करता है। इसके द्वारा इस प्रकार के
अपराधों एवं उनसे संबंधित या आनुषंगिक मामलों हेतु विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान भी किया जाता है। - यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को ‘बालक या बच्चा (Child)’ घोषित करता है तथा 18 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को यौन आक्रमण, यौन उत्पीड़न और अश्लीलता के अपराधों से संरक्षण प्रदान करता है।
- इसके अंतर्गत पहली बार स्पर्श एवं गैर-स्पर्श व्यवहार (उदाहरण- बच्चों की आपत्तिजनक तस्वीरें लेने) के पहलुओं को यौनअपराधों की परिधि में समाविष्ट किया गया है।
- इसमें अपराधों की रिपोर्टिंग, साक्ष्यों का अभिलेखीकरण तथा जाँच एवं ट्रायल हेतु ऐसी प्रक्रियाओं को समाविष्ट किया गया है। जो बच्चे के अनुकूल हों।
- अपराध करने के प्रयास को भी दंड हेतु एक आधार माना गया है। इसके लिए अपराध हेतु निर्धारित दण्ड के आधे दण्ड तक का
प्रावधान किया गया है। - यह अपराध हेतु उकसाने के लिए भी दण्ड का प्रावधान करता है, जो अपराध करने पर मिलने वाले दंड के समान होगा। इसके साथ ही इसके तहत यौन प्रयोजनों हेतु बच्चों के दुर्व्यापार को भी समाविष्ट किया जाता है।
- POCSO के तहत पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असाल्ट, एग्रिवेटेड पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असाल्ट, सेक्सुअल असाल्ट तथा एग्रिवेटेड
सेक्सुअल असाल्ट जैसे जघन्य अपराधों में अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का दायित्व आरोपी पर है। - मीडिया को विशेष न्यायालय की अनुमति के बिना बच्चे की पहचान का प्रकटीकरण करने से प्रतिबंधित किया गया है।
बाल यौन शोषण के प्रति अनुक्रिया से सम्बंधित WHO के दिशा-निर्देश
- इन दिशा-निर्देशों के अंतर्गत अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के सम्बन्ध में कुछ अनुशंसाएँ प्रदान की गयी हैं। क्योंकि ये यौन शोषण से पीड़ित व्यक्तियों के संपर्क में सबसे पहले आते हैं। इसके अतिरिक्त ये ही सर्वप्रथम निदान एवं उपचार के दौरान यौन शोषण की पहचान कर सकते हैं।
- ये अनुशंसाएँ बच्चे द्वारा किए गए प्रकटीकरण, चिकित्सा रिकॉर्ड प्राप्त करने एवं शारीरिक परीक्षणों तथा फोरेंसिक जाँच से सम्बंधित हैं। इसके साथ ही इनके तहत जांचों का प्रलेखन, HIV संक्रमण की जानकारी होने पर निवारक उपचार की प्रस्तुति एवं गर्भावस्था की रोकथाम भी सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त ये अनुशंसाएँ यौन संचारित रोगों तथा मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक स्वास्थ्य मध्यस्थता के सन्दर्भ में भी दिशा-निर्देश प्रस्तुत करती हैं।
- इनके अंतर्गत यह रेखांकित किया गया है कि बाल यौन-शोषण के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर अल्पावधिक तथा दीर्घावधिक प्रभाव पड़ते हैं।
- ये दिशा-निर्देश इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं ताकि परीक्षण के दौरान की जाने वाली ऐसी विभिन्न त्रुटियों में कमी लायी जा सके जिनसे पीड़ित को पुनः मानसिक आघात पहुँचता है।
- इन दिशा-निर्देशों में बाल दुराचार पुनरावृत्ति को रोकने से सम्बंधित अनुशंसाएँ भी प्रदान की गयी हैं।
दिशा-निर्देशों के लाभ
- इन दिशा-निर्देशों के माध्यम से उन भावनात्मक और अन्य पहलुओं को सम्बोधित किया गया है जिन पर सामान्यतः देश में लागू विभिन्न विधानों द्वारा पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया गया है। इन दिशा निर्देशों का मूल मानवाधिकार मानकों और नैतिक सिद्धांतों में निहित है।
