अशोक की धम्म नीति

इस इकाई में आप सम्राट अशोक द्वारा प्रतिपादित धम्म की नीति के विषय में अध्ययन करेंगे।

इस इकाई को पढ़कर आपः

  • यह समझ सकेंगे कि धम्म नीति के प्रतिपादन की ऐसिहासिक पृष्ठिभूमि क्या थी।
  • यह जान सकेंगे कि अशोक के अभिलेख में धम्म किस तरह से मुख्य रूप में सामने आता है।
  • अशोक की धम्म नीति का सार क्या था जो उसके कल्याण कार्यों तथा पैतृक व्यवहार में दिखाई देता है और उसके स्वयं के वर्णन से परिलक्षित होता है।
  • एक बौद्ध मत के अनुयायी के रूप में तथा राज्यगत् नीति का प्रतिपादन करने वाले अशोक के अनेक रूपों में अंतर कर सकेंगे।
  • अपनी धम्म नीति के प्रतिपादन के लिए अशोक द्वारा अपनाए गए विभिन्न साधनों जैसे धम्म महामात्रों की भूमिका की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

अशोक मौर्य 269 ईसा पूर्व के लगभग मौर्य सिंहासन पर आसीन हुआ। अनेक इतिहासकार उसे प्राचीन विश्व का महानतम् सम्राट मानते हैं। उसकी धम्म नीति विद्वानों के बीच निरंतर चर्चा का विषय रही है। धम्म शब्द संस्कृत के शब्द धर्म का प्राकृत रूप है। धम्म को विभिन्न अर्थों जैसे धर्मपरायणता, नैतिक जीवन, सदाचार आदि के रूप में व्याख्यायित किया गया है।

किन्तु अशोक द्वारा प्रयुक्त धम्म को समझने को लिये सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसके अभिलेखों को पढा जाए। यह अभिलेख मुख्य रूप से इसलिये लिखे गये थे कि सारे साम्राज्य में लोगों को धम्म के सिद्धांतों के बारे में समझाया जाये। इसीलिये अधिकांश अभिलेखों में धम्म के विषय में कुछ-कुछ अवश्य कहा गया है। उनमें यह भी कहा गया है कि अशोक यह चाहता था कि उसकी प्रजा धम्म का पालन अवश्य करे और यह भी कि राज्य के कार्यकलाप धम्म के सिद्धांतों के अनुरूप चले। धम्म के सिद्धांतों को सबके लिये सुलभ और बोधगम्य बनाने के लिये उसने अभिलेखों और शिला-लेखों को सारे राज्य में महत्वपूर्ण स्थानों पर लगवाया। धम्म के संदेशवाहकों को साम्राज्य के बाहर भी भेजा। यह स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि धम्म से किसी विशेष धार्मिक विश्वास या व्यवहार का तात्पर्य नहीं है, अतः धम्म (या इसके संस्कृत पर्याय धर्म) का अनुवाद धर्म नहीं मानना चाहिये। साथ ही धम्म मनमाने तौर पर बनाया हुआ शाही सिद्धांत भी नहीं था।

धम्म का संबंध मोटे रूप से सामाजिक व्यवहार और क्रियाओं से था। अशोक के धम्म में उस समय के भी प्रचलित विविध सामाजिक नियमों का मिश्रण किया गया था। अशोक ने धम्म का क्यों और कैसे प्रवर्तन किया और इससे उसका क्या तात्पर्य था, यह जानने के लिए उस समय की विशेषताओं को समझना होगा और बौद्ध, ब्राह्मण और अन्य ग्रन्थों को समझना होगा जिनमें सामाजिक व्यवहार के नियमों का वर्णन है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

धम्म नीति के विभिन्न पक्षों तथा इसके प्रतिपादन के कारणों को समझने के लिए हमें आवश्यक रूप से उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करना होगा जिसके कारण अशोक को यह नीति अस्तित्व में लानी पड़ी। अगले तीन भागों में हम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करेंगे।

सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि

जैसा कि कहा जा चुका है कि मौर्य काल में समाज के आर्थिक ढांचे में काफी परिवर्तन आए। लोहे के प्रयोग से अतिरिक्त उत्पादन की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस प्रकार सरल ग्रामीण अर्थव्यवस्था से एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें शहरों तथा नगरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी की ओर संक्रमण हुआ। यह सामान्य रूप से कहा जाता है कि उत्तरी काली पॉलिश किए मृद्भांड इस युग की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक है। पंच मार्कड चांदी के सिक्के, तथा अन्य प्रकार के सिक्कों का प्रयोग, व्यापार मार्गों को राज्य द्वारा सुरक्षा प्रदान किया जाना तथा शहरी केन्द्रों का उदय अर्थव्यवस्था में ऐसे संरचनात्मक परिवर्तन की ओर संकेत करते हैं जिनके लिए समाज में सामंजस्य की आवश्यकता थी। व्यापारी वर्ग इस समय तक समाज में अपना स्थान बना चुका था। शहरी संस्कृति के उदय के साथ ही समाज के संगठन में लचीलापन अनिवार्य बन गया। कृषि उपयोग में लाए जाने वाले बहिवर्ती क्षेत्रों की जन जातियों एवं अन्य लोगों के समाज की मुख्य धारा में विलय से भी समस्याएं खड़ी हुई।

