भारतेन्दु की नाट्य दृष्टि और ‘अंधेर नगरी’
इसमें हम आपको भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्य दृष्टि और ‘अंधेरी नगरी’ नाटक से परिचित करायेंगे। इस इकाई को पढ़ने से आप भारतेंदु युग और भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्यिक व्यक्तित्व के बारे में उल्लेखनीय बातों से परिचित । होंगे।। भारतेंदु ने जब नाटक लिखना शुरु किया था, तब हिंदी में न तो नाटक लिखे जाते थे और न ही रंगमंच उपलब्ध था, लेकिन उन्हें भारतीय, पाश्चात्य, लोक आदि विभिन्न नाट्य परंपराएं उपलब्ध थीं। उनके संदर्भ में ही भारतेंदु के नाटकों को समझा जा सकता है। इसलिए इन परंपराओं का उल्लेख करते हुए भारतेंदु के नाट्य संबंधी सोच का विवेचन करेंगे। भारतेंदु के नाटकों की परंपरा में अंधेर नगरी का महत्वपूर्ण स्थान है। इस परंपरा से आपको परिचित कराते हुए उनके नाटक अंधेर नगरी की सामान्य विशेषताओं का उल्लेख कराया गया है। इकाई के अध्ययन से आपको उपर्युक्त सभी पक्षों को जानने और समझने का अवसर प्राप्त होगा। लेकिन हम आपसे अपेक्षा करते हैं कि इकाइयों का अध्ययन आरंभ करने से पूर्व आप अंधेर नगरी का अध्ययन कर चुके होंगे। अगर आपने नाटक नहीं पढ़ा है तो उसे जरूर पढ़ें।
अगली इकाइयों में आप भारतेन्दु युग, सामाजिक यथार्थ और व्यंग्य के रूप में अंधेर नगरी, उसमें अभिव्यक्त विडम्बना, अंधेर नगरी की भाषा, शिल्प और रंगमंचीय विशेषताओं का अध्ययन करेंगे। इनको पढ़ने से पहले आपके लिए यह जानना जरूरी है कि भारतेन्दु के समय में हिंदी नाटकों की क्या स्थिति थी? भारतेंदु का निजी व्यक्तित्व कैसा था? उन्हें कौन-कौन सी नाट्य परंपराएँ मिली और उन परंपराओं से उन्होंने क्या लिया और क्या स्वयं नया रचा? यह सब जानने से आप अंधेर नगरी नाटक को अच्छी तरह समझने की ओर अग्रसर हो सकेंगे और उसका विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकेंगे।
हिन्दी नाटक का इतिहास बहुत पुराना है। हमारे यहाँ भारतीय नाट्यकला की बहुत लम्बी और समृद्ध परंपरा मिलती है- संस्कृत नाटक और लोक नाटक की। लेकिन हिन्दी में आधुनिक युग से पूर्व नाटक की परंपरा लगभग अनुपस्थित थी। हिंदी नाटक के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ही माना जाता हैं। भारतेन्दु से ही हिंदी के आधुनिक युग की शुरुआत होती है। आधुनिक हिंदी गद्य के वही जन्मदाता हैं। वह हिंदी के प्रथम समर्थ नाटककार हैं। यद्यपि उनसे पूर्व भी कुछ छिटपुट नाटक लिखे गए। कुछ ब्रजभाषा में, कुछ खड़ी बोली में। इनमें विश्वनाथ सिंहजू का आनंद घन, स्वयं भारतेन्दु के पिता गिरधर दास का नहुष और अमानत द्वारा रचित इन्दरसभा विशेष उल्लेखनीय हैं।। इन तीनों नाटकों में नाटक को मंच पर पेश किए जाने योग्य बनाने, उसके अनुरूप भाषा और शिल्प का निर्माण करने की कोशिश मिलती है। भारतेन्दु सही अर्थों में पूर्ण नाटककार थे। उन्होंने नाटक को राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरण का माध्यम बनाया। भारतेंदु ने जब नाटक लिखना शुरू किया तब हिंदी में नाट्य विधा संबंधी किसी तरह का सोच उपलब्ध नहीं था, और न ही हिदी का अपना रंगमंच था। पारसी थियेटर की शुरुआत जरूर हो चुकी थी, लेकिन उसको हिदी रंगमंच नहीं कहा जा सकता। पारसी थियेटर द्वारा हिंदी से ज्यादा उर्दू, गुजराती, मराठी आदि नाटक खेले गये। हां, आरंभिक हिंदी रंगमंच पर इसका प्रभाव अवश्य दिखाई देता है। भारतेंदु ने समग्र आंदालेन की तरह नाट्यविधा को लिया – नाटक लिखे, . अनूदित किए, लिखवाये, उनकी समीक्षाएँ उस समय की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित की, नाट्य मंलियाँ बनाई, उनके द्वारा जगह-जगह नाट्य-प्रदर्शन किये। भारतेंद ने यथार्थ चित्रण के लिए जिंदादिली और मनोरंजन को महत्वपूर्ण आधार बनाया ताकि नाटक जन मानस से जुड़ सकें। भारतेंदु ने नये-नये प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि बदलते हुए लोक स्वभाव और युग की आवश्यकताओं के साथ नाटककाकर को भी नियमों में लचीलापन लाना चाहिए।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटकों में अंधेर नगरी ऐसा नाटक है जिसकी सार्थकता और मूल्यवत्ता समय के साथ बढ़ती गयी है। आपके लिय यह जानना जरुरी है कि नाटककार भारतेन्दु और उनके नाटक अंधेर नगरी की ऐसी क्या मौलिकता और विशेषता है कि साहित्य और रंगमंच दोनों में यह नाटक अपने लघु आकार में भी कालजयी होता गया और नाट्य रचना एवं रंगमंच को क्रांतिकारी मोड़ देता गया। अगर हम भारतेन्दु की नाटय दृष्टि और अंधेर नगरी की रचनात्मकता को समझ जाते हैं तो आगे की इकाइयों में अंधेर नगरी के यथार्थ, उसकी नाट्यभाषा और शिल्प, उस पर होने वाले विभिन्न रंगमंचीय प्रयोगों को समझना आसान हो जाएगा।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए हमने इस इकाई में चार बातों पर अपनी पाठ्य सामग्री को केन्द्रित किया है।