- इसके द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य राज्यों से यह अपेक्षा की गई है कि वे बच्चों और किशोरों के स्वास्थ्य तथा कल्याण में सहयोग करेंगे। इसके अतिरिक्त सदस्य राज्यों से यह भी अपेक्षित है कि वे महिलाओं एवं बालिकाओं तथा बच्चों के विरुद्ध हिंसा के प्रति स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिक्रिया को सुदृढ़ किए जाने हेतु मई 2016 में विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा समर्थित वैश्विक कार्य योजना का अनुपालन करेंगे।
आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018
संसद द्वारा आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018 पारित किया गया है जो 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के बलात्कार के दोषी व्यक्तियों के लिए कठोर दंड सुनिश्चित करता है।
यह प्रस्तावित करता है:
- भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में संशोधन करना। इस संशोधित प्रावधान में बलात्कार की न्यूनतम सजा 7 से
बढ़ाकर 10 वर्ष तक करना प्रस्तावित है। - धारा 376 (3) को शामिल करना, जिसमें प्रावधान किया गया है कि 16 वर्ष से कम आयु की बालिका से बलात्कार के लिए सजा 20 वर्ष से कम नहीं हो सकती है परंतु इसे आजीवन कारावास के लिए बढ़ाया जा सकता है।
- धारा 376AB को अंतःस्थापित करना ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं से बलात्कार करने वाले को कठोर कारावास और अर्थदंड या मृत्यु दंड से दंडित किया जाएगा।
- 16 वर्ष से कम आयु की बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार करने वालों को कठोर आजीवन कारावास और अर्थदंड से
दंडित किया जाएगा। - 12 वर्ष से कम आयु की बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार करने वालों को आजीवन कठोर कारावास और अर्थदंड या
मृत्युदंड से दंडित किया जाएगा। - यह CrPC के तहत जांच की तीन माह की समय सीमा को भी कम करके दो माह करता है और अपीलों के निपटान हेतु
छह माह का समय निर्धारित करता है। - साथ ही यह भी निर्धारित करता है कि 16 वर्ष से कम आयु की बालिका के बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के आरोप
वाले किसी व्यक्ति को कोई अग्रिम जमानत नहीं दी जाएगी।
घोषित किये गए अन्य उपाय हैं
- न्यायालयों और अभियोजन को सुदृढ़ बनाना
- राज्यों/संघ शासित प्रदेशों और उच्च न्यायालयों के परामर्श से शीघ्र ट्रायल के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए जाएंगे।
- सभी पुलिस स्टेशनों और चिकित्सालयों को विशेष फोरेंसिक किट उपलब्ध कराई जाएगी।
- समयबद्ध पद्धति से बलात्कार के मामलों की जांच हेतु समर्पित श्रमबल।
- इन उपायों को 3 माह के भीतर मिशन मोड में क्रियान्वित किया जाना है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यौन उत्पीड़कों का एक राष्ट्रीय डाटाबेस और प्रोफाइल बनाएगा और ट्रैकिंग, निगरानी तथा जांच के लिए इसे राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के साथ साझा करेगा। पीड़ितों की सहायता के लिए ‘वन स्टॉप सेंटर‘ नामक वर्तमान योजना को देश के प्रत्येक जिले तक विस्तृत किया जाएगा।
विधेयक की आलोचना
- वर्तमान में POCSO एक्ट, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 आदि जैसे विभिन्न कानून और अधिनियम
विद्यमान हैं जो उपर्युक्त मामलों में कठोर सजा का प्रावधान करते हैं। हालांकि, मौजूदा कानूनों को उचित तरीके से क्रियान्वित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। - अधिक संसाधन (मानव संसाधन, बजट और प्रौद्योगिकी के उपयोग के माध्यम से) प्रदान करके और इसे उत्तरजीविता केन्द्रित करने के साथ ही मौजूदा एकीकृत बाल संरक्षण योजना और अन्य सहायता सेवाओं को सुदृढ़ कर बालकों के विरुद्ध दर्ज अपराधों के लिए न्याय का वितरण को तीव्र करने की आवश्यकता है।