चार वर्गों पर आधारित ब्राह्मणीय सामाजिक व्यवस्था को और अधिक कठोर बनाकर व्यापारी वर्ग को वर्णव्यवस्था में उच्च स्तर देना नहीं चाहता था। ब्राह्मण वर्ग की इस कठोरता से सामाजिक विभाजन का संकट और गहरा हो गया। निम्न वर्ग विभिन्न असनातनी सम्प्रदायों की ओर आकृष्ट होने लगे जिसके कारण सामाजिक तनाव उत्पन्न होने लगा। ऐसी ही विषम परिस्थिति में सम्राट अशोक ने 269 ईसा पूर्व में राज्य का दायित्व ग्रहण किया।

धार्मिक परिस्थितियां

उत्तर वैदिक काल के दौरान समाज पर ब्राह्मणों की जो पकड़ मजबूत हुई थी, उसे अब निरंतर आघात पहुंच रहा था। पुजारियों की सुविधाओं, वर्णव्यवस्था की कठोरता तथा व्यापक कर्मकांडों के प्रचलन पर अब प्रश्न उठने लगे थे। चार वर्णों का सबसे निम्न वर्ण नए सम्प्रदाय की ओर आकृष्ट होने लगा। वैश्य जो कि किसी तरह उच्च श्रेणी में सम्मिलित कर लिए गए थे, ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की तुलना में तुच्छ समझे जाते थे। व्यापारी वर्ग द्वारा ब्राह्मणवाद का विरोध समाज के अन्य संप्रदायों के लिए प्रेरणास्रोत बन रहा था।

बौद्ध मत ब्राह्मणवाद के सनातनी दृष्टिकोण के विरुद्ध विच्छेदकारी संप्रदाय के रूप में आरंभ हुआ। इसके आधारभूत सिद्धांत का बल कष्टों पर था तथा इसने मध्य मार्ग अपनाने पर बल दिया। यह मत नैतिक सिद्धांतों पर आधारित था। बौद्ध मत ने ब्राह्मणों के प्रभुत्व को नकारा और बलि तथा कर्मकाण्डों का विरोध किया। इस प्रकार इस मत ने निम्न वर्गों तथा उदीयमान सामाजिक वर्गों को अपनी ओर आकृष्ट किया। बौद्ध मत द्वारा सामाजिक संबंधों में मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार निर्धन वर्गों को अपनी ओर और भी आकृष्ट करने लगा।

राज्य व्यवस्था

आप पढ़ चुके हैं कि छठी शताब्दी ई.पू. में महाजनपदों के उद्भव के साथ भारत के अनेक भागों में राज्य व्यवस्था की शुरुआत हुई। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज के एक छोटे से तबके के पास शक्ति का । संकेन्द्रण हुआ। इस शक्ति का वे समाज के अन्य तबकों पर अनेक तरीकों तथा कारणों से प्रयोग करते थे। कुछ ऐसे राजतंत्र थे जिनमें राजा सर्वशक्तिमान था तथा ऐसे गणसंघ थे जिनमें शासन का नियंत्रण वंशानुगत क्षत्रियों या कुछ समुदायों के पास था। जिस समय अशोक सिंहासन पर बैठा, दो सौ साल पुरानी राज्य व्यवस्था काफी विस्तृत और जटिल हो चुकी थी। इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषतायें निम्न थीं:

  • एक क्षेत्र विशेष (मगध) का राजनैतिक प्रभुत्व उस विशाल क्षेत्र पर स्थापित हो चुका था जिसमें पहले कई राज्य, गणसंघ तथा ऐसे भाग थे जहां किसी प्रकार की संगठित राज्य व्यवस्था नहीं थी।
  • इस विशाल क्षेत्र में कई प्रकार के भौगोलिक क्षेत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र तथा विभिन्न प्रकार के धर्म, विचार और परम्परायें थीं।

