दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा (Statehood for Delhi)
- 1992 तक, एक संक्षिप्त अंतराल को छोड़कर, दिल्ली भारत सरकार के पूर्ण नियंत्रण में एक संघ राज्यक्षेत्र था।
- 1990 के दशक में दिल्ली को एक ‘राज्य’ की भांति ‘मुख्यमंत्री’ और एक लोकप्रिय निर्वाचित एकसदनीय विधायिका प्राप्त हुई। हालांकि यह ‘राज्य’ अपनी शक्तियों में अपूर्ण बना हुआ है।
- यह तात्विक रूप में एक संघ राज्यक्षेत्र और संरचनात्मक रूप में राज्य के रूप में बना रहा। उप राज्यपाल को इसके मुख्य कार्यकारी के रूप नियुक्त किया गया।
- इस प्रकार प्रशासन में मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल ने बाद में स्थान ग्रहण किया जबकि उप राज्यपाल और नगर निगम पहले से विद्यमान थे। इससे दोनों के मध्य टकराव हुआ।
- वर्तमान में यहाँ केंद्र, राज्य के विभिन्न विभाग, अनेक अर्द्ध-सरकारी/स्वायत्त निकाय आदि और पांच ULBs (शहरी स्थानीय निकाय) शहर के शासन में हिस्सेदार हैं।
- अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि देश में किसी अन्य शहर या राज्य की तुलना में दिल्ली में अधिक सरकार और कम अभिशासन है।
पूर्ण राज्य का दर्जा क्यों दिया जाना चाहिए?
- 1991 में जब संविधान के 69वें संशोधन के द्वारा दिल्ली की विधानसभा का गठन किया गया था तब शहर की जनसंख्या काफी कम थी। वर्तमान में दिल्ली में लगभग 2 करोड़ लोग निवास करते हैं।
- किसी भी लोकतंत्र में 2 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व एक सीमित शक्तियों वाली सरकार के द्वारा नहीं किया जाता है।
- जब संघ राज्यक्षेत्रों का पहली बार गठन हुआ था तो इसका उद्देश्य भारतीय राज्यक्षेत्र में शामिल नये क्षेत्रों को शुरुआत में एक नम्य एवं संक्रमणकालीन व्यवस्था प्रदान करना था। समय के साथ, गोवा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान कर दिया गया है।
- वर्तमान में दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने के द्वितीय और अंतिम चरण में प्रवेश की आवश्यकता है।
- संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि दिल्ली का नगरीय संकुल 2028 तक इसे विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर बना देगा।
- इस प्रकार एक विशाल जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली निर्वाचित सरकार को कानून एवं व्यवस्था तथा भूमि प्रबंधन संबंधी मामलों में भी अधिकार प्रदान किए जाने चाहिए।
पूर्ण राज्य का दर्जा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?
- पूर्ण राज्य के दर्जे का समर्थन राष्ट्रीय आवश्यकता नहीं, बल्कि दिल्ली की स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं द्वारा प्रेरित एक मांग
- दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। इसे आवश्यक रूप से सम्पूर्ण देश के हितों के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।
- दिल्ली में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान जैसे राष्ट्रपति भवन, संसद और विदेशी दूतावास आदि स्थित हैं। इन सभी अवसंरचनाओं को विशेष सुरक्षा कवर तथा रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) जैसी केंद्र प्रशासित एजेंसियों के साथ घनिष्ठ समन्वय की आवश्यकता होती है।
- ये प्रतिष्ठान पूर्ण रूप से केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी हैं, न कि किसी विशिष्ट राज्य की।
- • कुछ क्षेत्र भारत सरकार के स्वयं के नियंत्रण में होने चाहिए। उसका किसी राज्य सरकार के किरायेदार की तरह रहना संभवतः व्यावहारिक नहीं होगा।
- विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर असहमति व्यक्त की है। उनके अनुसार भारत की राष्ट्रीय राजधानी देश के प्रत्येक नागरिक से संबंधित है, न कि केवल उनसे जो शहर में निवास करते हैं।
- पूर्ण राज्य का दर्जा दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी के रूप में प्राप्त होने वाले कई लाभों से वंचित कर देगा।
