भारतेन्दु युग

इस इकाई में भारतेन्दु युगीन साहित्य का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया गया है, तथा साथ ही इस युग के साहित्य की विशिष्ट प्रवृत्तियों की जानकारी दी गई है। भारतेन्दु युग से पूर्व, साहित्य की भाषा के रूप में खड़ी बोली को पर्याप्त स्थान नहीं मिला था। खड़ी बोली जनसाधारण की बोलचाल की भाषा थी। धीरे-धीरे लेखकों ने भी इस भाषा में साहित्य रचना करना प्रारंभ कर दिया। इस इकाई के माध्यम से हम आपको खड़ी बोली और साहित्यिक भाषा के रूप में उसके विकास की जानकारी देंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • नवजागरण तथा आधुनिक बोध की संकल्पना से परिचित हो सकेंगे,
  • साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली के उपयोग के प्रारम्भ और विकास की चर्चा कर सकेंगे,
  • खड़ी बोली गद्य के विकास की जानकारी दे सकेंगे, भारतेन्दु युगीन पत्रकारिता, गद्य साहित्य, निबन्ध, उपन्यास तथा अन्य गद्य विधाओं से परिचित हो सकेंगे,
  • भारतेन्दु युगीन कविता की विशेषताओं की जानकारी दे सकेंगे।

भारतेन्दु युग आधुनिक कालीन हिन्दी साहित्य का पहला चरण है। अब इसका सर्व स्वीकृत नाम ‘भारतेन्दु युग’ है और यह नामकरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम पर किया गया है। इस नामकरण में भारतेन्दु के व्यक्तित्व एवं इस कालखण्ड के साहित्य को उनकी देन की स्वीकृत निहित है। भारतेन्दु का महत्व आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्राय: सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में इस प्रसंग में लिखा है :

“भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिभाषित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को नये मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषा-संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया और वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गये। इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और उसे वे शिक्षित जनता के साहचर्य में लाए।” (पृष्ठ. 412)

भारतेन्दु युग का प्रारम्भ कब से माना जाये, इस पर हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों में किंचित मतभेद है। आचार्य शुक्ल ने इसका प्रारम्भ संवत् 1900 अर्थात् 1843 ई. से माना है। इसमें संवत् 1900 को सीधा रखने के अतिरिक्त और कोई तुक नहीं है। इस युग को सर्वाधिक प्रभावित करने और हिन्दी साहित्य को आधुनिक बोध से जोड़ने वाले भारतेन्दु का जन्म 1850 ई. में हुआ था। इसलिए कुछ लोग इस पक्ष में हैं कि इसी वर्ष को भारतेन्दु युग का प्रारम्भ-वर्ष माना जाये। लेकिन यह मानना भी बहुत तर्कसम्मत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि भारतेन्दु ने जन्म लेते ही तो हिन्दी साहित्य को प्रभावित नहीं कर दिया। फिर, यदि हम उनके जन्म-वर्ष को इस साहित्यिक युग का प्रारम्भ-वर्ष मानते हैं तो हमें उनके निधन-वर्ष 1885 ई. को इस युग का अन्त-वर्ष मानना चाहिए। ऐसा किसी ने नहीं माना है।

इसलिए डॉ. बच्चनसिंह की यह बात समझ में आती है कि सन् 1857 को आधुनिक काल का प्रारम्भिक बिन्दु मानना चाहिए, क्योंकि हिन्दी भाषी क्षेत्र में ही नहीं, पूरे भारतवर्ष के इतिहास में यह वर्ष एक निर्णायक मोड़ उपस्थित करता है। यह भारत के स्वाधीनता -संग्राम की शुरुआत का वर्ष है। भारतेन्दु युग की अन्तिम सीमा 1900 ई. स्वीकार करना उचित होगा, क्योंकि इस वर्ष नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के तत्वावधान में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस पत्रिका ने द्विवेदी युगीन हिन्दी के दिशानिर्देशन में, उसके व्यक्तित्व-निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।

नवजागरण और आधुनिक बोध

वैसे साहित्य में काल खण्डों की प्रारम्भिक और अन्तिम तिथियाँ विशेष सार्थक नहीं होतीं। साहित्य, भाषा विशेष के बोलने वालों की चेतना में आने वाले परिवर्तन का प्रतिबिम्ब होता है। चेतना में यह परिवर्तन एकाएक किसी तिथि-विशेष को नहीं होता, वह धीरे-धीरे होता है। हिन्दी भाषियों में नवजागरण और आधुनिक बोध क्रमश: विकसित हुआ। इस बात पर बराबर बहस होती है कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय जनमानस में जो परिवर्तन हुआ, यह अंग्रेजों की देन है अथवा नहीं। यह मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि यदि अंग्रेजों के आगमन और उनके यहाँ शासक बनने ने भारतीय जनमानस को अत्यधि क प्रभावित किया। हमारे जीवन का हर पक्ष कहीं-न-कहीं अंग्रेजों के इस देश में आगमन से प्रभावित है।

अंग्रेजों के भारत में आगमन से भारतीय जन-मानस प्रभावित हुआ इसका सीधा-सा प्रमाण यह है कि इस देश के जिस भाग से उनका प्रभुत्व स्थापित हुआ उसी भाग से भारतीयों में नवजागरण और आधुनिकता की चेतना का प्रारम्भ हुआ। सबसे पहले अंग्रेजों ने सन् 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई जीतकर बंगाल पर । अपना प्रभुत्व जमाया। ए.सी. सरकार ने इस वर्ष से बंगाल में मध्यकाल का अन्त और आधुनिक काल का प्रारम्भ माना है। 1818 ई. में महाराष्ट्र अंग्रेजों के अधीन हुआ। महाराष्ट्र में आधुनिकता का प्रारम्भ इसी वर्ष से माना जाता है। सन् 1856 में अवध अंग्रेजों के अधीन हुआ। अवध के अंग्रेजों के अधीन होते ही लगभग सारा भारतवर्ष उनके अधीन हो गया। लेकिन अगले ही वर्ष 1857 ई. में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का सूत्रपात भी यहीं से हुआ।

जिस क्रम से और जिन स्थानों से भारत पर अंग्रेजों का शासन स्थापित होना शुरू हुआ, उसी क्रम से और उन्हीं स्थानों से अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा-संस्थाएँ, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन, समाजसुधार के आन्दोलन आदि का प्रारम्भ हुआ। कलकत्ता में 1800 ई. में ‘ओरियण्टल सैमिनरी’ की स्थापना की गयी, जो बाद में फोर्ट विलियम कालेज कहलाया। इससे पहले 1780 ई. में कलकत्ता में कलकत्ता मदरसा’ और 1791 में बनारस में ‘बनारस संस्कृत कॉलेज’ खोले गये थे। 1857 ई. में कलकत्ता, मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विश्वविद्यालयों की स्थापना बहुत बाद में हुई। सबसे पहले राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ (1828 ई.) की स्थापना की और मूर्तिपूजा, जाति प्रथा, सतीप्रथा आदि का विरोध किया तथा विधवा-विवाह, स्त्रीशिक्षा, स्त्री-पुरूष की समानता अंग्रेजी शिक्षा आदि का समर्थन किया।

महादेव रानाडे के द्वारा प्रार्थना-समाज’ (1867 ई.) स्वामी दयानन्द के द्वारा ‘आर्यसमाज’ (1867 ई.), ‘थियोसॉफिकल सोसाइटी’ की भारतीय शाखा की अडियार (मद्रास, 1882 ई.) में स्थापना, स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ‘रामकृष्ण मिशन’ (1897 ई.) की स्थापना बाद में हुई। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से एक भी संस्था की स्थापना न तो हिन्दी भाषी क्षेत्र में हुई और न किसी हिन्दी भाषी व्यक्ति ने की। जिस ‘आर्य समाज’ ने हिन्दी भाषी क्षेत्र को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, उसकी स्थापना गुजराती भाषी स्वामी दयानन्द ने बम्बई में की। यदि अंग्रेजों और अंग्रेजी प्रभाव की दृष्टि से देखा जाए तो ‘आर्य समाज’ समाज-सुधार के लिए स्थापित संस्थाओं में सबसे कम आधुनिक था।