राज्य व्यवस्था की जटिलता के कारण सम्राट को ऐसी सृजनात्मक नीति का निर्माण करना जरूरी था जिसके अंतर्गत एक बड़े साम्राज्य, जिसमें अर्थव्यवस्था तथा धर्मों की अनेकरूपता थी, में सैन्य शक्ति के कम से कम प्रयोग की आवश्यकता थी। इस पर नियंत्रण केवल सेना के बल पर नहीं हो सकता था। इसका अत्यंत उपयुक्त विकल्प एक ऐसी नीति का प्रचार एवं प्रसार था जो कि सैद्धांतिक आधार रखती हो तथा समाज के सभी वर्गों पर प्रभाव डाल सकती हो। धम्म नीति इसी दिशा में एक प्रयास था।

अभिलेखों का विस्तार

अशोक ने धम्म की नीति के प्रसार के लिए शिलालेखों/अभिलेखों का माध्यम अपनाया। अशोक ने धम्म नीति के बारे में अपने विचार इन स्तम्भों  शिलाओं पर इस आशय से खुदवाए कि विभिन्न स्थानों पर लोग उन्हें पढें। अशोक इस माध्यम से अपनी जनता से सीधा सम्पर्क स्थापित करना चाहता था। यह अभिलेख उसके शासन काल के विभिन्न वर्षों में लिखे गए। इन अभिलेखों में व्यक्त किए गए सिद्धांतों के अध्ययन से अशोक के धम्म के प्रमुख तत्वों के विषय में पता चलता है।

अभिलेखों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। थोड़े से अभिलेखों से यह पता चलता है कि राजा बौद्ध मत का अनुयायी था और ये अभिलेख बौद्ध संप्रदाय अथवा संघों को संबोधित करते हुए लिखे गए थे। इन अभिलेखों में बौद्ध मत से अशोक की व्यक्तिगत सम्बद्धता की घोषणा है। इनमें वह वौद्ध मत में अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा अभिव्यक्त करता है। इनमें से एक अभिलेख में वह बौद्ध ग्रन्थों जिनका नाम इन अभिलेखों में दिया गया है की चर्चा करता है और सभी बौद्धों को उनसे परिचित होने का आह्वान करता है।

अभिलेखों की अन्य श्रेणियां वृहद शिला लेख तथा लघु शिला लेख के नाम से जानी जाती है जो कि चट्टानों पर खोदी गई हैं तथा स्तम्भ लेखों के लिए विशेष रूप से स्तम्भ खड़े किए गए थे।

यह सभी ऐसे स्थानों पर स्थापित हैं जहां बड़ी संख्या में लोगों के इकट्ठा होने की संभावना हो सकती थी। अतः जैसा कि कहा जा चुका है, यह लेख जन-साधारण के लिए घोषणा कहे जा सकते हैं। इनमें धम्म नीति की व्याख्या की गई है। हमें अशोक की धम्म नीति जिसमें सामाजिक उत्तरदायित्व की बात कही गई है तथा अंशोक की वौद्ध धर्म में व्यक्तिगत आम्था में अंतर करना चाहिए। कुछ समय पूर्व तक इतिहासकारों के वीच अशोक की धम्म नीति तथा बौद्ध मत के अनुयायी के रूप में अशोक को विना अंतर किए एक ही संदर्भ में रखकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति रही है। अभिलेखों के सूक्ष्म अध्ययन से पता चलता है कि एक ओर जहां अशोक बौद्ध मत में अपनी पूरी आस्था रखता था वहीं दूसरी ओर वह धम्म नीति के द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक उत्तरदायित्व तथा महिष्णुता के महत्व का आदेश भी दे रहा था।

धम्म कारण

धम्म नीति की पृष्ठभूमि में निहित कारणों का अध्ययन करने के अंतर्गत हमने इसी इकाई में इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा की है। हमने पढ़ा कि धम्म नीति इन समस्याओं के समाधान का एक महत्वपूर्ण प्रयास था, जिनसे इस युग का जटिल समाज जूझ रहा था। यह नीति अशोक के दिमाग की उपज थी तथा समाज के अंतर्गत व्याप्त सामाजिक तनावों के समाधान के प्रति उसका प्रयास था। अशोक के निजी विश्वास तथा साम्राज्य के समक्ष खड़ी समस्याओं के समाधान के विषय में उसके विचार धम्म नीति के प्रतिपादन का कारण बने।

अतः आवश्यक है कि हम उस सामाजिक माहौल को समझें जिसके अंतर्गत अशोक पला, बढ़ा तथा जिसका प्रभाव उसके जीवन के वाद के वर्षों पर दिखाई देता है।

मौर्य राजा उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। चंद्रगुप्त अपने जीवन के उत्तरकाल में जैन मत का अनुयायी हो गया तथा विंदुसार अजीविका मत में विश्वास रखता था। स्वयं अशोक ने अपने निजी जीवन में बौद्ध मत स्वीकार किया, तथापि उसने अपनी जनता पर बौद्ध मत थोपने का प्रयास कभी नहीं किया। धम्म नीति के तत्वों का अध्ययन करने से पूर्व परिस्थितियों पर नजर डालें जिन्होंने ऐसी नीति को जन्म दिया।

