सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act)

भारतीय विधि आयोग (Law Commission of India: LCI) ने अपनी 275वीं रिपोर्ट में BCCI को RTI अधिनियम के दायरे में
लाने की अनुशंसा की है। हाल ही में, निर्वाचन आयोग ने एक आदेश में कहा कि राजनीतिक दल RTI अधिनियम के दायरे से बाहर हैं। यह केंद्रीय सूचना आयोग के राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी के रूप में घोषित किये जाने के निर्देश के विपरीत है।

RTI अधिनियम के अंतर्गत ‘लोक प्राधिकारी’ का अर्थ:

RTI अधिनियम की धारा 2 (b) में वर्णित “लोक प्राधिकारी” से आशय ऐसे किसी भी प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था से है जिसकी स्थापना या गठन

  • संविधान द्वारा या उसके अधीन;
  •  संसद द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा;
  •  राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा;
  • समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा किया गया हो।

इसमें सम्मिलित हैं

  • कोई निकाय जो केंद्रीय सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन हो और उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई
    गई निधि से वित्तपोषित हो (RTI अधिनियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध निधि से वित्तपोषण को परिभाषित नहीं करता है। परिणामतः, न्यायालयों को प्रायः यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है कि वित्तीय सहायता का कोई विशेष
    स्वरूप या मात्रा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधि का गठन करती है या नहीं)।
  • कोई ऐसा गैर-सरकारी संगठन जो समुचित सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा
    वित्तपोषित हो।

RTI अधिनियम नागरिकों को ‘लोक प्राधिकारियों’ के नियंत्रण में उपलब्ध सूचना तक पहुंच के अधिकार की शक्ति प्रदान करता है और धारा 2 (f) में परिभाषित ‘सूचना’ को प्रकट करने में विफल होने पर लोक प्राधिकरणों के प्राधिकारियों पर अर्थदंड आरोपित करता है।

RTI ACT, 2005 की प्रमुख विशेषताएं

  •  इसमें जनता के अनुरोध पर सूचना उपलब्ध कराने के लिए प्रत्येक विभाग में एक सूचना अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान
    किया गया है।
  • इसमें सूचना उपलब्ध कराने के लिए 30 दिन का समय निर्धारित किया गया है। ऐसी स्थिति के लिए जब सूचना व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित हो, 48 घंटे की समय सीमा निश्चित की गयी है।
  • गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए सूचना निःशुल्क होगी। अन्य लोगों से उचित शुल्क लिया जाएगा।
  • अधिनियम में सूचनाओं के अनुरोधों को कम करने के लिए सार्वजनिक एजेंसियों पर स्वतः प्रेरणा से सूचना प्रकट करने का दायित्व आरोपित किया गया है।

इसमें केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) और राज्य सूचना आयोग की स्थापना के लिए प्रावधान किया गया है। वे अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करने हेतु स्वतंत्र उच्चस्तरीय निकाय होंगे और उनमें सिविल न्यायालय की शक्तियां निहित होंगी।

  • आयोग का अधिकार क्षेत्र सभी केंद्रीय लोक प्राधिकरणों पर विस्तारित है।
  •  RTI अधिनियम के सन्दर्भ में CIC ही एकमात्र अपीलीय प्राधिकरण है जो निकाय को लोक प्राधिकरण के रूप में घोषित कर सकता है, विशेष रूप से यदि वह आश्वस्त हो जाता है कि संगठन RTI अधिनियम के दायरे में आने के लिए आवश्यक मानदंडों को पूरा करता है।

अधिनियम सरकारी गोपनीयता अधिनियम, 1923 पर अधिभावी है। यदि सूचना के प्रकटीकरण से प्राप्त होने वाला लोक हित संरक्षित व्यक्ति को होने वाली हानि की तुलना में अधिक बड़ा है तो सूचना आयोग सूचना तक पहुंच की अनुमति दे सकता है।

मंत्रिमंडल की विवेचना और वह सूचना जो सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों, विदेशी राज्यों के साथ संबंधों को प्रभावित करती है या अपराध को उकसाती है, को छोड़कर उन्मुक्ति प्राप्त सूचना की सभी श्रेणियों को 20 वर्षों के पश्चात
प्रकटीकरण से छूट प्राप्त नहीं होगी।

RTI की धारा 8 के तहत निम्नलिखित विषयों से सम्बंधित सूचना को प्रकटीकरण से छूट प्रदान की गयी है –