इनके अतिरिक्त अंग्रेजों अथवा ईसाई मिशनरियों ने जो शिक्षा संस्थाएँ स्थापित की, उनके पीछे उनका स्वार्थ था। अंग्रेजी शासक शिक्षा संस्थाओं के माध्यम से क्लर्क पैदा करना चाहते थे और ईसाई मिशनरी ईसाइयत फैलाना चाहते थे। पहले उन्होंने भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया और उन्हें शिक्षा का माध्यम बनाया, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि उनका स्वार्थ भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने से सिद्ध नहीं होगा। इसलिए 1835 ई. में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बना दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा और माध्यम का प्रारूप लॉर्ड मैकाले ने तैयार किया। उसके सामने लक्ष्य स्पष्ट था – “हम भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व तब तक स्थापित नहीं कर पाएँगे, जब तक भारतीय शिक्षा पद्धति से संस्कृत भाषा को पूरी तरह निष्कासित नहीं कर देते।” (उद्धृत-निर्मल वर्मा, दूसरे शब्दों में, पृष्ठ 30 ) अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति से संस्कृत ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को भी निकाल दिया गया। कमोवेश यह स्थिति आज भी है।

विदेशी  पुरात्वविदों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को भी इसी उद्देश्य से खोजा। वे सिद्ध करना चाहते थे कि भारत का अतीत चाहे जैसा रहा हो, आज वे असभ्यता की चरम सीमा पर पहुँचे हुए हैं। उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत, पश्चिमी सभ्यता, शिक्षा-दीक्षा एवं जीवन-पद्धति का अनुकरण ही बना सकता है। शिक्षा की तरह ही रेल, सड़क, डाक-तार इत्यादि का अंग्रेजों ने पूरे देश में जो जाल बिछाया, वह भी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए ही था। इनके माध्यम से उन्होंने भारत का खूब शोषण किया।

इन सबसे जागरण तो हुआ, लेकिन दो दिशाओं में। एक दिशा, मानसिक दासता और अंग्रेज भक्ति की थी। बंगाल में 19 वीं शताब्दी में एक ऐसी युवा पीढ़ी सामने आयी, जिसे हर भारतीय चीज़ से घृणा थी और हर अंग्रेजी वस्तु से प्रेम और उसके प्रति भक्ति थी। पालने में से ही बच्चे इंग्लैण्ड भेज दिये जाते थे, जिससे अपनी मातृ भाषा बंगला न सीख लें, अंग्रेजी सीखें और पूरी तरह अंग्रेज़ बनकर भारत लौटें । माइकेल मधुसूदन दत्त इस प्रवृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई मानसिक दासता की यह परम्परा आज भी विद्यमान है। चाहे प्रशासन हो, शिक्षा हो, व्यापार हो अथवा चाहे सभ्यता-संस्कृति ही, शिक्षित भारतीयों का बहुत बड़ा वर्ग आज भी यह अनुभव करता है कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। जागरण की दूसरी दिशा, मानसिक स्वाधीनता की थी। नये बने वातावरण ने भारतीय को मध्यकालीन जड़ता, तरह-तरह के अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त किया। उन्हें इस अर्थ में आधुनिक बनाया कि वे लौकिक जीवन और उसकी समस्याओं को महत्व देने लगे, अपने स्वर्णिम अतीत पर गर्व करते हुए वर्तमान अधोगति को पहचानने लगे, विश्वास की अपेक्षा बुद्धि को महत्व देते हुए विभिन्न प्रकार के सुधारों में संलग्न होने लगे तथा नये को अपनाने में उनकी हिचक दूर हुई। उन्हें अपनी पराधीनता का बोध हुआ और उनमें राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। राष्ट्रीयता की भावना ने उन्हें अखिल भारतीय एकता का बोध कराया।

अखिल भारतीयता का यह बोध जितना स्पष्ट और प्रखर हिन्दी क्षेत्र में था, उतना अन्य क्षेत्रों में नहीं। भारतेन्दु के बलिया वाले भाषण के इस अंश से यह बात स्पष्ट है- “भाई हिन्दुओं! तुम भी मतमतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामन्त्र का जप करो । जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू है। हिन्दू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी, जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़े, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहै, वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैण्ड, फरासीस, अमेरिका को जाती है।” (भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ 103)

इस नवजागरण और आधुनिकता बोध की अनुगूंज हा भारतेन्दु युगीन साहित्य में बराबर सुनाई पड़ती है।

खड़ी बोली और साहित्यिक भाषा के रूप में उसका विकास

हिन्दी भाषा और गद्य के उदय के संबंध में हमने विचार किया है। वहाँ हमने हिन्दी उर्दू के मसले पर भी विस्तार से चर्चा की है। यहाँ हम खड़ी बोली और साहित्य की भाषा के रूप में उसके विकास पर दृष्टि डालेंगे।

मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से आधुनिक काल को अलग करने वाला एक क्षेत्र यदि नवजागरण और आधुनिकता बोध का विकास है, तो दूसरा, महत्वपूर्ण क्षेत्र है साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में खड़ी बोली की स्वीकृति और विकास। विभिन्न कारणों से आधुनिक काल से पहले राजस्थानी, मैथिली. अवधी और ब्रजभाषा हिन्दी की साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं। खड़ी बोली को तो आधुनिक काल में ही पहले गद्य की भाषा के रूप में और बाद में पद्य या काव्य की भाषा के रूप में स्वीकृति मिली। इसका अर्थ यह नहीं है कि खड़ी बोली आधुनिक काल में ही जन्मी। बोली या जनभाषा के रूप में वह भी उतनी ही पुरानी है जितनी हिन्दी क्षेत्र की अन्य बोलियाँ।

खड़ी बोली मूलत: दिल्ली और मेरठ के आसपास बोली जाने वाली बोली है। इस का जन्म ग्यारहवीं शताब्दी में अपभ्रंश से वैसे ही हआ जैसे अन्य हिन्दी बोलियों का हआ। खड़ी बोली पकारी जाने से पहले यह हिन्दी हिन्दवी या दक्खिनी हिन्दी के नाम से पुकारी जाती थी। सबसे पहले 1803 ई. में लल्लूजी लाल और सदल मिश्र ने इसे ‘खड़ी बोली’ कहा। प्रम सागर’ में उन्होंने लिखा – “एक समै व्यासदेव कृत श्रीमत भागवत के दसम स्कन्ध की कथा को चतुर्भुज मिश्र ने दोहा चौपाई में ब्रजभाषा किया।

सो पाठशाला के लिए महराजाधि राज सकल गुण निधान, पुण्यवान, महाजान मारकुइस वलिजलि गवरनर जनरल प्रतापी के राज में श्रीयुत गुनगाहक गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त की आज्ञा से संवत् 1860 में लल्लजीलाल कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्त्र अवदीच आगरे वाले ने जिसका सार ले यामिनी भाषा छोड दिल्ली आगरे की ‘खडी बोली में कह नाम प्रेमसागर धरा।” उसी वर्ष सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान’ के संबंध में लिखा-” अब संवत् 1860 में ‘नासिकेतोपाख्यान’ को जिसमें चन्द्रवती की कथा कही है, देववाणी से कोई कोई समझ नहीं सकता, इसलिए खड़ी बोली में किया।” इसका नाम खड़ी बोली क्यों रखा गया और उसका अर्थ क्या है, इस पर बहुत विवाद रहा है, इसकी चर्चा करना यहाँ अप्रासंगिक होगा।

भारतेन्दु युग में साहित्यिक गद्य की भाषा के रूप में स्वीकृति पाने से पूर्व ही खड़ी बोली लगभग अखिल भारतीय स्तर पर पारस्परिक आदान प्रदान की भाषा के रूप में प्रसार पा चुकी थी। नाथ पन्थी जोगियों के माध्यम से यह राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में फैली। दक्षिण और महाराष्ट्र के महानुभाव और वारकरी आदि पंथों के सन्तों ने इसका दक्षिण में प्रचार किया। कबीर पंथियों और सिक्खों ने इसे अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में प्रचारित किया । बारहवीं शताब्दी में यह बरार, हैदराबाद, महाराष्ट्र और मैसूर आदि क्षेत्रों में प्रचलित हो गयी थी। दक्षिण में इसके प्रचार का श्रेय मुसलमानों को जाता है।

अलाउद्दीन खिलजी के समय से मुसलमानों ने दक्षिण के जिन-जिन राज्यों को जीतकर अपना शासन स्थापित किया, वहाँ-वहाँ शासन-प्रबन्ध, बोलचाल और पारस्परिक व्यवहार की भाषा के रूप में खड़ी बोली का उपयोग किया। दक्षिण में सन्तों और मुसलमानों के सम्मिलित प्रभाव से इसका जो स्वरूप विकसित हुआ वह दक्खिनी” कहलाया। दिल्ली के आसपास के व्यापारी भी इसे बाज़ार की भाषा के रूप में भारतवर्ष के विभिन्न भागों में ले गये। अखिल भारतीय स्तर पर जितना प्रचार-प्रसार खड़ी-बोली का हुआ उतना हिन्दी की किसी अन्य बोली या विभाषा का नहीं हुआ। व्यवहार की माध्यम भाषा के साथ-साथ यह धर्म, शासन, व्यापार और साहित्य की भाषा के रूप में भी विकसित हुई।

साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली के उपयोग का प्रारम्भ एवं विकास

उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व खड़ी बोली का साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयोग नगण्य है। नाथों, महानुभाव पंथियों, वारकरियों और कबीरपंथियों आदि ने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली का जो उपयोग किया है, उसके पीछे प्रेरणा धर्म की है, न कि साहित्य की। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ की रचनाएँ साहित्यिक महत्व पा गयीं। लेकिन खड़ी बोली को साहित्य के माध्यम के रूप में विकसित करने में इनका योगदान अवश्य स्वीकार करना होगा। सचेत रूप से साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली का उपयोग अमीर खुसरों ने किया।

उन्होंने अपनी पहेलियाँ, मुकरियाँ और कविताएँ खड़ी बोली में लिखीं, लेकिन उनकी रचनाओं में खड़ी बोली का जो रूप आज मिलता है, यह वही है जिसका उपयोग खुसरों ने किया था, इस पर सन्देह प्रकट किया जाता है। सन्त कवियों की साखियों के अतिरिक्त, मीरां, माधोदास, रहीम. नरहरि, गंग, सूदन, कुलपति, आलम, शेख, भूषण, नागरीदास, ग्वाल, घनानंद, बेनी इत्यादि कवियों की रचनाओं में यत्र-तत्र खड़ी बोली के साहित्यिक भाषा के रूप में उदाहरण मिलते हैं।

दरअसल भारतेन्दु से पहले खड़ी बोली का साहित्यिक भाषा के रूप में उपयोग दक्खिन के कवियों और गद्यकारों ने किया। कवियों में गेसूदराज, मुहम्मद कुलीकुतुबशाह, इब्ननिशाती, शेखसादी आदि ने जिस भाषा में अपनी कविताएँ लिखी हैं, वह मूलत: खड़ी बोली है जिस पर अरबी-फारसी, मराठी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं का कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा है। सन् 1700 के बाद इस दक्खिनी हिन्दी का अरबी-फारसीकरण किया जाने लगा । और बाद में इसे उर्दू घोषित किया गया। दक्खिनी हिन्दी गद्य के लेखकों ख्वाजा बन्देनवाज गेसूदराज, शाह मीराजी, शाह बुरहानुद्दीन, अब्दुस्समद, मुहम्मद वली उल्ला कादरी, अबिदशाह अलहसन-उल-हुसेनी इत्यादि की गद्य रचनाओं की भाषा खड़ी बोली हिन्दी ही है। उसमें लेखकों के मुसलमान होने और गद्य रचनाओं में सूफी मत के निरूपण आदि के कारण अरबी-फारसी का पुट अवश्य है, लेकिन इतना नहीं कि उसे हिन्दी न कहा जा सके।

यद्यपि साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली की यह प्रारम्भिक अवस्था है, लेकिन हिन्दी को साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित करने में इसका योगदान अवश्य रहा है।

खड़ी बोली गद्य का विकास

भारतेन्दु से पूर्व खड़ी बोली गद्य के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, इत्यादि के राजकाज और पत्रव्यवहार आदि में मिलने वाले उदाहरणों के अतिरिक्त पुस्तकों के रूप में रची गयी गद्य-रचनाएँ या तो दक्खिनी हिन्दी में मिलती है या ब्रज आदि विभाषाओं से प्रभावित खड़ी बोली में। दक्खिनी हिन्दी के पहले गद्य-लेखक ख्वाजा बन्देनवाज गेसूदराज ने पन्द्रहवीं शताब्दी के दूसरे दशक में सूफी सिद्धान्तों का परिचय देने के लिए मेहराजुल आशकीन’ की रचना की। इसकी भाषा में अरबी फारसीपन अधिक है। इनके बाद शाह मीराजी की ‘मरकूबुल कलूब’ शाहबुरहानुद्दीन की ‘कलमतुल हकायत’ में भी सूफी सिद्धान्तों का विवेचन है।

इनकी भाषा गेसूदराज की भाषा की अपेक्षा अधिक सहज. स्वाभाविक और सरल हिन्दी है। अब्दुस्समद के ‘तफसीरे बहानी’ में, मुहम्मद वली उल्ला कादरी के ‘मारफत-उलसलूक’ में भाषा का झुकाव अरबी-फारसी रहित हिन्दी की ओर है। वजही की रचना ‘सबरस’ (1620 ई.) की भाषा में न केवल अधिक हिन्दीपन है बल्कि अत्यधिक परिष्कृति और स्पष्टता भी है। इसका गद्य अत्यन्त प्रवाहपूर्ण एवं सरस है। खड़ी बोली को गद्य के रूप में विकसित करने में इन रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है।

दक्खिनी हिन्दी से भिन्न खड़ी बोली में उन्नीसवीं शती से पूर्व गिनीचुनी गद्य रचनाएँ मिलती हैं। इनमें सबसे पहले रचना अकबर के समकालीन गंग कवि रचित ‘चन्द छन्द बरनन की महिमा’ मानी जाती है। इसमें खड़ी बोली के कतिपय अर्वाचीन प्रयोगों के कारण इसकी प्रामाणिकता पर सन्देह किया जाता है। इसके बाद की गद्य-रचना जटमल-रचित ‘गोरा-बादल की कथा’ (1623 ई.) है, जिसकी खड़ी बोली राजस्थानीपन, लिए हुए है। भक्तिकाल में इन रचनाओं के अतिरिक्त मिलने वाली गद्य-रचनाओं ‘कुतुब शत’ (1613 ई.) ‘भोगल पुराण’ (1705 ई.), गणेश गोसठ’ (1658 ई.) एवं ‘पोथी सचूषण्ड’ ( 1640 ई. के पूर्व) की खड़ी बोली में राजस्थानी, ब्रजभाषा और पंजाबी का मिश्रण बहुत अधिक है।

रीतिकाल में खड़ी बोली गद्य की अनेक मौलिक एवं अनूदित रचनाएँ मिलती हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रचना रामप्रसाद निरंजनी का ‘भाषा-योगवाशिष्ट’ है। इसी श्रेणी की रचना पं. दौलतराम द्वारा अनूदित रविषेणाचार्य का ‘भाषा – पद्मपुराण’ (1766 ई.) है। इसी वृत्ति के आसपास की रचना ‘मण्डोवर का वर्णन’ है जिसका रचनाकार अज्ञात है। इन गद्य रचनाओं का महत्व भी ऐतिहासिक ही है। इनमें खड़ी बोली, गद्यमार्ग पर डगमग चरण रखती हुई देखी जा सकती है।

फोर्ट विलियम कॉलेज और खड़ी बोली का गद्य

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारियों को शिक्षा, भाषा-ज्ञान और सदाचरण सिखाने के उद्देश्य से कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गयी। गिलक्राइस्ट हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। वे रोमन और फारसी लिपि, अरबी-फारसी आक्रान्त खड़ी बोली में आस्था रखते थे। उनकी दृष्टि में यही शिष्ट जनों की भाषा थी। संस्कृत तत्सम और तद्भव शब्दों से मुक्त खड़ी बोली को वे गँवारू समझते थे। उनके विश्वास और समझ का दूरगामी प्रभाव उर्दू और हिन्दी के विभाजन के रूप में सामने आया। फोर्ट विलियम कॉलेज में उर्दू और हिन्दी दोनों के गद्य का निर्माण हुआ।

इस कॉलेज में खड़ी बोली गद्य का निर्माण करने के लिए दो भाषा मुंशी नियुक्त हुए- आगरा निवासी गुजराती ब्राह्मण लल्लूजीलाल और आरा निवासी सदल मिश्र। 1803 ई. में लल्लूजी लाल ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा खड़ी बोली गद्य में प्रमसागर’ के नाम से प्रस्तुत की। इनकी खड़ी बोली में यामिनी भाषा’ अर्थात अरबी-फारसी के शब्दों का बहिष्कार किया गया। जो गद्य इन्होंने लिखा, वह ब्रजभाषा-रंजित, सानुप्रास वाक्यों से युक्त, लम्बे-लम्बे वाक्यों वाली कथावार्ता की शैली का गद्य है, जो व्यवहारोपयोगी सिद्ध नहीं हुआ। इन्होंने उर्दू और ब्रजभाषा गद्य में कुछ और पुस्तकें भी लिखीं।