  • 269 ईसा पूर्व में जव अशोक राजसिंहासन पर आसीन हुआ तब मौर्य साम्राज्य व्यवस्था जटिल स्वरूप । ले चुकी थी। साम्राज्यिक व्यवस्था अपने में विभिन्न संस्कृतियों, विश्वासों और सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं को आत्मसात कर चुकी थी। अशोक के समक्ष दो ही विकल्प थे। एक ओर यह ढांचे को वल प्रयोग द्वारा स्थिर रख सकता था, जिस पर अत्यधिक व्यय की आवश्यकता थी अथवा दूसरी ओर वह ऐसे नैतिक मूल्य प्रस्तुत करे जो कि सभी को स्वीकार्य हो तथा सभी सामाजिक वर्गों एवं धार्मिक विश्वासों के बीच अपना स्थान बना लें। अशोक ने यह विकल्प धम्म नीति में ढूंढा।
  • अशोक उन तनावों से पूरी तरह परिचित था जो जैन, बौद्ध तथा अजीविका जैसे असनातनी सम्प्रदायों के उदय के कारण समाज में आ गये थे। यह सभी किसी न किसी रूप में ब्राह्मणवाद के विराधी थे। और इनके समर्थकों की संख्या बढ़ रही थी। परंतु अब भी ब्राह्मण समाज पर अपना नियंत्रण बनाये हुये थे इन परिस्थितियों में किसी न किसी रूप में वैमनस्य का होना अवश्यंभावी था। ऐसी दशा में परस्पर सौहार्द और विश्वास का वातावरण बनाना आवश्यक था।
  • साम्राज्य के कुछ भाग ऐसे भी थे जहां न तो ब्राह्मणवाद का प्रभुत्व था न ही असनातनी सम्प्रदायों का। अशोक स्वयं यवनों के प्रदेश का जिक्र करता है जहां न तो ब्राह्मण और ना ही श्रमण संस्कृति प्रचलन में थी। इसके अतिरिक्त साम्राज्य के कई जन-जातीय या आदिवासी क्षेत्रों में भी ब्राह्मणवाद या असनातनी सम्प्रदायों का प्रभाव नहीं था। इन सारी विभिन्नताओं के बीच साम्राज्य के अस्तित्व और परस्पर सौहार्द को बनाये रखने के लिए समाज की समस्याओं के प्रति एक समरूपी समझ और व्यवहार

धम्म के तत्व

धम्म के सिद्धांत इस प्रकार से प्रतिपादित किए गए थे कि वे सभी समुदायों और धार्मिक संप्रदाय के व्यक्तियों को स्वीकार्य हो। धम्म को औपचारिक रूप में व्याख्यायित अथवा संरचनाबद्ध नहीं किया गया था। इसमें सहिष्णुता तथा सामान्य आचरण का आदेश दिया गया है। धम्म ने दुहरी सहिष्णुता की बात की है। इसमें जनसामान्य के मध्य आत्मसहिष्णुता तथा विभिन्न विचारों एवं आस्थाओं के बीच सहिष्णुता का आह्वान किया गया है। इसमें दासों एवं नौकरों के प्रति सहानुभूति, बड़ों का आदर, तथा जरूरतमंदों, ब्राह्मण व श्रमण सभी के प्रति उदारता आदि पर भी बल दिया गया है। अशोक ने सभी धार्मिक संप्रदायों के बीच सहिष्णुता का आह्वान किया।

धम्म नीति में अहिंसा पर भी बल दिया गया है। अहिंसा को व्यवहारिक स्वरूप युद्ध एवं विजय अभियान का परित्याग करके दिया जाना था। अहिंसा का पालन पशुओं की हत्या पर नियंत्रण करके भी किया जाता था। अहिंसा का अर्थ पूर्ण अहिंसा नहीं था। अशोक यह समझता था कि अपनी राजनैतिक शक्ति के प्रदर्शन के विना जंगली आदिम जातियों पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता था।

धम्म नीति में कुछ कल्याणकारी कार्य जैसे वृक्षारोपण, कुएं खोदना आदि की भी चर्चा की गई है। अशोक ने धर्मानुष्ठानों तथा बलि चढ़ाने को अर्थहीन कहकर उस पर प्रहार किया। धम्म महामात्रा के नाम से कुछ अधिकारी भी धम्म की नीति के विभिन्न पक्षों को लागू करने तथा उनका प्रचार करने के लिए नियुक्त किए गए। अशोक ने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अपना संदेश पहुंचाने के लिए इन धम्म महामात्रों पर भारी दायित्व डाला। किंतु धीरे-धीरे यह धम्म महामात्र समूह धम्म के पुरोहितों के रूप में परिवर्तित हो गये।

