Judicial Appointment
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न्यायाधीशों की नियुक्ति की पृष्ठभूमि
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में उल्लिखित है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय और राज्य उच्च
न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे,
राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियां करेगा। - जबकि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति (संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत) हेतु राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश,
सम्बंधित राज्य के राज्यपाल और राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करेगा। - तीन ‘न्यायाधीश वाद’ (श्री जज केसेज): इन तीन मामलों के परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु कॉलेजियम प्रणाली का निर्माण किया गया। भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों एवं उच्च न्यायालय के तीन सदस्यों (उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के मामले में) की एक समिति नियुक्तियों और
स्थानान्तरण से संबंधित निर्णय लेती है।
न्यायिक नियुक्ति से संबंधित वाद
- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1974): इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की स्वीकृति आवश्यक है।
तीन न्यायाधीश वाद’ (श्री जजेस केसेज)
- प्रथम न्यायाधीश वाद या एस.पी.गुप्ता वाद (वर्ष 1981): इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश
द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सिफारिशों को “ठोस आधारों” पर अस्वीकृत किया जा सकता है। इससे इस संबंध में कार्यपालिका
को अधिक शक्ति प्राप्त हुई। - द्वितीय न्यायाधीश वाद (वर्ष 1993): इस वाद को सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़
इंडिया के नाम से भी जाना जाता है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक नियुक्तियों एवं स्थानांतरणों पर केवल उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करने की आवश्यकता है।हालाँकि इन नियुक्तियों पर कार्यपालिका द्वारा उठाई गयी आपत्तियों पर कॉलेजियम अपनी सिफारिशों, जो कार्यपालिका के लिए बाध्यकारी हैं, को परिवर्तित कर भी सकती है और नहीं भी। - तृतीय न्यायाधीश वाद (वर्ष 1998): मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरणों पर अपना निर्णय लेने के
लिए उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना चाहिए।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC):
99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित करने के लिए एक संवैधानिक निकाय के रूप में NJAC की स्थापना की गयी थी। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को असंवैधनिक घोषित कर दिया क्योंकि यह संशोधन न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जो संविधान की एक मूल विशेषता है।
इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को बहाल किया है। केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायपालिका की नियुक्तियों के लिए दिशानिर्देशों का एक नया प्रारूप निर्धारित करने हेतु वर्ष 2016 में एक प्रक्रिया ज्ञापन (Memorandum of Procedure) का मसौदा तैयार किया है। परन्तु वर्तमान में केंद्र सरकार और न्यायपालिका के
मध्य इस मुद्दे को लेकर आपसी सहमति की कमी है।
प्रक्रिया ज्ञापन के मसौदे [ड्राफ्ट मेमोरेंडम ऑफ प्रोसेस (MOP), 2016]
- उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए “योग्यता और सत्यनिष्ठा “को “मुख्य मानदंड” के रूप में शामिल किया जाए।
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नति के लिए प्रदर्शन आधारित मूल्यांकन
- पिछले पांच वर्षों के दौरान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्णयों एवं न्यायिक प्रशासन में सुधार के लिए किये गए उनके कार्य का मूल्यांकन।
- उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए, “मुख्य मानदंड” “उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उसकी वरिष्ठता” होनी चाहिए।
- उच्चतम न्यायालय में अधिकतम तीन न्यायाधीशों को बार काउंसिल के प्रतिष्ठित सदस्यों एवं प्रतिष्ठित न्यायवादियों के मध्य से
उनके संबंधित क्षेत्रों में कार्य निष्पादन के प्रामाणिक रिकार्ड के आधार पर नियुक्त किया जाना चाहिए। - उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रिकॉर्ड को बनाए रखने, कॉलेजियम की बैठकों को निर्धारित करने, सिफारिशों को प्राप्त करने तथा नियुक्तियों से संबंधित मामलों में शिकायतों के लिए उच्चतम न्यायालय में स्थायी सचिवालय की स्थापना की जानी चाहिए।
- उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में किसी नियुक्ति पर आपत्ति के एक नए आधार के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा एवं सार्वजनिक हित का समावेशन किया जाना चाहिए। इसके अंतर्गत की गयी आपत्तियों से कॉलेजियम को अवगत कराया जाएगा जो इस पर अंतिम निर्णय लेगा।
नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली से सम्बंधित मुद्देः
- संवैधानिकता: संविधान सभा ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों के संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश में वीटो शक्ति निहित करने के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था।
- संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन: भारत के विधि आयोग की 214 वीं रिपोर्ट के अनुसार कॉलेजियम प्रणाली भारत के संविधान के अनुच्छेद 74 का स्पष्ट उल्लंघन करती है। इस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है।
- अलोकतांत्रिक व्यवस्था: कॉलेजियम प्रणाली गैर-पारदर्शी व्यवस्था है तथा अपनी प्रकृति में एक बंद प्रणाली है, क्योंकि इसमें लोकतंत्र के लिए आवश्यक नियंत्रण एवं संतुलन (checks and balances) की कोई व्यवस्था नहीं है।
- द्वितीय न्यायाधीश वाद में कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति संतुलन को परिवर्तित कर दिया गया।
- अंकल जज सिंड्रोम: विधि आयोग ने अपनी 230 वीं रिपोर्ट में कहा है कि कॉलेजियम प्रणाली व्यवस्था में भाई-भतीजा वाद, भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत संरक्षण प्रचलित है।
- मेरिट बनाम वरिष्ठता: ऐसे कई मामले रहे हैं जहां बेहतर योग्यता और बेहतर रिकार्ड वाले लोगों को दरकिनार कर वरिष्ठता संबंधी नियम के कारण किसी अक्षम व्यक्ति को पद पर नियुक्त किया गया है।
उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम प्रक्रिया को सार्वजानिक डोमेन में प्रदर्शित करना
इस निर्णय के पीछे तर्क:
- नैतिक दायित्व: न्यायपालिका ने अपने नैतिक दायित्व को पूरा किया है (विशेषकर NJAC को असंवैधनिक घोषित करने के पश्चात)।
- सूचना का अधिकारः न्यायपालिका द्वारा अग्रसक्रिय प्रकटीकरण RTI अधिनियम, 2005 के संबंध में एक स्वागत योग्य कदम
- प्रक्रिया में खुलापन: राज्य की कार्यकारी व्यवस्था के कामकाज में खुलेपन के साथ-साथ न्यायिक नियुक्तियों एवं स्थानान्तरण सहित न्यायिक प्रक्रिया में भी खुलापन होना चाहिए।
- जानने का अधिकार: यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार को सुदृढ़ता प्रदान करेगा क्योंकि जानने का अधिकार इसका एक अंतर्निहित भाग है। कॉलेजियम प्रणाली कि गोपनीयता अभी तक इसका उल्लंघन कर रही थी।
न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए कुछ अन्य उपाय:
- संभावित उम्मीदवारों का एक पूर्ण और समय-समय पर अद्यतित डेटाबेस उपलब्ध करवाया जाना चाहिए, जो आम जनता को सुलभ हो।
- बार काउंसिल के सदस्यों या बार संगठनों के परामर्श से नामांकन या विज्ञापन द्वारा आवेदन आमंत्रित किया जाना चाहिए।
- नागरिकों को प्रतिरक्षा प्रदान करते हुए (अवमानना और मानहानि के कानूनों से) एवं उनकी गोपनीयता सुनिश्चित करते हुए,
चुने गए (शॉर्टलिस्टेड) उम्मीदवारों के संबंध में जनता से राय मांगी जानी चाहिए। - कॉलेजियम के विचार-विमर्श के वीडियो/ऑडियो का एक पूरा रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए।
आगे की राहः
- शक्ति संतुलन: विधि आयोग ने वर्ष 2008 और 2009 की रिपोर्ट में सुझाव दिया कि संसद को मुख्य न्यायाधीश की सर्वोच्चता को बहाल करने वाला कानून पारित करना चाहिए। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भी भूमिका बनी रहे।
- न्यायिक विशिष्टता के बजाय न्यायिक प्राथमिकता सुनिश्चित करने वाली प्रणाली: नई प्रणाली को स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाली, विविधता की संघीय अवधारणा का समायोजन करने वाली तथा पेशेवर क्षमता एवं सत्यनिष्ठा को प्रदर्शित करने वाली होना चाहिए। वैश्विक स्तर पर उदार संवैधानिक लोकतंत्रों की प्रवृत्ति ऐसे आयोग को निर्मित करने की रही है जो न्यायपालिका की प्राथमिकता को सुनिश्चित करता है तथा कार्यपालिका से अपने को निरपेक्ष रखता है।