सदल मिश्र ने फोर्ट विलियम कॉलेज के तत्वावधान और गिलक्राइस्ट के आदेशानुसार दो पुस्तकों की रचना की – ‘चन्द्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान’ (संस्कृत से खड़ी बोली गद्य में अनुवाद, 1803 ई.) एवं ‘रामचरित अथवा अध्यात्मरामायण’ (1805 ई.)। इन्होंने व्यवहारोपयोगी गद्य लिखने का प्रयत्न किया लेकिन इन्हें भी अधिक सफलता नहीं मिली। इनके गद्य में एक ओर ब्रजभाषा का प्रयोग है तो दूसरी ओर पूर्वीपन है। न लल्लूजी लाल का गद्य साफ-सुथरा है, न सदल मिश्र का। इसीलिए आगे के गद्य लेखकों के लिए इनका गद्य प्रेरक नहीं बन सका। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब तक कोई लेखक स्वत: रचना करने के लिए प्रेरित न हो तब तक राजकीय प्रेरणा उपयोगी नहीं होती।

दो स्वाधीन गद्य लेखक

लल्लूजी लाल और सदल मिश्र के दो ऐसे समकालीन खड़ी बोली के गद्य लेखक हैं, जिन्होंने स्वाधीन रहकर लिखा। इनमें पहले हैं दिल्ली-निवासी, उर्दू में शायरी करने वाले और अनेक पुस्तकें लिखने वाले मु. सदासुखलाल ‘नियाज़ । इन्होंने ‘विष्णुपुराण’ के नैतिक-उपदेशात्मक प्रसंगों के आधार पर ‘सुखसागर’ की रचना खड़ी बोली गद्य में की। इनकी खड़ी बोली संस्कृतनिष्ठ है और गद्य प्रवाहपूर्ण लेकिन पण्डिताऊपन से वह भी नहीं बच सके हैं।

दूसरे लेखक हैं इंशा अल्ला खाँ । उर्दू के प्रसिद्ध शायर होते हुए भी इन्होंने शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी में ‘उदयभानचरित या रानी केतकी की कहानी’ (1778-1803 ई. के बीच) की रचना की। भाषा के संबंध में उनकी प्रतिज्ञा थी, “जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले…. बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच न हो।” इन्होंने बडा चटकीला, मटकीला, मुहावरेदार और सानुप्रास वाक्यों वाला गद्य लिखा, जिसकी कलात्मकता, चमत्कार और प्रवाहपूर्णता को स्वीकार करना पड़ेगा। बीच-बीच में अत्यन्त स्वाभाविक गद्य के नमूने उनकी इस गद्य-रचना में मिलते हैं, लेकिन समग्रत: उसमें कृत्रिमता है, इसलिए हिन्दी के भावी गद्य लेखकों के आदर्श यह भी नहीं बन सके।

खड़ी बोली गद्य के विकास में ईसाई मिशनरियों का योगदान

ईसाई मिशनरियों ने ईसाइयत का प्रचार करने के लिए दोहरी नीति अपनाई। एक ओर उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में यह सोचकर कार्य किया कि शिक्षित भारतीय ईसाई धर्म की ओर आकर्षित होंगे और उसे अपनाएँगे क्योंकि भारतीय धर्मों को वह अज्ञान और अन्धविश्वासों के अतिरिक्त और कुछ मानते ही नहीं थे। इसके लिए उन्होंने स्कूल और कॉलेज खोले। स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अधिकांशत: खड़ी बोली को रखा। स्कूल स्तर की भूगोल, इतिहास, धर्मशास्त्र, राजनीति, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, विज्ञान, साहित्य, ज्योतिष, व्याकरण आदि विभिन्न विषयों की पाठ्य पुस्तकें तैयार करने के लिए कलकत्ता, आगरा, इलाहाबाद आदि विभिन्न स्थानों पर स्कूल बुक सोसाइटियाँ’ स्थापित की और मुद्रणालय शुरू किये। इससे विविध विषयों को व्यक्त कर सकने में समर्थ गद्य का विकास हुआ।

दूसरी ओर उन्होंने बाइबिल, उसके विभिन्न अंशों और ईसाई धर्म के पक्ष में और अन्य धर्मों के विरोध में पुस्तक -पुस्तिकाएँ खड़ी बोली गद्य में प्रकाशित एवं वितरित की। पादरियों ने प्रवचनों के लिए भी खड़ी बोली को अपनाया। इससे खड़ी बोली का जो गद्य विकसित हुआ, वह अपनी विचित्रताओं के कारण ‘ईसाई गद्य’ कहा जा सकता है।

आर्यसमाज की खड़ी बोली गद्य को देन

हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जिस सुधारवादी आन्दोलन ने सबसे अधिक काम किया, वह आर्य समाज है। यद्यपि स्वामी दयानन्द स्वयं संस्कृत के गुजराती भाषी विद्वान थे और आर्य समाज की स्थापना भी उन्होंने बम्बई में की थी तथापि उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं, अपितु गुजरात और पंजाब आदि में भी यदि उनका सन्देश प्रचारित हो सकता है तो खड़ी बोली हिन्दी के माध्यम से ही। इसीलिए उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’, संस्कार विधि, ‘ऋग्वेद भाष्य-भूमिका’ आदि हिन्दी में प्रस्तुत किये। वे अपने भाषण भी हिन्दी में देने लगे, यद्यपि वे पहले संस्कृत में ही भाषण देते थे और शास्त्रार्थ भी संस्कृत में ही करते थे। उनकी प्रेरणा से उनके अनुयायी भी खड़ी बोली में ही लेखन, प्रवचन और शास्त्रार्थ करते। इसके कारण आर्य समाजियों के द्वारा प्रचुर मात्रा में खड़ी बोली में गद्य लिखा गया और उसका परिमार्जन हुआ।

1863 ई. के आसपास पंजाब के आर्यसमाजी प्रतिभाशाली पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी के लेखों और व्याख्यानों की बड़ी धूम मची। उन्होंने खड़ी बोली गद्य में अनेक रचनाएँ लिखीं जिनमें से ‘भाग्यवती’ (1877 ई.) और ‘सत्यमृत-प्रवाह’ विशेष प्रसिद्ध हईं। फिल्लौरी जी के हिन्दी गद्य के लिए योगदान को सभी ने स्वीकार किया है। उन्हें अपने गद्य पर स्वयं भी गर्व हुआ। सन् 1881 ई. में अपनी मृत्यु के समय उन्होंने कहा था – “भारत में भाषा के दो लेखक थे- एक काशी में दूसरा पंजाब में।” काशी के लेखक से उनका तात्पर्य था भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से और पंजाब में वे स्वयं थे।

भारतेन्दु युगीन पत्रकारिता और साहित्य

खड़ी बोली हिन्दी गद्य और भारतेन्दु युगीन साहित्य के विकास में उस काल के पत्र-पत्रिकाओं का बड़ा योगदान है। इस काल की सारी जागति, सारी सुधारवादी चेतना और सारा साहित्य पत्र-पत्रिका के माध्यम से ही सामने आया और जनसाधारण तक पहुँचा। हिन्दी के पहले साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन कलकत्ता से 30 मई 1826 ई. को प्रारम्भ हुआ और ग्राहकों के अभाव में 4 दिसम्बर 1827 ई. को बंद हो गया। इससे पहले राजा राममोहनराय ने ‘बंगदूत’ का हिन्दी संस्करण भी निकाला था। कलकत्ता से ही  हिन्दी का पहला दैनिक समाचारपत्र श्यामसुन्दर सेन ने जून 1854 ई. में समाचार सुधावर्षण’ के नाम से निकाला, जो कई वर्षों तक प्रकाशित होता रहा। बनारस से जनवरी 1845 ई. में गोविन्द रघुनाथ थते के सम्पादन में राजा शिवप्रसाद ने ‘बनारस अखबार’ निकाला। हिन्दी क्षेत्र से निकलने वाला यह पहला पत्र था। इसकी भाषा का झुकाव अरबी-फारसी शब्दों की ओर अधिक था। सिमला अखबार, मालवा अखबार, काशी पत्रिका आदि इस समय निकलने वाले पत्र भाषा की दृष्टि से उर्दू के ही पत्र थे। हिन्दी भाषा को सच्चे अर्थों में अपनाने वाले काशी के ‘सुधाकर’ और आगरा के बुद्धि प्रकाश’ जैसे पत्र थे।