  • राष्ट्रीय सुरक्षा या संप्रभुता
  • राष्ट्रीय आर्थिक हित
  • विदेशी राज्यों के साथ संबंध विधि प्रवर्तन और न्यायिक प्रक्रिया
  • मंत्रिमंडल और अन्य निर्णय निर्माण सम्बन्धी दस्तावेज
  •  व्यापार सम्बन्धी गोपनीय जानकारी और वाणिज्यिक गोपनीयता
  • व्यक्तिगत सुरक्षा
  • व्यक्तिगत निजता

हालांकि, भ्रष्टाचार के आरोप या इन संगठनों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित सूचना को छूट प्राप्त नहीं होगी।

RTI अधिनियम की धारा 2 (f) के अनुसार “सूचना” का तात्पर्य किसी भी रूप में किसी भी सामग्री से है जिसमें रिकार्ड्स, दस्तावेज, ज्ञापन, ई-मेल, मत, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, लॉगबुक्स, संविदाएं, रिपोर्ट, कागज़ात, नमूने, मॉडल, किसी इलेक्ट्रॉनिक रूप में धारित डेटा सामग्री और किसी निकाय से संबंधित ऐसी सूचनाएं शामिल हैं जिन तक तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन किसी लोक प्राधिकारी की पहुँच हो सकती है।

लोक प्राधिकारी के रूप में BCCI

  •  राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक, 2013 का प्रारूप तैयार करने हेतु गठित मुकुल मुद्गल पैनल और न्यायमूर्ति आर.एम.लोढ़ा ने BCCI
    को RTI के तहत लाने का सुझाव दिया।
  • ‘BCCI बनाम बिहार क्रिकेट संघ एवं अन्य’ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने LCI से इस बात की जांच करने के लिए कहा था कि BCCI को RTI के दायरे में आना चाहिए या नहीं। LCI ने इसे RTI के अंतर्गत समाविष्ट करने की अनुशंसा की है। ये अनुशंसाएं निम्नलिखित हैं;
  • संविधान के अनुच्छेद 12 के संदर्भ में BCCI को राज्य के अंग के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है क्योंकि सरकार इसकी कार्य पद्धति एवं गतिविधियों पर नियंत्रण रखती है। उदाहरणस्वरूप तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैचों के लिए सरकार के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
  • इसे “लोक प्राधिकारी” समझा जाएगा क्योंकि इसके कार्य सार्वजनिक प्रकृति के हैं और यह अनेक वर्षों से समय-समय पर विभिन्न सरकारों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीयन (कर छूट, भूमि अनुदान आदि के रूप में) प्राप्त करता आ रहा है।
  • यह एक राष्ट्रीय स्तर की ‘अनुमोदित’ संस्था है जिसे देश में क्रिकेट कार्यक्रम आयोजित कराने का वास्तविक एकाधिकार प्राप्त है। यह
    भारतीय क्रिकेट टीम का भी चयन करती है।
  • यह वस्तुतः राष्ट्रीय खेल संघ (National Sports Federation) के रूप में कार्य करता है और NSFs के रूप में सूचीबद्ध अन्य सभी खेल निकायों के समान BCCI को भी RTI के अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, अधिनियम को BCCI के सभी घटक सदस्य क्रिकेट संघों पर भी लागू किया जाना चाहिए।

लोक प्राधिकारी के रूप में राजनीतिक दल

  •  छह राष्ट्रीय दलों – BJP, कांग्रेस, BSP, NCP, CPI और CPI(M) को 2013 में केन्द्रीय सूचना आयोग की एक पूर्ण खंडपीठ द्वारा
    RTI अधिनियम के दायरे में लाया गया था। (2016 में तृणमूल कांग्रेस को सातवें राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई)।
  • हालाँकि, राजनीतिक दलों ने उन पर निर्देशित RTI आवेदनों पर विचार करने से इंकार कर दिया है।
  •  कई कार्यकर्ताओं द्वारा CIC आदेश के उल्लंघन के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील की गयी जो अभी लंबित है।