इन्हें अत्यधिक अधिकार प्राप्त थे। फलतः शीघ्र ही यह समूह राजनीति में हस्तक्षेप करने लगा। धम्म के इन सभी पक्षों को और अधिक स्पष्ट रूप में देखने के लिए हम कुछ निर्देशों की विषय वस्तु के आधार पर देखेंगे कि यह नीति किस प्रकार कालक्रमिक रूप में विकसित हुई।

  • वृहद् शिलालेख 1 पहले शिलालेख में पशु हत्या तथा उत्सव समारोहों (समाजिक) पर प्रतिबंध लगाया गया था।
  • वृहद् शिलालेख 2 इसमें समाज कल्याण से संबंधित कुछ कार्य बताए गए हैं जो कि धम्म के कार्यों में निहित हैं। इसमें मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सा, मार्ग निर्माण, कुआं खोदने तथा वृक्षारोपण का उल्लेख मिलता है।
  • वृहद् शिलालेख 3  इसके द्वारा ब्राह्मणों तथा श्रवणों के प्रति उदारता को एक विशेष गुण बताया गया है। साथ ही माता-पिता का सम्मान करना, सोच-समझकर धन को खर्च करना और बचाना भी अच्छे गुण कहे गए हैं।
  • वृहद् शिलालेख 4 इसमें धम्म नीति से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि धम्म की नीति के द्वारा अनैतिकता तथा ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति निरादर की प्रवृत्ति, हिंसा, मित्रों और रिश्तेदारों के साथ अशोभनीय व्यवहार तथा इसी प्रकार के अन्य-गलत कार्यों पर नियंत्रण लगा है। पशु हत्या भी काफी हद तक रोकी जा सकी है।
  • वृहद् शिलालेख 5 पांचवें शिलालेख में पहली बार अशोक के शासन के दसवें वर्ष में धम्म महामात्रों की नियुक्ति के बारे में चर्चा की गई है। यह विशिष्ट अधिकारी राजा द्वारा सभी संप्रदायों, धर्मों के हितों की रक्षा तथा धम्म नीति को समाज के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए नियुक्त किए गए थे। धम्म नीति के क्रियान्वयन का दायित्व इन्हीं पर था।
  • वृहद् शिलालेख 6 इसमें धम्म महामात्रों के लिए आदेश लिखे गए हैं। उनसे कहा गया है कि वे राजा के समक्ष किसी भी समय सूचनाएं ला सकते हैं, चाहे, राजा किसी महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त क्यों न हो! इस शिलालेख के दूसरे भाग में सजग एवं सक्रिय प्रशासन तथा सुचारू व्यापार का उल्लेख मिलता है।
  • वृहद् शिलालेख 7  इसमें सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता का आह्वान है। इस शिलालेख से संकेत मिलता है कि संप्रदायों के बीच काफी तनाव विद्यमान था और संभवतः एक-दूसरे के प्रति विरोध खुलकर प्रकट होता था। यह आह्वान एकता बनाये रखने की विस्तृत नीति का ही एक अंश है।
  • वृहद् शिलालेख 8 इसमें कहा गया है कि सम्राट द्वारा धम्म यात्राएं आयोजित होंगी। सम्राट की आखेटन गतिविधियां अब त्याग दी गयीं। धम्म यात्राओं ने सम्राट को अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में जनता के विभिन्न वर्गों के सम्पर्क करने का अवसर प्रदान किया।
  • वृहद् शिलालेख 9 इस शिलालेख में जन्म, बीमारी, विवाह आदि के उपरांत तथा यात्रा के पूर्व होने वाले समारोहों की निंदा की गयी है। पत्नियों तथा माताओं द्वारा समारोह मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके स्थान पर अशोक धम्म पर बल देता है और समारोहों की व्यर्थता की बात कहता है।
  • वृहद् शिलालेख 10 इसमें ख्याति एवं गौरव की निंदा तथा धम्म नीति की श्रेष्ठता पर विचार प्रकट किए गए हैं।
  • वृहद् शिलालेख 11 इसमें भी धम्म नीति की व्याख्या की गयी है। इसमें बड़ों का आदर, पशु हत्याएं न करने, तथा मित्रों के प्रति उदारता पर बल दिया गया है।
  • वृहद् शिलालेख 12 इस शिलालेख में पुनः संप्रदायों के बीच सहिष्णुता का निवेदन किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राजा विभिन्न संप्रदायों के बीच टकरावों से चिंतित था और सौहार्द बनाये रखने के लिए निवेदन करता है।
  • वृहद् शिलालेख 13 यह शिलालेख अशोक की धम्म नीति को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें युद्ध के स्थान पर धम्म द्वारा विजय प्राप्त करने का आह्वान है। प्रथम शिलालेख से आरंभ होने वाली विचार प्रक्रिया का यह तार्किक चरमबिन्दु है। विजय से संभवतः आशय देश की सीमाओं पर नियंत्रण की अपेक्षा पूरे देश द्वारा धम्म नीति अपनाने के महत्व से है।