इन पत्रों में साहित्य का प्रकाशन नगण्य था, समाचारों का प्रकाशन ही मुख्य था। साहित्य का प्रकाशन तो मुख्यत: उन पत्र-पत्रिकाओं में हुआ, जिन्हें उस समय के साहित्यकारों ने निकाला। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘कविवचन-सुधा’ (1868 ई.) और ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ (1873 ई.) का प्रकाशन किया। उनके अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र ने ‘ब्राह्मण’ लाला श्रीनिवासदास ने ‘सदादर्श’, तोताराम ने ‘भारतबन्धु’ कन्हैयालाल ने ‘मित्रविलास’ देवकीनन्दन तिवारी ने ‘प्रयाग समाचार’, राधाचरण गोस्वामी ने ‘भारतेन्दु’ चौ. बदरीनारायण प्रमघन’ ने ‘आनन्दकादम्बिनी’, अम्बिकादत्त व्यास ने पीयूष प्रवाह’, बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी प्रदीप’, किशोरीलाल गोस्वामी ने ‘उपन्यास’. गोपालराम गहमरी ने जासूस’ और ‘गुप्त कथा’ आदि पत्र निकाले।

इनके अतिरिक्त इस काल में निकले ‘भारतमित्र’, ‘सारसुधानिधि’, उचित वक्ता’, हिन्दी बंगवासी’ आदि का उल्लेख भी आवश्यक है। राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना जगाने. रूढ़ियों और अन्धविश्वास से मुक्त करके समाज सुधारने और भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के अतिरिक्त इनका उद्देश्य “यथा हिन्दी भाषा का प्रचार करना व हिन्दी लिखने वालों की संख्या-वृद्धि’ करना भी था। भारतेन्दु युग का अधिकांश साहित्य पहले पहल इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आया और हिन्दी भाषा का परिमार्जन हुआ। भारतेन्दु ने कालचक्र’ में यह सच ही लिखा था कि 1873 में “हिन्दी नये चाल में ढली।” (भारतेन्द समग्रः पृष्ठ 780) यहाँ यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि इसी वर्ष ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ या हरिश्चन्द्रिका’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ था।

भारतेन्दु युगीन गद्य-साहित्य

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि “आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण का वक्तव्य, पृष्ठ 6) गद्य के आविर्भाव के साथ गद्य की साहित्यिक विधाओं का आविर्भाव भी अनिवार्य हुआ। अधिकांश साहित्यिक गद्य विधा भारतेन्दु युग में ही जन्मीं। इस युग में जन्म लेकर विकसित होने वाली तीन मुख्य साहित्यिक विधाएँ हैं – नाटक, निबन्ध और उपन्यास।

नाटक

भारतेन्दु से पूर्व नाटक के नाम पर मिलने वाली रचनाएँ एक तो बहुत कम हैं, दूसरे सच्चे अर्थों में वे नाटक हैं भी नहीं। इस युग से पहले नाट्य रचना के अनुकूल स्थितियाँ भी नहीं थीं। भारतेन्दु ने ‘कालचक्र’ में एक दृष्टि से ठीक ही नोट किया – “हिन्दी में प्रथम नाटक-नहुष नाटक (1859), तथा द्वितीय नाटक शकुन्तला (1863) तथा तृतीय-विद्यासुन्दर (1871)।” (भारतेन्दु समग्रः पृष्ठ 780) इन तीन नाटकों में से दो नाटक अनुवाद हैं। राजा लक्ष्मणसिंह कृत ‘शकुन्तला’ कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलानाटकम्’ का अनुवाद है और विद्यासुन्दर’ स्वयं भारतेन्दु के द्वारा बंगला से अनूदित है। भारतेन्दु ने एक अंग्रेजी से, एक बंगला से और पाँच संस्कृत से नाटकों के अनुवाद किये और दस मौलिक नाटक लिखे। उनके अनूदित नाटकों में मुद्राराक्षस’, पुनर्रचित नाटकों के अनुवाद में हरिश्चन्द्र’ और मौलिक नाटकों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘श्रीचन्द्रावली’, ‘भारतदुर्दशा’, और ‘अन्धेर नगरी’ को विशेष ख्याति मिली।

उन्होंने अपने कुछ नाटकों में यदि अपनी प्रेम और भक्ति की भावनाओं को अभिव्यक्त किया तो अन्य अधिकांश नाटकों में अपने समकालीन समाज, धर्म, राजनीति, प्रशासन, न्याय व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की समस्याओं को उजागर किया है। इन समस्याओं को उजागर करने में उनका सबसे बड़ा अस्त्र है हास्य और व्यंग्य । ‘अंधेर नगरी’ के अन्त में महन्त द्वारा कही गयी इन पंक्तियों से तीखा कटाक्ष अंग्रेजी शासन पर और क्या हो सकता है :

जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजान समाज।

ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज, “

(भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ 536)

भारतेन्दु ने अपने नाटकों के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यशैलियों के उपयुक्त तत्त्व लेकर एक नयी नाट्यशैली का निर्माण किया था। उनके नाटकों के केन्द्र में नाट्यवस्तु, नाट्यशिल्प और जीवन दृष्टि संबंधी प्रयोगशीलता और प्रगतिशीलता दोनों विद्यमान हैं। उन्होंने अपने नाटक रंगमंच के लिए लिखे थे। वे स्वयं रंगमंच पर सक्रिय थे। इसलिए उनके ‘अंधेर नगरी’ जैसे नाटक आज भी सफलतापूर्वक मंचित होते हैं।

भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों में से ठा. जगमोहनसिंह को छोड़कर बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, देवकीनन्दन तिवारी, अम्बिका दत्त व्यास इत्यादि सभी ने नाटक लिखे। भारतेन्दु युग के नाटककारों में से भारतेन्दु के अतिरिक्त तीन नाटककार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- लाला श्रीनिवासदास, प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी । लाला श्रीनिवासदास ने ‘प्रह्लाद चरित्र’, ‘तपता संवरण’, ‘रणधीरप्रेममोहिनी’ और ‘संयोगिता स्वयंवर’ – इन चार नाटकों की रचना की। इनमें से ‘रणधीर-प्रेममोहिनी’ उनका सर्वोत्तम अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय होने वाला नाटक है। अंग्रेजी नाट्यशैली में लिखी गयी यह दुःखान्त प्रेमकथा है, जिस पर रीतिकालीन श्रृंगारलीलाओं का स्पष्ट प्रभाव है। आज इस कृति का महत्व मात्र ऐतिहासिक है।

प्रतापनारायण मिश्र ने हमीर हठ’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘कलिकौतुक रूपकम’, गो-संकट’, ‘संगीत शाकुन्तल’, ‘कलिप्रभाव नाटक’, ‘जुआरी-खुआरी’ इत्यादि अनेक नाटकों की रचना की। उनके नाटक युगीन चिन्ताओं को व्यक्त करने के साथ-साथ शिल्पगत प्रयोगशीलता की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं। राधाचरण गोस्वामी ने ‘सती चन्द्रावली’, ‘अमरसिंह राठौर’ और ‘सुदामा’ जैसे ऐतिहासिक-पौराणिक नाटक लिखे, जो सामान्य कोटि के हैं, किन्तु नाटककार के रूप में उनका महत्व,  उनके प्रहसनों के कारण है। ‘बूढे मुँह मुँहासे’, ‘तन-मन-धन गुसाईंजी के अर्पण’, ‘भंग-तंरग’, ‘लोग देखें तमाशा’ आदि प्रहसनों से उन्होंने अपने समकालीन जीवन के नकारात्मक पक्षों की जैसी धज्जियाँ उड़ाई हैं और जैसी दूरदर्शी प्रगतिशील दृष्टि का परिचय दिया है, वह भारतेन्दु युग में ही नहीं, बाद में भी कम ही नाटककारों में देखने को मिलती है।

भारतेन्दु युग में नाट्य-रचना और नाट्य-प्रदर्शन का एक आन्दोलन ही उठ खड़ा हुआ था। एक साथ जितने नाटककार इस युग में नाट्य रचना में संलग्न थे, उतने पूरे हिन्दी साहित्य के किसी एक काल में नहीं थे। इसका कारण यह था कि साहित्य के माध्यम से समाज को बदलने का जैसा उत्साह इस काल के नाटकों में था वैसा हिन्दी साहित्य में फिर कभी दिखाई नहीं दिया। ये नाटककार समझते थे कि जनसाट शारण तक अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम नाटक है। यही कारण है कि जिस समग्रता के साथ इस काल के नाटकों में समकालीन जीवन प्रतिबिम्बित हुआ है वैसी समग्रता के साथ और किसी काल के नाटकों में नहीं हुआ है।