- भारतेन्दु और विभिन्न नाट्य परंपराएँ,
- भारतेन्दु की नाट्य संबंधी सोच,
- भारतेन्दु द्वारा रचित विभिन्न नाटक और
- अंधेर नगरी एक नाट्यरचना के रूप में।
इन चारों के अध्ययन से आपको यह आधार मिल सकेगा, जिसके परिप्रेक्ष्य में आप आगे की इकाइयों में अंधेर नगरी का विस्तृत अध्ययन और विश्लेषण कर सकेंगे।
भारतेन्दु और विभिन्न नाट्य परम्पराएँ
भारतवर्ष में नाटक की अत्यंत प्राचीन और समृद्ध लोक परम्परा और शास्त्रीय परंपराएँ रही हैं। नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने नाटक को सर्वाधिक रमणीय और “पंचमवेद” कहा है। भरतमुनि ने देश की पूर्व प्रचलित लोक परम्पराओं की पृष्ठभूमि में ही नाट्यशास्त्र रचकर नाटक को नियमबद्ध किया और उसकी सम्पूर्ण रचना-प्रक्रिया, सहयोगी कला रूप और रंगमंच पर प्रस्तुति, प्रेक्षागृह के स्वरूप, । भेद, आकार पर प्रमाणित सामग्री प्रस्तुत की। संस्कृत के नाटक तत्कालीन कला-दृष्टि और रंगमंच को स्पष्ट करने वाले हैं। उसी प्रकार लोकनाटक अपनी-अपनी स्थानीय विशेषताओं के साथ, लोकमंच और लोकपरम्पराओं के साथ चारों ओर मौजूद थे। अमानत की ‘इन्दरसभा’ का स्वरूप भी उस समय के इतिहास, नाटक और रंगमंच की देन था। उसके संगीत, नृत्य, भाव, रस, गतियों – प्रकारों और लचीले शिल्प ने एक मौलिक पहचान बनायी। दुःख की बात है कि शास्त्र और लोक की यह सुदृढ़ परम्परा रहते हुए भी नाटक और रंगमंच हमारे जीवन से एकदम कटता गया। मध्ययुगीन सामंती पतनशीलता ने रंगमंच के प्रति उदासीनता का भाव पैदा किया। यद्यपि इस पूरे दौर में लोक नाट्य की परंपराएँ पहले की तरह गतिमान रही। अंग्रेजी शासन की स्थापना ने पश्चिम के नाटकों और रंगमंच से हमारा परिचय कराया। इस परिचय ने हमें प्रेरित किया कि हम अपनी नाट्य परंपरा की पुन: खोज करें। वर्षों तक पारसी नाटक कम्पनियों के व्यावसायिक और सतही मनोरंजक नाट्य प्रदर्शनों का बोलबाला रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि रचनात्मक और साहित्यिक स्तर के नाटक लिखने की कोशिशें रंगमंच से दूर हटती गईं। समीक्षक नाटक का विभाजन दो खानों में करके देखने लगे – साहित्यिक नाटक और रंगमंचीय नाटक। हमारे नाटककार लम्बे समय तक रंगमंच से कटे रहकर नाटक की विधागत मौलिकता और जटिलता से शून्य कोरी कल्पना द्वारा नाट्य रचना करते रहे और व्यावसायिक रंगमंचीय नाटकों की प्रतिक्रिया में शुद्ध साहित्यिक नाटक लिखते रहे।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच भारतेंदु हरिश्चंद्र का युगांतरकारी व्यक्तित्व उभरता है जिन्होंने बड़ी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत और कलागत विशेषताओं को पूरी तरह समझा ही नहीं बल्कि उसके लिए सामूहिक और योजनाबद्ध ढंग से काम किया। उनके सामने बहुत से कार्यभार मौजूद थे – नाट्य लेखन, अनुवाद, प्रदर्शन, राष्ट्रीय चेतना का विकास, लोकरुचि का परिष्कार, व्यवसायिक थियेटर के विरुद्ध संघर्ष। वह हिंदी की अपनी नाट्य परंपरा, नाट्य शिल्प और रंगमंच के विकास लिए संघर्षशील रहे। भारतेन्दु हिन्दी के अकेले ऐसे प्रथम नाटककार हैं जिन्होंने अपनी मौलिकता और चिन्तन को नाटक निबन्ध और अपने नाट्य लेखन में प्रयुक्त नये प्रयोगों द्वारा प्रस्तुत किया। नाटक निबन्ध को बिना पढे आप भारतेन्दु की मौलिकता और हिन्दी नाट्यशास्त्र के विषय में उनके चिंतन को नहीं समझ सकते। ह परम्परा और आधुनिक दोनों स्रोतों से प्राप्त रंग-दृष्टियों को आत्मसात् करते हुए हिंदी की अपनी रंग दृष्टि और नाट्य परंपरा का विकास करना चाहते थे। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को उन्होंने नकारा नहीं है लेकिन उसका ज्यों का त्यों अनुसरण वह हिन्दी के लिए उपयुक्त नहीं मानते।
इस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हिंदी नाट्य परंपरा के विकास के लिए एक ओर भारत की प्राचीन संस्कृत नाट्य परंपरा से सीखा, तो दूसरी ओर उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों में मौजूद लोक नाटकों की परंपरा को अंगीकार करने में भी संकोच नहीं किया। इसके बावजूद उनका नाट्य चिंतन पश्चिम की नाट्य परंपरा से प्रेरित था, जिसने भारत में आधुनिक नाट्य परंपरा के विकास का आधार बनने का काम किया था। पारसी थियेटर इसी नाट्य परंपरा का भारतीय, व्यावसायिक और लोकप्रिय स्वरूप था। इन विभिन्न परंपराओं के परिप्रेक्ष्य में ही भारतेंदु की रंग-दृष्टि और रंग-सृष्टि को समझ सकते हैं।
अतः कह सकते हैं कि भारतेंदु की नाट्य दृष्टि भारतीय और आधुनिक है, रूढिबद्ध नहीं। भारतेंदु मूलतः लोकधर्मी चेतना के नाटकाकार हैं लेकिन वह संस्कृत के शास्त्रीय विधान, पारसी नाटक और पश्चिम की नाट्यकला के प्रभाव से सर्वथा मुक्त नहीं है। अंधेर नगरी के अध्ययन से ही आप जान पायेंगे कि इस छोटे से नाटक में सभी परंपराओं का प्रभाव है।