अशोक के शब्दों में “आठ वर्षों तक तपस्या के उपरांत देवताओं के प्रिय सम्राट पियदासी ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। एक लाख पचास हजार लोग निर्वासित हुए, एक लाख हताहत हुए तथा इससे कहीं अधिक संख्या में लोग तबाह हुए। कलिंग विजय के उपरांत देवताओं के प्रिय (राजा पियदासी) ने धम्म का पालन किया, उसी की कामना की और धम्म की शिक्षा दी। देवताओं के प्रिय ने कलिंग विजय के उपरान्त बहुत पछतावा किया क्योंकि किसी स्वतंत्र देश पर जब विजय प्राप्त की जाती है तो उसमें होने वाली हत्याएं, मृत्यु तथा जन निर्वासन देवताओं के प्रिय को अत्यधिक पीड़ा पहुँचाते हैं और उसके मस्तिष्क पर बोझ बने रहते हैं।

देवताओं के प्रिय के लिए और भी अधिक कष्ट वहां के निवासियों को देखकर होता है चाहे वे ब्राह्मण हों, श्रमण हों अथवा किसी अन्य संप्रदाय के हों अथवा गृहस्वामी हो जो स्वयं से श्रेष्ठ लोगों, माता-पिता तथा गुरु के प्रति आज्ञाकारी होते हैं, मित्रों, परिचितों, संबंधियों दासों तथा नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तथा अहिंसा, हत्या तथा अपने प्रियों से अलगाव के कष्ट झेलते हैं। वे भी जो सौभाग्यवश बच गए तथा वे जिनके अंदर प्रेम की भावना (युद्ध की बर्बरता के प्रभाव से) कम नहीं हुई है, अपने मित्रों, परिचितों, साथियों तथा संबंधियों के दुर्भाग्य के भागीदार बनते हैं। सभी मानवों के कष्ट में यह भागीदारी देवताओं के प्रिय के मस्तिष्क पर बोझ बनती है।

यूनानियों के देश के अतिरिक्त कोई ऐसा स्थान नहीं है जहां ब्राह्मणों तथा श्रमणों की धर्मव्यवस्था विद्यमान न हो तथा ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां लोग किसी न किसी संप्रदाय के अनुयायी न हों। आज यदि कलिंग विजय की प्रतिक्रिया में हताहत, मृत अथवा निर्वासित लोगों की संख्या का सौंवा अथवा हजारवां भाग भी उसी प्रकार के कष्टों का सामना करता है तो यह देवताओं के प्रिय के मस्तिष्क पर बोझ बनेगा। धम्म का यह अभिलेख इस पर खोदा गया है कि मेरे कोई पुत्र अथवा प्रपौत्र नई विजयें प्राप्त करने की न सोचें तथा जो विजय उन्हें प्राप्त हों उनसे धैर्य तथा हल्के-फुल्के दंड के साथ संतुष्ट हो जाए। वे धम्म द्वारा विजयी होने को ही वास्तविक विजय समझें तथा धम्म में प्रसन्नता ही उनके लिए परम प्रसन्नता हो क्योंकि धम्म इस संसार में तथा इसके उपरांत दोनों ही स्थान के लिए मूल्यवान है।

यह अशोक के युद्ध के विरुद्ध विचार हैं। इनमें युद्ध की त्रासदी का विस्तृत वर्णन किया गया है और इससे संकेत मिलता है कि वह युद्ध का विरोधी क्यों बन गया? प्राचीन युग की यह अनोखी घटना है क्योंकि उस समय कोई ऐसा शासक नहीं था जो युद्ध का विरोध कर सका हो। इस युद्ध के बाद अशोक ने धम्म नीति अपनायी।

अशोक की धम्म नीति और मौर्य राज्य

अशोक की धम्म नीति केवल गूढ़ वाक्यों पर ही समाप्त नहीं होती थी। उसने इसे राज्यगत नीति के रूप में अपनाने का भरसक प्रयास भी किया। उसने घोषणा की “सभी जन मेरे बच्चे हैं” तथा “मैं जो भी कार्य करता हूँ वह केवल उस ऋण को उतारने का प्रयास है तो सभी जीवों का मुझ पर है”। यह सर्वथा नया तथा शासन व्यवस्था का उत्साहवर्धक आदर्श था। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा पर किसी का ऋण नहीं होता। उसका एकमात्र कार्य राज्य पर सक्षम शासन करना है।

