आज़ाद हिंद फ़ौज (इंडियन नेशनल आर्मी)

“भारत छोड़ो आंदोलन” अंग्रेजों के ख़िलाफ़ वह संघर्ष था जो भारत में किया गया परंतु समान रूप से महत्वपूर्ण उस आज़ाद हिंद फ़ौज की भूमिका भी है जिसने अंग्रेजों के खिलाफ़ अपनी लड़ाई विदेश की धरती से लड़ी।

आज़ाद हिंद फौज़ का निर्माण

बहुत से ऐसे क्रांतिकारी थे जो देश के लिए विदेशों में रहकर काम कर रहे थे। इनमें से एक रास बिहारी बोस भी थे जो अंग्रेज़ सरकार की गिरफ्त से बचने के लिए 1915 से जापान में फ़रारी जीवन जी रहे थे। उन्होंने युद्ध द्वारा प्रदान किये गये अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष चलाने के लिए भारतीयों को संगठित किया। बहुत से ऐसे भारतीय सैनिक थे जो अंग्रेज़ों की ओर से लड़ रहे थे।

जापानियों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में अंग्रेज़ों को हटाने के बाद, बहुत से भारतीय सैनिक को युद्धबंदी बना लिया। एक जापानी सैनिक अधिकारी मेजर फूजीवारा (Fujiwara) ने एक युद्धबंदी कैप्टन मोहन सिंह को समझाया कि वह भारत की स्वतंत्रता के लिए जापानियों के साथ मिलकर काम करें। मार्च 1942 में टोक्यो में भारतीयों की एक कान्फ्रेंस बुलायी गयी और उन्होंने “इंडियन इंडिपेंडेंस लीग” की स्थापना की। इसके बाद बैंकाक में (जून 1942) एक कान्फ्रेंस हुई जिसमें रास बिहारी बोस को लीग का अध्यक्ष चुना गया, और यहीं इंडियन नेशनल आर्मी (आज़ाद हिंद फ़ौज) के गठन का निर्णय लिया गया।

कैप्टन मोहन सिंह को आजाद हिंद फ़ौज का कमांडर नियुक्त किया गया। अब तक फ़ौज में 40,000 भारतीय सैनिक आ चुके थे। इस सम्मेलन ने नवगठित सैन्य आंदोलन के नेतृत्व के लिए सुभाषचंद्र बोस को आमंत्रित किया।

सुभाषचंद्र बोस भारत से बच निकल कर 1941 में बर्लिन पहुंच गए थे। जून 1943 में वे टोक्यो आये और फिर जुलाई में सिंगापुर में वे आज़ाद हिंद फौज में शामिल हो गए। रास बिहारी बोस ने नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस को सौंप दिया और एक आज़ाद हिन्द सरकार का गठन किया गया। नवम्बर 1943 में जापानियों ने अंडमान और निक्कोबार द्वीप समूह का प्रशासन आज़ाद हिन्द फौज को सौंपने के अपने निर्णय की घोषणा की। इस तरह भारत की स्वतंत्रता के लिए आज़ाद हिंद फौज के साहसिक संघर्ष की शुरुआत हुई।

आज़ाद हिंद फ़ौज की कार्रवाइयां

आज़ाद हिंद फ़ौज ने कुछ ही महीनों में तीन लड़ाकू ब्रिगेडें खड़ी कर लीं, जिनके नाम गांधी, आज़ाद, और नेहरू के नाम पर रखे गये। शीघ्र ही अन्य ब्रिगेडों का भी गठन किया गया जिनके नाम सुभाष बिग्रेड और रानी झांसी ब्रिगेड रखे गये। समुद्रपार रहने वाले भारतीयों ने धन और सामग्री के मामले में आज़ाद हिंद फ़ौज को खुलकर सहयोग दिया। आज़ाद हिंद फ़ौज के नारे थे “जयहिंद” और “दिल्ली चलो”। सबसे अधिक प्रसिद्ध सुभाष की वह घोषणा थी जिसमें उन्होंने कहा “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।”

जापानी फौज़ों के साथ-साथ लड़ते हुए आज़ाद हिंद फ़ौज ने 18 मार्च, 1944 को भारतीय सीमा पार कर ली। भारतीय भूमि पर तिरंगा फहरा दिया गया। फिर भी आज़ाद हिंद फ़ौज इम्फाल पर कब्जा करने में असफल रही। इसके दो कारण थे :

  • आज़ाद हिंद फ़ौज को जापानियों से पर्याप्त रसद और हवाई सुरक्षा प्राप्त नहीं हुई।
  • मानसून ने उसके आगे बढ़ने में रुकावट पैदा की।
  • इस बीच अंग्रेज़ अपनी सेनाओं को फिर से तैयार करने में सफल हो गये और उन्होंने जवाबी हमले किए। आजाद हिंद फ़ौज ने भारी जन-हानि की कीमत पर साहसिक लड़ाई लड़ी। लेकिन युद्ध का रुख बदल रहा था।