भारतेन्दु की नाट्य संबंधी दृष्टि
भारतेन्दु के लिए साहित्य की रचना सोद्देश्यपूर्ण थी यद्यपि उन पर अपनी पूर्व की काव्य परंपरा का गहरा प्रभाव था, लेकिन गद्य लेखन, विशेषकर नाट्य लेखन में उनकी चिंताएँ आधुनिक थीं : अपने . समय और समाज से प्रेरित। वे नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाना चाहते थे। वे यह भी चाहते थे कि हिंदी का साहित्य-संसार भी आधुनिक, उच्चकोटि का और समृद्ध हो। इसके लिए उन्होंने जो प्रयत्न किये, वह एक आंदोलन की तरह थे। भारतेंदु के नाटक लेखन में उनका बेधड़क, जिंदादिल व्यक्तित्व, और उनकी प्रगतिशील चेतना का असर आप देख सकते हैं। प्रेमचंद के यथार्थवाद और निराला की क्रांतिकारिता, विद्रोह और जागरण की ज़मीन भारतेंदु ने ही तैयार की थी। वह स्वयं अभिनेता, रंगकर्मी, निर्देशक और समीक्षक थे। वे सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय नवजागरण को लिए नाटक को सबसे सशक्त माध्यम मानते थे। नाटक में दृश्यात्मक और काव्यत्व को और उसके प्रत्यक्ष सौंदर्य को उन्होंने सबसे अधिक महत्व दिया जिसका प्रभाव उनके नाटकों के पूरे संरचनात्मक पक्ष पर पड़ा है। उन्होंने अपने कुछ नाटकों में अभिनय भी किया था। ‘जानकीमंगल’ नाटक जो बनारस थियेटर में खेला गया था (1868 ई0) में उन्होंने अभिनय किया।
‘नीलदेवी’ में पागल की भूमिका निभायी और बलिया में ‘सत्य हरिश्चंद्र’ में हरिश्चंद्र के रूप में वृहद् जनसमूह को भाव-विभोर कर दिया। वह प्रायः ‘स्वांग’ करते थे। कवितावर्धिनी सभा का निर्माण, पेनी रीडिंग क्लब की योजना आदि ऐसे कार्य थे जिनसे गतिशील रंगकर्म का ज्ञान होता है। भारतेंदु ने अपने संरक्षण में काशी में नेशनल थियेटर की स्थापना की। उनके मंडल के लेखकों ने काशी, प्रयाग, बिहार आदि में अनेक नाट्य मंडलियाँ स्थापित की। अभिनय के साथ-साथ उनका उद्देश्य चारों और एक सजग, रचनात्मक और कलात्मक वातवरण बनाने तथा नाटकों के प्रति स्तरीय अभिरुचि विकसित । करने का था। नाटक के सृजन को उन्होंने युग की आलोचना और भविष्य की रचना के अर्थ में लिया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नाटकों की रचना ही नहीं की, वरन् नाटक संबंधी विस्तृत लेख लिखकर उन्होंने नाटक के बारे में अपने सुस्पष्ट विचार प्रस्तुत किए। नाटक नाम से यह लेख पुस्तक रूप में सन् 1883 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने यह पुस्तक नाटक लिखने वालों की सहायता के लिए लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने नाट्यशास्त्र, साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश आदि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के आधार पर नाटक के विभिन्न पक्षों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही उन्होंने आधुनिक नाटकों की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है।
हिंदी के नाटककारों के लिए कौन-सी पद्धति सही है, इस पर भी उन्होंने विचार किया है। हम यहाँ नाटक के भेद-उपभेद का जो वर्णन भारतेंदु ने किया है उसको नहीं दोहराएंगे। लेकिन उनकी नाट्य दृष्टि को समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि उनकी दृष्टि में नाटक का लेखन और मंचन क्यों किया जाना चाहिए तथा हिंदी नाट्य परंपरा के विकास के लिए किस परंपरा का अनुपालन करना चाहिए। नाटकों की जिस नवीन परंपरा का वे उल्लेख करते हैं, उसे वे पश्चिम की यूरोपीय नाट्य परंपरा और बंगला नाटकों पर उसके प्रभाव से जोड़ते हैं। वे लिखते हैं, ‘आजकल यूरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन भी चुके हैं, वह सब नवीन भेद में परिगणित है। इन नवीन भेद के नाटकों के वे दो मुख्य भेद मानते हैं – ‘एक नाटक, दूसरा गीतिरुपक’। वे आगे लिखते हैं, जिनमें कथाभाग विशेष और गीति न्यून हो वह नाटक और जिसमें गीति विशेष हों वह गीति रुपक।’ इस व्याख्या से साफ है कि भारतेंदु ऐसे नाटकों की कल्पना नहीं कर पाए थे, जिनमें गीत या पद्य का बिल्कुल प्रयोग न किया गया हो।
संस्कृत नाट्य परंपरा जिसे वे प्राचीन रीति की नाट्य परंपरा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उसकी उपयोगिता को वे न तो पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं और न ही वे उसके अनुकरण की बात स्वीकारते हैं। वे कहते हैं, ‘नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयत करना हो तो प्राचीन समस्त रीति ही परित्याग करे यह आवश्यक नहीं है क्योंकि जो सब प्राचीन रीति वा पद्धति आधुनिक सामाजिक लोगों की मतपोषिका होंगी वह सब अवश्य ग्रहण होंगी।’ भारतेंदु के इस कथन से साफ है कि वे प्राचीन नाट्य रीतियों को तब ही स्वीकार करने को तैयार है जब वे आधुनिक युग की जरूरतों के अनुरूप हों। अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं कि ‘नाट्यकला कौशल दिखलाने को देश, काल और पात्रगण के प्रति विशेष रूप से दृष्टि रखनी उचित है। पूर्वकाल में लोकातीत असंभव कार्य अवतारणा सभ्यगण को जैसी हृदयहारिणी होती थी वर्तमान काल में नहीं होती।’ ध्यान देने की बात है कि यहाँ भारतेंदु प्राचीन और नवीन में जिस बिंदु को विभाजक बनाते हैं, वह है यथार्थ के प्रति दृष्टिकोण। जो लोकातीत है और जो असंभव है, वर्तमान काल में वह लोगों को स्वीकार नहीं हो सकता। यह नाटकों में यथार्थ आधारित लौकिक दृष्टि के समावेश का प्रयास है। भारतेंदु अपने इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘अब नाटकादि दृश्यकाव्य में अस्वाभाविक सामग्री परिपोषक काव्य सहृदय सभ्य मंडली को नितांत अरुचिकर है, इसलिए स्वाभाविक रचना ही इस काल के सभ्यगण की हृदय ग्राहिणी है, इससे अब अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना उचित नहीं है। अब नाटक में कहीं आशी, प्रभृति नाट्यालंकार कहीं प्रकरी, कहीं विलोभन, कहीं। सम्फेट, पंचसंधि, वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं बाकी रही। संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में इनका अनुसंधान करना, वा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर हिंदी नाटक लिखना व्यर्थ है, क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा सम्पादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है।’
यहाँ प्राचीन का पूरी तरह अस्वीकार नहीं, लेकिन नवीन को ही आधार के रूप में स्वीकार करना, यह बताता है कि भारतेंदु नाटकों की रचना के लिए विवेकपूर्ण आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने के पक्षधर थे। उनका आधुनिक दृष्टिकोण नाटकों के उद्देश्य में भी दिखाई देता है।
नाटकों के उद्देश्य की चर्चा वे नाटकों के नवीन भेदों के अंतर्गत करते हैं। प्राचीन संस्कृत नाटकों के बारे में चर्चा करते हुए वे उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं कहते। लेकिन नवीन नाटकों की चर्चा करते हुए वे नाटकों के पाँच उद्देश्यों का उल्लेख करते हैं :
- श्रृंगार
- हास्य,
- कौतुक,
- समाज संस्कार और
- देशवत्सलता।
नाटक के उक्त पाँच उद्देश्य इस बात के द्योतक हैं कि किस प्रकार भारतेंदु रीतिवादी दृष्टिकोण से आधुनिक दृष्टिकोण की ओर उन्मुख हो रहे थे। देशवत्सलता को उद्देश्यों में शामिल करना इस बात को भी बताता है कि वे नाटकों का उपयोग लोगों में देश भक्ति की भावना जाग्रत करने के लिए भी करना चाहते थे। समाज संस्कार नामक चौथे उद्देश्य की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, ‘समाज संस्कार के नाटकों में देश की कुरीतियों अथवा धर्म संबंधी अन्यान्य विषयों में संशोधन इत्यादि।’ भारतेंदु का दौर नवजागरण का दौर था इसलिए देश और समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध नाटकों के द्वारा लोगों में जागति पैदा करना उन्हें जरूरी काम लगता था। उनका और उनके समकालीनों का लेखन इस सोच का प्रमाण भी है। इसी प्रकार पाँचवें उद्देश्य ‘देशवत्सलता’ की चर्चा भी अपने समय के दबाव का ही परिणाम है। अंग्रेजी दासता के अधीन रहते हुए तत्कालीन दौर के बुद्धिजीवी यह अनुभव करने लगे थे कि लोगों में यदि अपने देश के प्रति प्रेम का भाव जाग्रत किया जाए तो इससे देशोन्नति का भाव भी उत्पन्न होगा। यही कारण है कि उन्होंने लिखा कि ‘देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढ़ने वालों या देखने वालों के हृदय में स्वदेशानुराग उत्पन्न करना है। समाज संस्कार और देशवत्सलता दोनों उद्देश्यों से प्रेरित कुछ समकालीन नाटकों का उल्लेख भी उन्होंने किया। कुछ स्वयं उनके द्वारा लिखे हुए और कुछ उनके समकालीन अन्य नाटककारों के द्वारा लिखे हुए। अपने नाटकों में से भारत जननी, नील देवी और भारत दुर्दशा की गणना उन्होंने देशवत्सलता के उद्देश्य से लिखे गए नाटकों में की है।
इन नाटकों को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतेंदु ने । देश के प्रति अनुराग के भाव को अमूर्त रूप में ग्रहण नहीं किया था। वे भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहते थे। केवल प्रेम के लिए प्रेम नहीं वरन् देश दुर्दशा को समाप्त करने और उसे उन्नति की राह पर ले जाने के लिए वे देशवत्सलता की बात करते हैं। यही कारण है कि वे ‘भारत दुर्दशा’ नाटक के आरंभ में ही लिखते हैं :
अँगरेजराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै, अति खारी।
ताह पै महँगी काल रोग विस्तारी।
दिन दिन दूने दुख ईस देत हा हा री।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा। भारत दुर्दशा न देखी जाई।
अंधेर नगरी नाटक की गणना भी हम इस श्रेणी के नाटकों में कर सकते हैं।
