इजरायल और अरब देशों के मध्य जून 1967 के युद्ध
प्रश्न: अपनी लघु अवधि के बावजूद, इजरायल और अरब देशों के मध्य जून 1967 के युद्ध का पश्चिमी एशिया पर दीर्घकालिक प्रभाव कायम है। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- इस छह दिवसीय युद्ध की संक्षिप्त पृष्ठभूमि और युद्ध के प्रमुख कारणों के साथ उत्तर प्रारंभ कीजिए।
- चर्चा कीजिए की किस प्रकार इस छह दिवसीय युद्ध के परिणाम अभी तक मध्य-पूर्व की भू-राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं।
- आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
छह दिवसीय युद्ध के रूप में जाना जाने वाला ‘जून युद्ध’, 5 जून, 1967 को प्रारंभ हुआ। यह युद्ध अरब और इजरायल के मध्य 1948 में आरंभ हुए युद्ध की कड़ी में तीसरा युद्ध था। इस युद्ध के परिमाणस्वरुप अंततः पश्चिमी एशियाई क्षेत्रों का एक बड़े स्तर पर पुनर्गठन हुआ। युद्ध समाप्त होने तक इजरायल ने मिस्र से सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलम तथा सीरिया से गोलन हाइट्स का अपने क्षेत्र में विलय कर लिया था।
युद्ध का प्रमुख कारण इजरायल-फिलिस्तीन के मध्य पूर्व में व्याप्त लम्बा संघर्ष था, जो प्रथम अरब-इजरायली युद्ध के पश्चात् और गंभीर हो गया था। इसमें इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र अधिदेश द्वारा इसको सौंपे गए क्षेत्रों को तो अधिकृत किया ही, साथ ही उन क्षेत्रों में से भी अधिकांश पर अधिकार कर लिया जिन्हें फिलिस्तीन को सौंपा जाना था।
इसके कारण दोनों देशों के मध्य एक-दूसरे के विरुद्ध अनगिनत संघर्ष और आक्रमण हुए। हालाँकि, युद्ध आरंभ होने का तात्कालिक कारण तिरान जलडमरूमध्य को बंद करना था। यह सिनाई प्रायद्वीप और सऊदी अरब के बीच एक संकीर्ण समुद्रीय पट्टी था जो इजरायल का लाल सागर और इससे आगे के क्षेत्रों तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग था।
युद्ध के पचास वर्षों के बाद भी यह युद्ध, क्षेत्र की भू-राजनीति पर निम्नलिखित तरीकों से प्रभाव डाल रहा है:
- इसने इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष के समाधान हेतु प्रस्तावित ‘टू-स्टेट सॉल्यूशन’ को और बल दिया। वेस्ट बैंक पर इजरायल के नियंत्रण के साथ ही 1967 के युद्ध की पराजय के कारण फिलिस्तीन ने एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त करने हेतु प्रयास तेज़ कर दिए।
- युद्ध ने न केवल इजरायल की सीमाओं का विस्तार किया बल्कि इसे एक संकटग्रस्त देश से एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया।
- इसके कारण शरणार्थियों का व्यापक विस्थापन हुआ, जो आज तक इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य विवादों के सबसे बड़े कारणों में से एक है और इस प्रकार यह इस क्षेत्र की भू-राजनीति का संचालक बना हुआ है।
- तेल उत्पादक देशों (इराक, कुवैत, सऊदी अरब, लीबिया और अल्जीरिया) के प्रभाव में वृद्धि हुई; विशेष रूप से सऊदी अरब के प्रभाव में, जो कि पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि से लाभान्वित हुआ है।
- इसने कैंप डेविड समझौतों के पश्चात् मिस्र के प्रगतिशील अलगाव का मार्ग प्रशस्त किया। इस समझौते ने क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को परिवर्तित कर दिया।
- युद्ध के पश्चात् इस्लामवादी आंदोलनों एवं विचारधारा का पुनरुत्थान हुआ, जिसका प्रभाव विश्व के कई प्रमुख देशों में देखा जा सकता है।
- इस क्षेत्र के प्रति कई अन्य देशों की कूटनीति भी युद्ध के पश्चात् उभरे विभिन्न समीकरणों से विकसित हुई जैसे कि इजरायल-अमेरिका के मध्य निकटता युद्ध के परिणामस्वरुप विकसित हुई।
संयुक्त राष्ट्र संकल्पों के तहत टू-स्टेट सॉल्यूशन की संकल्पना यह सोचकर की गई थी कि यह अंततः यह संघर्ष का समाधान कर देगा- परन्तु वर्तमान में टू-स्टेट संकल्पना को केवल अत्यधिक ख़राब स्थिति से बचने के लिए जीवित रखा गया है, जैसा कि कई कैंप डेबिड शिखर सम्मेलनों की निरर्थकता में देखा जा सकता है।
समग्र रूप से, ऐसा कोई भी समाधान कारगर नहीं होगा जो एक समुदाय के दूसरे समुदाय पर प्रभुत्व का समर्थन करता हो। अतः, किसी नॉन-टू-स्टेट सॉल्यूशन को अनिवार्य रूप से न्याय, निष्पक्षता, मानवाधिकार, वैधता, समान अवसर और सुरक्षा इत्यादि सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।
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