Tribunals

विधि आयोग ने “भारत में न्यायाधिकरणों के वैधानिक ढांचों का आकलन” (असेसमेंट ऑफ स्टैचुटरी फ्रेमवर्क्स ऑफ ट्रिब्यूनल्स इन इंडिया) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है।

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने स्वतंत्रता के मुद्दों का हवाला देते हुए केन्द्रीय न्यायाधिकरण, अपीलीय न्यायाधिकरण और अन्य प्राधिकरण (अर्हता, अनुभव और सदस्यों की सेवा शर्ते) नियम 2017 की व्यवहार्यता पर रोक लगा दी है। ध्यातव्य है कि ये नियम NGT सहित सभी प्राधिकरणों में प्रमुख नियुक्तियां करते समय सरकार को प्राथमिकता देते हैं।
<h2>भारत में न्यायाधिकरण</h2>
न्यायाधिकरण एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय होता है। न्यायाधिकरण की स्थापना संसद या राज्य विधायिका के एक अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 323A या 323B के अंतर्गत इसके समक्ष प्रस्तुत किये गए विवादों को निपटाने के लिए की जाती है।

अनुच्छेद 323A और 323B को सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाविष्ट किया गया था।
<ul style=”list-style-type: circle;”>
<li> अनुच्छेद 323A प्रशासनिक न्यायाधिकरणों से संबंधित है।</li>
<li>अनुच्छेद 323B अन्य मामलों हेतु न्यायाधिकरणों से संबंधित है।</li>
</ul>
<ul>
<li> <strong>तकनीकी विशेषज्ञ:</strong> ये न्यायाधिकरण विवादों के अधिनिर्णयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विशेषकर उन विषयों में जो तकनीकी विशेषज्ञता की मांग करते हैं।</li>
<li>इन न्यायाधिकरणों को सिविल प्रक्रिया संहिता एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित किसी भी समान प्रक्रिया का | अनुपालन नहीं करना पड़ता है बल्कि उन्हें केवल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होता है।</li>
<li>इन्हें सिविल अदालतों की कुछ शक्तियाँ प्राप्त हैं जैसे, समन जारी करना और गवाहों को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति देना। इनका
निर्णय दलों पर विधिक रूप से बाध्यकारी होता है और साथ ही इसके निर्णय के विरुद्ध अपील भी की जा सकती है।</li>
</ul>
<h2>न्यायाधिकरणों के लाभ</h2>
<ul>
<li><strong>लचीलापन:</strong> प्रशासनिक न्यायनिर्णयन से न्याय प्रक्रिया में लचीलापन और अनुकूलता आई है क्योंकि ये न्यायाधिकरण प्रक्रिया
के कठोर नियमों से नियंत्रित नहीं हैं और सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के परिवर्तनशील चरणों से सामंजस्य स्थापित करते हुए कार्य करते हैं।</li>
<li><strong>कम खर्चीले:</strong> पारंपरिक न्यायालय प्रणाली के उपयोग के स्थान पर इन न्यायाधिकरणों को अपेक्षाकृत कम औपचारिकताओं के साथ विवादों के कम खर्च में तथा शीघ्र निपटारे के लिए स्थापित किया गया है।</li>
<li><strong>न्यायालयों की भारमुक्ति:</strong> यह सामान्य न्यायालयों को अत्यधिक आवश्यक राहत प्रदान करता है, जिन पर पहले से ही अनेकों
मुकदमों का अतिरिक्त बोझ है।</li>
</ul>
<h2>न्यायाधिकरणों से संबंधित समस्याएं</h2>
न्यायाधिकरणों पर अति-निर्भरता: विवादों का समाधान करने के लिए न्यायाधिकरण पर अधिक निर्भरता की निम्नलिखित कारणों से आलोचना की गई हैः ।
<ul>