जर्मनी के पतन और जापानी सेनाओं की भारी क्षति के बाद आज़ाद हिंद फ़ौज अपने बल पर टिकी नहीं रह सकी। सुभाषचंद्र बोस लापता हो गये। कुछ लोगों का विश्वास था कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया, परंतु अन्य लोगों ने इस पर विश्वास करने से इंकार किया।

प्रभाव

आज़ाद हिंद फ़ौज अपनी लक्ष्य प्राप्त करने में सफल नहीं हुई, परंतु इसने स्वतंत्रता संघर्ष को अत्यधिक प्रभावित किया :

  • अंग्रेजों के सामने यह साफ़ हो गया कि वे भारतीय सैनिकों की वफादारी पर और ज़्यादा भरोसा नहीं कर सकते और उन्हें भाड़े का सिपाही मानकर भी नहीं चल सकते।
  • आज़ाद हिंद फ़ौज के संघर्ष ने दिखा दिया कि जिन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र संघर्ष किया था वे किसी भी तरह साम्प्रदायिक विभाजन से प्रभावित नहीं थे। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख सभी आज़ाद हिंद फ़ौज में थे जो सिर्फ भारतीयों के रूप में लड़े थे।
  • रानी झांसी ब्रिगेड ने जो सिर्फ महिलाओं की ब्रिगेड थी, अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र संघर्ष चलाने में भारतीय महिलाओं की क्षमताओं को सामने ला दिया।
  • आज़ाद हिंद फ़ौज ने समुद्रपार रहने वाले भारतीयों की अपनी मातृभूमि की आज़ादी के प्रति चिंता और उत्साह को भी सामने ला दिया।

इस दौर में सुभाषचंद्र बोस की भूमिका पर विचार करते समय हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना पड़ेगा कि उन्होंने जो कुछ किया वह फासीवादी जर्मनी या विस्तारवादी जापान को प्राप्त उनके समर्थन के कारण नहीं था, बल्कि भारत की आजादी के लिए वे आजाद हिंद फ़ौज की स्वतंत्र सत्ता बनाये रखने के इरादे पर दृढ़ थे। जब वे बर्लिन में थे तो भारतीय फौजियों के सोवियत संघ के विरुद्ध इस्तेमाल के सवाल पर जर्मनों के साथ उनका विवाद हो गया था।

अंग्रेज़ सरकार ने आज़ाद हिंद फौज के अधिकारियों और सैनिकों पर फ़ौजी अदालत में मुकद्मा (कोर्ट मार्शल) चलाया। उनके ऊपर राजा के विरुद्ध षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया गया।

सारांश

युद्ध के प्रति भारतीय जनता के विभिन्न वर्गों के विभिन्न दृष्टिकोण थे, और ये सब कांग्रेस में प्रतिबिम्बित होते थे। गांधीजी द्वारा शुरू किया गया व्यक्तिगत सत्याग्रह, सहभागिता की सीमित प्रवृत्ति के कारण, व्यापक रूप से प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ। भारत को युद्ध में घसीट लिए जाने के बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, मगर इस आंदोलन के निर्णय तक पहुंचने में तीन साल का समय लगा।

आंदोलन शुरू करने की घोषणा के साथ ही अंग्रेजों ने निष्ठर दमन की नीति अपनायी। रातों रात कांग्रेस के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, और कांग्रेस को एक निश्चित कार्य-दिशा तय करने का समय तक नहीं  मिल सका। फिर भी आंदोलन अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ा। लोगों ने अपने-अपने स्तर पर कार्य-दिशायें तय कर लीं।

आंदोलन को नेतृत्व देने में युवक और समाजवादी अग्रिम मोर्चे पर रहे। अपने प्रारम्भिक चरण में शहर के लोग ही आंदोलन में सक्रिय रहे, मगर शीघ्र ही आंदोलन देहात में भी फैल गया। कई क्षेत्रों में अंग्रेज़ सरकार उखाड़ दी गई और समानान्तर सरकारों की स्थापना कर दी गई। इस संघर्ष में लोगों द्वारा अपनाए गए तरीके, गांधीजी की अहिंसा की सीमाओं से बाहर निकल गए और कांग्रेस का उदार वर्ग उन पर नियंत्रण नहीं रख सका।

अंग्रेज़ आंदोलन को कुचलने में सफल हो गए, परंतु भूमिगत कार्रवाइयां लम्बे समय तक चलती रहीं। इस आंदोलन में अंग्रेज़ों के सामने स्पष्ट कर दिया कि लम्बे समय तक भारत पर कब्ज़ा किए रहना उनके लिए सम्भव नहीं होगा, और आज़ाद हिंद फ़ौज द्वारा चलाए गए साहसिक संघर्ष ने इसी बात को फिर से पुष्ट किया।

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