- वर्तमान में, बलात्कार के मामलों के निवारण के बड़े पैमाने पर बैकलॉग, पुनर्वास समर्थन की कमी और बलात्कार से पीड़ित
व्यक्ति और उनके परिवार के सदस्यों के लिए मनोवैज्ञानिक-सामाजिक परामर्श की तत्काल आवश्यकता है। - POCSO और RTE को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख तक विस्तृत किया जाना चाहिए।
- इसका फोकस त्वरित जांच और दोषसिद्धि पर होना चाहिए जो फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से नए कानून के उद्देश्यों में से एक | है। परंतु इसका वर्णन 2013 के अधिनियम में भी था।
- नए सज़ा संबंधी प्रावधान मामलों की रिपोर्टिंग को प्रभावित करेंगे, क्योंकि परिवार के सदस्य अपने संबंधियों को (जो प्रायः दोषी होते हैं) दस वर्ष या 20 वर्ष तक कारावास की सजा मिलने की अपेक्षा फांसी की सजा के प्रति सहज नहीं होंगे।
- हमारे देश में बाल संरक्षण केवल कानूनों और विभिन्न दिशा-निर्देशों के साथ सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। एक देश के रूप में हमें बच्चों के विरुद्ध हिंसा के प्रति शून्य सहनशीलता की संस्कृति का सृजन करने के लिए प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है। हमें इस तथ्य से सचेत और संज्ञेय होना चाहिए कि बच्चे अवसंरचना, प्रक्रियाओं और प्रणालियों के साथ-साथ लोगों में व्याप्त अंतराल के कारण जोखिम में हैं।
बाल श्रम (Child Labour)
परिचय भारतीय संविधान में सभी बच्चों (6-14 आयु वर्ष) हेतु नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने के साथ ही खतरनाक व्यवसायों में उनके नियोजन को प्रतिबंधित किया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान में बच्चों को शोषण से बचाने वाली नीतियों को भी बढ़ावा दिया गया है।
बच्चों को रोजगार में इसलिए नियोजित किया जाता है क्योंकि वे नियोक्ता की मांगों के अनुसार सस्ते पारिश्रमिक पर आसानी से सुलभ होते हैं तथा अपने अधिकारों से भी परिचित नहीं होते हैं। ये बच्चे जिन जोखिमों का सामना करते हैं उनका उनके विकास, स्वास्थ्य और कल्याण पर अपरिवर्तनीय शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक प्रभाव पड़ सकता है।
संवैधानिक अधिकारों और अनेक कठोर कानूनों के बावजूद 2011 की जनगणना के आंकड़े यह प्रदर्शित करते हैं कि:
- 5-14 वर्ष के आयु वर्ग में 10.2 मिलियन से अधिक बच्चे “आर्थिक रूप से सक्रिय” थे – जिनमें 5.6 मिलियन लड़के और 4.5
मिलियन लड़कियां थीं। - इनमें से 8 मिलियन ग्रामीण इलाकों में काम कर रहे थे जबकि शहरी क्षेत्र में इनकी संख्या 2 मिलियन थी।
- हालांकि 2001 से 2011 के मध्य ग्रामीण बाल श्रमिकों की संख्या 11 मिलियन से घटकर 8 मिलियन हो गई है। इसी अवधि में शहरी क्षेत्रों में काम कर रहे बच्चों की संख्या 1.3 मिलियन से बढ़कर 2 मिलियन हो गई।
- 50% बाल श्रमिक केवल 5 राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश में इनका अनुपात 20% से अधिक है, अतः यहां विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
कार्य की प्रकृति
- बच्चों को सामान्यतः परिवारों में घरेलू कार्यों, कपास उत्पादन समेत कृषि क्षेत्र में (ग्रामीण मजदूर के रूप में), कांच उद्योग, माचिस, पीतल और ताला उद्योग तथा कढ़ाई, कूड़ा बीनने, बीड़ी उद्योग, कालीन उद्योग, खनन उद्योग, ईंट के भट्ठों और चाय बागानों जैसे मैन्युअल कार्यो (हाथों से किये जाने वाले कार्यों) वाले क्षेत्रों में नियोजित किया जाता हैं।