<li><strong> शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन:</strong> न्यायाधिकरण, न्यायालय नहीं है और इसे कार्यपालिका द्वारा आंशिक रूप से | नियंत्रित और व्यवस्थित किया जाता है। यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध है और कार्यपालिका को अधिनिर्णयन जैसे न्यायिक प्रकृति के कार्य करने की अनुमति देता है।</li>
<li><strong>न्यायपालिका के प्राधिकार को कमजोर करना:</strong> यह अपीलीय न्यायालयों के रूप में उच्च न्यायालयों की भूमिका को प्रतिकूल
रूप से प्रभावित करता है और उन्हें न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति से वंचित करता है। सांविधिक न्यायालयों | (न्यायाधिकरण) पर संवैधानिक न्यायालयों (उच्च न्यायालयों) की सर्वोच्चता के सिद्धांत से समझौता किया गया है।</li>
<li><strong> हितों का संघर्ष:</strong> संविधान अर्हता, नियुक्ति की शर्ते, कार्यकाल और पद से हटाने की रीति के मामले में न्यायपालिका की
स्वतंत्रता की रक्षा करता है किन्तु यह स्वतंत्रता न्यायाधिकरणों के सदस्यों के लिए उपलब्ध नहीं है। ये कार्यपालिका के नियंत्रण के अधीन हैं जो स्वयं देश में सर्वाधिक संख्या में याचिकाएं दायर करती है। इसके फलस्वरूप हितों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न
होती है।</li>
<li><strong> वादों के लंबित रहने की अवधि में वृद्धिः</strong> सभी न्यायाधिकरणों में वादों के लंबित रहने की औसत अवधि 3.8 वर्ष है, साथ ही
अनिर्णीत मामलों में 25% की वृद्धि हुई है। जबकि उच्च न्यायालयों में वादों के लंबित रहने की औसत अवधि 4.3 वर्ष है।</li>
<li> <strong>उच्चतम न्यायालय का महज अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य करना:</strong> न्यायाधिकरण से सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील
करने के अधिकार ने उच्चतम न्यायालय को संवैधानिक न्यायालय से महज एक अपीलीय न्यायालय बना दिया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा निपटाए जाने वाले संवैधानिक मामलों की संख्या में धीरे-धीरे कमी आ रही है। 2014 में 884 निर्णय दिए गए
जिनमें से केवल 64 निर्णय संवैधानिक मामलों से संबंधित थे।</li>
<li>न्यायाधिकरण अनेक बार त्वरित न्याय देने में अक्षम सिद्ध हुए हैं जो शीर्ष न्यायालय में वादी के विश्वास को कमजोर करता है।</li>
</ul>
<h2>उच्च न्यायालय की उपेक्षा से उत्पन्न समस्याएं</h2>
<ul>
<li>न्यायाधिकरण को उच्च न्यायालयों के समान संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है क्योंकि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और सेवा शर्ते कार्यपालिका के नियंत्रण में नहीं होती हैं। कई न्यायाधिकरण अभी भी अपने मूल मंत्रालयों के प्रति निष्ठा रखते हैं।</li>
<li>भौगोलिक रूप से देशभर में पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण उच्च न्यायालयों के समान न्यायाधिकरण भी सुलभ नहीं हैं। यह न्याय को महँगा और न्याय तक पहुँच को मुश्किल बनाता है।</li>
<li>जब उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश प्रत्येक न्यायाधिकरण की अध्यक्षता करते हैं, इससे न्यायाधिकरण की स्थापना के पीछे का यह तर्क निरस्त हो जाता है कि न्यायाधिकरण विशेषज्ञ अभियोजन के उद्देश्य से स्थापित किए गए हैं।</li>