- नियुक्ति के लिए मानदंड: न्यायपलिका की पात्रता संबंधी प्रदर्शन तथा योग्यता के मानदंडों को निष्पक्ष रूप से तैयार कर उन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इस तरह के मानदंडों के आधार पर नियुक्ति अथवा गैर-नियुक्ति के कारणों को उचित प्रकार से जाना जा सकता है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम की अपनी सभी सिफारिशों को सार्वजनिक डोमेन में प्रदर्शित करने
का निर्णय लिया है। - प्रक्रिया ज्ञापन (MOP) को शीघ्र तय किया जाए: न्यायाधीश कर्णन वाद में उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक न्यायपालिका में चयन की प्रक्रिया एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया के पुनरीक्षण की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
उच्च न्यायालय में नियुक्तियों से सम्बन्धित मुद्दे (Issues in Appointment to High Court Judiciary)
सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय में नियुक्ति से जुड़े कुछ पहलुओं पर स्पष्टीकरण दिया है।
विवरण
सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत की गयी जिसमें राजस्थान उच्च न्यायालय में नियुक्त किए गए दो अपर न्यायाधीशों की
नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व के निर्णयों के आधार पर चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने निम्नलिखित आधारों पर इसे ख़ारिज कर दिया:
- सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों को अनुच्छेद 217(2)(A) के अंतर्गत उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है।
क्योंकि इसमें यह अनिवार्य नहीं किया गया है कि नियुक्त होने वाला व्यक्ति, नियुक्ति की अधिसूचना जारी किए जाने के समय
किसी न्यायिक पद को धारण करता हो। - उच्च न्यायालयों के अपर न्यायाधीशों को 2 वर्षों से कम के कार्यकाल के लिए भी नियुक्त किया जा सकता है (अनुच्छेद 224 के
संदर्भ में), भले ही मामलों की लंबितता(PENDENCY) 2 वर्षों से अधिक की हो (जो कि एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ वाद में
मतभेद और विवाद का विषय था)।
इसके साथ यह भी कहा गया कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को शीघ्रता से संपन्न किया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 217
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और पद की शर्तों से सम्बंधित मुद्दों से जुड़े प्रावधान करता है। इसके तहत:
- उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी … और वह न्यायाधीश, अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह 62 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।
- एक व्यक्ति उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्ह नहीं माना जाएगा यदि वह भारत का नागरिक नहीं है तथा उसने (A) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्षों तक कोई न्यायिक पद धारण न किया हो; अथवा (B) कम से कम दस वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार एक अधिवक्ता के रूप में कार्य ना किया हो।
अनुच्छेद 224
अतिरिक्त एवं कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी मामलों से सम्बंधित है।
- अपर न्यायाधीश : किसी उच्च न्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वृद्धि या उसमें कार्य लंबित रहने पर राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित व्यक्तियों को विनिर्दिष्ट अवधि (अधिकतम दो वर्षों तक) के लिए उस न्यायालय का अपर न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगा।
- कार्यकारी न्यायाधीश : जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है, तब राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित किसी व्यक्ति को तब तक के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकेगा जब तक स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को पुन: नहीं संभाल लेता है।
- उच्च न्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात पद धारण नहीं करेगा।
अनुच्छेद 224A
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की (अस्थायी न्यायाधीशों के रूप में) नियुक्ति।
अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति में होने वाले विलंब से संबंधित मुद्दे
- यह अनुच्छेद 224(1) के उद्देश्य को निष्फल करता है और साथ ही, न्यायपालिका की क्षमता में कमी के कारण विलंब का सामना
कर रहे वादियों की आशा व विश्वास को हतोत्साहित करता है। - न्यायिक अधिकारियों को पदोन्नति (उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में) का अवसर उस समय प्राप्त होता है, जब उनकी सेवा के कुछ वर्ष ही शेष होते हैं और कार्यपालिका के द्वारा अनुचित विलंब से उनका कार्यकाल तथा कभी-कभी पदोन्नति के अवसर कम