- इन क्षेत्रों में कार्य अधिकांशतः लिंग-विशिष्ट होता है। लड़कियों को अधिकतर घरेलू कार्यों में नियोजित किया जाता है जबकि
लड़कों को अधिकतर पारिश्रमिक आधारित श्रम में नियोजित किया जाता है। - विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे बच्चों के बारे में सटीक और विस्तृत जानकारी प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती है। इसका कारण यह
है कि अधिकांश मामलों में बच्चे अनौपचारिक/असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं।
बाल श्रम को प्रेरित करने वाले कारकः
- बच्चे के माता-पिता की गरीबी और निरक्षरता।
- परिवार और आसपास के समाज के सांस्कृतिक मूल्यों सहित परिवार की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ।
- बाल श्रम के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरुकता की कमी।
- बुनियादी एवं सार्थक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण तक पहुंच की कमी।
- वयस्क बेरोजगारी और निम्न स्तर के रोजगार की उच्च दर।
- संघर्ष, सूखे और अन्य प्राकृतिक आपदाओं एवं परिवार की ऋण-ग्रस्तता के कारण पारिवारिक आय में योगदान हेतु बच्चों को
श्रम में नियोजित होना पड़ता है। - ग्रामीण गरीबी और शहरी प्रवास जैसे कारक भी श्रम हेतु बच्चों की तस्करी को प्रेरित करते हैं।
बाल श्रम पर ILO अभिसमय की पुष्टि के प्रभाव:
- बच्चों के शोषण के प्रति शून्य सहनशीलता- सरकार तात्कालिक रूप से बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा या मनोबल को नुकसान पहुंचाने या ऐसी संभावना वाले बाल श्रम के सर्वाधिक विकृत रूपों को प्रतिबंधित और समाप्त करने के लिए प्रभावी उपाय अपनाएगी।
- न्यूनतम आयु का निर्धारण- इसके लिए भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कम जोखिम वाले कार्यों एवं कलात्मक प्रदर्शन के अतिरिक्त किसी भी व्यवसाय में आवश्यक न्यूनतम आयु से कम आयु के बच्चों को नहीं नियोजित किया जाएगा, ।
- बाल श्रम के निकृष्टतम रूपों को रोकना– इसके लिए भारत को दासता, ऋण बंधन (ऋण के कारण किया जाने वाला बंधुआ श्रम), बंधुआ या अनिवार्य श्रम इत्यादि सहित बाल श्रम के निकृष्टतम रूपों को रोकने की आवश्यकता होगी।
बाल श्रम के संबंध में राष्ट्रीय कानून
- बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016
- बाल श्रम पर राष्ट्रीय नीति (1987) जो इस प्रकार के बच्चों (मुक्त कराये गए) के पुनर्वास पर केंद्रित है।
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015।।
- भारत ने हाल ही में बाल श्रम पर दो ILO (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन) अभिसमयों की पुष्टि की है मिनिमम एज कन्वेंशन, 1993, वर्स्ट फॉर्म ऑफ़ चाइल्ड लेबर कन्वेंशन,1999
बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 की मुख्य विशेषताएं
यह बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 में संशोधन करता है। इसके अंतर्गत प्रमुख संशोधन निम्नलिखित हैं
- यह सभी क्षेत्रों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है,
- यह 14-18 साल की आयु के किशोरों का खतरनाक व्यवसायों में नियोजन प्रतिबंधित करता है और
- उल्लंघन करने वालों के लिए अत्यधिक कड़े कारावास एवं जुर्माने का प्रावधान करता है, जिसमें: छह महीने से दो वर्ष
तक का कारावास और 50,000 रुपये तक का जुर्माना सम्मिलित है।
पूर्व सूची में 83 से अधिक खतरनाक व्यवसायों को रखा गया था जबकि संशोधित सूची में केवल 3 व्यवसायों को खतरनाक व्यवसायों की श्रेणी में रखा गया है : खनन, ज्वलनशील पदार्थ और कारखाना अधिनियम के अंतर्गत आने वाली खतरनाक
प्रक्रियाएं। वस्तुतः यह निर्धारित करने का अधिकार केंद्र को दिया गया है कि कौन-कौन सी प्रक्रियाएं खतरनाक हैं।
