संवैधानिक सुधार 1892-1920
अंग्रेज़ों ने कुछ संवैधानिक सुधार किए थे। इस इकाई में उन कारणों पर विचार किया जा रहा है जिनकी वजह से सन् 1892 का इण्डियन काउंसिल्स अधिनियम पारित हुआ। यहाँ इस अधिनियम की मुख्य धाराएँ, इसकी उपलब्धिया तथा इनकी कमियों पर विचार किया गया है। साथ ही साथ इसमें मोर्ले-मिन्टो तथा मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की पृष्ठभूमि का अवलोकन किया गया है और इन सुधारों द्वारा सरकार के विभिन्न अंगों में किये जाने वाले परिवर्तनों पर भी प्रकाश डाला गया है। अन्त में सुधारों की उपलब्धियों तथा कमियों को दर्शाया गया है। ताकि आप इनका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर सकें।
सन् 1833 के चार्टर अधिनियम में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में चौथे सदस्य को विधि सचिव के रूप में शामिल किया गया। वह केवल वैधानिक मामलों में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में वोट दे सकने का तथा बैठ सकने का अधिकारी था। इस प्रकार पहली बार केंद्रीय सरकार के वैधानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में अन्तर किया गया। इस अधिनियम के द्वारा एक और परिवर्तन यह था कि प्रेसीडेन्सी (कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी) सरकारों, को स्वतन्त्र वैधानिक शक्तियों से वंचित कर दिया गया।
बीस वर्ष बाद सन् 1853 में एक और चार्टर अधिनियम पारित किया गया जिसके अंतर्गत गवर्नर जनरल की काउंसिल में विधि सचिव को पर्ण सदस्य के अधिकार प्रदान कर दिए गए। इसके साथ ही गवर्नर जनरल की काउंसिल की कार्यकारी तथा वैधानिक शक्तियों के बीच का अन्तर बढ़ा दिया गया, क्योंकि वैधानिक कार्यों के लिए इस काउंसिल में छह अतिरिक्त सदस्यों की नियक्ति की गई। ये सभी वेतनभोगी सरकारी अधिकारी थे जिनमें से चार. तीन प्रेसीडेंसियों तथा नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज (मौटे तौर पर आज के उत्तर भारत का पश्चिमी अधाश) का प्रतिनिधित्व करते थे और दो जज थे अधिनियम में ऐसे सदस्यों को लेजिसलेटिव काउंसलर (विधान पार्षद्) कहा गया। गैर सरकारी, यूरोपीय या भारतीय सदस्यों को शामिल किए जाने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया।
सन् 1854 में विधान परिषद् ने कार्य संचालन के लिए एक विस्तृत प्रणाली प्रस्तुत की। कानून बनाने के साथ-साथ तमाम शिकायतों की जाँच पड़ताल करने का काम भी इसे सौंप दिया गया। इसके अलावा, प्रांतीय सरकारों ने विधि निर्माण प्रक्रिया के केन्द्रीकरण का विरोध किया।
हालांकि सन् 1857 के विद्रोह ने, अंग्रेज़ी सरकार को इस व्यवस्था में और भी परिवर्तन करने के लिए एक तात्कालिक कारण प्रदान कर दिया। यह अनुभव किया गया कि विद्रोह का एक मख्य कारण शासक वर्ग और भारतीयों के मध्य सम्पर्क और तालमेल की कमी थी। सन 1861 में इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट के रूप में एक ऐक्ट पारित किया गया जिसमें इस विचारधारा का प्रतिबिंब था। विधि निर्माण के उद्देश्य से गवर्नर जनरल की काउंसिल में अतिरिक्त सदस्यों की वृद्धि की गई जिनकी संख्या कम-से-कम छह और अधिक से अधिक बारह होनी थी और जिन्हें गवर्नर जनरल द्वारा दो वर्ष के कार्यकाल के लिए मनोनीत किया जाना था।
एक महत्वपूर्ण नया प्रयोग यह किया गया कि अतिरिक्त सदस्यों में से कम-से-कम आधे गैर सरकारी होने थे (अर्थात् ऐसे लोग जो कि ब्रिटिश शासन की नागरिक सेवा या सैनिक सेवा में कार्यरत नहीं थे)। इस व्यवस्था के अन्तर्गत आमतौर पर तीन भारतीयों को मनोनीत किया जाता था। साथ ही साथ वैधानिक क्षेत्र में काउंसिल का काम केवल विधि निर्माण तक सीमित था। इस ऐक्ट ने बंबई और मद्रास की सरकारों की विधि निर्माण की शक्तियों को पुनस्थापित किया तथा अन्य प्रान्तों में भी विधान परिषदों की स्थापना की। व्यवस्था की। बंगाल में सन् 1862, पंजाब में सन् 1886 तथा नॉर्थ वेस्टर्न प्राविंसेज़ में सन् 1887 में विधान परिषदों की स्थापना की गई।