हो जाते हैं।
उठाए जा सकने वाले कदम
- नियुक्ति प्रक्रिया के प्रत्येक चरण के लिए निश्चित समयसीमा निर्धारित की जा सकती है, ताकि प्रक्रिया समयबद्ध तरीके से पूर्ण हो
सके। - नियुक्ति के मामलों में अधिक पारदर्शिता के माध्यम से विलंब के कारणों को स्पष्ट किया जा सकता है।
- कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य उचित परामर्श के माध्यम से, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु प्रक्रिया
ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर) को शीघ्रता से अंतिम रूप प्रदान करना चाहिए। - व्यवस्था को अबाध रूप से संचालित करने हेतु भौतिक अवसंरचना को विस्तारित करने और आवश्यक सहायक स्टाफ उपलब्ध कराये जाने की आवश्यकता है।
- अन्य उपाय: सरकारी मुकदमों में कमी, मध्यस्थता और अन्य वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली का अनिवार्य उपयोग, प्रक्रियाओं को सरल बनाना, सटीक क्षमता सुदृढीकरण और प्रौद्योगिकी के प्रयोग की अनुशंसा करना इत्यादि।
न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया (Removal of Judges)
भारत के मुख्य न्यायाधीश को हटाने के लिए राज्यसभा में एक प्रस्ताव रखा गया, जिसे प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर दिया गया।
न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया: एक पृष्ठभूमि
- संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के तहत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (अनुच्छेद -217 (b)- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए) को ‘साबित कदाचार’ या ‘असमर्थता’ के आधार पर केवल राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। इसके लिए संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए।
- संविधान में दिए गए आधार, साबित कदाचार या असमर्थता, को निष्पक्ष न्यायाधिकरण द्वारा सिद्ध किया जाएगा। इसके गठन के
सम्बन्ध में निर्णय न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के तहत किया गया है।
न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 में उल्लिखित प्रक्रिया
- इस अधिनियम के तहत, राज्य सभा के मामले में 50 सदस्यों या लोकसभा के मामले में 100 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव रखा जाना चाहिए। यदि इसे अध्यक्ष या सभापति द्वारा स्वीकृत किया जाता है तो:
- इसकी जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति गठित करनी चाहिए। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश, किसी उच्च
न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश एवं एक प्रख्यात विधिवेत्ता शामिल होता है। इस समिति के द्वारा आरोपों का निर्धारण किया
जायेगा जिसके आधार पर मामले की जाँच की जाएगी।
- आरोप सिद्ध हो जाने पर, यह प्रस्ताव संसद के प्रत्येक सदन में प्रस्तुत किया जाता है और एक ही सत्र में सदन की कुल सदस्य संख्या
के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के न्यूनतम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है। - हालांकि, आरोप सिद्ध हो जाने के बाद भी, संसद ऐसे न्यायाधीश को हटाने के लिए बाध्य नहीं है। अंततः राष्ट्रपति द्वारा इस आशय
का आदेश जारी किया जायेगा।
न्यायाधीशों को हटाने सम्बन्धी चुनौतियाँ
- प्रवर्तन का अभाव: 1950 से अब तक इस अधिनियम का केवल तीन बार प्रयोग किया गया है। आज तक किसी भी न्यायाधीश को
इसमें उल्लिखित प्रक्रिया द्वारा सफलतापूर्वक हटाया नहीं गया है। - पारदर्शिता की कमी: इस अधिनियम में न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया गुप्त रूप से संपन्न होती है एवं न्यायाधीश अपने पद पर बना रहता है। संविधान और न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 दोनों में ही इस संदर्भ में अस्पष्टता व्याप्त है कि महाभियोग प्रस्ताव का सामना कर रहे न्यायाधीश को आरोप सिद्ध हो जाने तक अपने न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करना चाहिए या
नहीं। - न्यायपालिका का स्वयं को हटाना: न्यायालय के निर्णय की अवमानना के फलस्वरूप उसे न्यायाधीश के पद से हटाया जा सकता है। | जो न्यायिक रूप से आदेशित महाभियोग प्रक्रिया के समान है।
- जटिल प्रक्रिया: महाभियोग प्रक्रिया जटिल और लंबी है, न्यायाधीशों के पास वास्तविक रूप से कोई जवाबदेहिता नहीं होती है।
क्या अध्यक्ष द्वारा न्यायाधीशों को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव को अस्वीकृत किया जा सकता है?