अधिनियम में बच्चों के पुनर्वास के लिए पुनर्वास निधि के निर्माण का प्रावधान भी किया गया है।
लाभ
- यह अधिनियम अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) अभिसमय के नियमों के अनुरूप है।
- चूंकि बाल श्रम (14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का श्रम में नियोजन) पूर्णतः प्रतिबंधित है इसलिए निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 के अंतर्गत वे अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
- यह परिवार की वास्तविकताओं को ध्यान में रखता है जहां बच्चे विविध तरीकों से अपने माता-पिता की सहायता करते हैं।
आलोचना
- 14 साल से कम आयु के बच्चों को विद्यालय में कक्षाओं की समाप्ति के बाद और छुट्टियों के दौरान पारिवारिक व्यवसायों, मनोरंजन एवं खेल के क्षेत्रों में काम करने की अनुमति दी जाएगी। अनेक लोगों द्वारा इस प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है। यह गरीब बच्चों के उत्पीड़न को प्रेरित करेगा।
- ‘परिवार’ को परिभाषित नहीं किया गया है। UNICEF INDIA ने भी इस सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए यह कहा है कि इससे अनियमित परिस्थितियों में काम करने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हो सकती है।
- पारिवारिक व्यवसायों में भी बच्चों को किसी प्रकार का कौशल प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया जाता है। यह अधिकांशतः बच्चों की इच्छा के विरुद्ध होता है और लगभग दासता के समकक्ष है। अतः इस अधिनियम के क्रियान्वयन के समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह इस विधि की भावना के ही विरुद्ध न हो जाए।
- बच्चों को बाल श्रम के लिए विवश करने वाले माता-पिता और अभिभावकों के खिलाफ जुर्माने को हटाना बाल श्रम को रोकने वाली विधि की भावना के विरूद्ध जा सकता है।
चाइल्ड राइट्स एंड यू (CRY) की सिफारिशें
- बच्चों को उच्च माध्यमिक स्तर में शामिल करने के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार में संशोधन।
- लैंगिक समानता को विद्यालय प्रणाली का प्राथमिक लक्ष्य बनाना आवश्यक है।
- गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए निःशुल्क माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध कराना।
- बच्चों की चिंताओं और उनके सामने आने वाले मुद्दों के बारे में और अधिक जानने के लिए नीतियों को तैयार करते समय उनकी इच्छाओं को भी शामिल करना चाहिए।
राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (National Child Labour Project-NCLP)
यह श्रम मंत्रालय की एक परियोजना है जिसका उद्देश्य बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों का पर्याप्त रूप से पुनर्वास करना है। जिससे पहचाने गए प्रमुख क्षेत्रों (जहाँ बाल श्रम का अधिक संकेन्द्रण है) में बाल श्रम की घटनाओं को कम किया जा सके।
लक्ष्य समूह
- पहचाने गए लक्षित क्षेत्रों में 14 वर्ष से कम आयु के सभी बाल श्रमिक।
- लक्षित क्षेत्रों में खतरनाक व्यवसायों में लगे 18 वर्ष से कम आयु के किशोर श्रमिक।
- चिह्नित लक्षित क्षेत्रों में बाल श्रमिकों के परिवार।
100 मिलियन फॉर 100 मिलियन कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन फाउंडेशन द्वारा संचालित इस अभियान का उद्देश्य बाल श्रम, दासता एवं बच्चों के खिलाफ हिंसा को समाप्त करना और अगले 5 वर्षों में हर बच्चे के अधिकार को सुरक्षित करने, बच्चों को स्वतंत्र करने और उनके शिक्षा के अधिकार को बढ़ावा देने हेतु सम्पूर्ण विश्व में 100 मिलियन वंचित बच्चों के लिए 100 मिलियन युवाओं को संगठित करना है।