निबन्ध साहित्य

भारतेन्दु युग में जिस दूसरी गद्य-विधा का विकास विशेष रूप से हुआ, वह निबन्ध है। निबन्ध से हमारा तात्पर्य उस लघ्वाकार अकथात्मक गद्य रचना से है, जो अपनी संरचना में स्वच्छन्द होती है और जिसमें लेखक की वैयक्तिकता, उसका व्यक्तित्व निर्बन्ध अभिव्यक्ति पाता है। इस दृष्टि से लेख निबन्ध से अलग है। इस युग के गद्य लेखकों ने समकालीन जीवन और इतिहास के अनेक पक्षों पर प्रभूत मात्रा में लेख लिखे हैं, जिनमें से अधिकांश तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों में दबे पड़े हैं। इन लेखों का महत्त्व . असंदिग्ध है, क्योंकि इनके माध्यम से हम न केवल उस काल के लेखकों की सोच से परिचित होते हैं, अपितु युग की प्रामाणिक जानकारी भी हमें मिलती है। लेकिन साहित्यिक दृष्टि से इन लेखों की अपेक्षा निबन्धों का महत्व अधिक है।

यद्यपि भारतेन्दु युग के अनेक लेखकों ने निबन्ध लिखे हैं, किन्तु निबन्धकार रूप में अपना वैशिष्ट्य स्थापित करने वाले चार ही लेखक हैं- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और बदरीनारायण चौधरी प्रमघन’ । भारतेन्दु ने निबन्ध कम लिखे हैं, लेख अधिक। उनके विभिन्न विषयों पर लिखे गये लेखों में उनकी भावनाओं और उनकी व्यंग्य-प्रवृत्ति ने अभिव्यक्ति अवश्य पायी है, किन्तु इतनी क्षीणता के साथ कि लेख, निबन्ध नहीं बन सके हैं। अगर भारतेन्दु को निबन्धकार के रूप में हम याद करते हैं तो अंग्रेजों से हिन्दुस्तानियों का जी क्यों नहीं मिलता’, ‘स्वर्ग में विचारसभा का अधिवेशन’, ‘स्त्री-सेवा-पद्धति’, ‘अथ मदिरास्तवराज’, ‘कंकर स्तोत्र’, ईश्वर बड़ा विलक्षण है’, ‘पाँचवें (चूसा) पैगम्बर’ जैसी रचनाओं के कारण।

इन रचनाओं में भारतेन्दु का स्वच्छन्द प्रगतिशील व्यक्तित्व, व्यंग्य-विनोद, विचारों के मुक्त प्रवाह, चमत्कारपूर्ण किन्तु अनौपचारिक अभिव्यक्ति-शैली के माध्यम से छलका पड़ता है। भारतेन्दु की अपेक्षा “बालकृष्ण भट्ट’ के निबन्ध संख्या में भी अधिक हैं और परिपक्वता भी उनमें कहीं अधिक है। वे विद्वान थे, अंग्रेजी साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे, गम्भीर विचारक थे और परिहासप्रिय भी थे। वे एक ओर शिक्षित समुदाय का ध्यान हिन्दी की ओर आकृष्ट करना चाहते थे और विदग्ध साहित्य’ को प्रोत्साहन देना देना चाहते थे, दूसरी ओर उनकी मान्यता थी कि “रसिक पढ़ने वाले हास्य पर अधिक टूटते हैं। सच पूछो, हास्य ही लेख का जीवन है। लेख पढ़ कुन्द की कली समान दाँत न खिल उठे तो लेख ही क्या।’

इसलिए उन्होंने चाहे राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, मनोवैज्ञानिक आदि गम्भीर विषयों पर लिखा हो अथवा चढ़ती उमर’, ‘मुग्ध माधुरी’, ‘पौगण्ड व कैशोर’, रोटी तो किसी भाँति कमा खाये मुछन्दर’, ‘बातचीत’, ‘आँख’, ‘खटका’, ‘जवान’, ‘नहीं’, ‘जी’, ‘द’, ‘नाक’, ‘ढोल के भीतर पोल’, ‘नये तरह के जनन’ आदि हल्के-फुल्के विषयों पर, उनके निबन्धों में विचार, भावना, परिहास और व्यंग्य सब एक साथ विद्यमान रहते हैं। न किसी निबन्ध में आद्यन्त गम्भीर विचारात्मकता मिलेगी, न भावुकता और न ही हास्य-व्यंग्य । उनके निबन्धों में विभिन्न भाषाओं की काव्य-पंक्तियों के उद्धरण भी विद्यमान हैं और उक्ति चमत्कार भी। वे हिन्दी के गिनेचुने श्रेष्ठ निबन्धकारों में से एक हैं।

प्रतापनारायण मिश्र भट्टजी के समकालीन थे, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनन्य भक्त थे, राजनीति में सक्रिय थे सामाजिक-धार्मिक बन्धनों की चिन्ता नहीं करते थे मस्तमौला जीत थे। उनकी जीवन कथा उपन्यास जैसी रोचक है। उनका यह जीवन उनके निबन्धों में खूब प्रतिबिम्बित हुआ है। एक ओर उन्होंने ऐसे निबन्ध लिखे हैं जिनमें उनकी वैचारिकता केन्द्र में है और दूसरी ओर उन्होंने ऐसे निबंध लिखे जिनमें उनका मस्तमौला व्यक्तित्व केन्द्र में है। पहले प्रकार के निबंधों में उन्होंने औपचारिकता का काफी हद तक निर्वाह किया है, दूसरे प्रकार के निबन्धों में पूर्णत: अनौपचारिक हैं। इन निबन्धों में वे अपने पाठकों से बड़े ही अनौचारिक और आत्मीय ढंग से बात करते हैं। वैसे, ‘बुढ़ापा’ ‘भौं’, ‘धोका’, ‘दांत’, ‘ट’, ‘द’, ‘खुशामद’, ‘आप’, ‘तिल’, ‘बात’, जैसे विषयों पर अनौपचारिक हुए बिना लिखा भी नहीं जा सकता। मिश्रजी के निबन्धों में आयासहीन प्रवाह सजीवता, आत्मीयता, बांकपन, उक्ति-चमत्कार, भावों और विचारों का चुलबुलापन, व्यंग्य-विनोद आदि ऐसे छलकते रहते हैं जैसे सेब में से लाली छलकती है। इनसे मिलती-जुलती विशेषताएँ बदरीनारायण चौधरी प्रमघन के लघ्वाकार निबन्धों में विद्यमान हैं, किन्तु कम मात्रा में। जिन्हें निबन्ध कहा जा सकता है, उनकी ऐसी रचनाएँ कम हैं, जैसे, ‘बनारस का बुढ़वा मंगल, ‘समय’, दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार’ ‘हमारी मसहरी’ इत्यादि।

प्रेमघन जी बाणभट्ट के गद्य को अपना आदर्श मानकर चले। इसलिए भारतेन्दु युग के गद्यकारों में इनकी शैली सबसे अलग है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनके संबंध में यह ठीक ही लिखा है कि “वे गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले-कलम की कारीगरी को समझने वाले- लेखक थे और कभी-कभी ऐसे पेचीले मज़मून बाँधते थे कि पाठक एक-एक डेढ़-डेढ़ कालम के लम्बे वाक्य में उलझा रह जाता था। अनुप्रास और पदविन्यास की ओर भी उनका ध्यान रहता था।

किसी बात को साधारण ढंग से कह जाने को ही वे लिखना नहीं कहते थे।’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 430) इन चार निबन्धकारों के अतिरिक्त इस काल के अन्य लेखकों ने भी अनेक अच्छे निबन्धों की रचना की है। पाठक और लेखक के बीच जैसा अनौपचारिक और आत्मीय संबंध भारतेन्दु युग में स्थापित हुआ वैसा अन्य किसी युग में नहीं। शायद इसीलिए इस युग में निबन्ध-साहित्य सम्पन्न हुआ।

उपन्यास साहित्य

उपन्यास अन्य गद्य विधाओं की तुलना में सबसे अधिक लोकप्रिय विधा है। हिन्दी साहित्य में इस विधा का आरंभ इस दृष्टि से और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि हिन्दी न जानने वालों ने भी उपन्यास पढ़ने की ललक से हिन्दी सीखी। भारतेन्दु युग में आधुनिक हिन्दी उपन्यास जन्मा भी और विकसित भी हुआ। उसे प्रेरणा मिली बंगला उपन्यासों से। 1864 ई. में बंकिमचन्द्र के उपन्यास ‘दुर्गेशनन्दिनी’ का हिन्दी में अनुवाद हुआ। उसके बाद न केवल बंकिमचन्द्र के अपितु रमेशचन्द्र दत्त, हाराणाचन्द्र रक्षित, चण्डीचरण सेन, चारुचन्द्र आदि के उपन्यासों के भी अनुवाद प्रकाशित हुए। इन्हीं से तथा अंग्रेजी उपन्यासों से प्रेरित होकर हिन्दी में उपन्यास लिखे जाने लगे।

हिन्दी के पहले उपन्यास के रूप में जिन चार रचनाओं का नाम लिया जाता है वे हैं – गौरीदत्त-कृत ‘देवरानी-जिठानी’ (1870 ई.) मुंशी ईश्वरीप्रसाद मुदर्रिस ‘रियाजी’ और मुंशी कल्याण राव मुर्रस अव्वल उर्दू-कृत ‘वामा-शिक्षक अर्थात् दो भाई और चार बहनों की कहानी’ (1872 ई.), श्रद्धाराम फिल्लौरी – कृत ‘भाग्यवती’ (1877 ई.) और लाला श्रीनिवासदास – कृत परीक्षा-गुरू’ (1882 ई.)। इनमें से पहली तीन रचनाओं को कोरी उपदेशात्मकता और यथार्थ जीवन का आभास न देने वाली कथाएँ होने के कारण उपन्यास नहीं माना गया। अब प्राय: सभी परीक्षा-गुरू’ को हिन्दी का पहला उपन्यास स्वीकार करते हैं। क्योंकि उपदेशात्मक होने पर भी इसकी कथा यथार्थाभासी है और इसमें नये ढंग से चरित्रचित्रण का प्रयास भी किया गया है। लालाजी सचेत भाव से उपन्यास लिख रहे थे, यह बात इस पुस्तक के समर्पण के इस वाक्य से स्पष्ट है – Dedicate this book, my humble attempt at noval writing to you.