अशोक ने युद्ध तथा हिंसात्मक विजयों की निंदा की तथा पशुओं की अधिक हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया। स्वयं अशोक ने राजपरिवार में मांस खाने की परंपरा लगभग समाप्त करके शाकाहार का उदाहरण प्रस्तुत किया। चूंकि वह, प्रेम एवं विश्वास द्वारा विश्व विजय प्राप्त करना चाहता था, इसलिए उसने धम्म के प्रचार के लिए दल भेजे। इस प्रकार के दल मिश्र, यूनान, श्रीलंका आदि दूरस्थ स्थानों पर भेजे गए। धम्म के प्रचार में जन-कल्याण के कई कार्य सम्मिलित थे। मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सालय साम्राज्य के अंदर तथा साम्राज्य के बाहर दोनों ही स्थानों पर बनाए गए। छायादार कुंज, कुएं, फल के बगीचे, विश्रामगृह आदि बनाए गए।

इस प्रकार के कल्याणकारी कार्य अर्थशास्त्र में वर्णित राजाओं की तुलना में, जो कि अधिक राजस्व प्राप्त करने की संभावना के बिना एक पैसा भी खर्च नहीं करते थे, मूल रूप से भिन्न मार्ग थे। अशोक ने व्यर्थ बलि चढ़ाने की परंपरा तथा ऐसे समारोह जिनके कारण व्यय, अनुशासनहीनता तथा अंधविश्वास पैदा होता था, पर प्रतिबंध लगा दिया। इन नीतियों के कार्यान्वयन के लिए उसने धम्म महामात्रों की नियुक्तियां की। इन धम्म महामात्रों का एक कार्य यह भी था कि वे इसका ध्यान रखें कि सभी संप्रदाय के लोगों के साथ उचित व्यवहार हो रहा है। उन्हें बन्दियों के कल्याण के प्रति विशिष्ट दायित्व सौंपा गया था। बहुत सारे बंदी जो कि कारावास की अवधि समाप्त होने के पश्चात् बेड़ियों में रखें गए थे, उन्हें मुक्त करने का आदेश था। मृत्यु दंड प्राप्त बन्दियों को तीन दिन का जीवनदान दिए जाने का आदेश था।

स्वयं अशोक ने धम्म यात्राएं आरंभ की। वह तथा उसके साथ के उच्च अधिकारी धम्म के प्रचार तथा जनता के साथ सीधा संपर्क बनाने के लिए देश भ्रमण पर निकले। अपनी इसी नीति के कारण अशोक को कर्न (Kem) जैसे आधुनिक लेखक ने राजा की पोशाक में भिक्षु कहा है।

धम्म-व्याख्यायें

अशोक की धम्म की नीति विद्वानों के बीच वाद-विचाद का विषय रही है। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक बौद्ध मत पक्षपाती था। वे उसकी धम्म नीति और बौद्ध मत को एकरूपी मानते हैं।

ऐसा भी विचार व्यक्त किया गया है कि अशोक मौलिक बौद्ध विचारों को धम्म के रूप में परिभाषित कर रहा था तथा बाद में कुछ नये धार्मिक तत्वों के साथ इन्हें बौद्ध मत का रूप दे दिया गया। इस प्रकार के विचारों का आधार बौद्ध वृतांत है। ऐसा विश्वास है कि कलिंग युद्ध एक ऐसा नाटकीय मोड़ था जिसने युद्ध में मृत्यु एवं विनाश के लिए पछतावे के कारण अशोक को भारत तथा विदेशों में बौद्ध मत का अनुयायी बना दिया। बौद्ध वृतांतों में भी अशोक को भारत तथा विदेशों में बौद्ध मत के प्रचार का श्रेय दिया गया है। अशोक के विरुद्ध पक्षपात का आरोप लगाना ठीक नहीं है। इस बात के दो अत्यंत महत्वपूर्ण प्रमाण हैं कि अशोक ने राजा के रूप में, बौद्ध धर्म के प्रति अन्य धर्मों की तुलना में पक्षपात नहीं किया।