आप उनके नाटकों के अध्ययन से समझ पायेंगे कि किस प्रकार अपनी इस सोच को उन्होंने नाटकों में अभिव्यक्त किया है। भारतेंदु द्वारा बताए गए उद्देश्यों से स्पष्ट है कि वह मनोरंजन के विरोधी नहीं हैं. न हास्य को हल्की-फुल्की नगण्य चीज़ मानते हैं बल्कि जन-जागरण और लोकरुचि के लिए उन्हें अनिवार्य मानते हैं। यही वजह है कि वह ‘काव्य के सर्वगुण संयुक्त खेल को नाटक कहते हैं। यह खेल शब्द ही भारतेंदु और उनके युग के नाटककारों की खुली दृष्टि और नाट्यचिंतन को प्रस्तुत करता है। उन्होंने नाटक को खेल, तमाशा, दिल्लगी, क्रीड़ा, कौतुक कहा है। बड़ी से बड़ी समस्या को हास्य और तीखे व्यंग्य में कहकर वह नाटक की मंचीय प्रकृति को उजागर करते हैं। नाटक के चमत्कार और उसके प्रभाव को वह समझते थे। जब वह कहते हैं कि ‘देखों, यह हिंदी भाषा में नाटक देखने की। इच्छा से आते हैं, इन्हें कोई खेल दिखाओ’ तो एक निष्ठावान, चिंतनशील, सहज और सक्रिय रंगकर्मी का जनवादी रूप उभरता है। इसके लिए वह जनता की स्थानीय बोलियों के प्रयोग, मुहावरे, टोन, लय, उनके गीत, छंद, उनकी लोकसंस्कृति, आचार, व्यवहार ग्रहण करते हैं और जिसे आप प्रेम जोगिनी, अधेर नगरी में देखो सकते हैं।
किस तरह भारतेंदु नाटक की प्रकृति के साथ जनता की प्रकृति और राष्ट्र की आवश्यकताओं को पहचानते चलते हैं। वह अपने कथ्य, शिल्प और कर्म को लादना नहीं चाहते कि देखों यह मैंने किया है। भारतेंदु के नाटक इस अहं से मुक्त हैं। उनके लिए साहित्यिकता कोई आरोपित पक्ष नहीं है, न रंगमचीयता अलग से कोई लादा गया बाह्य तत्व। दोनों की सूक्ष्म आंतरिक संगति का सर्वोत्तम उदाहरण आप भारतेंदु के नाटकों में देखेंगे।
भारतेन्दु द्वारा रचित विभिन्न नाटक
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के लिए नाट्य रचना कर्मक्षेत्र में जुटने जैसी थी। उन्होंने नाटक लिखकर न सिर्फ साहित्य की सेवा की बल्कि हिन्दी भाषा को उन्नत करने तथा हिन्दी नाट्य-कला और रंगमंच का विकास करने का ऐतिहासिक कार्य किया। उन्होंने युग की आवश्यकताओं को पहचान कर नाटक लिखे। अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के साथ भारतेन्दु ने नाट्यरचना के क्षेत्र में अद्भुत सृजनशीलता और गम्भीरता का परिचय दिया है। कविता, निबन्ध आदि विधाओं में लिखते हुए भी नाट्य विधा की ओर उनका विशेष झुकाव दिखाई देता है। भारतेंदु नाटकों के द्वारा जनता को नवजागरण की दिशा में संस्कारित करना चाहते थे। वे जानते थे कि दृश्य काव्य होने की वजह से नाटक जनता को जागृत करने का सशक्त माध्यम हो सकता है। वे स्वयं अभिनेता और निर्देशक भी थे इसलिए नाटकों का इस दृष्टि से उपयोग करने में अधिक सक्षम थे। उन्होंने प्रचुर नाट्य साहित्य की रचना की जो मौलिक भी हैं और अनूदित भी। नाटकों के लेखन में उन्होंने अपनी जागरूक चेतना और आधुनिक दृष्टि का परिचय दिया है। शिल्प और शैली के विविध प्रयोगों और साथ ही भाषा की बनावट और शक्ति के प्रति भी वह सजग थे। उनके सभी नाटकों में उनकी मौलिकता और विशिष्टता दिखायी देती है। भारतेन्द्र ने निम्नलिखित नाटकों की रचना की हैं:
मौलिक नाटक वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873), विषस्य विषमौषधम् (1875), प्रेमजोगिनी (1875), सत्य हरिश्चन्द्र (1875), चन्द्रावली (1876), भारत दुर्दशा (1876), भारत जननी (1877), नीलदेवी (1880), अन्धेर नगरी (1881), और सती प्रताप (1884)।
भारतेन्दु के नाटकों के अध्ययन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन्होंने नाटाकों के कथानक, चरित्र, भाषा, शिल्प और रंगमंच के बारे में गहन रूप से विचार किया था। वह हिन्दी नाटक के स्वरूप को भी विकसित कर रहे थे और अपने समय से भी उसे जोड़ रहे थे। पुरानी रूढ़ियों, अंधविश्वासों को तोड़ते हुए उनके सभी नाटक प्राचीन प्रचलित रीतियों के अन्धानुकरण का विरोध करते हैं। वस्तुत: वह नाटक का जातीय रूप विकसित करना चाहते थे इसीलिए नाटकों की विषयवस्तु यथार्थवाद के नजदीक है। उन्होंने निबंध के साथ ही नाटकों में भी प्रहसन को आवश्यक माना है। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति एक प्रहसन है। इस नाटक का उद्देश्य यथार्थ के उद्घाटन और व्यंग्य द्वारा जीवन में आई विकृतियों के प्रति जनता को सचेत करना है। अपने लघु आकार में भी यह प्रहसन पूर्ण नाटक की विशेषताओं से युक्त है। सभी पात्र प्रतीकात्मक और व्यंग्य-चरित्र है।
विषस्य विषमौषधम संस्कृत की भाषा शैली में लिखा गया एक-पात्रीय नाटक है। भारतेन्दु अपने समय के राजाओं की व्यभिचार-लीला और प्रजा शोषण देख रहे थे। ये राजा ही देश की परतंत्रता के कारण बने। भारतेन्दु ने सामन्त वर्ग की स्वार्थ लालुपता और अंग्रेजों की कूटनीति को एक साथ पहचाना है और एक-पात्रीय नाटक की एकरसता को कहावतों, चुटकुलों, मुहावरों, पदों, श्लोकों, व्यंग्य, हास्य से मनोरंजक बनाया है।