<li>न्यायाधिकरण से सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार ने उच्चतम न्यायालय को संवैधानिक न्यायालय से महज एक अपीलीय न्यायालय बना दिया है तथा इस कारण से उच्चतम न्यायालय में हजारों मामले लंबित हो गये हैं। अत्यधिक मामलों के लंबित होने का दबाव न्यायालय के निर्णयों की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है।</li>
<li>न्यायाधिकरण के निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई करने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कानून के विशिष्ट क्षेत्रों के तहत उत्पन्न विवादों की सूक्ष्म बारीकियों का एकदम पहली बार सामना करना पड़ता है। यह स्थिति अंतिम विकल्प के रूप में देखे
जाने वाले न्यायालय के लिए उपयुक्त नहीं है।</li>
</ul>
<h2>आगे की राह</h2>
भारतीय विधि आयोग ने अपनी 272वीं रिपोर्ट में देश में न्यायाधिकरण प्रणाली की कार्य पद्धति में सुधार करने के लिए एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की है।
<h3> न्यायाधीशों की अर्हता</h3>
उच्च न्यायालय (या जिला न्यायालय) के न्यायाधिकार क्षेत्र को एक न्यायाधिकरण में स्थानांतरित करने के
मामले में, नए गठित न्यायाधिकरण के सदस्यों को उच्च न्यायालय (या जिला न्यायालय) के न्यायाधीशों के समान अहर्ता धारण करनी चाहिए।
<h3><strong> न्यायाधिकरण के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति</strong></h3>
<ul>
<li>विधि आयोग ने न्यायाधिकरण के कामकाज की निगरानी के लिए यथासंभव कानून मंत्रालय के तहत एक कॉमन नोडल एजेंसी स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है।न्यायाधिकरण के कामकाज की निगरानी के साथ-साथ यह एजेंसी न्यायाधिकरण में नियुक्त सभी सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा शर्तों में एकरूपता सुनिश्चित करेगी। नियुक्ति की प्रक्रिया को समय से प्रारंभ करके न्यायाधिकरण में होने वाली रिक्तियों को शीघ्रता से भरा जाना चाहिए।</li>
<li>नियुक्ति की प्रक्रिया को रिक्ति से लगभग छः महीने पूर्व प्रारंभ करना ज्यादा उचित होगा।</li>
</ul>
<strong> न्यायाधिकरणों के सदस्यों का चयन</strong>
<ul>
<li>आयोग द्वारा कहा गया है कि सदस्यों का चयन निष्पक्ष तरीके से होना चाहिए।  चयन में सरकारी एजेंसियों की न्यूनतम भागीदारी होनी चाहिए, क्योंकि सरकार अभियोजन में एक पक्ष के रूप में शामिल होती है।</li>
<li>न्यायिक और प्रशासनिक, दोनों सदस्यों के लिए पृथक चयन समिति गठित की जानी चाहिए।</li>
</ul>
<h3><strong> कार्यकाल</strong></h3>
<ul>
<li>अध्यक्ष को 3 वर्ष के लिए या 70 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए। जबकि उपाध्यक्ष और सदस्यों को 3 वर्ष के लिए या 67 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए।</li>
</ul>
<h3>न्यायिक समीक्षा</h3>
न्यायाधिकरण के किसी भी आदेश को उस उच्च न्यायालय की खंड पीठ के समक्ष चुनौती दी जा सकती है, जिसके क्षेत्राधिकार के अधीन वह न्यायाधिकरण या उसका अपीलीय मंच आता है, क्योंकि न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषता है। ऐसी ही अनुशंसा एल. चंद्रकुमार बनाम भारत संघ वाद में की गई थी।
<h3>न्यायाधिकरण की बेंचों की स्थापना</h3>
<ul>
<li>देश के विभिन्न भागों में न्यायाधिकरण की बेंचों की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे लोगों की न्याय तक आसान पहुँच हो सके। वस्तुतः आदर्श रूप में जहाँ-जहाँ उच्च न्यायालय स्थित हैं, उन स्थानों पर न्यायाधिकरण की बेंचों की स्थापना की जानी चाहिए।</li>
</ul>