  • अशोक द्वारा धम्म महामात्रों का एक विभाग बनाना इस तथ्य को पूर्णतः प्रमाणित करता है कि अशोक ‘किसी धर्म विशेष का पक्षपाती नहीं था। यदि ऐसा होता तो इस विभाग की आवश्यकता ही न पड़ती क्योंकि वह धम्म के प्रचार के लिए संघों के संगठन का उपयोग कर सकता था।
  • शिला-लेखों के ध्यानपूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि अशोकं सभी धार्मिक संप्रदायों के बीच सहिष्णुता एवं आदर का भाव फैलाना चाहता था तथा धम्म महामात्रों का दायित्व था कि वे ब्राह्मणों एवं श्रमणों के लिए कार्य करें।

इन दो बातों से पता चलता है कि धम्म की नीति अधर्म का प्रचार नहीं थी अपितु विभिन्न धार्मिक स्रोतों से ग्रहण किए गए विश्वासों की एक पूरी व्यवस्था है।

इतिहासकारों के बीच अशोक धम्म के प्रचार के परिणामों पर भी चर्चा होती रही है। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि अशोक द्वारा बलि चढ़ाने पर प्रतिबंध लगाने तथा बौद्ध मत का पक्षपात करने से ब्राह्मणों में विपरीत प्रतिक्रिया हुई। परिणामतः मौर्य साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ। अन्य इतिहासकार मानते हैं कि युद्धों पर रोक तथा अहिंसा पर बल देने के कारण साम्राज्य की सैन्य शक्ति दुर्बल हो गयी। परिणामतः अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

रोमिला थापर ने स्पष्ट किया है कि अशोक की धम्म की नीति न केवल मूलभूत मानवीयता की अद्भुत दस्तावेज है बल्कि उस समय की सामाजिक-राजनैतिक आवश्यकताओं का उपयुक्त समाधान भी प्रस्तुत करती है। यह ब्राह्मण विरोध नीति नहीं थी जिसका प्रमाण यह है कि सभी धम्म अभिलेखों में ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति आदर का भाव अनिवार्य रूप से उल्लेखित हैं। अहिंसा पर उसके बल देने का तात्पर्य यह नहीं था कि उसने राज्य की सुरक्षा की आवश्यकताओं के प्रति आंखें मूंद ली थीं।

फलतः वह आदिवासी समूहों को चेतावनी भी देता है कि यद्यपि वह बल प्रयोग से घृणा करता है परंतु यदि वे समस्याएं उत्पन्न करना बंद नहीं करते हैं तो शक्ति का प्रयोग करने पर बाध्य होना पड़ेगा। अशोक ने जब युद्ध करना बंद किया तब तक पूरा भारतीय उप-महाद्वीप उसके नियंत्रण में था। दक्षिण में वह चोल तथा पांड्य आदि जनजातियों से मित्रता बनाए हुए था। श्रीलंका उसका प्रशंसक तथा सहयोगी था। अतः अशोक ने युद्ध का विरोध उसी समय किया जबकि उसका साम्राज्य अपनी प्राकृतिक सीमाओं को छू चुका था। जातीय विविधता एवं धार्मिक विभिन्नता तथा वर्गीय आधार पर विभाजित समाज में सहिष्णुता का आह्वान बुद्धिमत्ता का कार्य था।

अशोक का साम्राज्य विविध समूहों का एक समग्रीकृत रूप था। इस साम्राज्य में किसान, खानाबदोश, चरवाहे, आखेट जीवी तथा यूनानी कम्बोज, भोज एवं अनेक प्रकार की परम्पराओं के अनुयायी सैकड़ों समूह थे। ऐसी परिस्थिति में सहिष्णुता की बात करना युग की आवश्यकता थी। अशोक ने संकीर्ण सांस्कृतिक परम्परा के स्थान पर व्यापक नैतिक सिद्धांतों की स्थापना करनी चाही। अशोक की धम्म की नीति उसकी मृत्यु के बाद आगे न चल सकी। वैसे भी यह नीति सफल नहीं रही थी फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अशोक किसी नये धर्म की स्थापना नहीं कर रहा था। वह केवल समाज के अन्दर मानवतावादी और नैतिक सिद्धांतों की स्थापना करना चाहता था। मोटे तौर पर यह मानवतावादी सिद्धांत भारतीय परंपरा का अंग बन चुके हैं।

सारांश

धम्म की नीति के विषय में हमारी जानकारी के स्रोत अशोक के अभिलेख हैं। अशोक ने अपनी धम्म की नीति के अंतर्गत अहिंसा, सहिष्णुता, तथा सामाजिक दायित्व का उपदेश दिया। उसने इन सिद्धान्तों का पालन अपनी प्रशासनिक नीति में भी किया। धम्म एवं बौद्ध मत को एकरूपी नहीं मानना चाहिए। धम्म विभिन्न धार्मिक परम्पराओं से लिए गए सिद्धांतों का मिश्रण था। इसका क्रियान्वयन साम्राज्य को एकसूत्र में बांधने के उद्देश्य से किया गया था।

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