राजनीतिक दलों को RTI के अंतर्गत लाने के पक्ष में तर्क

 वित्तपोषण संबंधी पारदर्शिता सुनिश्चित करने की आवश्यकता

  •  एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्ल्स (ADR) के अनुसार, वित्त वर्ष 2004-05 और 2014-15 के मध्य राजनीतिक दलों की
    कुल आय का केवल 31.55% स्वैच्छिक अंशदान/दान के माध्यम से प्राप्त हुआ था। शेष 68.45% के लिए ये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29(C) का लाभ उठाकर कोई भी विवरण घोषित करने से बच गए। यह धारा राजनीतिक दलों
    को 20,000 से कम के किसी भी अंशदान को घोषित करने से छूट प्रदान करती है।
  •  क्रोनी कैपिटलिज्म: वित्त वर्ष 2004-05 से वित्त वर्ष 2014-15 तक छह राष्ट्रीय दलों ने 20,000 करोड़ रुपये से अधिक के कुल
    दान का 88% कॉर्पोरेट या व्यापारिक घरानों से प्राप्त किया है। इसके बदले में कॉर्पोरेट को लाभ मिलना स्वाभाविक है।
  •  कालाधन: ADR के अनुसार, अंशदान का 34% दाता के बिना किसी पते या अन्य विवरण के एवं 40% अंशदान बिना PAN
    विवरण के प्राप्त किया गया है।
  •  अवैध विदेशी अंशदान: विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA), 1976 के बावजूद राष्ट्रीय दल विदेशी अंशदान
    स्वीकार करते हैं। इस अधिनियम ने राजनीतिक दलों को विदेशी कंपनियों या विदेशी कम्पनियों द्वारा नियंत्रित भारत में स्थित
    कंपनियों से अंशदान स्वीकार करने को प्रतिबंधित किया है।

राजनीतिक दल राज्य के महत्त्वपूर्ण अंग हैं

CIC के अनुसार, इन राजनीतिक दलों द्वारा निभाई गई महत्त्वपूर्ण भूमिका इनकी लोक प्रकृति को इंगित करती है। ये सरकारी निकायों की भांति कार्यों का निष्पादन करते हैं और अपने उम्मीदवारों के चयन पर उनका एकाधिकार है जो अंततः सरकार का गठन करते हैं। अतः, ये अपने कार्यों के लिए जनसामान्य के प्रति उत्तरदायित्व से बच नहीं सकते हैं।

राजनीतिक दल लोक प्राधिकारी हैं

  • CIC ने कहा है कि राजनीतिक दल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न लाभ प्राप्त करते हैं जैसे राजनीतिक दलों के कार्यालयों की स्थापना हेतु रियायती दरों पर भूमि, दूरदर्शन/ऑल इंडिया रेडियो पर खाली समय का आवंटन और चुनाव के दौरान मतदाता सूची की प्रतियों की निःशुल्क आपूर्ति, इत्यादि। अतः ये धारा 2(h) के तहत लोक प्राधिकारी हैं और
    RTI अधिनियम के दायरे में शामिल हैं।

बृहद लोकहित

  • सूचना का प्रकटीकरण बृहद लोकहित में है। यहाँ तक कि निर्वाचन कानूनों में सुधार पर भारतीय विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट द्वारा भी राजनीतिक दलों की कार्यपद्धति में आंतरिक लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को लागू करने
    की अनुशंसा की गई थी।

राजनीतिक दलों को RTI के अंतर्गत लाने के विपक्ष में तर्क

  • दल की कार्यप्रणाली को बाधित करना: राजनीतिक दल सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली और
    वित्तीय सूचना का प्रकटीकरण नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह उनकी कार्यप्रणाली के संचालन में बाधा उत्पन्न करेगा।
  •  RTI का दुरुपयोग किया जा सकता है: RTI का दुरुपयोग करते हुए प्रतिद्वंदी दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से इसका लाभ उठा सकते हैं।
  • लोक प्राधिकारी नहीं: राजनीतिक दलों को संविधान के द्वारा या उसके अधीन अथवा संसद द्वारा निर्मित किसी भी अन्य विधि के द्वारा स्थापित या गठित नहीं किया जाता है। यहाँ तक कि 1951 के अधिनियम के तहत एक राजनीतिक दल का पंजीकरण भी सरकारी निकाय की स्थापना के समान नहीं है।
  •  आयकर अधिनियम, 1961 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत दलों के लिए पारदर्शिता संबंधी उपबंध पहले से ही
    शामिल किये गए हैं। ये उपबंध “राजनीतिक दलों के वित्तीय पहलुओं के संबंध में आवश्यक पारदर्शिता” की मांग करते हैं। •
  • सार्वजनिक डोमेन में सूचना: सरकार का मत है कि किसी राजनीतिक निकाय के सम्बन्ध में सूचना निर्वाचन आयोग की वेबसाइट
    पर पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है।
  • RTI अधिनियम में उल्लेख नहीं है: कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (DoPT) के अनुसार, RTI अधिनियम लागू करते समय
    राजनीतिक दलों को पारदर्शिता कानून के दायरे में लाने को परिकल्पित नहीं किया गया था।

