स्वातंत्र्योत्तर भारत में जनजातीय आबादी

प्रश्न:स्वातंत्र्योत्तर भारत में जनजातीय आबादी को एकीकृत करने के प्रयासों ने अनेक विवादों को जन्म दिया और जिसकी परिणति एक ऐसी नीति के रूप में हुई जिसने सफलताएँ और असफलताएँ दोनों दर्ज की। व्याख्या कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • स्वातंत्र्योत्तर भारत में मुख्य जनजातीय नीति के निर्माण में विवाद का मुद्दा बने विभिन्न दृष्टिकोणों का वर्णन कीजिए। 
  • जनजातीय पंचशील नीति पर चर्चा कीजिए और इसके प्रारंभ के उपरांत प्राप्त सफलताओं और असफलताओं के संबंध में नीति के निष्पादन का विश्लेषण कीजिए।

उत्तरः

जनजातीय लोगों को मुख्यधारा में एकीकृत करने का कार्य अत्यधिक जटिल था। क्योंकि इसके अंतर्गत उनके रहन-सहन की विशिष्ट और विभिन्न परिस्थितियों तथा उनकी विभिन्न भाषाओं के संरक्षण और विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत को जनजातीय एकीकरण की सरकारी नीति के केंद्र में होना आवश्यक था।

जनजातीय एकीकरण की पद्धति तथा भारतीय समाज में जनजातीय लोगों को दिए जाने वाले स्थान पर सहमति से संबंधित विवाद दो प्रमुख दृष्टिकोणों पर संकेंद्रित हैं। इस सन्दर्भ में एक दृष्टिकोण, जनजातीय लोगों को आधुनिक प्रभावों से दुष्प्रभावित किए बिना, उन्हें एकांत देना था जबकि दूसरे दृष्टिकोण के तहत उन्हें भारतीय समाज में पूर्ण रूप से आत्मसात करना था, जिसमें जनजातीय पहचान और संस्कृति का ह्रास होता।

हालांकि, जनजातीय विकास हेतु आत्म-सशक्तिकरण के सिद्धांत पर आधारित प्रसिद्ध नेहरूवादी दृष्टिकोण को अपनाने के पश्चात् यह विवाद समाप्त हो गया। इस दृष्टिकोण के तहत जनजातियों की विशिष्ट पहचान और संस्कृति को बनाए रखते हुए, उनका भारतीय समाज के साथ एकीकरण करने का समर्थन किया गया। इसने जनजातीय क्षेत्रों की उनके स्वयं के तरीके से प्रगति का समर्थन किया। साथ ही इसने जनजातीय विकास के लिए पांच मौलिक सिद्धांतों (जनजातीय पंचशील) को अपनाया:

  • आदिवासियों को अपनी प्रकृति के आधार पर विकास करना चाहिए और किसी भी प्रकार के बाह्य मूल्यों का आरोपण नहीं किया जाना चाहिए।
  • भूमि और वनों में जनजातियों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।
  • जनजातीय समूहों को प्रशासन और विकास के कार्यों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
  • जनजातीय क्षेत्रों को अति प्रशासित या योजनाओं की बहुलता वाला क्षेत्र नहीं होना चाहिए।
  • परिणामों का मूल्यांकन आकड़ों और खर्च की गई राशि के आधार पर नहीं करना चाहिए, बल्कि मानव क्षमता के विकास के आधार पर करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, सरकार की नीति को आकार देने के लिए संविधान में अनुच्छेद 46 (राज्य शिक्षा और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा और SC/STs के विरुद्ध सामाजिक अन्याय को रोकेगी) सहित विशेष कानून, राज्यपालों के लिए विशेष दायित्व, जनजातियों के पूर्ण राजनीतिक अधिकार आदि कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए।

हालांकि, विभिन्न संवैधानिक रक्षोपायों तथा केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्यकारी प्रयासों के बावजूद, जनजातियों के कल्याण की गति अत्यधिक मंद रही है। उत्तर-पूर्व के अतिरिक्त, शेष स्थानों पर जनजातीय समूह निर्धन, ऋणी, भूमिहीन और बेरोजगार बने हुए हैं।

कल्याणकारी उपायों का अप्रभावी निष्पादन, केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों के मध्य असमानता, कानूनों की अज्ञानता के कारण जनजातियों को न्याय नहीं मिलना, बाह्य व्यक्तियों को भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून का उल्लंघन, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में वृद्धि और जनजातीय शिक्षा की उपेक्षा से स्थिति और खराब हो गई है।

हालांकि, कई सकारात्मक घटनाक्रमों ने 1947 से जनजातियों के कल्याण में सहायता प्रदान की है। जनजातीय अधिकारों और हितों की रक्षा करने वाले कानूनों, जनजातीय कल्याण विभागों की गतिविधियों, पंचायती राज व्यवस्था को अपनाने, साक्षरता का प्रसार करने, सरकारी सेवाओं और उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था तथा बार-बार चुनावों के कारण जनजातियों के मध्य आत्मविश्वास में वृद्धि हुई है। परिणामतः, राष्ट्रीय आर्थिक विकास में वृहत् स्तर पर भागीदारी की मांग के अतिरिक्त, वे राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त हुए हैं।

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