- उदाहरण के लिए, पूरी पुलिस व्यवस्था के भार का निर्वहन (जिसमें एक विशाल स्टाफ का समन्वय भी शामिल है) केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है।
उच्चतम न्यायालय का निर्णय
- NCT दिल्ली बनाम भारतीय संघ वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने अगस्त 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को पलट दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय में कहा गया था कि चूँकि दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है, इसलिए सभी शक्तियाँ निर्वाचित दिल्ली सरकार के बजाय केंद्र सरकार में निहित हैं।
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के मध्य शक्तियों के निर्धारण पर विवाद का समाधान करने हेतु उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किए:
- दिल्ली सरकार के पास भूमि, पुलिस और लोक व्यवस्था को छोड़कर सभी क्षेत्रों में निर्णय लेने शक्ति है और उपर्युक्त तीन क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में उप राज्यपाल सरकार की सहायता और परामर्श को मानने हेतु बाध्य हैं।
- इस नियम का एकमात्र अपवाद अनुच्छेद 239-AA का परन्तुक था, जो किसी मुद्दे पर मंत्रिपरिषद से मतभिन्नता की
स्थिति में उप राज्यपाल को उस मुद्दे को राष्ट्रपति को विनिर्दिष्ट करने की अनुमति प्रदान करता था। ऐसे मामलों में उपराज्यपाल राष्ट्रपति के निर्णय को मानने हेतु बाध्य होता है। - दिल्ली का उप राज्यपाल स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता है और उसे मंत्रिपरिषद की सहायता और परामर्श के
अनुसार कार्य करना चाहिए। चूंकि राष्ट्रीय राजधानी को विशेष दर्जा प्राप्त है और यह पूर्ण राज्य नहीं है; इसलिए उप
राज्यपाल की भूमिका एक राज्यपाल से भिन्न है। - न तो निर्वाचित राज्य सरकार को सर्वोच्चता का अनुभव करना चाहिए और न ही उप राज्यपाल को। उन्हें समझना
चाहिए कि वे संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं और हमारे संविधान में पूर्णता या अराजकता के लिए कोई
स्थान नहीं है।
आगे की राह
- राष्ट्रीय राजधानी में क्षेत्राधिकार का अतिव्यापन अंतर्निहित है और संवैधानिक संस्थाओं द्वारा इस वास्तविकता को स्वीकार किया जाना चाहिए।
- विभिन्न घटकों के मध्य निष्पक्ष शक्ति-साझाकरण की व्यवस्था को यथोचित सुदृढ़ता और अधिक स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए| एक शुरुआत के लिए दिल्ली को मौजूदा संवैधानिक उपबंधों (अर्थात् संविधान के 69 वें संशोधन, अनुच्छेद 239) और
कार्यसंचालन के नियमों में तत्काल संशोधन की मांग करनी चाहिए। - अतिव्यापन और प्रायः विवादास्पद क्षेत्राधिकारों को देखते हुए, विश्व भर के अनेक राष्ट्रीय राजधानियों द्वारा अपनाए गए किसी विश्वसनीय और संस्थागत विवाद-समाधान तंत्र को अपनाया जाना अत्यावश्यक है। विवादों को राष्ट्रपति को विनिर्दिष्ट करने की मौजूदा प्रणाली एक विफल मॉडल है। इसमें विश्वसनीयता की कमी है और यह सदैव राष्ट्रीय सरकार के पक्ष में समाधान करती है|
- स्थानीय नगर निकायों का संचालन एक सशक्त शहरी सरकार के नियंत्रण में होना चाहिए।
- एक अधिकार प्राप्त महापौर (मेयर) की व्यवस्था की जानी चाहिए जो नगरीय निकाय के सभी कार्यों का निष्पादन करे और इन कार्यों का विस्तार उन सभी विषयों तक हो जिन्हें भारत सरकार द्वारा संचालित नहीं किया जाता है।
- प्रशासन में पैरास्टैटल्स (अर्द्ध-सरकारी/स्वायत्त निकाय आदि) के कार्यों को (जिन्हें संविधान द्वारा मान्यता प्रदान नहीं की गयी है) ULBs को हस्तांतरित करने की आवश्यकता है। ULBs को हस्तांतरित ऐसा कोई भी विषय/कार्य जिसका परिचालन कठिन है, उप राज्यपाल के संरक्षण के अधीन किया जा सकता है।
- अभिशासन की व्यवस्था इस प्रकार पुनर्गठित की जानी चाहिए कि किन्हीं विशिष्ट कार्यों के संबंध में जवाबदेहिता पूर्ण रूप से किसी एक संगठन/व्यक्ति की ही हो।