भारत में आर्थिक विकास हेतु विनिर्माण क्षेत्रक : नई औद्योगिक नीति की आवश्यकता
प्रश्न: आर्थिक विकास में विनिर्माण क्षेत्रक के महत्व को रेखांकित करते हुए, एक नई औद्योगिक नीति की आवश्यकता की विवचेना कीजिए।
दृष्टिकोण:
- विनिर्माण क्षेत्र पर एक संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- भारत में आर्थिक विकास हेतु विनिर्माण क्षेत्रक के महत्व पर चर्चा कीजिए।
- विनिर्माण क्षेत्रक के समक्ष उत्पन्न विभिन्न चुनौतियों को रेखांकित करते हुए, एक नई औद्योगिक नीति की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।
- इस संदर्भ में आगे की राह सुझाते हुए उत्तर समाप्त कीजिए।
उत्तर:
विनिर्माण क्षेत्रक के अंतर्गत ऐसे उद्यमों को शामिल किया जाता है, जो सामग्रियों, पदार्थों या घटकों को नए उत्पादों में रूपांतरित करने में संलग्न होते हैं। इस प्रकार, इसमें विविध विनिर्माण कंपनियां, जैसे- इलेक्ट्रिकल, सीमेंट, प्लास्टिक, ऑटोमेशन टेक्नोलॉजी उत्पाद आदि शामिल हैं।
आर्थिक विकास के संबंध में विनिर्माण का महत्व:
- मूल्य वर्द्धन: यह प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त संसाधनों के मूल्य वर्द्धन का कार्य करता है। अपने कच्चे माल का उपयोग कर उच्च मूल्य की विविध तैयार वस्तुओं एवं सामग्रियों के विनिर्माण में संलग्न देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होते हैं।
- कृषि पर निर्भरता को कम करता है: कृषि की वृद्धि में स्थिरता के आलोक में, विनिर्माण क्षेत्रक कृषि और संबद्ध क्षेत्रक में संलग्न श्रमबल के एक बड़े भाग को नियोजित करने में सहायता कर सकता है।
- निर्यात में वृद्धि: विनिर्माण केंद्र (मैन्युफैक्चरिंग हब) बनने से, भारत न केवल अपनी आयात निर्भरता को कम कर सकता है, बल्कि पूंजीगत और उपभोक्ता वस्तुओं के निर्यात में भी वृद्धि कर सकता है।
- पूंजी संचय: विनिर्माण क्षेत्रक पूंजी संचय के लिए विशेष अवसर प्रदान करता है, जो कृषि एवं सेवाओं में अपेक्षाकृत बहुत कम है।
- तकनीकी प्रगति: विनिर्माण क्षेत्रक द्वारा ऐसी मशीनों का निर्माण संभव है जो अन्य क्षेत्रों, जैसे कृषि क्षेत्रक आदि, को आधुनिक बनाने में सहायता कर सकती हैं।
- गुणक प्रभाव: श्रम गहन विनिर्माण क्षेत्रक आपूर्ति उद्योगों की एक विस्तृत श्रृंखला से कच्चे माल, संसाधनों और साथ ही सेवाओं से संबंधित मांग को बढ़ावा प्रदान करता है। इस प्रकार, विनिर्माण क्षेत्रक में सृजित प्रत्येक रोजगार का संबंधित क्षेत्रकों में 2-3 अतिरिक्त नौकरियों के रूप में एक गुणक प्रभाव होता है।
उपर्युक्त महत्व के बावजूद, विनिर्माण क्षेत्र का योगदान भारत के GDP के केवल 16% से कुछ अधिक है, जो इसकी संभावित क्षमता से अत्यधिक कम है। यद्यपि औद्योगिक नीति 1991 ने एक नव उदारीकृत अर्थव्यवस्था में औद्योगिकीकरण के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए हैं, तथापि भारत द्वारा अपेक्षाकृत अधिक विवेकशील एवं त्वरित सुधार व्यवस्था को लागू किया जाना चाहिए।
भविष्य हेतु तैयार औद्योगिक नीति को लागू करने की आवश्यकता है, जो भारत के औद्योगिक विकास के समक्ष उत्पन्न निम्नलिखित चुनौतियों का समाधान करती हो तथा इसे अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाती हो:
- जटिल व्यावसायिक परिवेश: जटिल और अत्यधिक समय लेने वाली व्यावसायिक प्रक्रियाएं तथा बहु-स्तरित कर प्रणाली व्यावसायिक प्रगति को बाधित करते हैं।
- निम्न उत्पादकता: भारत में उत्पादकता चीन की उत्पादकता की तुलना में केवल एक-तिहाई है। भारत में श्रमिक निम्न उत्पादकता और निम्न मजदूरी वाली गतिविधियों में आवश्यकता से अधिक संलग्न हैं।
- प्रतिबंधात्मक श्रम कानून: श्रम कानूनों का स्वरूप अत्यधिक सुरक्षात्मक है, जो नियोक्ताओं को श्रम गहन क्षेत्रों में निवेश किए जाने को निरुत्साहित करता है।
- व्यापार संबंधी चुनौतियां: विनिर्माण क्षेत्रक, विशेष रूप से निर्यातक, स्थिर/कम होती वैश्विक मांग और वैश्विक स्तर पर बढ़ती संरक्षणवादी प्रवृत्तियों जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। चीन और FTA देशों से सस्ते आयात के कारण विशेष रूप से भारतीय MSME क्षेत्रक कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है।
- अनुसंधान एवं विकास तथा नवाचार पर अपर्याप्त व्यय: अनुसंधान में सार्वजनिक निवेश अत्यंत कम रहा है तथा निजी निवेश परियोजना की दीर्घ परिपक्वन अवधि (long gestation period) और अनिश्चित प्रतिफल के कारण भी सीमित हैं।
इस प्रकार, वर्तमान समय के अनुरूप वर्तमान चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करने वाली एक व्यापक और नई औद्योगिक नीति विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी भारतीय उद्योग के विकास में सहायता प्रदान करेगी। यह वर्ष 2022 तक GDP में विनिर्माण क्षेत्रक की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 25% करने के लक्ष्य को प्राप्त करने तथा अर्थव्यवस्था का पुनरुथान करने और विनिर्माण क्षेत्रक में रोजगार के अवसरों का सृजन करने में अत्यधिक सहयोग प्रदान कर सकती है।