बैंकिंग सुधार : बेहतर बैंकिंग की ओर

बचत की अवधारणा दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों में हमेशा से रही है। मुद्रा/सोने की मुहरें बर्तनों में इकट्ठी करने और उन्हें जमीन के भीतर दबा देने का काम प्राचीन काल में पूरी दुनिया में किया गया है। साम्राज्य में कर के रूप में एकत्र किये गये या अपने अधीन जागीरदारों/राज्यों से शुल्क के रूप में वसूले गये धन को राजकोष में रखा जाता था।

आधुनिक बैंकिंग के आविष्कार के साथ ही धन घरों से बैंकों में पहुंच गया। लोगों को धन और गहने बैंकों में जमा करना अधिक सुरक्षित लगा क्योंकि वहां उनकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए अलग कमरे होते हैं। बैंकों ने जमा धन पर ब्याज भी दिया, जिससे अतिरिक्त आय हो गयी। बैंकों ने उस जमा राशि को विभिन्न शेयरों और प्रतिभूतियों में निवेश करना शुरू कर दिया। इस तरह निवेश बैंकिग और कारपोरेट बैंकिंग की नयी व्यवस्था आरंभ हुई। सरकारी धन भी राजा के खजाने से निकलकर केंद्रीय बैंक में पहुंच गया, जो धीरे-धीरे मौद्रिक नीति का नियामक भी बन गया। आज कोई केंद्रीय नियामक बैंक के बगैर अर्थव्यवस्था की कल्पना भी नहीं कर सकता। भारत में केंद्रीय बैंक यानि भारतीय रिजर्व बैंक केवल सरकारी धन ही जमा नहीं रखता है बल्कि वह मौद्रिक नीति का नियामक, बैंकों का बैंकर और मुद्रा नियामक भी बन चुका है।

भारत में बैंकिग व्यवस्था छोटे, निजी वाणिज्यिक बैंकों से शुरू हुई लेकिन जब उनमें से कुछ नाकाम होने लगे या उनमें जमा राशि बैंकरों द्वारा चुपके से निकाली जाने लगी और ग्राहकों की जमा की गयी मेहनत की कमायी डूब गयी तो सरकार हरकत में आयी और उसने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस बड़े सुधार से यह सुनिश्चित हो गया कि बैंक को होने वाले किसी भी घाटे का ग्राहकों पर असर नहीं पड़ेगा या बैंक ग्राहकों की रकम का दुरूपयोग नहीं कर पाएंगे। उसके बाद के वर्षों में धीरे-धीरे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियमन के लिए अन्य व्यवस्थाएं बनायी गयी। बैंकिंग क्षेत्र पर नरसिम्हन समिति की सिफारिशें इस दिशा में एक और प्रमुख सोपान साबित हुई। उसके बाद बैंकिंग क्षेत्र की क्षमता एवं प्रशासन सुधारने के उद्देश्य से एक के बाद कई सुधार किये गये।

एक समय सरकार को लगा कि वैश्विक चलन की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों की तरह बैंकिंग क्षेत्र में भी निजीकरण होना चाहिए। एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, एक्सिस और येस बैंक जैसे निजी क्षेत्र के बैंकों को भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में काम करने की अनुमति दे दी गयी। ये बैंक ग्राहकों की संतुष्टि प्राप्त करने के मामले में सार्वजनिक बैंकों के मुकाबले अधिक सफल साबित हुए और कॉर्पोरेट बैंकिंग तथा खुदरा बैंकिंग में मुख्य स्तंभ बन गये। उनसे सीख लेते हुए सार्वजनिक बैंक भी ग्राहकों के अधिक अनुकूल बनने लगे और उन्होंने अपने कामकाज में प्रौद्योगिकी से जुड़े सुधार लागू किये।

अनिष्पादित संपत्तियों (एनपीए) की समस्या सफल बैंकिंग की राह में बहुत बड़ा रोड़ा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र, भारत के अधिकतर बैंकों के लिए यह चिंता का बड़ा कारण रही है। बैंकिंग क्षेत्र में इस बड़ी समस्या के समाधान के लिए सरकार ने मिशन इंद्रधनुष की घोषणा की, जो पुनर्पूजीकरण, बैंकिग बोर्ड ब्यूरो के गठन और जवाबदेही का ढांचा तैयार करने पर केंद्रित है। बाद में धनशोधन अक्षमता और दिवालिया कानून ने एनपीए की समस्या सुलझाने का एक और रास्ता मुहैया कराया।

आधुनिक बैंकिग विशेषकर नकद रहित अर्थव्यस्था और बैंकिंग लेनदेन के डिजिटलीकरण के दौर में साइबर सुरक्षा चिंता का एक और विषय है। सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने आईआईटी जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर विभिन्न तरीकों से इससे निपटने के प्रयास किये हैं। जन-धन योजना और डीबीटी जैसी योजनाओं के माध्यम से बैंकिंग के जरिये वित्तीय समावेश पर सरकार का बहुत जोर है। ग्रामीण बैंकिंग भी चिंता का एक और विषय है क्योंकि दुर्गम होने के कारण कई क्षेत्रों में अब भी बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। कम साक्षरता, बैंकिंग सेवाओं की अनुपलब्धता आदि के कारण बड़ी तादाद में ग्रामीण जनता अब भी बैंकिंग प्रणाली के प्रति सहज अनुभव नहीं करती है। सरकार ने बैंकिंग कॉरेस्पांडेंट की नियुक्ति कर इस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है। ये कॉरेस्पांडेंट बैंकों तथा ग्रामीण जनता के बीच कड़ी का काम करते हैं।

अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं को बैंकिंग सुधारों की अवधारणा एक समस्या लग सकती है लेकिन बैंक वह स्थान है, जहां लोग विश्वास के साथ अपनी मेहनत की कमायी रखते हैं। अपने धन पर अपना नियंत्रण हो तो तनाव बहुत कम हो जाता है और सक्षम बैंकिग व्यवस्था हर किसी के जीवन से यह तनाव दूर करने की कुंजी है।

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