भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान अपवाह तंत्र (अपवाह प्रणाली) : हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों की अभिलाक्षणिक विशेषताऐं

प्रश्न: हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों की अभिलाक्षणिक विशेषताओं पर विशेष बल देते हुए, भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान अपवाह प्रणाली के विकास के लिए उत्तरदायी कारकों का सविस्तार वर्णन कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान अपवाह तंत्र (अपवाह प्रणाली) के संबंध में संक्षेप में लिखिए।
  • पूर्व अपवाह तंत्र का उल्लेख कीजिए और वर्तमान अपवाह तंत्र के विकास के लिए उत्तरदायी कारकों को उद्धृत करते हुए इसके उद्विकास की चर्चा कीजिए।

उत्तर

वर्तमान अपवाह तंत्र को हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों में विभाजित किया जा सकता है। हिमालयी नदियां बारहमासी हैं क्योंकि इन्हें हिम के पिघलने और वर्षण से जल की प्राप्ति होती रहती है। दूसरी ओर,प्रायद्वीपीय नदियां वर्षण पर निर्भर हैं, इसलिए इन्हें अल्पकालिक नदियों के रूप में जाना जाता है।

वर्तमान अपवाह तंत्र की अभिलाक्षणिक विशेषताएं और उद्विकास

                      हिमालयी अपवाह तंत्र                     प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र
इन नदियों का उद्गम विशालकाय हिमालयी श्रेणियों से होता है। इन नदियों का उद्गम प्रायद्वीपीय पठार से होता है।
इन नदियों के बेसिन और जलग्रहण क्षेत्र बड़े होते हैं। इन नदियों में बेसिन और जल ग्रहण क्षेत्र छोटे होते  हैं।
ये युवा और सक्रिय होती हैं तथा घाटियों को गहरा बनाती हैं। प्रवणित परिच्छेदिका वाली प्रौढ़ नदियाँ होती है।
ये नदियाँ पूर्ववर्ती अपवाह की उदाहरण हैं। ये अनुवर्ती अपवाह की उदाहरण हैं।
विसर्पण के साथ लंबा जल मार्ग, नदी अपहरण और नदी का मार्ग |  निश्चित और छोटा जलमार्ग बदलना।
बारहमासी: हिमनद से जल प्राप्त करती हैं। मौसमी: मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं।

 

भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान अपवाह तंत्र का उद्विकास स्थलाकृतियों, वर्षा में परिवर्तन इत्यादि कारकों की पारस्परिक क्रिया का परिणाम है। इस आधार पर, भारतीय उपमहाद्वीप अपवाह तंत्र को हिमालय और प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र में विभाजित किया गया है।

हिमालयी अपवाह तंत्र-मायोसीन काल के दौरान सिंधु-ब्रह्म या शिवालिक नदी प्रवाहित होती थी, जिसका अपवाह क्षेत्र असम से पंजाब और सिंध हिमालय तक विस्तृत था। बाद में यह तंत्र निम्नलिखित कारकों के कारण विभाजित हो गया:

  • प्लीस्टोसीन काल में पोटावर पठार (दिल्ली रिज) सहित पश्चिमी हिमालय में उत्थान हुआ। इस प्रकार, यह क्षेत्र सिंधु और गंगा नदी के मध्य जल विभाजक बन गया।
  • इसी काल के दौरान राजमहल पहाड़ियों और मेघालय पठार के मध्य स्थित क्षेत्र का अधः क्षेपण (क्रस्टल डाउन स्टिंग) हुआ। इसके परिणामस्वरूप गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी तंत्रों का दिक् परिवर्तन हुआ, जिससे वे बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवाहित हुईं।

प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र- यह हिमालयी अपवाह तंत्र से पुराना हैं, जो नदियों की विस्तृत घाटियों और प्रौढ़ावस्था से स्पष्ट होता है। पश्चिमी घाट मुख्य जल विभाजक के रूप में कार्य करता है। यह निम्नलिखित तीन प्रमुख घटनाओं का परिणाम है:

  • आरम्भिक टर्शियरी युग में प्रायद्वीप के पश्चिमी पार्श्व का अवतलन हुआ परिणामस्वरूप यह समुद्र के नीचे निमज्जित हो गया। इस घटना के कारण मुख्य जल विभाजक के दोनों ओर नदी की दिशा विक्षेपित हो गयी।
  • इसके पश्चात् प्लीस्टोसीन युग के दौरान, हिमालय के उत्थान के समय प्रायद्वीप का उत्तरी भाग यूरेशियाई प्लेट के नीचे क्षेपित हो गया जिसके परिणामस्वरूप भ्रंश द्रोणियों का निर्माण हुआ। तर्मदा और ताप्ती नदियां इन्हीं भ्रंश द्रोणियों के मध्य प्रवाहित हो रही हैं।
  • उत्तरी पार्श्व के क्षेपण के परिणामस्वरूप प्रायद्वीपीय खंड का उत्तर-पश्चिमी दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर अल्प झुकाव हो गया। इसने प्रमुख प्रायद्वीपीय नदियों का अभिविन्यास बंगाल की खाड़ी की ओर परिवर्तित कर दिया।

इस प्रकार, तीन प्रमुख भू-आकृतिक इकाइयों के मध्य पारस्परिक क्रिया और वर्षण की प्रकृति एवं विशेषताओं ने अंततः भारतीय उपमहाद्वीप में वर्तमान अपवाह तंत्र को आकार प्रदान किया।

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