- न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 की धारा 3 के अनुसार अध्यक्ष ऐसे व्यक्तियों, (यदि कोई हो, जिसे वह उपयुक्त समझे) से
परामर्श और सम्पूर्ण विषय-वस्तु उसके समक्ष रखने के पश्चात, प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार भी कर सकता है। - इससे पहले भी न्यायाधीशों को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव को निरस्त कर दिया गया था। उदाहरण के लिए; 1970 में तत्कालीन
लोकसभा अध्यक्ष जी.एस. ढिल्लों ने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जे.सी.शाह के विरुद्ध प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। - अध्यक्ष का कार्य प्रक्रिया के लिए केवल हस्ताक्षरों की आवश्यक संख्या को देखने का ही नहीं है, बल्कि स्वीकार या अस्वीकार करने से पूर्व यह भी देखना आवश्यक है कि क्या यह प्रथम दृष्टया विचारण का मामला है तथा क्या प्रस्ताव पर्याप्त साक्ष्यों पर आधारित है?
- यहां तक कि न्यायाधीशों को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव को स्वीकार करना, धारणा संचालित इस समाज में किसी की प्रतिष्ठा के लिए अनावश्यक क्षति का कारण बन सकता है। अतः, प्रस्ताव को अत्यंत सावधानीपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए।
आगे की राह
- अनुशासनात्मक कार्रवाई हेतु न्यायपालिका के बाहर प्राधिकरण: यह एक अन्य समाधान है, जिस पर चर्चा की जा रही है। हालांकि, इसमें भी कई कमियां विद्यमान हैं, यथाः ।
- न्यायिक स्वतंत्रता के लिए संभावित खतरा
- यह किसी भी निर्णय की प्रक्रिया के दौरान न्यायाधीशों में सर्वोच्च शक्ति को असंतुष्ट करने का भय उत्पन्न कर सकता है (जैसा कि आपातकाल के दौरान देखने को मिला था)।
- संविधान के तहत पूर्ण न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की गयी है तथा संसद या कार्यपालिका को न्यायिक कार्यों या निर्णयों में
हस्तक्षेप करने का कोई अवसर प्राप्त नहीं है।
- नियुक्ति- कॉलेजियम को पर्याप्त रक्षोपाय अपनाने चाहिए ताकि उच्चतर न्यायालयों में केवल उच्च क्षमतावान और उत्कृष्ट सत्यनिष्ठा वाले न्यायाधीश ही नियुक्त किए जा सकें। न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में इसे अधिक पारदर्शिता के साथ स्वीकृत करने की आवश्यकता है।
- वृहद आंतरिक विनियमन: न्यायाधीश द्वारा किए गए अनुचित व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं। इस प्रकार के दुर्व्यवहार पर त्वरित रूप से अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके लिए, संसद द्वारा एक राष्ट्रीय न्यायिक पर्यवेक्षण समिति गठित की जानी चाहिए। जो शिकायतों और जांच के परीक्षण के लिए स्वयं की प्रक्रियाओं को विकसित करेगी। इस प्रकार की समिति की संरचना से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
- उच्चतम न्यायालय की प्रतिक्रिया पर निश्चित समय-सीमा के साथ न्यायाधीशों को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव को स्वीकार करने से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण खंडपीठ के साथ सहमति होनी चाहिए जिसके बाद इसे एक समेकित सहमति मानी जाएगी।