इस पहले उपन्यास के बाद भारतेन्दु युग में बहुत बड़ी संख्या में उपन्यास लिखे गये। इन उपन्यासों को लक्ष्य की दृष्टि से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग उन उपन्यासों का है, जो अपना विषय चाहे समाज से लें, चाहे इतिहास-पुराण से अथवा शुद्ध काल्पनिक कथा गढ़ें, लेकिन मनुष्य जीवन की विभिन्न समस्याओं और भावनाओं को उपस्थित करने के साथ-साथ शिक्षा भी देते हैं। ऐसे उपन्यास किशोरी लाल गोस्वामी, राधाकृष्णदास, राधाचरण गोस्वामी, ठा. जगमोहन सिंह, हरिऔध, गोकुलनाथ शर्मा, बालकृष्ण भट्ट, मेहता लज्जा राम शर्मा आदि ने लिखे। इनमें से किशोरी लाल गोस्वामी का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उन्होंने संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक उपन्यास लिखे हैं और सभी तरह के उपन्यास लिखे हैं। सभी में श्रृंगार का रीतिकालीन पद्धति से खुला चित्रण किया है और स्वाभाविकता एवं प्रामाणिकता की बिल्कुल चिंता नहीं की है। राधाचरण गोस्वामी के उपन्यासों का वैशिष्ट्य हिन्दू समाज की विसंगतियों को प्रस्तुत करने में है। उनके तथा राधाकृष्णदास एवं मेहता लज्जा राम शर्मा के उपन्यास हिन्दू गौरव की भावना से ओतप्रोत हैं।

दूसरा वर्ग उन उपन्यासों का है जिनका लक्ष्य शुद्ध मनोरंजन है। मनोरंजक उपन्यासों में एक श्रेणी तिलिस्मी-अय्यारी उपन्यासों की है। इस श्रेणी के उपन्यासों में सर्वोत्तम उपन्यास देवकीनन्दन खत्री ने लिखे। उनके ‘चन्द्रकान्ता’ (1891 ई.) और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ (1894-1909 ई.) को पढ़ने के लिए उस समय न जाने कितने लोगों ने हिन्दी सीखी। उनके ये उपन्यास आज भी रुचिपूर्वक पढ़े जाते हैं। उनके ‘कुसुम कुमारी’, ‘नरेन्द्र मोहिनी’, ‘वीरेन्द्र वीर’, ‘अनूठी बेगम’, ‘गुप्त गोदना’ और ‘भूतनाथ’ ने भी कम लोकप्रियता प्राप्त नहीं की। इस प्रकार के उपन्यास भारतेन्दु युग के अन्य कई उपन्यासकारों ने भी लिखे, लेकिन उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली मनोरंजक उपन्यासों में दूसरी श्रेणी जासूसी उपन्यासों की है।

जासूसी उपन्यास लिखने वालों में सबसे पहला नाम गोपालराम गहमरी का है। उनके द्वारा प्रकाशित ‘जासूस’ और ‘गुप्त कथा’ पत्रों में उनके जासूसी-साहसिक उपन्यास प्रकाशित हुए। 1896 ई. और 1946 ई. के बीच उनके लगभग 200 उपन्यास प्रकाशित हुए। इनमें से कितने मौलिक हैं और कितने अंग्रेजी एवं बंगला उपन्यासों की छाया, कहना मुश्किल है। उनके जैसे श्रेष्ठ जासूसी उपन्यास लिखने वाला हिन्दी में कोई दूसरा उपन्यासकार नहीं है। यों, भारतेन्दु युग के अन्य अनेक लेखकों ने भी जासूसी उपन्यास लिखे हैं।

भारतेन्दु युग में प्रचुर संख्या में उपन्यासों की रचना एक ओर उसकी लोकप्रियता की द्योतक है तो दूसरी ओर मध्यवर्ग के उभार की भी द्योतक है। उपन्यास हर दृष्टि से मध्यवर्ग-सम्बद्ध गद्य विधा है।

अन्य गद्य विधाएँ

उपर्युक्त तीन गद्य-विधाओं के अतिरिक्त अन्य गद्य-विधाओं की दृष्टि से भारतेन्दु युग की कोई विशेष देन नहीं है। कहानी का जन्म इस युग में न होकर द्विवेदी युग में हुआ। पत्रिकाओं में पुस्तकों की परिचयात्मक सूचना को पुस्तक-समीक्षा का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। भारतेन्दु के निबन्ध ‘नाटक’ (1883 ई.) से सैद्धान्तिक और लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की बालकृष्ण भट्ट और प्रमघन’ द्वारा लिखित विस्तृत और तीक्ष्ण आलोचना से व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात अवश्य हो गया, किन्तु उसका विकास आगे चलकर ही हुआ।

भारतेन्दु युगीन कविता

भारतेन्दु युग में गद्य को लेकर कोई दुविधा नहीं है न कथ्य को लेकर न माध्यम भाषा को लेकर, क्योंकि भारतेन्दु युग से पूर्व हिन्दी में गद्य की कोई पुष्ट परम्परा नहीं थी। लेकिन कविता को लेकर दुविधा ही दुविधा है। भक्तिकाल और रीतिकाल की सम्पन्न काव्य-परम्परा को छोड़कर एकदम नये कविता मार्ग पर चल पड़ना भारतेन्दु युग के कवियों के लिए सम्भव नहीं था।

इसलिए भारतेन्दु युग में भक्ति, शृंगार और नीति की प्रचुर कविता का लेखन हुआ तथा इसकी भाषा ब्रजभाषा ही रही। इस युग के अनेक कवि परंपरा का कोरा अनुकरण कर रहे थे और कविता के नाम पर केवल चमत्कार-सृष्टि कर रहे थे, जैसे महाराज कुमार बाबू नर्मदेश्वर प्रसाद सिंह का ‘शिवाशिव शतक’, किन्तु स्वयं भारतेन्दु, द्विजदेव, सरदार कवि, लाल कवि, शाह कुन्दनलाल ललितकिशोरी’, लछिराम, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आदि ऐसी परम्परागत कविता लिख रहे थे, जिसमें अनुभव की सजीवता भी थी और चमत्कार भी। भारतेन्दु का निम्नांकित सवैया भावों की मधुरता और ब्रजभाषा की स्वाभाविकता के कारण परम्परागत होते हुए भी श्रेष्ठ काव्य कहा जायेगा :

एक ही गाँव में बास सदा, घर पास रहौ नहिं जानती हैं।

पुनि पाचएँ-सातएँ आवत-जात, की आस न चित्त में आनती हैं।

हम कौन उपाय करें इनको, हरिचंद’ महा हठ ठानती हैं।

पिय प्यारे तिहारे निहोरे बिना, आँखियाँ दुखिया नहिं मानती हैं।।

(भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ 44)

यदि भारतेन्दु युग के कवियों ने ऐसी ही परम्परागत कविता लिखी होती तो आधुनिक हिन्दी कविता में उनका योगदान नगण्य माना जाता। लेकिन ऐसा है नहीं। इस युग के कवियों ने परम्परा से हटकर नये विषयों को लेकर नयी भाववस्तु वाली कविताएँ प्रभूत मात्रा में लिखी हैं। उन्होंने ऐसे विषयों पर कविताएँ लिखी हैं जिन पर उनके पूर्ववर्ती कवि कविता लिखने की बात सोच भी नहीं सकते थे- जैसे, निर्धनता, भूख. अकाल, महँगाई, रोग, बैर, कलह, आलस्य, सन्तोष, खुशामद, कायरता, टैक्स, अनैक्य, देश की दुर्दशा, धार्मिक मतमतान्तर, छुआछूत, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, व्यभिचार, अशिक्षा, अंग्रेजी भाषा एवं शिक्षा, अज्ञान, रुढ़िप्रियता, समुद्रयात्रा, कूपमण्डूकता, ईश्वर, देवी-देवता, भूत-प्रेत, अपव्यय, न्यायव्यवस्था, पुलिस, प्रशासन, फैशन, सिफारिश, रिश्वतखोरी, बेकारी, सुरा-सेवन इत्यादि ।