प्रेमजोगिनी भी काशी के पाखंड भरे रूप का यथार्थवादी नाटक है। यह काशी के बहाने सामंती संस्कृति के पतन का नाटक है। यह नाटक के क्षेत्र में भारतेंदु का नया प्रयोग है। हर अंक में नये पात्र आते हैं, अतः एक ही पात्र के कई बार अभिनय करने की संभावनाएँ बनती हैं।
सत्य हरिश्चन्द्र नाटक रीति-कालीन श्रृंगार रस के प्रति असन्तोष से उपजा है। यह नाटक नवयुवकों में चरित्र और आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से लिखा गया। सत्य हरिश्चन्द्र क्षेमेश्वर के चण्डकौशिक नाटक के आधार पर लिखा गया है। यद्यपि उसका रूप, उसकी भाषा की सरसता और भावात्मकता, उसके सरस पद्य सब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के हैं। सत्य हरिश्चन्द्र की रचना कर वह देश का जन-मानस गर्व से भरना चाहते थे, उसे चारित्रिक उत्थान का माध्यम बनाना चाहते थे। इसके शिल्पविन्यास में भी पाश्चात्य शैली के प्रभाव के साथ ही उनकी मौलिकता भी दिखाई देती है। यह नाटक भारतीय जनता के धैर्य और अथाह करुणा का प्रतीक है।
चन्द्रावली प्रेम और भक्ति की स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है। इसमें सूर मीरा, रसखान जैसे कवियों के भक्तिकाव्य का सा आनंद मिलता है। चन्द्रावली को रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है। राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक भारतेन्दु का अखण्ड परमानन्द चन्द्रावली के अनन्य प्रेम और भक्ति के द्वारा व्यक्त हुआ है।
भारत दुर्दशा अंग्रेजी राज्य की अप्रत्यक्ष आलोचना है और भारतेन्दु की देश-भक्ति और निर्भीकता का, सहृदयता और वीरता का प्रमाण है। उनकी राजनीतिक सूझबूझ, प्रहसन-कला, करुणा, व्यंग्य और यथार्थ का सजीव चित्रण इसमें मिलता है। प्रतीकात्मक पात्रों के द्वारा उन्होंने अपनी बात कहने की सफल कोशिश की है। लोकधर्मी चेतना और प्रयोगशीलता के कारण भारत दुर्दशा आज भी प्रासंगिक हो यह लचीले शिल्प का नाटक है। उसमें पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक नाट्य रूप का अद्भुत मिश्रण है।
भारत जननी भी भारतवर्ष की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर लिखा गया काव्य-नाटक है। चन्द्रावली और भारत जननी में गीतिनाट्य का सूत्रपात देखा जा सकता है।
भारत दुर्दशा के तुरन्त बाद लिखा गया नीलदेवी नाटक भी स्त्री प्रधान और पहला दुखान्त नाटक है। भारतेन्दु देश में फैले इस भ्रम को दूर करना चाहते थे कि भारत में स्त्रियों की दशा बहुत खराब रही है। नीलदेवी के महत्वपूर्ण गुण हैं – उसके सरस, मधुर गीत और भारतेन्दु के प्रहसन, जिन्दादिली और तीव्र अभिनयात्मकता की शैली। नीलदेवी के गीत आधुनिक दृष्टि से ‘नाट्यसंगीत” और “नाट्यगीत का सुन्दर उदाहरण है।
अन्धेर नगरी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की नाट्यकला का चरमोत्कर्ष हुआ है। प्रहसन और व्यंग्य-कला का इतना चुटीला और सजीव रूप उनकी सजगता और मानव जीवन में उनकी गहरी पैठ का परिणाम है। जन-प्रचलित एक छोटी सी लोकोक्ति के आधार पर रचित यह छोटा नाटक अपने भीतर समग्र वर्तमान सन्दर्भ छिपाये हुए है। एक लोककथा में नये प्राण फूंकना और लोकजीवन और राजनीतिक चेतना को एक-दूसरे के करीब लाते हुए उनमें निहित यथार्थ को व्यंग्य के द्वारा व्यक्त करना भारतेन्दु की मौलिकता है। अंधेर नगरी भारतेंदु के समय का ही नहीं हमारे समय का भी यथार्थ है।
सती प्रताप में सती सावित्री के कथानक को लेकर भारतीय नारी की चेतना और आदर्श को प्रस्तुत किया गया है ताकि पुरुषों में नवीन जागरण उत्पन्न हो सके। भारतेन्दु इसके केवल चार दृश्य ही लिख पाये थे। बाद में बाबू राधाकृष्णदास ने इसे पूरा किया था।
अनूदित नाटकों में भी भारतेन्दु का निश्चित लक्ष्य था। हर्षकृत संस्कृत नाटिका रत्नावली का हिन्दी अनुवाद उनका प्रथम अनुवाद था, उसे वह शकुन्तला के बाद श्रेष्ठ पठनीय कृति मानते थे। इस अनुवाद में मूल संस्कृत छन्दों के साथ स्वयं उन्होंने भी छंद बनाए थो पाखण्ड विडम्बन कवि कृष्ण मिश्र कृत प्रबोध चन्द्रोदय के तीसरे अंक का अनुवाद है। एक अंक की कथावस्तु को नया नाम देकर एक स्वतंत्र रचना के रूप में अनुवाद करना भारतेन्दु की मौलिक दृष्टि का परिचायक है। इसके प्रतीकात्मक पात्र भारत दुर्दशा का ही आरंभिक रूप है। भाषा अनुवाद की सी नहीं लगती। प्रहसन के द्वारा भारतेन्दु अपने सब लक्ष्य पूरे करते हैं। धनंजय विजय वीर रस प्रधान ओजपूर्ण नाटक है। इसके भरत-वाक्य में वह कजरी, ठुमरी आदि की रूढ़िवादी लीक को छोड़कर नये साहित्य और कविता की राह पर चलने को कहते हैं।