पहले बीस सालों में गैर सरकारी सदस्यों के मनोनयन की शक्ति को सरकारी अनुग्रह के एक साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया। मनोनीत किए जाने वाले गैर सरकारी सदस्य राजाओं, उनके दीवानों और बड़े ज़मींदारों में से ही होते थे और उनमें भी सिर्फ वे लोग मनोनीत किए गए जिन्होंने सन् 1857-58 के विद्रोह में अंग्रेजों की मदद की थी। फिर भी गैर सरकारी सदस्यों को मनोनीत किए जाने का निर्णय अत्यन्त महत्वपूर्ण था। यह भारतीय जनमत की महत्ता की मौन स्वीकृति थी और इस बात की भी कि अंग्रेज़ अधिकारी भारतीयों की आकांक्षाओं के सबसे अच्छे व्याख्याकार नहीं हो सकते थे। यह भी मालूम हो गया था कि एक तानाशाह औपनिवेशिक सरकार भी नितांत एकाकी होकर कार्य नहीं कर सकती थी।
सन् 1892 का इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट
मोर्ले-मिन्टो सुधार
मॉटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार
सन् 1892 से लेकर सन् 1920 तक के काल में किए गए संवैधानिक परिवर्तनों पर विचार किया है। अंग्रेजों ने यह महसूस कर लिया था कि भारत में ब्रिटिश शासन की रक्षा के लिए उन्हें उन भारतीयों की, जो कि अपनी माँगों को संविधान के संकचित दायरे में ही रखने को तैयार थे, आकांक्षाओं को संतष्ट करना ज़रूरी हो गया था। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हए सन् 1892 का इंडियन काउंसिल ऐक्ट पारित किया गया जिससे परिषदों का विस्तार हुआ परन्त उनमें सरकारी बहमत बनाए रखा गया। चनाव . सिद्धान्त (यद्यपि अप्रत्यक्ष) को लागू किया गया और परिषदों को बजट पर विचार-विमर्श करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया।
सन् 1895 से 1906 के दौरान अनेक कारणों से ब्रिटिश सरकार के प्रति असंतोष की भावना में वृद्धि हुई। इस पृष्ठभूमि में मोर्ले-मिन्टो सुधार प्रस्तत किए गए जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि हई और पथक निर्वाचक मंडल की प्रणाली, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों को अलग-अलग प्रतिनिधित्व दिया गया, प्रचलित की गई। इसने आगे चलकर अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया। प्रथम विश्व युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट, 1919 की पृष्ठभूमि तैयार की, यह ऐक्ट मोन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार के रूप में जाना जाता है।
इस ऐक्ट में किया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन द्वैध शासन था जिसके अन्तर्गत प्रान्तीय सरकारों को अपेक्षाकृत अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई थीं लेकिन गवर्नर का वित्तीय संसाधनों पर पूर्ण नियंत्रण बना रहा जबकि मंत्रियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा आदि विभाग सौंपे गए। मंत्रीगण विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थे पर वे गवर्नर के प्रति भी जवाबदेह थे तथा गवर्नर को उनकी नियुक्ति तथा उन्हें अपदस्थ करने का अधिकार था। केंद्रीय सरकार का प्रांतीय सरकारों पर पूर्ण अधिकार था और विधान सभा के सदस्यों को चुनने का अधिकार बहुत कम लोगों को दिया गया था अर्थात् मताधिकार बहुत सीमित था। समय-समय पर होने वाली सधार नीतियाँ, साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन जो कि भारतीय राजनीति का व्यापक अंग बन चका था, से निपटने तथा उसके दमन की अभिव्यक्ति मात्र थी।