समकालीन जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिस पर भारतेन्दु युग के कवियों ने कविता न लिखी हो। कविता लेखन के इतने विविध विषय । होना, कविता का, यथार्थ और दैनन्दिन जीवन से जुड़ना है। यह एक तरह से पारलौकिक जीवनदृष्टि को अपदस्थ करके लौकिक जीवन दृष्टि का स्थापित होना है।

भारतेन्दु युग का नया कवि जब अपने वर्तमान पर दृष्टि डालता है तो एक ओर तो उसे अपना अतीत गौरव याद आता है और दूसरी ओर अपनी वर्तमान अधोगति पर क्षोभ होता है। वह वर्तमान की अधोगति पर विचार करता है और उसके लिए उत्तरदायी अनेक कारण उसके सामने आते हैं। इनमें से एक कारण भारतीय समाज की जड़ता, रुढिप्रियता और तमाम कुरीतियाँ हैं। इसलिए वह समाज को सुधारना चाहता है। लेकिन यहाँ भी द्वन्द्व और दुविधा है। उस समय समाज-सुधार के ऐसे अनेक प्रश्न थे, जिन पर इस युग के नये कवि भी एक मत नहीं थे- जैसे, बाल-विवाह या विधवा-विवाह। इन विषयों को लेकर समाज-सुधार की पक्षधरता के कारण ही भारतेन्दु को ‘क्रिस्तान’ कहा गया था। इस युग के नये कवि धर्म का वही रूप स्वीकार करने के लिए तैयार थे, जो स्वस्थ हो। वे कर्मकाण्ड के विरोधी थे।

दूसरा कारण था अंग्रेजों द्वारा भारत का आर्थिक शोषण। सन् 1857 ई. के विद्रोह के दमन की क्रूरता से उत्पन्न आतंक तथा परवर्ती मध्यकालीन अराजकता आदि से मुक्ति दिलाने के कारण ये कवि अंग्रेज-राज की प्रशंसा भी करते थे, लेकिन अनुभव करते थे कि अंग्रेज-राज के सारे सुख-साज के बावजूद भारत का धन विदेश चले जाना अत्यधिक बरबादी का कारण है। इससे मुक्ति के लिए भारतेन्दु ने सन् 1874 ई. में ‘स्वदेशी’ का आन्दोलन चलाया था। वे अंग्रेज-प्रशासन को भारत की तत्कालीन दुर्दशा के लिए कम उत्तरदायी नहीं मानते थे। इसलिए इस युग के नये कवियों ने अफसरों, पुलिस, शिक्षा, तरह-तरह के कर इत्यादि की कटु आलोचना की है। ‘अंधेर नगरी’ में चूरन बेचने वाले के इन कथनों में इसी आलोचना का एक रूप है :

चूरन अमले सब जो खावें । दूनी रुशवत तुरत पचावै ।।

चूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता।।

चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते ।।

(भारतेन्दु समग्र; पृष्ठ 531)

इसी प्रकार के अनेक कारण और भी हैं जिनसे भारतेन्दुयुगीन भारत की दुर्दशा हुई थी। इस दुर्दशा के प्रसंग में भारतेन्दु युग की कविता का बहुत बड़ा अंश आज भी प्रासंगिक है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त, श्रीधर पाठक, चौधरी बदरीनारायण प्रमघन’ राधाचरण गोस्वामी, इत्यादि इस युग के नये प्रगतिशील कवि राष्ट्रीयता की भावना से भरे हए थे। इस भावना से प्रेरित होकर इन कवियों ने अतीत-गौरव और भारत की प्राकृतिक सुषमा का चित्रण करने के साथ-साथ उन उपायों का भी निर्देश किया, जिनसे भारत अपनी दुर्दशा से मुक्त हो सकता था। इनमें से एक उपाय था अंग्रेजों के विरुद्ध सारे भारतीयों की एकता। ‘प्रमघन’ ने लिखा था :

हिन्दु मुस्लिम जैन पारसी ईसाई सब जात।

सुखी होंय हिय भरे प्रमघन’ सकल भारती भ्रात।।

लेकिन सबसे बड़ा उपाय था पराधीनता से मुक्ति और स्वतन्त्रता की प्राप्ति। प्रतापनारायण मिश्र ने स्वतन्त्रता के संबंध में लिखा था :

सब तजि गहौ स्वतन्त्रता नहिं चुप लातें खाव।

राजा करै सो न्याव है, पाँसा करै सो दाव।।

भारतेन्दु युगीन कवियों में एक दुविधा कविता की माध्यम भाषा को लेकर भी थी। गद्य में खड़ी बोली बिना किसी दुविधा के अपना ली गयी, लेकिन कविता में ब्रजभाषा ही चलती रही। इस युग के कवि अनुभव करते थे कि “ब्रजभाषा में ही कविता करना उत्तम है और इसी से सब कविता ब्रजभाषा में ही उत्तम होती है।” (भारतेन्दु : हिन्दी भाषा’ भारतेन्दु समग्र; पृष्ठ 1049) बालकृष्ण भट्ट तो सन् 1911 ई. में भी यह मानते थे कि “मेरे विचार में खड़ी बोली में एक प्रकार का कर्कशपन है कि कविता के काम में ला उसमें सरसता सम्पादन करना प्रतिभावान के लिए भी कठिन है तब तुकबन्दी करने वालों की कौन कहे।” (स्वागत-भाषण, द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग) लेकिन अनजाने ही भारतेन्दु युग के कवि लावनियों, नाटकों में प्रयुक्त कविताओं में खड़ी बोली का उपयोग कर रहे थे।

उधर मुजफ्फरपुर (बिहार) के अयोध या प्रसाद खत्री तन-मन-धन से खड़ी बोली पद्य का आन्दोलन चला रहे थे। 1887 ई. में उन्होंने ‘खडी बोली का पद्य पहला भाग’ प्रकाशित किया। आधुनिक हिन्दी कविता की भाषा के रूप में खड़ी बोली को आगे चलकर जो स्वीकृति मिली, उससे स्पष्ट है कि खड़ी बोली के पक्षधर उसके विरोधियों की तुलना में अधिक भविष्यद्रष्टा थे।

सारांश

स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग संक्रमण का काल है। उसमें नये और पुराने का द्वन्द्व कदम-कदम पर विद्यमान है। यह भी स्पष्ट है कि पुराना पिछड़ रहा है, नया आगे बढ़ रहा है। इस पुराने और नये के द्वन्द्व के कारण ही भारतेन्दु युगीन हिन्दी साहित्य अनेक अन्तर्विरोधों से ग्रस्त है। लेकिन उसकी सबसे बड़ी देन यह है कि उसने हिन्दी साहित्य को नवयुग में लाकर खड़ा कर दिया। उसने खड़ी बोली गद्य को और उसके विविध साहित्यरूपों को विकसित और प्रतिष्ठित किया। उसने कविता, को दैनन्दिन यथार्थ जीवन की समस्याओं के साथ जोड़ा। इस युग के साहित्यकार स्वयं जागे और दूसरों को जगाया ! मध्यकालीन बोध को त्यागकर उन्होंने आधुनिक बोध को अपनाया और उसे अपनाने के लिए अपने पाठकों को प्रेरित किया। सामान्यत: इस युग के साहित्यकार की दृष्टि आधुनिक और प्रगतिशील थी। भारतेन्दु युगीन हिन्दी साहित्य एक नवजागृत जाति का साहित्य है।

प्रश्न/अभ्यास

  1. नवजागरण और आधुनिक बोध से आप क्या समझते हैं? विस्तार से चर्चा कीजिए।
  2. खड़ी बोली गद्य के विकास पर एक निबंध लिखिए।
  3. भारतेन्दु युगीन साहित्य के विकास में उसकी पत्र-पत्रिकाओं का क्या योगदान रहा है? स्पष्ट कीजिए।
  4. भारतेन्दु युग के कुछ प्रमुख निबंधकारों एवं उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालिए।
  5. भारतेन्दु युगीन कविता में परंपरा और आधुनिकता के संगम पर लेख लिखिए।

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