NCLP योजना का उद्देश्य –
- बाल श्रम के सभी रूपों को समाप्त करने के लिए, योजना क्षेत्र के अंतर्गत बाल श्रम में संलग्न सभी बच्चों की पहचान और वापसी, रोजगार में संलग्न बच्चों को बाहर निकालकर उन्हें मुख्यधारा की शिक्षा के साथ ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हेतु तैयार
करना,बच्चों और उनके परिवार की सहायता के लिए विभिन्न सरकारी विभागों/एजेंसियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं का
अभिसरण सुनिश्चित करना। - इस योजना का उद्देश्य खतरनाक व्यवसायों में लगे किशोर श्रमिकों को वहां से मुक्त कराना, कौशल विकास की मौजूदा योजना के माध्यम से उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण अवसर उपलब्ध कराना तथा उन्हें सर्वाधिक उपयुक्त व्यवसाय के लिए कौशल प्रदान कर उस व्यवसाय में उनके एकीकरण में योगदान देना है।
- ‘बाल श्रम’ और ‘खतरनाक व्यवसायों/प्रक्रियाओं में किशोर श्रमिकों के नियोजन’ के मुद्दों पर NCLP और अन्य एजेंसियों को
संकेंद्रित करना और हितधारकों एवं लक्षित समूहों में जागरुकता बढ़ाना। - बाल श्रम हेतु निगरानी, ट्रैकिंग और रिपोर्टिंग सिस्टम का निर्माण।
- हालांकि, इस वर्ष इसके बजट में 8% की मामूली वृद्धि ही हुई है।
अपेक्षित परिणाम
- बाल श्रम के सभी रूपों की पहचान और उन्मूलन में योगदान देना।
- लक्षित क्षेत्र में खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में नियोजित किशोर श्रमिकों की पहचान और उनकी निकासी में योगदान देना। सभी बच्चों को श्रम के सभी रूपों से बाहर निकालकर, NCLPs के माध्यम से पुनर्वास उपलब्ध कराते हुए नियमित स्कूलों के माध्यम से सफलतापूर्वक मुख्यधारा में लाना।
- खतरनाक व्यवसायों से वापस आये किशोरों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर (जहाँ भी आवश्यक हो) उन्हें कानूनी रूप से आवश्यक एवं स्वीकार्य व्यवसायों में लगाया जा सकता है।
- समुदायों, विशिष्ट लक्ष्य समूहों और जनता को बड़े पैमाने पर बाल श्रम के दुष्प्रभावों के बारे में जागरुक कर, वर्तमान में
चलाए जा रहे सामाजिक कार्यक्रमों से और भी बेहतर परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। - NCLP कर्मचारियों और अन्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के माध्यम से बाल श्रम के मुद्दे को हल करने के लिए उन्नत क्षमताओं
का विकास।
निष्कर्ष
- बाल श्रम को समाप्त करने के कई सकारात्मक परिणाम होंगे जैसे विद्यालय छोड़ने की दर में कमी, आर्थिक गतिविधियों के
कारण बच्चों पर पड़ने वाले तनाव में कमी, सुरक्षित बचपन तथा खेलने के अधिकार की प्राप्ति आदि; किन्तु बच्चों के खिलाफ शोषण को खत्म करने में सफलता अंततः सामाजिक समानुभूति, राजनीतिक इच्छाशक्ति और बच्चों के विकास एवं संरक्षण में निवेश किए गए संसाधनों के कार्यान्वयन के स्तर पर निर्भर करती है। - इस समस्या को केवल तभी हल किया जा सकता है जब बच्चों के शोषण को बढ़ावा देने वाले कारणों जैसे- गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा कवरेज की कमी, कानून के अपर्याप्त प्रवर्तन आदि में सुधार किया जाए। अब तक के अनुभव भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।
- ध्यातव्य है कि 2001-2011 के मध्य बाल श्रमिकों की संख्या में 65% की कमी आई है, जो मुख्य रूप से RTE, मनरेगा, मिड डे मील स्कीम जैसे कार्यक्रमों के कारण है। इसलिए, बाल श्रम के संकट को पुनर्वास, समग्र विकास तथा एक सम्मत राय बनाकर ही समाप्त किया जा सकता है; बाल श्रम विधेयक और जुर्माने जैसे उपाय स्वयं में इस समस्या के समाधान के लिए
पर्याप्त नहीं हैं।