अधिनियम के कार्यान्वयन से सम्बंधित अन्य मुद्दे और बाधाएं

  • लोगों की कम जागरुकता: यद्यपि अधिनियम के बारे में जागरुकता उत्पन्न करने से संबंधित सरकार के उत्तरदायित्व को अधिनियम में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है तथापि सरकार की ओर से पहल की कमी रही है। सम्बंधित सरकारों और लोक प्राधिकरणों द्वारा किए गए प्रयास वेबसाइटों पर नियमों और प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्नों (FAQs) तक ही सीमित हैं। ये प्रयास RTI के विषय में जन जागरुकता उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध नहीं हुए हैं।
  • निर्दिष्ट समय के अंदर सूचना उपलब्ध कराने में विफलता – यह एक ज्ञात तथ्य है कि सरकार के भीतर रिकॉर्ड रखने की प्रक्रिया एक बड़ी चुनौती है। इसलिए, लोक प्राधिकरणों में अपर्याप्त रिकॉर्ड प्रबंधन प्रक्रियाओं के कारण ये प्राधिकरण निर्दिष्ट 30 दिनों के अंदर सूचना उपलब्ध कराने में विफल रहते हैं। प्रशिक्षित PIOs और सक्षम अवसंरचना (कंप्यूटर, स्कैनर, इंटरनेट कनेक्टिविटी, ज़ेरॉक्स
    मशीनों इत्यादि) की अनुपलब्धता के कारण यह स्थिति और भी विकट हो गयी है।
  •  निगरानी और समीक्षा तंत्र की कमी- सूचना आयोग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक लोक प्राधिकरणों की निगरानी
    और समीक्षा करना तथा उन्हें अधिनियम की भावना के संगत बनाने के लिए कार्रवाई प्रारंभ करना है। हालांकि, यह अधिनियम के कार्यान्वयन में सर्वाधिक कमजोर कड़ियों में से एक रहा है। सूचना आयोग की भूमिका का एक महत्वपूर्ण पक्ष अधिनियम के अनुपालन के लिए लोक प्राधिकरणों की निगरानी करना भी है, जिसके परिणामस्वरूप अपीलों की संख्या में कमी आ सकती है।
  • अपीलों का अत्यधिक समय तक लंबित रहना : सूचना आयोग में अपीलों का लंबित रहना एक बड़ी चुनौती है। जब तक इसे नियंत्रणीय स्तर पर सीमित नहीं किया जाता, तब तक अधिनियम का उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा। अपील करने और शिकायतों का
    निपटान करने के लिए गैर-इष्टतम प्रक्रियाओं के कारण अपीलों का समय पर निस्तारण नहीं हो पाता है।

आगे की राह

  •  RTI और इसके संचालन के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ाने, नागरिकों की सहभागिता बढ़ाने और सरकार के भीतर पारदर्शिता
    बढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर जन जागरूकता बनाए रखना।
  •  लोक प्राधिकरणों द्वारा सूचना का अधिक मात्रा में स्वैच्छिक प्रकटीकरण। पारदर्शिता व्यवस्था को विस्तृत और गहन बनाने के लिए
    यह एक आवश्यक घटक है।
  • रिकॉर्ड प्रबंधन और सूचना के प्रसार के लिए इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करना। वास्तव में पारदर्शी शासन के केंद्र में एक सुदृढ़ रिकॉर्ड प्रबंधन ही अवस्थित होता है।
  • सूचना के अधिकार के बारे में सार्वजनिक अधिकारियों को संवेदनशील बनाना चाहिए और सभी सरकारी प्रशिक्षण कार्यक्रमों में RTI पर प्रशिक्षण मॉड्यूल को सम्मिलित करना चाहिए।
  • RTI के तहत सूचना मांगने वाले व्यक्ति को प्रोत्साहित और सुरक्षित किया जाना चाहिए। राज्यों में पुलिस अधिकारियों को इस बात  के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और इन लोगों पर होने वाले किसी भी प्रकार के हमले की घटनाओं को रोकने के लिए प्रभावी
    कदम उठाने चाहिए।

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