स्वतंत्रता के पश्चात भारत में किए गए भूमि सुधार

प्रश्न: भूमि का न्यायसंगत वितरण सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस संबंध में, स्वतंत्रता के पश्चात भारत में किए गए भूमि सुधार उपायों की प्रगति का विश्लेषण कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भूमि सुधारों की अवधारणा को रेखांकित करते हुए, उल्लेख कीजिए कि किस प्रकार भूमि का न्यायसंगत वितरण
  • सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • उपलब्धियों के साथ-साथ असफलताओं का वर्णन कीजिए।
  • धीमी प्रगति हेतु उत्तरदायी कारकों का उल्लेख कीजिए और सफल कार्यान्वयन हेतु समाधानों का सुझाव दीजिए।

उत्तर

भूमि सुधार से आशय स्वामित्व, काश्तकारी और भूमि प्रबंधन के विद्यमान प्रतिरूप को परिवर्तित करने हेतु निर्देशित संस्थागत उपायों से है। भूमि का न्यायसंगत वितरण, निम्नलिखित के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है:

  • समतावादी स्थिति को प्राप्त करने के लिए कृषि संबंधों का पुनर्गठन करना।
  • भूमि संबंधों में शोषण का उन्मूलन और “काश्तकारों को भूमि प्रदान करने” के लक्ष्य को मूर्त रूप प्रदान करना।
  • ग्रामीण निर्धनों के भूमि स्वामित्व को विस्तृत करके उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार करना।
  • कृषि उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाना।
  • ग्रामीण निर्धनों के भूमि आधारित विकास को सुविधाजनक बनाना।
  • स्थानीय संस्थानों में समानता के एक प्रमुख उपाय को अपनाना।

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में भूमि सुधार हेतु उठाए गए कदमों की प्रगति

  • स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार भूमि सुधारों के प्रति प्रतिबद्ध थी। इसके परिणामस्वरूप जमींदारी प्रथा को समाप्त करने, हदबंदी को लागू करके भूमि का पुनर्वितरण, काश्तकारों का संरक्षण और भू-जोतों की चकबंदी के उद्देश्य से कानून पारित किए गए।
  • भूमि सुधारों ने क्रमिक रूप में औपनिवेशिक कृषि संरचना को बिना किसी बड़े हिंसक विरोध का सामना किए रूपांतरण करना आरंभ कर दिया। इन कृत्यों की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक भारत के विभिन्न भागों में दूरस्थ जमींदारों का उन्मूलन था। इसने प्रभावी रूप से जमींदारों द्वारा काश्तकारों से लगान वसूलने की व्यवस्था को समाप्त किया और साथ ही अवैध उपकर अथवा श्रम (बेगार) को समाप्त किया। साहूकारों का काश्तकारों पर नियंत्रण भी काफी कमजोर हो गया।
  • हालाँकि, भूमिहीनों अथवा लगभग भूमिहीनों (जिनमें आधी कृषक आबादी सम्मिलित है) की समस्या निरंतर बनी हुई है। हदबंदी के लागू होने और स्वामित्व की निश्चित अवधि की सुरक्षा के संबंध में भूमि सुधार पूर्ण मनोयोग से नहीं किये गये हैं। भूमि का संकेन्द्रण निरंतर ग्रामीण समाज के ऊपरी तबके के पास बना हुआ है। इसके अतिरिक्त, अत्यधिक संख्या में काश्तकारों को वास्तव में स्व-कृषि के नाम पर बेदखल किया गया।
  • धीमी प्रगति के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारक राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, निचले स्तर से दबाव की अनुपस्थिति, अपर्याप्त नीतिगत उपकरण, कानूनी बाधाएं, उचित-अद्यतन भूमि रिकॉर्ड की अनुपस्थिति और वित्तीय सहायता का अभाव हैं। शीर्ष स्तर पर राजनीतिक प्रतिबद्धता, प्रशासनिक तत्परता, वित्तीय संसाधनों का प्रावधान भूस्वामी-काश्तकार सांठगांठ को तोड़ने, हदबंदी कानून का प्रभावी कार्यान्वयन और अधिशेष भूमि के वितरण और कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाने तथा संभावित लाभार्थियों के मध्य जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है। भारत के अधिकांश भूस्वामियों के सीमांत और लघु कृषक होने के आलोक में, अनुबंध कृषि की अवधारणा के संबंध में विचार किया जा सकता है।

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