विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों का संक्षिप्त विवरण : संसद की समग्र प्रभावकारिता में सुधार लाने में इनका महत्व
प्रश्न: संसद की समग्र प्रभावकारिता में सुधार लाने में विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों के महत्व की व्याख्या कीजिए। साथ ही, वर्तमान में उनके द्वारा सामना की जा रही समस्याओं पर भी चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- संसद की समग्र प्रभावकारिता में सुधार लाने में इनके महत्व को स्पष्ट कीजिए।
- विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों द्वारा अनुभव की जा रही समस्याओं पर चर्चा कीजिए।
उत्तर
विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों (DRSCs) की स्थापना नियम समिति की अनुशंसाओं के अनुपालन में 1993 में की गई थी। इन्हें ‘लघु-संसद’ भी कहा जाता है। वर्तमान में केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों से संबंधित 24 DRSCs गठित की गयी हैं। इनमें से प्रत्येक में 31 सदस्य (21 लोकसभा, 10 राज्य सभा से) शामिल हैं।
ये निम्नलिखित रूप में संसद की प्रभावकारिता में सुधार करती हैं:
- वित्तीय उत्तरदायित्व (Financial accountability): ये लोकसभा में चर्चा एवं मतदान किए जाने से पूर्व संबंधित मंत्रालयों/विभागों की अनुदान की मांगों पर विचार करती हैं। इससे संसद में बजट पर प्रभावी ढंग से विचार-विमर्श करने में सहायता मिलती है।
- विस्तृत जांच (Detailed Scrutiny): ये कार्यपालिका पर अधिक विस्तृत, निरंतर और व्यापक संसदीय नियंत्रण स्थापित करने में सहायता प्रदान करती हैं। ये विधेयकों और दीर्घकालिक नीतिगत दस्तावेजों तथा मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्टों की जांच करती हैं।
- आम सहमति का विकास करना (Developing consensus): इनकी कार्यवाही किसी भी दल के प्रति पूर्वाग्रह से रहित होती है। ये विपक्षी दलों और राज्यसभा सदस्यों को वित्तीय संवीक्षा करने या विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने का अवसर प्रदान करती हैं।
- विभिन्न हितधारकों के साथ संबद्धता (Engagement with different stakeholders): ये अपनी रिपोर्ट के निर्माण हेतु विशेषज्ञों या जनता का मत प्राप्त कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त समिति के सदस्य विशिष्ट विषयों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और मुद्दों की गहन संवीक्षा हेतु विशेषज्ञता का प्रयोग कर सकते हैं।
- जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों पर नियंत्रण (Check on hasty measures): इनका कार्य लोकलुभावन और जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों पर नियंत्रण सुनिश्चित करता है।
- ज्ञान का भंडार (Knowledge repository): ये जानकारी के विशाल भंडार के रूप में कार्य करते हुए सांसदों को सहायता प्रदान करती हैं और संसदीय प्रणाली को सुदृढ़ बनाने एवं शासन में सुधार करने में योगदान करती हैं।
उनके द्वारा सामना की जाने वाली समस्याएँ:
- कुछ विधेयक समितियों को संदर्भित किए बिना ही पारित कर दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए, लोकसभा ने GST विधेयक को DRSC को संदर्भित किए बिना ही पारित कर दिया था।
- विधेयकों की जांच करते समय DRSC द्वारा सदैव विशेषज्ञों की राय नहीं ली जाती है। उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2008 की जांच करने वाली DRSC ने किसी भी विशेषज्ञ के मत आमंत्रित नहीं किए थे।
- समितियों में समर्पित शोध कर्मचारियों (research staff) की अनुपस्थिति होने के कारण आंतरिक विशेषज्ञता का अभाव है।
- इनकी कार्यविधियों के संबंध में पारदर्शिता का अभाव होता है क्योंकि इनकी बैठकें सामान्यतः गुप्त रूप से होती हैं और ये केवल अंतिम रिपोर्ट प्रकाशित करती हैं।
- समितियों के प्रदर्शन के नियमित मूल्यांकन के लिए कोई तंत्र विद्यमान नहीं है।
- यद्यपि इन ‘लघु-संसदों’ पर दल-बदल विरोधी कानून लागू नहीं होता है तथापि समिति की बैठकों में सदस्यों द्वारा अनेक लोकहित संबंधी मुद्दों की अपेक्षा पार्टी के हितों को वरीयता दी जाने लगी है।
- कभी-कभी समितियों की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा नहीं की जाती है क्योंकि इसकी अनुशंसाएं गैर-बाध्यकारी* प्रकृति की होती हैं।
- समिति की बैठकों में सदस्यों की उपस्थिति भी चिंता का विषय बनी हुई है। 2014-15 के बाद से यह लगभग 50% ही रही है।
ये समितियां कार्यपालिका और विधायिका के मध्य सद्भाव बनाए रखने और संसद की समग्र प्रभावकारिता में सुधार लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं। अतः यह महत्वपूर्ण है कि विधेयकों की पारदर्शी रूप से जांच-परख करने की उनकी क्षमता को सुदृढ़ बनाने वाले उपाय लागू किये जाएँ। साथ ही इनकी प्रभावकारिता को बेहतर बनाने के लिए इन्हें सशक्त रिसर्च टीमें प्रदान करना भी आवश्यक है।
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