बंगाल में अंग्रेजों द्वारा स्थायी बंदोबस्त
प्रश्न: बंगाल में अंग्रेजों द्वारा स्थायी बंदोबस्त की शुरुआत करने के पीछे निहित अपेक्षाएं क्या थीं? आरंभ में इस प्रणाली के अंतर्गत ज़मींदार भुगतान करने में विफल क्यों रहे? साथ ही, इस प्रणाली को बंगाल से बहुत दूर विस्तारित नहीं करने के कारणों को भी बताइए।
दृष्टिकोण
- स्थायी बंदोबस्त का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- स्थायी बंदोबस्त के आरम्भ के पीछे निहित अपेक्षाओं की चर्चा कीजिए।
- ज़मींदारों द्वारा भुगतान करने में विफलता के पीछे उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिए।
- इस प्रणाली को बंगाल से बहुत दूर विस्तारित नहीं करने के लिए उत्तरदायी कारणों की चर्चा कीजिए।
उत्तर
स्थायी बंदोबस्त एक भू-राजस्व प्रणाली थी जिसे वर्ष 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस ने सर जॉन शोर की अध्यक्षता वाली समिति की अनुशंसाओं के आधार पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू किया था। इस प्रणाली के अंतर्गत जमींदारों द्वारा प्राप्त राजस्व में कंपनी की हिस्सेदारी को स्थायी रूप से निश्चित कर दिया गया था। इसके अंतर्गत जमींदारों को उनके अधीन भूमि का वंशानुगत स्वामी बनाया गया।
प्रणाली के आरंभ के पीछे निहित अपेक्षाएं निम्नलिखित थीं:
- भू-स्वामियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना जो ब्रिटिश हितों के प्रति निष्ठावान हो: लॉर्ड विलियम बेंटिक ने यह टिप्पणी की थी कि स्थायी बंदोबस्त का उद्देश्य ज़मींदारों को किसी भी प्रकार की सामाजिक क्रांति के विरुद्ध बचाव के साधन के रूप में प्रयुक्त करना था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी हेतु राजस्व सुरक्षा सुनिश्चित करना: यह आशा की गयी थी कि एक गारंटीकृत आय सुनिश्चित होने से सरकार राजस्व संग्रहण के बजाय प्रशासन पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने में सक्षम हो जाएगी।
- यह भी आशा की गई थी कि सम्पत्ति का स्वामित्व प्राप्त होने से ज़मींदार कृषि में व्यापक पूँजी निवेश करने हेतु प्रेरित होंगे। भारत की कृषि क्रांति, इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति में सहायता प्रदान करेगी। इसके अतिरिक्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी सुधार होगा।
हालांकि, आरंभिक दशकों के दौरान जमींदार भुगतान करने में विफल ही रहे, क्योंकि:
- आरंभ में राजस्व दरों को अत्यधिक उच्च रखा गया था क्योंकि कंपनी द्वारा यह पूर्वानुमान लगाया गया था कि कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी और मूल्यों में भी वृद्धि होगी तथा सरकार इसका लाभ उठाने में सक्षम नहीं होगी।
- 1790 के दशक में कृषि उत्पादों के मूल्यों में गिरावट आ गई थी जिसके परिणामस्वरूप रैयत अपने लगान का भुगतान करने में असमर्थ रहे।
- निम्न उत्पादन की स्थिति में भी राजस्व की दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया जाता था तथा एक निर्धारित तिथि पर भुगतान करना अनिवार्य होता था।
- ज़मींदारों की सेनाओं को भंग कर दिया गया था, सीमा शुल्कों को समाप्त कर दिया गया था तथा उनकी “कचहरियों” (अदालत) को कलेक्टर के निरीक्षण के अधीन कर दिया गया था। इस प्रकार इसने राजस्व संग्रहण और ज़मींदारी के प्रबंधन में ज़मींदारों के समक्ष एक अवरोध उत्पन्न किया।
- कभी-कभी जोतदारों (मध्यस्थों) के साथ-साथ रैयत भी जानबूझकर लगान का भुगतान करने में विलंब करते थे ताकि ज़मींदारों को सूर्यास्त कानून (sun-set law) अथवा राजस्व-बिक्री प्रणाली के नकारात्मक परिणामों का सामना करना पड़े।
प्रशासनिक सुविधाओं के बावजूद, स्थायी बन्दोबस्त बंगाल से बहुत दूर विस्तारित नहीं किया गया, क्योंकि:
- कंपनी का राजस्व 1793 के स्तर पर निर्धारित था और इसमें अधिक विस्तार करने की कोई सम्भावना नहीं थी।
- ज़मींदारों ने जानबूझकर भुगतानों में विलंब के परिणामस्वरूप चालाकीपूर्ण नीलामियों के माध्यम से तथा अपनी भूमि की काल्पनिक बिक्री के माध्यम से पूर्ण राजस्व मांगों के भुगतान से बचने हेतु रणनीतियां विकसित कर ली थी।
- सरकारी राजस्व के व्यय पर मध्यस्थों (जोतदार/बर्गादार) की संख्या में वृद्धि हुई।
- अनुपस्थित जमींदारी की प्रणाली ने ग्रामीण क्षेत्रों में सृजित होने वाले धन का नगरीय केन्द्रों की ओर निर्गमन आरम्भ किया तथा इसने किसानों की स्थिति को दयनीय बना दिया।
इसके अतिरिक्त, 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विचारधारात्मक विकास जैसे रिकार्डो का लगान सिद्धांत (1809) और बेन्थम का उपयोगितावाद का सिद्धांत ज़मींदार विरोधी थे। इन सिद्धांतों ने ज़मींदारों से संपर्क स्थापित करने की बजाय किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करने पर बल दिया। इसके परिणामस्वरूप रैयतवाड़ी और महालवाड़ी जैसी वैकल्पिक प्रणालियों की शुरुआत हुई।
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