मुद्राराक्षस संस्कृत के नाटककार विशाखदत्त का एक राजनीतिक नाटक है। नायक नायिकाओं की श्रृंगार लीलाओं से हटकर प्राचीन और नवीन परम्पराओं के समन्वय के द्वारा इस नाटक से भारतेन्दु प्रमाणित करना चाहते थे कि श्रृंगार रस के बिना भी विचारोत्तेजक महान नाटक की रचना की जा सकती है। आज के सांस्कृतिक जीवन में भी मुद्राराक्षस का महत्व है। चाणक्य की कूटनीतिक दृढ़ता और नैतिकता दर्शनीय है। घटनाओं और पात्रों के अर्द्वन्द्व का चित्रण और सम्पूर्ण कथा का संयोजन बहुत सुन्दर हुआ है। इस नाटक का अनुवाद और भी अधिक जीवन्त एवं मौलिक है। एक प्रकार से यह अनुवाद की भाषा और स्वरूप का मौलिक उदाहरण है। संस्कृत और पाश्चात्य नाटक-कला का समन्वय कर भारतेन्दु हिन्दी नाटक कला का स्वरूप निर्माण करने के प्रति भी सचेष्ट दीखते हैं। यह नाटक साहित्य और रंगमंच दोनों के लिए अनुकरणीय है।
कर्पूर-मंजरी कवि राजशेखर द्वारा प्राकृत भाषा में रचित कर्पूरमंजरी का अनुवाद है। इसमें राजदरबार का सुन्दर व्यंग्यात्मक चित्र है। श्रृंगार रस के लिए मूल गीतों के स्थान पर हिन्दी के रीतिकालीन कवियों के श्रृंगार प्रधान गीतों का प्रयोग उनकी मौलिकता है। दुर्लभबन्धु शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक मरचेन्ट ऑफ वेनिस का अनुवाद है। भारतेन्दु ने पात्रों के नाम, स्थान, कथा, संवाद आदि में परिवर्तन करके उसका भारतीयकरण किया है। इस नाटक द्वारा सच्ची मित्रता और धनिकों के हृदय की क्रूरता
विद्यासागर यतीन्द्र मोहन ठाकुर के बंगला नाटक का अनुवाद है। यह एक प्रेमकथा है। कथा-विन्यास और चरित्र-चित्रण में मानसिक अर्द्वन्द्व भी और घटनाओं का उतार-चढ़ाव दोनों व्यक्त हुए हैं। इस प्रकार पाश्चात्य शैली का प्रभाव इस नाटक से सामने आता है। यह एक रोमांटिक नाटक है जिसमें रोमियो-जूलियट प्रेम में असफल होने के कारण प्राण नहीं देते, बल्कि अन्त में मिल जाते हैं |
सभी अनूदित नाटकों को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि भारतेन्दु नाटकों का चयन सोच-समझ के साथ करते थे। वे अपनी परम्परा, अपने युग, हिन्दी की नाट्यकला और भाषा का संस्कार करने में। अनुवादों का महत्व समझ रहे थे। अनुवाद क्षेत्र भी उनके व्यक्तित्व और व्यापक मानवीय संवेदना और कला-कौशल का प्रतीक है।
अन्धेर नगरी की रचना
अंधेर नगरी अपने संक्षिप्त कलेवर में गंभीर, सांकेतिक, मनोरंजक और कालजयी नाटक है। उसके कथा-स्रोतों पर आलोचक कई प्रकार के विचार प्रकट करते रहे हैं। अंधेर नगरी की कथा कोई नयी नहीं है। श्री रामदीन सिंह ने उसकी प्रस्तावना में कहा है कि दक्षिण में पारसी और मराठी नाटक वाले अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते थे। कुछ विद्वान इस कथा को लोकप्रसिद्ध कथा भी कहते हैं। (देखें, भारतीय नाट्यसाहित्य : सं. डॉ. नगेन्द्र, भारतेन्दु के नाटक : डॉ. सत्येन्द्र, यह भी कहा गया है कि यह नाटक 1881 ई. में किसी ज़मीदार को लक्षित करके नेशनल थियेटर के लिए एक ही बैठक में लिखा गया था। (ब्रजरत्न दास का मत है कि बिहार प्रांत के किसी ज़मींदार के अन्यायों को लक्ष्य करके उसे सुधारने के लिए तथा नेशनल थियेटर में अभिनीत किये जाने के लिए इसकी रचना हुई थी : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, एक ही रात में भारतेन्दु ने एक सामान्य लोकोक्ति ‘अन्धेर नगरी चौपट्ट रांजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’ को इतना व्यंग्यात्मक सार्वजनीन और सृजनात्मक अर्थ दे दिया। रंगमंडली के अनुरोध पर लिखा गया यह नाटक भारतेन्दु के नाट्यकर्म की तीव्रता और गंभीरता को प्रस्तुत करता है और यह सोचने पर विवश करता है कि साहित्य, रंगमंच और विश्वजनीन संदर्भो का कैसे इतना सघन और अंतरंग रिश्ता बन जाता है।
आलोचक लंबे समय तक अंधेर नगरी की गणना एक सामान्य प्रहसन के रूप में करते रहे लेकिन 1960 के बाद रंग-प्रस्तुतियों के साथ समीक्षा-दृष्टि बदली। इस नाट्यरचना को हिन्दी की समकालीन संदर्भो की विलक्षण रचना, विसंगति, व्यंग्य और विडम्बना का नाटक और एक सार्वभौमिक महाकाव्यात्मक नाटक कहा जाने लगा। ऊपर से अनगढ़, बेतुका, एब्सर्ड लगता हुआ भी यह नाटक अपनी रचनाशीलता से निरन्तर नवीन सौंदर्यबोध की सृष्टि करता गया है। कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, भुवनेश्वर की रचनाओं की समग्र विशेषताएँ इस एक लघु आकार की नाट्यरचना में मिल जाती हैं। यदि इस नाटक में कबीर की अक्खड़ता है तो निराला का विद्रोही तेवर भी। मुक्तिबोध का अनगढ़पन है, तो नागार्जुन की व्यंग्यात्मकता भी। यदि इसमें भुवनेश्वर के नाटकों में निहित यथार्थ की विडंबना है तो इन सबके साथ स्वयं भारतेन्दु की जिंदादिली भी। भारतेंदु के इस नाटक में भविष्य की रचनाओं के सर्वोत्कृष्ट सूत्र नज़र आते हैं। यह भारतेंदु के कथा विन्यास, संयोजन, संरचना, जीवंतता और भाषा की रवानगी का सौंदर्य है। अंधेर नगरी संक्षिप्त कथा प्रसंगों का, नाटकीय स्थितियों का और दृश्यों की रचना और उनके कुशल संयोजन का समकालीन नाटक हौ इसमें रोचकता और जिज्ञासा तत्व भी बना रहता है और व्यंजनाओं की गंभीरता और तीखापन भी।
रचना के ‘समर्पण’ में जब भारतेन्दु कहते हैं ‘मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए’ तो वह अपना जीवन-दर्शन व्यक्त करते हैं। ‘समर्पण’ के बाद भारतेन्दु का संस्कृत श्लोक भी बेहद व्यंजक है। इस श्लोक में मानों अंधेर नगरी की कथा का सूत्र छिपा हुआ है। युग-दृष्टि और व्यंग्यात्मकता भारतेंदु के लेखन की केंद्रीय विशेषता है, जिसने अंधेर नगरी को प्रहसन होते हुए भी प्रहसन मात्र नहीं बनने दिया बल्कि प्रहसन के बहाने उन्होंने अपने समय के यथार्थ का विडंबनात्मक रूप प्रस्तुत किया है। इस नाटक में तत्कालीन राजसत्ता के दमनकारी चरित्र की सांकेतिक अभिव्यक्ति है और सामान्य जनता की शक्ति का चित्रण भी। भारतेन्दु भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी के द्वारा सुधारवाद का कार्य ही नहीं करते, न यथार्थ-चित्रण करके मुक्त हो जाते हैं बल्कि उन्होंने एक आशावादी दृष्टि से मोहग्रस्त, रूढ़िग्रस्त, आपसी फूट से खंडित, प्रसुप्त देशवासियों को जागृत करने का काम किया है। यह रचना व्यापक स्तर पर उदासीनता और जड़ता को तोड़ने और मुक्ति की मानसिकता तैयार करने का काम करती है। आगे की इकाइयों में अंधेर नगरी के कथ्य, संरचना, भाषा और रंगमंचीय स्वरूप को समझने के बाद आप सरलता से अनुभव कर पायेंगे कि अंधेर नगरी वर्तमान अवरोधों के ध्वंस का और परिवर्तन की प्रक्रिया का नाटक है। भारतेन्दु ने समग्र राजनीतिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोण के साथ यह नाटक रचा है जिससे यह एक नयी सामाजिक-राजनीतिक आत्मसजगता का प्रेरक, प्रगति में विश्वास का नाटक बन जाता है। यहाँ परिवर्तनों के प्रति सकारात्मक दृष्टि ही सर्जनात्मक नाट्य दृष्टि और गंभीर हास्य और सार्थक व्यंग्य को जन्म देती है। अंधेर नगरी में जनचेतना की अभिव्यक्ति है, उनकी संघर्ष-क्षमता है ठोस यथार्थ का व्यंजक-मनोरंजक रूप है, पर उसे हम न सुधारवादी कहेंगे, न पुनरुत्थानवादी, न किसी विचारधारा के तहत लिखा गया नाटक। परिवर्तन की जरूरत को ध्यान में रखते हुए भारतेन्दु जनता तक प्रभावशाली रूप में पहुँच सकने वाली विधा नाटक द्वारा साहित्य को ठोस-सक्रिय दिशा देना चाहते थे। यह नाट्य रचना नाट्य विधा की सामाजिकता और सामूहिकता का प्रमाण है।
अंधेर नगरी को व्यापक संदर्भो, विसंगतियों, विकृतियों की संश्लिष्ट और व्यंजक नाट्य रचना मानते हुए यह समझना भी आवश्यक होगा कि किसी भी रचना में शाश्वत सौंदर्य केवल कथानक और उद्देश्य से नहीं आता। उसमें उसकी संरचना, भाषा, शिल्प और अन्य विशेषताएँ भी कार्य करती हैं। अब आपके लिए यह जानना जरूरी है कि अंधेर नगरी की भाषा और शिल्प की विशेषताएँ क्या-क्या हैं और ये विशेषताएँ नाटक के कथ्य को किस हद तक प्रभावित करती हैं।
सारांश
भारतेंदु की नाट्य दृष्टि और अंधेर नगरी नामक इस इकाई में आपने देखा कि किस तरह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाटक के दृश्यात्मक पक्ष और लोकपक्ष को समझते हुए नाटकों की रचना की। उनके लिए नाटक साहित्य भी था और रंगमंच भी। वह नाटक को समाज और राष्ट्र के जागरण और युग-परिवर्तन का सशक्त माध्यम मानते थे। आपने यह भी जाना कि भारतेन्दु को पूर्वप्रचलित और अपने युग की विभिन्न नाट्य परंपराएज मिलीं जिनका प्रभाव उनके लेखन पर दिखाई देता है। पश्चिम की नाट्य रचना का आधार लेते हुए उन्होंने मुख्य रूप से लोकधर्मी चेतना को अपनाया। आप. यह भी जान चुके हैं कि भारतेन्दु ने अनेक मौलिक नाटक भी लिखे और भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के नाटकों के अनुवाद भी किये। उनकी रचनाओं से आपको स्पष्ट हो गया होगा कि वह स्वाधीन चेतना के नाटककार थे। भारतीय नाट्य परंपरा हो या पाश्चात्य, उनका अनुसरण करना मात्र उनका उद्देश्य नहीं था। वह बदलते युग और रुचि के अनुसार हिन्दी नाट्यकला का विस्तार करना चाहते थे। अपनी यह दृष्टि उनके नाटक निबन्ध में दिखाई देती है। भारतेन्दु के लिए नाटक सोद्देश्य था। उन्होंने मनोरंजन पक्ष और रंगमंचीय पक्ष को कभी हेय नहीं माना। आपको यह बताया गया है कि अंधेर नगरी अपने संक्षिप्त कलेवर में प्रहसन होते हुए भी, अपनी व्यापक अर्थवत्ता की वजह से कालजयी नाटक है। लोकोक्ति के आधार पर लिखा गया यह नाटक अपनी कथावस्तु, भाषा, संरचना, जीवन्तता और जिंदादिली में कितना अद्भुत है, इन पर आगामी इकाइयों में विचार किया जाएगा।
अभ्यास
- भारतेंदु के नाटक संबंधी सोच की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? यह सोच अंधेर नगरी की रचना में व्यक्त हुआ है या नहीं, स्पष्ट कीजिए।
- नाट्य रचना को प्रोत्साहित करने के पीछे भारतेंदु का उद्देश्य क्या था? अंधेर नगरी के संदर्भ में इस पर अपने विचार लिखिए।